नगर निगम चुनावों के आईने में कुछ सवाल
क्या नगर निगम का क्षेत्र विस्तार किया जाना चाहिये
प्रदेश में पिछले 30 दिनों में भूकंप के 32 छटके आ चुके हैं
पिछले एक वर्ष में 250 से ज्यादा भूकंप प्रदेश में आये हैं
क्या इस पर चिंता की जानी चाहिये
क्या नगर निगम चुनाव से पूर्व इन मुद्दों पर राजनीतिक दलों से सवाल नहीं पूछे जाने चाहिये
शिमला/शैल। नगर निगम शिमला के चुनाव मई में होने जा रहे हैं इन चुनावों के लिये कांग्रेस और भाजपा दोनों बड़े राजनीतिक दलों ने अपनी-अपनी चुनाव टीमों की घोषणा कर दी है। वर्तमान में इस नगर निगम पर भाजपा का कब्जा है। इससे पहले महापौर और उपमहापौर दोनों पदों पर सीधे चुनाव में सी.पी.एम. का कब्जा रहा है। उससे पहले लंबे समय तक नगर निगम पर कांग्रेस का कब्जा रहा है। इस नाते नगर की जनता के सामने तीनों के शासनकाल का तुलनात्मक आकलन करने का पर्याप्त अवसर है। कुछ सोशल मीडिया की पोस्टों के माध्यम से यह भी सामने आ रहा है कि आम आदमी पार्टी भी इस चुनाव में उतरने जा रही है। लेकिन उसकी नीयत और गंभीरता का पता इसी से चल जाता है कि जब उसके नेता जनता से आप या भाजपा दोनों में से एक को चुनने की अपील करते हैं। इस अपील का अर्थ है कि यदि आप को नहीं चाहते हो तो भाजपा को समर्थन दे दो। राजनीतिक दलों के इस आपसी तालमेल के बीच शिमला की मुख्य समस्याओं पर चर्चा उठाना महत्वपूर्ण और आवश्यक हो जाता है। क्योंकि इस समय प्रदेश में भी भाजपा की सरकार और नगर निगम पर भी उसी का कब्जा है। इन चुनावों से पहले नगर निगम का क्षेत्र विस्तार किया जा रहा है। शिमला से लगते कुछ पंचायतांे के गांव को इसमें मिलाकर 44 वार्ड बनाये जा रहे हैं। इस प्रस्तावित विस्तार के खिलाफ शहर के विभिन्न भागों से आपत्तियां आयी हैं। जिनमें कैथू, भराड़ी और समरहिल प्रमुख हैं। यह आपत्तियां इस कारण आयी कि निगम प्रशासन वर्तमान क्षेत्र में ही सुविधाओं की आपूर्ति उचित रूप से नहीं कर पा रहा है तो क्षेत्र विस्तार के बाद और कठिन हो जायेगा। जबकि निगम ने अधिकांश कार्य प्राइवेट सैक्टर के हवाले कर रखे हैं। नगर निगम के पास अपनी आय के साधन इतने नहीं हैं जिनसे उसके खर्चे निकल सकें। क्योंकि वन आदि संपत्तियां सरकार ने पहले ही निगम से अपने पास ले ली हैं। ऐसे में खर्चे निकालने के लिए सेवायें महंगी करने और लोगों पर करों का बोझ बढ़ाने के अतिरिक्त और कोई साधन नहीं रह जाता है। ऐसे में यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि कौन सा राजनीतिक दल चुनाव में इस पर बात करेगा।
इससे हटकर इस समय शिमला भवन निर्माणों की सबसे बड़ी समस्या से जूझ रहा है। क्योंकि 1977 में जनता पार्टी के शासन में तब की शांता कुमार सरकार ने प्रदेश को टी.सी.पी. विभाग तो बना कर दे दिया लेकिन इसके लिए कोई स्थाई प्लानिंग पॉलिसी नहीं दे पाये। यह विभाग भी तब इसलिये बनाना पड़ा था कि प्रदेश उससे पहले किन्नौर भूकंप की त्रासदी झेल चुका था और शिमला नगर का भी एक बहुत बड़ा भाग इसकी चपेट में आ गया था। उस समय शिमला के ऐतिहासिक रिज मैदान को जो नुकसान पहुंचा था उसकी भरपाई आज तक सैकड़ों करोड़ खर्च करके नहीं हो पायी है। उस कारण प्रदेश के ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के लिये एक निश्चित नियोजन नीति लाने का दबाव आया था। लेकिन तब से लेकर आज तक आयी सरकारें यह पॉलिसी नहीं ला पायी। