Thursday, 18 September 2025
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यदि इनके त्यागपत्र पहले ही स्वीकार कर लिये जाते तो इस खर्च से बचा जा सकता था ?

  • जब कांग्रेस के अपने ही विधायक सरकार में उपेक्षित महसूस कर रहे थे तो निर्दलीय कैसे भरोसा करते
  • क्या सरकार और संगठन में तालमेल के अभाव के आरोप स्वयं पार्टी अध्यक्षा ने नही लगाये हैं?
  • क्या हाईकमान तक यह आरोप नहीं पहुंचे थे ?
  • उपचुनाव के लिये निर्दलीयों को ही जिम्मेदार मानना सही नहीं होगा।
  • क्या इन उपचुनावों के लिये सत्ता पक्ष ज्यादा जिम्मेदार नहीं है?
शिमला/शैल। प्रदेश में होने जा रहे तीन उपचुनावों में यह प्रश्न केन्द्रीय प्रश्न होता जा रहा है कि इन उपचुनावों के लिये जिम्मेदार कौन है? क्योंकि अभी लोकसभा के साथ ही प्रदेश विधानसभा के लिये भी छः उपचुनाव हुये हैं । क्या यह उपचुनाव भी उन्हीं के साथ नहीं हो सकते थे? क्योंकि जिन निर्दलीय विधायकों के स्थानों पर यह उपचुनाव होने जा रहे हैं उन्होंने भी राज्यसभा चुनाव में भाजपा के पक्ष में मतदान करने के बाद अपने पदों से त्यागपत्र देकर भाजपा ज्वाइन कर ली थी । यदि उनके त्यागपत्रों को तभी स्वीकार कर लिया जाता तो यह चुनाव भी साथ ही हो जाते। आज जो इन चुनावों के लिये करीब 30- 40 करोड़ का खर्च होने जा रहा है उस से बचा जा सकता था। इसलिये इन उपचुनावों के लिये इन निर्दलीयों के साथ ही सत्ता पक्ष की राजनीति भी बराबर की जिम्मेदार है।इसी सवाल का दूसरा पक्ष है कि इन निर्दलीयों को अपने पदों से त्यागपत्र देने की नौबत क्यों आयी? यह निर्दलीय राज्यसभा चुनाव तक हर मुद्दे पर सत्ता पक्ष के साथ खड़े रहे है। फिर उन्हें त्यागपत्र देकर भाजपा में शामिल होने की क्या आवश्यकता खड़ी हुई ?इस सवाल का जवाब तलाशने के लिये कांग्रेस सरकार और संगठन के रिश्तों और इसका आम आदमी पर क्या प्रभाव पड़ा इस पर नजर डालना आवश्यक हो जाता है। स्मरणीय है कि सुक्खु सरकार ने सत्ता संभालते ही अपने शासन का मूल सूत्र व्यवस्था परिवर्तन जनता को परोसा।इस सूत्र के तहत प्रशासन के शीर्ष से लेकर नीचे तक कोई परिवर्तन नहीं हुआ। जो प्रशासन भाजपा शासन काल में फील्ड में प्रभावी चल रहा था नई सरकार में भी वही यथास्थिति बन रहा है। इससे कांग्रेस का कार्यकर्ता अपने आप को सरकार के साथ नहीं जोड़ पाया। भाजपा शासन के अंतिम छः माह के फैसले बदलते हुए करीब एक हजार नये खोले गये कार्यालय बंद कर दिए गये और भाजपा को पहले पखवाड़े में ही विरोध प्रदर्शन का मुद्दा थमा दिया। भाजपा मन्त्रीमंडल के विस्तार से पहले ही प्रदेशभर में सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन पर आ गयी। सरकार ने यह संस्थान बंद करने के लिये प्रदेश की नाजुक वित्तीय स्थिति का तर्क जनता के सामने रखा। यहां तक बताया कि प्रदेश के हालात श्रीलंका जैसे हो सकते हैं। तुरंत प्रभाव से डीजल और पेट्रोल पर वैट बढ़ा दिया। जनता को लगा कि शायद सही में प्रदेश की वित्तीय स्थिति नाजुक है। लेकिन इस धारणा को तब पहले धक्का लगा जब मंत्रिमंडल विस्तार से पहले ही छः मुख्य संसदीय सचिवों को मुख्यमंत्री ने पद और गोपनीयता की शपथ दिला दी। फिर मंत्रिमंडल