Friday, 19 September 2025
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कोविड को लेकर "Covid Vaccination Voluntary, Hasn't Mandated Vaccination" केंद्र सरकार का सर्वोच्च न्यायालय में शपथ पत्र

क्या इस शपथ पत्र के बाद भी कोई अधिकारी टीकाकरण के आदेश जारी कर पायेगा
क्या आरोग्य सेतु एप पर भी सरकार का ऐसा ही स्टैंड नहीं रहा है

शिमला/शैल। कोविड वैक्सीन को लेकर सर्वोच्च न्यायालय में नेशनल टेक्निकल एडवाइजरी ग्रुप ऑफ इम्यूनाइजेशन के पूर्व सदस्य डॉक्टर जैकव पुलियेल ने एक याचिका दायर करके वैक्सीन के संबंध में हुए ट्रायल्स का डाटा उपलब्ध करवाने का आग्रह किया था। इस याचिका की पैरवी सर्वोच्च न्यायालय में वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण कर रहे हैं। यह याचिका शीर्ष अदालत में न्यायमूर्ति एल नागेश्वरा राव और बी.आर.गवई की पीठ में चल रही है। इस याचिका में सर्वोच्च न्यायालय के सामने यह भी रखा गया है कि Vaccine Mandates Are Not Proportionate To Personal Liberty, इसमें कई राज्य सरकारों के निर्देशों का नाम लेकर जिक्र किया गया है। अदालत ने इन सभी राज्यों को इसमें पार्टी बनाने के निर्देश देते हुये इस आरोप का कड़ा संज्ञान लिया है। पिछले सप्ताह सुनवाई के लिए आये इस मामले में भारत सरकार के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय और केंद्रीय ड्रग्ज स्टैंडर्ड कंट्रोल ऑर्गेनाइजेशन की ओर से दायर किये गये शपथ पत्र में कहा गया है कि कोविड-19 के वैक्सीनेशन के लिए कोई वैधानिक अनिवार्यता नहीं रखी गयी है और यह वैक्सीनेशन एकदम ऐच्छिक है। यह शपथ पत्र सर्वोच्च न्यायालय में दायर किया गया है। इसलिए इस पर संदेह नहीं किया जा सकता। इस शपथ पत्र से कोविड-19 की गंभीरता को लेकर कई बुनियादी सवाल उठ खड़े होते हैं।
यदि पिछले कुछ वर्षों पर नजर डाली जाए तो यह सामने आता है कि हर 10-12 वर्ष के अंतराल में कोई न कोई बीमारी आती रही है। कोविड-19 से पहले स्वाइन फ्लू था। और स्वाइन फ्लू तथा कोविड के लक्षणों में कोई ज्यादा अंतर नहीं है। दोनों एक जैसे ही गंभीर कहे गये हैं। देश में हर जन्म और मरण का पंजीकरण होता है यह नियम है। मरण के आंकड़े संसद में गृह मंत्रालय के तहत रजिस्ट्रार जनरल द्वारा रखे जाते हैं। 2018 तक के आंकड़े संसद में रखे जा चुके हैं और इनके अनुसार देश में 2018 में 69 लाख लोगों की मौत हुई है। हिमाचल का आंकड़ा ही 48000 रहा है। इसी आंकड़े के में स्वाइन फ्लू से हुई मौतें भी शामिल हैं। लेकिन इन मौतों के बावजूद भी कोई लॉकडाउन घोषित नही किया गया था और न ही वैक्सीनेशन के लिए आज की तरह कोई स्पेशल ड्राइव शुरू किया गया था। जबकि फरवरी 2020 में भी आईजीएमसी शिमला के अतिरिक्त मंडी और धर्मशाला में स्वाइन फ्लू के मरीज दाखिल थे। उस दौरान भी मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने एक पत्रकार वार्ता में स्पेशल आईसीयू बनाने के निर्देश दिये थे।
