Saturday, 20 December 2025
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इन उपचुनावों में भाजपा की नीयत और नीति पर उठाये सवाल

भाजपा नेतृत्व आक्रामकता से पीछे हटा नजर आ रहा
कांग्रेस से ज्यादा भाजपा नेतृत्व के लिए कसौटी होते जा रहे यह उपचुनाव
शिमला/शैल। क्या इन उपचुनाव में भाजपा सफलता हासिल कर पायेगी? यह सवाल इसलिये उठ रहा है क्योंकि लोकसभा में जहां भाजपा ने प्रदेश की चारों लोकसभा सीटों पर 2014 और 2019 की तरह इस बार भी कब्जा कर लिया है वहीं पर भाजपा छः विधानसभा उपचुनावों में से चार हार गई है। जबकि भाजपा का शीर्ष नेतृत्व लगातार यह फैला रहा था कि इन चुनावों के बाद प्रदेश की सरकार गिर जायेगी। लेकिन ऐसा हुआ नहीं और यह हार भाजपा के आपसी तालमेल में अभाव और सरकार के साथ रिश्तों की घनिष्ठता पर उठते सवालों के नाम लगी। अब इन तीन उपचुनावों में भाजपा को यह प्रमाणित करना है कि उसमें कोई गुटबाजी नहीं है और जनता में उसकी सवीकार्यता बराबर बनी हुई है। इसलिए उसने 68 में से 61 विधानसभा क्षेत्र में जीत हासिल की थी। इस परीक्षा में यह उपचुनाव प्रदेश भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को अपने को प्रमाणित करने का अवसर होगा। अन्यथा यही कहा जायेगा कि लोकसभा की जीत तो मोदी के नाम पर हो गयी। लेकिन प्रदेश स्तर पर स्थानीय नेतृत्व अपनी प्रासंगिकता खोता जा रहा है।
विधानसभा के लिये उपचुनावों की स्थिति क्यों पैदा हुई पूरा प्रदेश जानता है। सरकार और कांग्रेस लगातार यह कहती आ रही है कि भाजपा धनबल के सहारे सरकार गिराने का प्रयास कर रही है। दूसरी और भाजपा और उपचुनाव में गए सारे कांग्रेस के बागी और निर्दलीय मुख्यमंत्री के अपेक्षा पूर्ण व्यवहार को इसका कारण बताते आ रहे हैं। मुख्यमंत्री और कांग्रेस पूरी आक्रामकता के साथ विधायकों के बिकाऊ होने तथा हर बार अपने व्यक्तिगत कामों के लिये ही उनके पास आने का आरोप लगाते आ रहे हैं। जबकि इन नौ लोगों ने सरकार पर भ्रष्टाचार के संगीत आरोप लगाये हैं। मुख्यमंत्री की पक्षपात पूर्ण कार्यप्रणाली पर सवाल उठाये हैं। लेकिन भाजपा नेतृत्व इन नौ लोगों द्वारा उठाये गये आरोपों को इस आक्रामकता के साथ आगे नहीं बढ़ा पाया है। जबकि चुनाव में आक्रामकता ही सबसे बड़ा हथियार होती है।
यह सही है कि जयराम के शासनकाल भाजपा ने कांग्रेस सरकार के खिलाफ दायर किये अपने ही आरोप पत्रों पर कोई कारवाई नहीं की है। बल्कि जब भाजपा के जिला स्तरीय दफ्तरों के लिए जमीन खरीदी का मुद्दा आया था तब सुखविंदर सिंह सुक्खू ने बिलासपुर की खरीद पर कुछ गंभीर सवाल किये थे। सुखविंदर सिंह सुक्खू के इन सवालों का जवाब तब हमीरपुर में जिले के भाजपा विधायकों और अन्य पदाधिकारी ने एक पत्रकार वार्ता के माध्यम से सुक्खू की अपनी जमीन खरीद पर सवाल उठाये थे। इन सवालों और प्रति सवालों के बाद दोनों ओर से युद्ध विराम हो गया था। आज भी भाजपा और सुक्खू सरकार में शायद वही विराम चल रहा है। बल्कि जो सवाल उपचुनावों के पात्र बने नौ लोग उठा रहे हैं उन मुद्दों को भी भाजपा नेता गंभीरता से आगे नहीं बढ़ा रहे हैं। इस समय नेता प्रतिपक्ष पूर्व मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर जिस तर्ज में सरकार के गिरने की बातें कर रहे हैं उसके