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि शिमला नगर पालिका से नगर निगम बन गया और भवन निर्माणों को नियोजित करने के लिये इसके पास अपने जो नियम कानून थे उन्हें भी सरकारों ने रिटेंशन पॉलिसीयां लाकर स्वाह कर दिया। अवैध निर्माणों को इन पॉलिसियों के सहारे बढ़ावा दिया जाता रहा। प्रदेश में इस दौरान कांग्रेस और भाजपा की ही सरकारी रही हैं। दोनों सरकारों के समय में रिटेंशन पॉलिसीयां लायी गयी। नौ बार यह पॉलिसी लाकर अवैधताओं को प्रोत्साहित किया गया। इन अवैधताओं का संज्ञान लेकर जब-जब प्रदेश उच्च न्यायालय ने इन्हें रोकने का प्रयास किया तभी दोनों दलों ने अपरोक्ष में हाथ मिलाकर राजभवन को भी प्रभावित किया है। राष्ट्रीय स्तर पर इसको लेकर कई बार चिंतायें व्यक्त की गयी और इन्हीं चिंताओं का परिणाम था कि सरकार को अधिकारियों के स्तर पर कमेटी का गठन करना पड़ा। पहली कमेटी आर.डी.धीमान की अध्यक्षता में बनी और दूसरी तरूण कपूर की अध्यक्षता में। इन कमेटियों की सिफारिशों के आधार पर ही नवम्बर 2017 का एन.जी.टी. का फैसला आया है। इसी फैसले में एनजीटी ने स्थाई प्लानिंग पॉलिसी लाने के निर्देश दिये हैं एन.जी.टी. ने शिमला में नये निर्माणों पर प्रतिबंध लगा रखा है। जिसमें कोर एरिया में तो कड़ा प्रतिबंध है। एन.जी.टी. के फैसले की अनुपालना की जिम्मेदारी स्वभाविक रूप से जयराम सरकार पर आयी। लेकिन भाजपा तो अवैधताओं को बढ़ावा देने में बड़ी भूमिका निभा चुकी है। इसलिये एन.जी.टी. के फैसले के खिलाफ प्रदेश उच्च न्यायालय में याचिका दायर हो गयी।
इसी बीच सरकार ने सचिवालय में स्व.नरेंद्र बरागटा ने एन.जी.टी. से कुछ निर्माणों की अनुमति मांगी जिसे अस्वीकार कर दिया गया। इसके बाद प्रदेश उच्च न्यायालय ने भी अपने पुराने भवन को गिराकर नया निर्माण करने की अनुमति मांगी। लेकिन उच्च न्यायालय को भी यह अनुमति नहीं दी गयी। इस फैसले में भी एन.जी.टी. ने प्लानिंग पॉलिसी लाने में हो रही देरी के लिये सरकार की निंदा की गयी है। इसमें फिर दोहराया गया है कि शिमला को बचाने के लिये यहां से कार्यालयों को प्रदेश के दूसरे भागों में ले जाया जाये। लेकिन सरकार जो अब करीब तीन सौ पन्नों की शिमला के लिये योजना लेकर आयी है वह एन.जी.टी. और सरकार की अपनी कमेटियों की सिफारिशों से एकदम उलट है। सरकार की पॉलिसी को लेकर आये त्रिलोक जमवाल के ब्यान के मुताबिक सरकार कोर एरिया में भी दो मंजिलें, पार्किंग और एटिक के निर्माण की अनुमति होगी। नॉन कोर एरिया में रिहायशी भवनों के अतिरिक्त दुकानों व्यवसायिक परिसर और होटल आदि के निर्माण की भी सुविधा होगी। भवन निर्माण में तीन मंजिल प्लस पार्किंग और एटिक की अनुमति होगी।
इस परिपेक्ष में यह समझना आवश्यक हो जाता है कि आखिर एन.जी.टी. निर्माणों पर प्रतिबंध की सिफारिश क्यों कर रहा है। स्मरणीय है कि हिमाचल भूकंप जोन में आता है। शिमला नगर का भी बहुत बड़ा भाग स्लाइडिंग जोन में आता है और सरकार इसे मानती है। उच्च न्यायालय का अपना भवन इसी जोन में है। रिज के धंसने की समस्या लगातार जारी है। पिछले वर्ष कच्ची घाटी में एक आठ मंजिला भवन गिर चुका है। इससे पहले फिंगास्क स्टेट में भी ऐसा हादसा हो चुका है। सरकार के अपने अध्ययन के मुताबिक शिमला में भूकंप आने पर करीब चालीस हजार लोगों की जान जा सकती है। 