विस्तार में क्षेत्रीय असंतुलन सामने आ गया। मंत्रियों के तीन पद खाली रखे गये। लेकिन इसी के साथ सरकार में गैर विधायकों में से विशेष कार्य अधिकारी और सलाहकारों के इतने पद भर दिए जो शायद संख्या में मंत्रियों से भी अधिक हो गये। अधिकांश को कैबिनेट का दर्जा देना पड़ा। इसमें भी जिला शिमला की भागीदारी ज्यादा हो गयी। इस सब का असर यह हुआ कि संगठन और सरकार में तालमेल का अभाव उभरने लगा। इस तालमेल के अभाव के आरोपों को लेकर हाईकमान तक शिकायतें पहुंची। पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष रहे राजेन्द्र राणा को खुले पत्र लिखने पड़ गये। सरकार के अधिकारियों पर भ्रष्टाचार के आरोपों के शिकायत पत्र वायरल हो गये। संगठन और सरकार में तालमेल न होने की शिकायतें स्वयं पार्टी अध्यक्षा ने हाईकमान के सामने रखी। इसी तालमेल के अभाव की व्यवहारिक सच्चाई के चलते पार्टी अध्यक्षा को यहां तक कहना पड़ा कि लोकसभा चुनाव में कार्यकर्ता फील्ड में नहीं निकलेगा। स्वयं सांसद का चुनाव लड़ने से इन्कार कर दिया जबकि जयराम सरकार में उपचुनाव में उन्होंने यह सीट जीती थी। जब सरकार और संगठन में तालमेल के अभाव के आरोप इस स्तर पर मुखर हो जाये और हाईकमान अपने ही कारणों से ऐसी शिकायतों पर कारवाई न कर पाये तो ऐसी वस्तुस्थिति का आम आदमी पर क्या प्रभाव पड़ेगा इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। जब मंत्रिपरिषद का विस्तार करके दो मंत्रियों को शामिल किया गया तो उनको विभागों का आवंटन करने में ही इतना समय लगा दिया गया जो उनके धैर्य और आत्म सम्मान की परीक्षा के मुकाम तक पहुंच गया। हिमाचल के लिये हाई कमान गौण होकर रह गई क्योंकि समन्वय कमेटी भी कागजी गठन होकर रह गयी। ऐसी वस्तु स्थिति में कौन आदमी ऐसी व्यवस्था से जुड़ना चाहेगा। इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। जब पार्टी के अपने ही विधायकों के खुले रोष का संज्ञान नहीं दिया जायेगा तो अपने आत्म सम्मान की कीमत पर कोई विधायक पार्टी नेतृत्व के साथ चल पायेगा। कांग्रेस के बागियों ने अपने रोष को मुखर करने के लिये राज्यसभा में क्रॉस वोटिंग करने का निर्णय लिया। जब कांग्रेस के अपने ही विधायक इस सीमा तक उपेक्षित महसूस करने लग गये थे तो निर्दलीय विधायक अपने विधानसभा क्षेत्र से जुड़े मसलों के हल होने के लिये सरकार पर कितना भरोसा कर सकते थे। क्योंकि वह तो कांग्रेस और भाजपा दोनों को हराकर विधानसभा पहुंचे थे। इसलिए आज इन उपचुनावों के लिये निर्दलीयों को ही दोषी ठहरना गलत होगा। यदि सत्ता पक्ष अपनी राजनीतिक चालों से ऊपर उठकर निर्दलीयों के त्यागपत्र स्वीकार होने देता और यह चुनाव भी साथ ही हो जाते तब सत्ता पक्ष का सवाल ज्यादा भारी पड़ता। इस समय इन उपचुनावों के लिये विधायकों के बिकने और भाजपा के धन बल प्रयोग का आरोप अपने में ही तर्कहीन हो जाता है क्योंकि लोकसभा में कांग्रेस 68 में से 61 विधानसभा क्षेत्र में हार चुकी है। लोकसभा चुनावों में जो वोट शेयर बढ़ाने का दावा किया जा रहा है उसका सच यह है कि इस चुनाव में विपक्षी एकता के नाम पर वांमदल सरकार के साथ खड़े थे और प्रदेश में उनका अपना इतना आधार मौजूद है।