अनुरूप उनके व्यावहारिक कदम नहीं हो रहे हैं। इस समय भाजपा पर यह आरोप है कि वह धन बल के सहारे सरकार गिराना चाहती है। कांग्रेस से बाहर गये लोग मुख्यमंत्री को ही इस सारी स्थिति के लिये जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। इन लोगों ने जो सवाल मुख्यमंत्री से सार्वजनिक रूप से पूछे हैं उनका कोई जवाब नहीं आया है। यह सवाल असहज कर देने वाले हैं लेकिन इनके साथ भाजपा नेतृत्व अपनी संबद्धता और समर्थन नहीं दिखा पा रहा है और इसी से उसकी नीयत और नीति पर सवाल उठ रहे हैं। इससे सरकार गिरने-गिराने के दावे राजनीतिक औपचारिकता से अधिक नहीं बढ़ पा रहे हैं। जबकि इस समय आयकर की छापेमारी के बाद प्रदेश का राजनीतिक वातावरण कुछ अलग ही संकेत दे रहा है। ऐसे में यह उपचुनाव कांग्रेस और मुख्यमंत्री से ज्यादा भाजपा के लिये राजनीतिक विश्वसनीयता की परीक्षा बनते जा रहे हैं। क्योंकि देहरा में मुख्यमंत्री की पत्नी के चुनावी शपथ पत्र पर भाजपा प्रत्याशी होशियार सिंह की शिकायत ने एक अलग ही स्थिति पैदा कर दी है। जिसके परिणाम इन चुनावों के परिणाम आने के बाद स्पष्ट होंगे।

आने वाले दिनों में केंद्र की अन्य एजैन्सीयों के दखल की संभावना

  • विलेज कामन लैण्ड की खरीद बेच के आरोप
  • कुछ प्रभावशाली लोगों के पास आज भी सीलिंग से अधिक जमीन
  • अढ़ाई लाख में जमीन खरीद कर सरकार को छः करोड़ से अधिक में कैसे बिकी
  • जिलाधीश ने कैसे इस प्रक्रिया को अंजाम दिया

शिमला/शैल। क्या हिमाचल में केंद्रीय जांच एजैन्सीयों का दखल बढ़ने जा रहा है? क्या इस दखल का प्रभाव प्रदेश की राजनीति पर भी पड़ेगा? यह सवाल अभी हमीरपुर और नादौन क्षेत्रों के कुछ स्थानों पर कुछ प्रभावशाली लोगों के ठिकानों पर हुई आयकर विभाग की 38 घंटे की छापेमारी के बाद चर्चा में आ खड़े हुये हैं। हमीरपुर में विधानसभा के लिये उपचुनाव का चुनाव प्रचार चल रहा है। इस चुनाव प्रचार में यह छापेमारी एक बड़े मुद्दे के रूप में उछल रही है। क्योंकि लोकसभा चुनावों के दौरान यहां पर एक वीडियो वायरल हुआ था। उस वीडियो में कांगड़ा सैन्ट्रल कोऑपरेटिव बैंक के किसी 16 करोड़ के ऋण को 50 लाख के लेनदेन से बट्टे खाते में डालने की चर्चा थी। इस वीडियो का प्रदेश सरकार और उसकी एजैन्सीयों ने कोई संज्ञान नहीं लिया था। इस वीडियो को लेकर संबंधित व्यक्ति द्वारा एक एफआईआर दर्ज करवाने की बात जरूर उठी थी। लेकिन पुलिस की साइट पर ऐसी कोई एफआईआर अपलोड हुई नहीं मिली थी। न ही इस एफआईआर की कोई जांच होना सामने आयी थी। इसी तरह के लोकसभा चुनाव के दौरान ही धर्मशाला विधानसभा उपचुनाव में भाजपा प्रत्याशी अब विधायक सुधीर शर्मा ने एचआरटीसी को नादौन में अढ़ाई लाख में खरीदी गयी जमीन 6 करोड़ 72 लाख में दिये जाने का मुद्दा उछाला था। सुधीर शर्मा ने अढ़ाई लाख में इस कथित जमीन की मूल सेल पर ही सवाल खड़े किये थे। सुधीर शर्मा ने डमटाल में किसी कारोबारी का 250 करोड़ का जीएसटी माफ किये जाने के मामले पर भी सवाल खड़े किए थे। लेकिन इन मुद्दों पर सरकार की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं आयी। किसी ने भी यह नहीं कहा कि ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है। जबकि सरकार की कार्यशैली पर यह गंभीर सवाल