70% से अधिक निर्माण प्रभावित हो सकते हैं। इस समय ही अदालत में आयी जानकारी के मुताबिक तीस हजार भवनों के नक्शे तक पास नहीं हैं। ऐसी स्थिति में यदि प्रदेश में आ रहे भूकंपों की बात की जाये तो एन.जी.टी. की चिंता को समझा जा सकता है। 4 अप्रैल 1905 को जो कांगड़ा में भूकंप आया था उससे 28000 लोगों की मौत हो गई थी। 1906 में कुल्लू और 1930 में सुल्तानपुर में भूकंप आ चुके हैं। पिछले कुछ अरसे से भूकंप लगातार बढ़ते जा रहे हैं। मेटीरियोलॉजिक सैन्टर के मुताबिक पिछले 30 दिनों में 28-02-2022 तक 4.8 की तीव्रता के 32 झटके प्रदेश में आ चुके हैं। पिछले एक वर्ष में प्रदेश 250 से ज्यादा भूकंप झेल चुका है और हर जिले में भूकंप आ रहे हैं। विभाग के अध्ययन 2018 से बड़े भूकंप की चेतावनी लगातार देते आ रहे हैं। इसका बड़ा कारण पर्यावरण के साथ खिलवाड़ किया जाना माना जा रहा है। इस परिदृश्य में यह सरकार की जिम्मेदारी हो जाती है कि वह राजनीतिक पूर्वाग्रह से ऊपर उठकर इन अध्ययनों के अनुसार फैसले ले और भविष्य में होने वाले संभावित नुकसान से बचने के कदम उठाये। सरकार जो योजना लेकर आयी है उसका आकलन इन व्यवहारिक पक्षों के आईने में किया जाना चाहिये। यह सही है कि इस पॉलिसी पर एन.जी.टी. भी विचार करेगा। लेकिन सरकारें जिस तरह से पूर्व में अदालत और अपनी ही सिफारिशों को नजरअंदाज करती रही है उसको सामने रखकर इन चुनावों में इस पर एक विस्तृत बहस उठाया जाना आवश्यक हो जाता है।
2016 से लग रहे हैं यह आरोप
केजरीवाल को आरोपों का हां या न में जवाब देने में आपत्ति क्यो?
केजरीवाल सरकार का कर्ज भार क्यों बढ़ रहा है और कैपिटल परिव्यय क्यों कम हो रहा है?
शिमला/शैल।आम आदमी पार्टी के संस्थापक सदस्यों में से एक रहे डॉ कुमार विश्वास का एक वीडियो वायरल हुआ है। इस वीडियो में दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अरविंद केजरीवाल के खिलाफ संगीन आरोप लगा है कि वह खालिस्तान की मांग करने वालों के समर्थक हैं। खालिस्तान के समर्थक उनके घर आते थे और उन्होंने चुनाव में उनकी मदद की है। कुमार विश्वास 2016 से यह आरोप लगाते आ रहे हैं। 2017 में के.पी.एस. गिल ने भी कुछ इसी तरह की आशंका व्यक्त की हैै। 3 फरवरी 2017 को के.पी.एस. गिल ने इंडियन एक्सप्रेस से इस संदर्भ में बात की है। उस समय मीडिया ने इस आरोप को गंभीरता से नहीं लिया। लेकिन कुमार विश्वास पर यह आरोप नहीं लगाया जा सकता कि वह पहली बार किसी राजनीति से प्रेरित होकर यह आरोप लगा रहे हैं। इस समय चुनाव हो रहे हैं और आप पंजाब उत्तराखंड और गोवा में सरकार बनाने के दावे के साथ चुनाव में उतरी हैं। इसलिए राजनीतिक पार्टियों के लिए कुमार विश्वास के आरोप एक गंभीर मुद्दा हो जाते हैं। फिर पिछले कुछ दिनों से हिमाचल में भी कई लोगों को खालिस्तान समर्थकों की ओर से धमकी भरे फोन आते रहे हैं। हिमाचल के भी कई क्षेत्रों को खालीस्तान में मिलाये जाने के संदेश दिये जाते रहे हैं।