यह उप चुनाव सुक्खू और अनुराग की प्रतिष्ठा का टैस्ट होंगे

  • हमीरपुर संसदीय क्षेत्र में है दो उपचुनाव
  • यदि निर्दलीयों के त्यागपत्र पहले ही स्वीकार हो जाते तो प्रदेश इस खर्च से बच जाता
शिमला/शैल। प्रदेश में फिर तीन उपचुनाव होने जा रहे हैं। क्योंकि तीनों निर्दलीय विधायकों के त्यागपत्र बाद में स्वीकार किये गये। जबकि इन लोगों ने भी फरवरी में हुये राज्यसभा चुनाव में भाजपा प्रत्याशी हर्ष महाजन के पक्ष में मतदान करने के बाद अपनी विधायकी से त्यागपत्र देकर भाजपा में शामिल हो गये थे। लेकिन इनके त्यागपत्रों को कानूनी दाव पेचों में उलझाकर उनके मामले को लटका दिया गया था। दो कांग्रेस विधायकों अवस्थी और गौड़ की शिकायत पर आशीष शर्मा और बागी विधायक चैतन्य शर्मा के पिता राकेश शर्मा के खिलाफ बालूगंज थाना में एक मामला तक दर्ज कर दिया गया। यही नहीं राजस्व मंत्री जगत सिंह नेगी की शिकायत पर दल बदल कानून के तहत भी मामला चलाया गया। यह आरोप लगाया गया कि इन्होंने स्वेच्छा से अपनी विधायकी से त्यागपत्र नहीं दिया है। पुलिस जांच का मुख्य बिन्दु ही इनं त्यागपत्रों और फिर भाजपा में शामिल होने के पीछे धन बल का दबाव रहना बनाया गया था। लेकिन इन मामलों के लंबित रहते ही विधानसभा अध्यक्ष द्वारा उनके त्यागपत्रों को स्वीकार कर लिये जाने से कांग्रेस के विधायकों और राजस्व मंत्री द्वारा लगाये गये आरोपों की धार स्वतः ही कुन्द होकर यह आरोप स्वतः ही सत्ता पक्ष को चुभने के कगार पर पहुंच गये हैं। भाजपा ने इनके पार्टी में शामिल होते ही इन्हें उनके क्षेत्रों से उम्मीदवार घोषित कर दिया था। अब इन उपचुनाव की अधिसूचना जारी होते ही भाजपा ने उनकी उम्मीदवारी की पुष्टि भी कर दी है। अब इनके खिलाफ जब यह सवाल उठाया जा रहा है कि इन्होंने विधायकी से त्यागपत्र क्यों दिये और प्रदेश के खजाने पर उपचुनावों का बोझ क्यों डाला? अब इस सवाल का बड़ा हिस्सा स्वतः ही उस बिन्दु की ओर मुड़ जाता है की इनके त्यागपत्रों की स्वीकृति को लटकाये क्यों रखा गया है। इनके खिलाफ दायर मामले मामलों का कोई फैसला आने से पहले ही यह त्यागपत्र इसलिये स्वीकार कर लिये गये क्योंकि इनके खिलाफ प्रमाणिक रूप से ऐसा कुछ भी शायद रिकॉर्ड पर नहीं आ रहा था जिसके आधार पर इन्हें दण्डित किया जा सकता। यदि यह उपचुनाव भी पिछले उप चुनावों के साथ ही होने दिये जाते तो आज अतिरिक्त खर्चे से बचा जा सकता था। इसलिए इन उपचुनावों के लिये उन्हें दोषी ठहरने का तर्क आत्मघाती हो सकता है। लोकसभा की चारों सीटें भाजपा द्वारा जीतने के बाद भी हिमाचल को केंद्रीय मंत्री परिषद में स्थान नहीं मिला है। अनुराग ठाकुर लगातार पांच बार लोकसभा जीत गये हैं लेकिन इस बार मंत्री नहीं बन पाये हैं क्योंकि उनके ही संसदीय क्षेत्र हमीरपुर से भाजपा तीन विधानसभा उपचुनाव हार गयी। जबकि इन तीनों स्थानों पर लोकसभा के लिये भाजपा को बढ़त मिली है। यदि जनता ने मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू और कांग्रेस सरकार की मजबूती के लिये कांग्रेस के पक्ष में वोट दिया है तो उस तर्क से तो सभी छः सीटों पर कांग्रेस की जीत होनी चाहिये थी लेकिन ऐसा हुआ नहीं है। इस उपचुनाव में भाजपा की चारों सीटों पर हार अनचाहे ही अनुराग-धूमल के नाम लगायी जा रही है और इस हार के कारण ही अनुराग शायद मंत्री परिषद से बाहर गये हैं। अब फिर तीन में दो उप चुनाव अनुराग के ही संसदीय क्षेत्र में हो रहे हैं। इसलिए यह उपचुनाव एक तरह से मुख्यमंत्री सुखविन्दर सिंह और अनुराग ठाकुर के लिए व्यक्तिगत प्रतिष्ठा का प्रश्न बन जाएंगे। क्योंकि एक को यह प्रमाणित करना है कि उसने पार्टी के फैसले के खिलाफ कोई आचरण नहीं किया है। दूसरे को यह सिद्ध करना है कि जनता कांग्रेस सरकार और मुख्यमंत्री सुक्खविन्दर सिंह सुक्खू के साथ है। वैसे लोकसभा चुनाव में मुख्यमंत्री के अपने विधानसभा क्षेत्र नादौन में कांग्रेस को मिली हार स्वतः ही दावे पर प्रश्न चिन्ह लगा देती है।

3-10 June 2024 Shail

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