थे। बल्कि इसी चुनाव के दौरान कुटलैहड़ से भाजपा प्रत्याशी के रूप में उप चुनाव लड़ रहे देवेंद्र भूट्टों और उसके बेटे के खिलाफ प्रशासन की शिकायत पर दो एफआईआर दर्ज होने के मामले सामने आये। इस परिदृश्य में यह सन्देश अनचाहे ही चला गया कि सरकार या उसके निकटतम के खिलाफ चाहे कितने भी गंभीर मामले क्यों न हो उनके खिलाफ कोई कारवाई नहीं होगी। यहां यह स्मरणीय है कि जब राज्यसभा चुनाव में छः कांग्रेसी विधायकों ने भाजपा के पक्ष में क्रॉस वोटिंग कर दी थी तो कांग्रेस की राजनीति में भूचाल आ गया था। कांग्रेसियों की ही तर्ज पर तीनों निर्दलीयों ने भी भाजपा के पक्ष में मतदान कर दिया। जबकि यह लोग हर मुद्दे पर कांग्रेस को समर्थन देते आ रहे थे। इस क्रॉस वोटिंग के बाद कांग्रेस के छः लोग सदन और पार्टी से दलबदल कानून के तहत बाहर हो गये निर्दलीयों ने भी अपने पदों से त्यागपत्र देकर भाजपा का दामन थाम लिया। लेकिन निर्दलीयों के त्यागपत्र स्वीकार करने में कितना समय लगा दिया गया और क्या-क्या कानूनी दावपेच सामने आये यह प्रदेश ने देखा है। कैसे बालूगंज थाना में आशीष शर्मा और राकेश शर्मा के खिलाफ एफआईआर दर्ज हुई यह पूरे प्रदेश में देखा है। उस दौरान जो राजनीतिक आचरण सामने आया उससे यह स्पष्ट हो गया था कि अब लड़ाई व्यक्तिगत रंजिश के स्तर पर पहुंचा दी गई है। चर्चा है कि चुनावों के बाद इन सारे विद्रोहियों ने प्रदेश की पूरी स्थिति सारे प्रमाणिक दस्तावेजों के साथ केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के पास रखी है और शाह ने उन्हें उचित कारवाई का भरोसा दिया है। स्मरणीय है कि सुक्खू सरकार ने प्रदेश के लैण्ड सीलिंग एक्ट में संशोधन करके उसमें बेटियों के लिये अलग यूनिट सुरक्षित रखने का प्रावधान किया है। यह संशोधित विधेयक राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिये अभी लंबित पड़ा है। लेकिन सरकार के संशोधन से यह सवाल खड़ा हो गया है कि 1974 में बने लैण्ड सीलिंग एक्ट के बाद आज 2023-24 में भी प्रदेश में ऐसे कितने मामले कहां-कहां पर हैं। जहां पर लैण्ड सीलिंग एक्ट पर अमल न होकर लैण्ड सीलिंग सीमा से अधिक जमीन किसी के पास है। राजस्व विभाग के पास इस आश्य का कोई अध्ययन नहीं है। यहां पर यह भी उल्लेखनीय है कि शायद राजा नादौन की जागीर पर लैण्ड सीलिंग के प्रावधान इतने भर ही लागू हुये हैं कि लैण्ड सीलिंग मानकों के तहत कितने के हकदार राजा नादौन बनते थे वह उनको दे दी गई और शेष बची एक लाख कनाल से अधिक जमीन विलेज कामन लैण्ड घोषित हो गयी थी। कानून के मुताबिक विलेज कामन लैण्ड की खरीद बेच नहीं हो सकती। बल्कि सुप्रीम कोर्ट ने जनवरी 2011 में राज्यों के मुख्य सचिवों को स्थाई निर्देश पारित किये हैं कि ऐसी जमीनों को प्रोटेक्ट किया जाये और इसकी सूचना समय-समय पर शीर्ष अदालत को दी जाये। नादौन में शायद न तो लैण्ड सीलिंग के मानको और न ही सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के अनुपालना हो पायी है। शायद अब यह मामला केंद्रीय एजैन्सीयों के संज्ञान में आ चुका है। माना जा रहा है कि आने वाले दिनों में केंद्र की दूसरी एजैन्सीयां भी प्रदेश में दखल देंगी।

यदि इनके त्यागपत्र पहले ही स्वीकार कर लिये जाते तो इस खर्च से बचा जा सकता था ?