इस परिदृश्य में यदि किसी राजनेता या उसकी पार्टी पर खालीस्तान का समर्थन करने के आरोप लगते हैं तो उन्हें हल्के से नहीं लिया जा सकता ना ही राजनीति के नाम पर उन्हें नजरअंदाज किया जा सकता है। संभवत इसी गंभीरता को देखते हुए पंजाब के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी ने इसको लेकर गृह मंत्रालय को इन आरोपों की जांच करवाने के लिए पत्र लिखा। केंद्रीय गृह मंत्री ने भी इसी गंभीरता के कारण इस मामले की जांच करवाये जाने का आश्वासन दिया है। अब यह केंद्रीय गृह मंत्री की जिम्मेदारी हो जाती है कि वह इन आरोपों की जांच के परिणाम को देश की जनता के सामने रखें। लेकिन इन आरोपों का जवाब जिस तरह से केजरीवाल ने दिया है उससे आरोपों की गंभीरता कम नहीं हो जाती है। क्योंकि केजरीवाल ने इसका सीधा जवाब नहीं दिया है कि खालीस्तान के समर्थकों के साथ उनकी कोई बैठक हुई है या नहीं। क्योंकि कुमार विश्वास ने दावा किया है कि उन्होंने अपनी आंखों से इस बैठक को देखा है। यदि कुमार विश्वास की बात पर हास्य कवि होने के कारण विश्वास नहीं किया जा सकता तो केजरीवाल पर मुख्यमंत्री होने के नाम पर ही विश्वास कैसे कर लिया जाये। फिर किसी भी बड़े राजनेता पर अब अविश्वास करने का कोई आधार नहीं रह जाता है। केजरीवाल ने जब यह दावा किया कि उनके खिलाफ केंद्र ने कई जांचें करवा ली है और उनमें कुछ नहीं निकला है। तब यह नहीं बताया गया है कि इन जांचों का मुद्दा यह आरोप नहीं था। इसी के साथ केजरीवाल ने केंद्रीय एजेंसियों की काबिलियत पर भी सवाल उठाया है। लेकिन इन एजेंसियों के संदर्भ में यह भी महत्वपूर्ण है कि एन आई ए जैसी एजैंसी में एक अधिकारी ग्यारह वर्ष काम करने के बाद पकड़ा गया है।
जहां तक दिल्ली में केजरीवाल के प्रशासन और सरकार का सवाल है तो उसके लिए कैग रिपोर्ट में आये तथ्यों से काफी कुछ स्पष्ट हो जाता है। केजरीवाल ने जब सत्ता संभाली थी तब 2010-11 में दिल्ली सरकार का राजस्व 10,642 करोड़ के सरप्लस में था जो 2018-19 में 4465 करोड़ रह गया है। दिल्ली जल बोर्ड और डी टी सी लगातार घाटे में चल रही है दिल्ली मेट्रो भी लाभ नहीं कमा रही है। कैग के मुताबिक आठ लाख नौकरियां देने का दावा भी पूरा नहीं हो सका है। 2013-14 में दिल्ली सरकार का कैपिटल परिव्यय 11,685 करोड था जो 2018-19 में 9908 करोड़ रह गया है। कैपिटल परिव्यय का कम होना यह दर्शाता है कि अब विकास कार्यों पर लगभग विराम की स्थिति आती जा रही है। इसी तरह आर बी आई के मुताबिक दिल्ली सरकार का कर्ज भार जो मार्च 2011 में जी डी पी का 23.5 प्रतिशत था वह मार्च 2019 में बढ़कर 25.1 प्रतिशत हो गया है। स्वभाविक है कि जब कोई सरकार लगातार मुफ्त में सुविधायें देती जायेगी तो उसके पहले के जमा धन में कमी होती जायेगी और इसी के साथ उसका कर्जभार भी बढ़ता जायेगा। इसका परिणाम एक दिन बहुत भयानक होता है। इस परिदृश्य में केजरीवाल के सुशासन पर भी विश्वास करना कठिन हो जाता है।
सरकार के प्रस्तावित लैण्ड टाइटल एक्ट से ऊभरी आशंका
इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए भू अधिग्रहण प्रक्रिया सरल करने के लिए लाया जा रहा है यह एक्ट
विवाद की स्थिति में अदालत नहीं ट्रिब्यूनल में जाना होगा
वन नेशन वन रजिस्ट्रेशन है योजना
लैण्ड टाइटल एक्ट के परिदृश्य में
शिमला/शैल। मोदी सरकार अब लैण्ड टाइटल एक्ट लाने जा रही है। नीति आयोग ने इस प्रस्तावित एक्ट का ड्रॉफ्ट बनाकर केंद्र सरकार को भेज दिया है। केंद्र ने यह ड्राफ्ट राज्य सरकारों को भेजकर इस पर उनकी आपतियां और सुझाव आमंत्रित किये हैं क्योंकि लैण्ड राज्यों का विषय है। यदि राज्य सरकार तय समय सीमा के भीतर अपनी प्रतिक्रियायें केंद्र को नहीं भेजती हैं तो इसे उनकी सहमति मान लिया जायेगा। इसके बाद केंद्र कृषि कानूनों की तर्ज पर एक अध्यादेश जारी करके इसे लागू कर देगा। कुछ राज्यों की सहमति आने के बाद केंद्र इसे संसद में पारित करवा लेगा। राज्य सरकारों के पास नीति आयोग का ड्राफ्ट आ चुका है। हिमाचल सरकार को भी 68 धाराओं वाले इस एक्ट का ड्राफ्ट तीन सौ अनुलगकों के साथ मिल चुका है। लेकिन हिमाचल सरकार ने इसे जनता की जानकारी में नहीं लाया है। जनता से उसकी प्रतिक्रियाएं नहीं मांगी गयी हैं। वन नेंशन वन रजिस्टेशन के नाम पर यह एक्ट लाया जा रहा है। माना जा रहा है कि नागरिकता संशोधन अधिनियम में जिस तरह से व्यक्ति को अपनी नागरिकता प्रमाणित करने की वस्तु स्थिति पैदा हो गयी थी उसी तरह व्यक्ति को अपनी अचल संपत्ति का स्वामित्व प्रमाणित करने की स्थिति आ जायेगी।
इस एक्ट के आने से नीति आयोग के ड्राफ्ट के मुताबिक इससे राज्य सरकारों को यह अधिकार मिल जायेगा will provide state governments power to order for establishment, administration and management of a system of title registration of immovable properties नीति आयोग के मुताबिक यह एक्ट आने से इंफ्रास्ट्रक्चर योजनाओं के लिये भूमि अधिग्रहण और उसमें मुआवजा देने की प्रतिक्रिया सरल हो जायेगी। इस समय राज्य सरकार राष्ट्रीय उच्च मार्ग, ट्रेन रेलवे ट्रैक, रेलवे स्टेशन, एयरपोर्ट, विद्युत उत्पादन और संचारण ऑयल और गैस पाइपलाइन टेलीकॉम खनिज व खाने आदि को निजी क्षेत्र को देने की योजना बना चुकी है। निजी क्षेत्र को इसमें अपना इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार करने के लिए भूमि चाहिये। इस भूमि के अधिग्रहण की प्रक्रिया यह एक्ट आने से सरल हो जायेगी। क्योंकि इसमें आने वाले विवाद का निपटारा करने के लिए कानूनी व्यवस्था भी बदल दी गयी है।
एक्ट में यह दावा किया गया है कि Act to provide for the establishment, administration and management of a system of conclusive property titles with title guarantee and indemnification against losses due to inaccuracies in property titles, through registration of immovable properties and further to amend the relevant Acts as stated in the Schedule. इस दावे में जिन कमियों का कवर लिया जा रहा है वैसी ही गलतियां आगे नहीं होंगी ऐसा दावा कैसे किया जा सकता है। क्या नाम लिखने में उच्चारण के कारण गलती नहीं हो सकती। इस समय सरकार यह दावा कर रही है कि 90 प्रतिशत गांव में अभिलेखों को कंप्यूटरीकृत कर दिया गया है। 655959 चिन्हित गांव में से 591221 गांव का रिकॉर्ड कंप्यूटर पर ला दिया गया है। क्या इसमें नाम आदि लिखने में गलती नहीं हुई होगी। नये एक्ट में तो राजस्व से संबंधित दस्तावेज पहले देखे ही नहीं जायेंगे। इसमें रजिस्ट्रेशन के नाम पर एक आईडी नंबर दे दिया जायेगा। इसमें हुई गलती को ठीक करवाने की जिम्मेदारी संपत्ति के मालिक की होगी। उसके लिए उसे संबंधित कार्यालयों के चक्कर काटने की मजबूरी हो जायेगी। सरकार यह व्यवस्था इसलिये ला रही है क्योंकि न्यूजीलैंड, ऑस्ट्रेलिया, सिंगापुर और यूके में ऐसा है। क्या यह व्यवस्था लाने के लिए संसद और आम आदमी के साथ एक विस्तृत बहस की आवश्यकता नहीं होनी चाहिये। क्योंकि इसमें हर गांव और संपत्ति मालिक प्रभावित होगा। यदि सीधे नीति आयोग के ड्राफ्ट को एक्ट की शक्ल दे दी गयी तो एक बार फिर नागरिकता आंदोलन जैसे हालात पैदा होने की स्थिति बन जायेगी।
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