  • जब कांग्रेस के अपने ही विधायक सरकार में उपेक्षित महसूस कर रहे थे तो निर्दलीय कैसे भरोसा करते
  • क्या सरकार और संगठन में तालमेल के अभाव के आरोप स्वयं पार्टी अध्यक्षा ने नही लगाये हैं?
  • क्या हाईकमान तक यह आरोप नहीं पहुंचे थे ?
  • उपचुनाव के लिये निर्दलीयों को ही जिम्मेदार मानना सही नहीं होगा।
  • क्या इन उपचुनावों के लिये सत्ता पक्ष ज्यादा जिम्मेदार नहीं है?
शिमला/शैल। प्रदेश में होने जा रहे तीन उपचुनावों में यह प्रश्न केन्द्रीय प्रश्न होता जा रहा है कि इन उपचुनावों के लिये जिम्मेदार कौन है? क्योंकि अभी लोकसभा के साथ ही प्रदेश विधानसभा के लिये भी छः उपचुनाव हुये हैं । क्या यह उपचुनाव भी उन्हीं के साथ नहीं हो सकते थे? क्योंकि जिन निर्दलीय विधायकों के स्थानों पर यह उपचुनाव होने जा रहे हैं उन्होंने भी राज्यसभा चुनाव में भाजपा के पक्ष में मतदान करने के बाद अपने पदों से त्यागपत्र देकर भाजपा ज्वाइन कर ली थी । यदि उनके त्यागपत्रों को तभी स्वीकार कर लिया जाता तो यह चुनाव भी साथ ही हो जाते। आज जो इन चुनावों के लिये करीब 30- 40 करोड़ का खर्च होने जा रहा है उस से बचा जा सकता था। इसलिये इन उपचुनावों के लिये इन निर्दलीयों के साथ ही सत्ता पक्ष की राजनीति भी बराबर की जिम्मेदार है।इसी सवाल का दूसरा पक्ष है कि इन निर्दलीयों को अपने पदों से त्यागपत्र देने की नौबत क्यों आयी? यह निर्दलीय राज्यसभा चुनाव तक हर मुद्दे पर सत्ता पक्ष के साथ खड़े रहे है। फिर उन्हें त्यागपत्र देकर भाजपा में शामिल होने की क्या आवश्यकता खड़ी हुई ?इस सवाल का जवाब तलाशने के लिये कांग्रेस सरकार और संगठन के रिश्तों और इसका आम आदमी पर क्या प्रभाव पड़ा इस पर नजर डालना आवश्यक हो जाता है। स्मरणीय है कि सुक्खु सरकार ने सत्ता संभालते ही अपने शासन का मूल सूत्र व्यवस्था परिवर्तन जनता को परोसा।इस सूत्र के तहत प्रशासन के शीर्ष से लेकर नीचे तक कोई परिवर्तन नहीं हुआ। जो प्रशासन भाजपा शासन काल में फील्ड में प्रभावी चल रहा था नई सरकार में भी वही यथास्थिति बन रहा है। इससे कांग्रेस का कार्यकर्ता अपने आप को सरकार के साथ नहीं जोड़ पाया। भाजपा शासन के अंतिम छः माह के फैसले बदलते हुए करीब एक हजार नये खोले गये कार्यालय बंद कर दिए गये और भाजपा को पहले पखवाड़े में ही विरोध प्रदर्शन का मुद्दा थमा दिया। भाजपा मन्त्रीमंडल के विस्तार से पहले ही प्रदेशभर में सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन पर आ गयी। सरकार ने यह संस्थान बंद करने के लिये प्रदेश की नाजुक वित्तीय स्थिति का तर्क जनता के सामने रखा। यहां तक बताया कि प्रदेश के हालात श्रीलंका जैसे हो सकते हैं। तुरंत प्रभाव से डीजल और पेट्रोल पर वैट बढ़ा दिया। जनता को लगा कि शायद सही में प्रदेश की वित्तीय स्थिति नाजुक है। लेकिन इस धारणा को तब पहले धक्का लगा जब मंत्रिमंडल विस्तार से पहले ही छः मुख्य संसदीय सचिवों को मुख्यमंत्री ने पद और गोपनीयता की शपथ दिला दी। फिर मंत्रिमंडल विस्तार में क्षेत्रीय असंतुलन सामने आ गया। मंत्रियों के तीन पद खाली रखे गये। लेकिन इसी के साथ सरकार में गैर विधायकों में से विशेष कार्य अधिकारी और सलाहकारों के इतने पद भर दिए जो शायद संख्या में मंत्रियों से भी अधिक हो गये। अधिकांश को कैबिनेट का दर्जा देना पड़ा। इसमें भी जिला शिमला की भागीदारी ज्यादा हो गयी। इस सब का असर यह हुआ कि संगठन और सरकार में तालमेल का अभाव उभरने लगा। इस तालमेल के अभाव के आरोपों को लेकर हाईकमान तक शिकायतें पहुंची। पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष रहे राजेन्द्र राणा को खुले पत्र लिखने पड़ गये। सरकार के अधिकारियों पर भ्रष्टाचार के आरोपों के शिकायत पत्र वायरल हो गये। संगठन और सरकार में तालमेल न होने की शिकायतें स्वयं पार्टी अध्यक्षा ने हाईकमान के सामने रखी। इसी तालमेल के अभाव की व्यवहारिक सच्चाई के चलते पार्टी अध्यक्षा को यहां तक कहना पड़ा कि लोकसभा चुनाव में कार्यकर्ता फील्ड में नहीं निकलेगा। स्वयं सांसद का चुनाव लड़ने से इन्कार कर दिया जबकि जयराम सरकार में उपचुनाव में उन्होंने यह सीट जीती थी। जब सरकार और संगठन में तालमेल के अभाव के आरोप इस स्तर पर मुखर हो जाये और हाईकमान अपने ही कारणों से ऐसी शिकायतों पर कारवाई न कर पाये तो ऐसी वस्तुस्थिति का आम आदमी पर क्या प्रभाव पड़ेगा इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। जब मंत्रिपरिषद का विस्तार करके दो मंत्रियों को शामिल किया गया तो उनको विभागों का आवंटन करने में ही इतना समय लगा दिया गया जो उनके धैर्य और आत्म सम्मान की परीक्षा के मुकाम तक पहुंच गया। हिमाचल के लिये हाई कमान गौण होकर रह गई क्योंकि समन्वय कमेटी भी कागजी गठन होकर रह गयी। ऐसी वस्तु स्थिति में कौन आदमी ऐसी व्यवस्था से जुड़ना चाहेगा। इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। जब पार्टी के अपने ही विधायकों के खुले रोष का संज्ञान नहीं दिया जायेगा तो अपने आत्म सम्मान की कीमत पर कोई विधायक पार्टी नेतृत्व के साथ चल पायेगा। कांग्रेस के बागियों ने अपने रोष को मुखर करने के लिये राज्यसभा में क्रॉस वोटिंग करने का निर्णय लिया। जब कांग्रेस के अपने ही विधायक इस सीमा तक उपेक्षित महसूस करने लग गये थे तो निर्दलीय विधायक अपने विधानसभा क्षेत्र से जुड़े मसलों के हल होने के लिये सरकार पर कितना भरोसा कर सकते थे। क्योंकि वह तो कांग्रेस और भाजपा दोनों को हराकर विधानसभा पहुंचे थे। इसलिए आज इन उपचुनावों के लिये निर्दलीयों को ही दोषी ठहरना गलत होगा। यदि सत्ता पक्ष अपनी राजनीतिक चालों से ऊपर उठकर निर्दलीयों के त्यागपत्र स्वीकार होने देता और यह चुनाव भी साथ ही हो जाते तब सत्ता पक्ष का सवाल ज्यादा भारी पड़ता। इस समय इन उपचुनावों के लिये विधायकों के बिकने और भाजपा के धन बल प्रयोग का आरोप अपने में ही तर्कहीन हो जाता है क्योंकि लोकसभा में कांग्रेस 68 में से 61 विधानसभा क्षेत्र में हार चुकी है। लोकसभा चुनावों में जो वोट शेयर बढ़ाने का दावा किया जा रहा है उसका सच यह है कि इस चुनाव में विपक्षी एकता के नाम पर वांमदल सरकार के साथ खड़े थे और प्रदेश में उनका अपना इतना आधार मौजूद है।

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