लेकिन कोविड-19 के मामले में देश में 24 मार्च 2020 को लॉकडाउन घोषित कर दिया गया जो कई चरणों में चला। इस लॉकडाउन के कारण अस्पतालों में ओपीडी और इन डोर दोनों सेवाएं बंद हो गई। उस समय अकेले आईजीएमसी का ओपीडी का 2018 का आंकड़ा 8 लाख रहा है। यदि उस समय अस्पताल में दाखिल मरीजों का 1ः भी गंभीर रहा होगा तो उसका इलाज बंद होने पर उसकी क्या स्थिति रही होगी इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। कोविड कि वैक्सीन तो 16 जनवरी 2021 से शुरू हुई लेकिन इसका निर्माण लॉकडाउन से पहले ही हो चुका था यह तथ्य सामने आ चुका है। अप्रैल 2020 को तो एक डॉ. कुनाल शाह ने सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर करके इसके संभावित इलाज पर कुछ आशंकाएं उठाई थी। जिन्हें जस्टिस रमना की पीठ ने आईसीएमआर को भेज दिया था। इसी दौरान अजीम प्रेम जी के सहयोग से उनके एक नागपुर स्थित एनजीओ साथी की एक स्टडी भी सामने आई जिसमें खुलासा किया गया है कि फॉर्मा कंपनियां अपनी दवाएं प्रमोट करने के लिए किस तरह के हथकंडे अपनाती हैं। फार्मा कंपनियों की इसी तरह की भूमिका का पूर्व मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री शांता कुमार ने भी अपनी आत्मकथा में उल्लेख किया है। आज भी सरकार के पास ऐसी कोई स्टडी नहीं है की लॉकडाउन से पूर्व जो लोग ओपीडी और इन डोर होकर इलाज करवा रहे थे उनमें से इलाज बंद होने पर कितने कोविड के संक्रमण का शिकार हुये और मर गये। आज यह सारे सवाल इसलिये प्रसांगिक हो जाते हैं की सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में शपथ पत्र देकर यह कहां है की वैक्सीनेशन अनिवार्य नहीं वर्ण एच्छीक है। क्या इस शपथ पत्र के बाद कोई भी अधिकारी वैक्सीनेशन को लेकर कोई लिखित आदेश करेगा। आज जो स्टैंड वैक्सीनेशन को लेकर लिया गया है पूर्व में ऐसा ही स्टैंड आरोग्य सेतु एप को लेकर भी रहा है।
अब जब केंद्र सरकार ने शपथ पत्र देकर यह कहा कि वैक्सीनेशन ऐच्छिक है और इसे वैधानिक अनिवार्यता नहीं बनाया गया है तब यह सवाल उठना भी स्वाभाविक है। इसको लेकर जो अन्य मास्क आदि को लेकर जो निर्देश जारी किये गये हैं और उनकी अनुपालना न किये जाने पर जो जुर्माना आदि लगाया जा रहा है उसका वैधानिक आधार क्या है। क्योंकि किसी भी बीमारी का सबसे बड़ा पक्ष उसकी दवाई होता है। यह वैक्सीनेशन इस बीमारी में दी जाने वाली कोई दवाई नहीं है इससे केवल इसके संक्रमण से कुछ समय के लिए बचा जा सकता है। यह भी नहीं है कि वैक्सीनेशन लेने के बाद आदमी कोविड का संक्रमित नहीं हो सकता। इसलिए जो लोग इस बीमारी को महामारी की संज्ञा देने का विरोध करते हुये इसे सामान्य बीमारियों की तरह ही लेने की राय दे रहे थे वह शायद सही थे। 24 मार्च 2020 को लॉकडाउन लगाकर जिस तरह की बंदीशें लगा दी गई थी और उनसे जिस तरह का नकारात्मक प्रभाव देश की आर्थिकी और अन्य क्षेत्रों पर पड़ा है उस सब पर सरकार के इस शपथ पत्र के बाद देर सवेर जो सवाल और चर्चाएं उठाएंगे उनका अंतिम परिणाम कहीं आपातकाल में लाये गये नसबंदी अभियान जैसा ही न हो इसकी संभावनाएं बनती जा रही है।

मोदी के बाद नड्डा ने भी कहा कि केंद्र ने हिमाचल को 72,000 करोड़ दिये हैं

केंद्र से 72,000 मिलने के बावजूद लिया गया 70,000 करोड़ का ऋण

शिमला/शैल। प्रदेश भाजपा की कार्यकारिणी को आभासी संबोधन में राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा ने कहा है कि मोदी सरकार ने वित्त आयोग के माध्यम से हिमाचल प्रदेश को 72,000 करोड़ रुपए दिये हैं। जबकि उनसे पहले यह राशि 20,000 करोड़ तक ही रही है। नड्डा के मुताबिक यह बढ़ा हुआ आबंटन यह दिखाता है कि मोदी हिमाचल को कितनी अहमियत देते हैं। नड्डा से पहले मण्डी की जनसभा में स्वयं मोदी भी इस आंकड़े का जिक्र कर चुके हैं। उस समय इस आंकड़े पर ज्यादा चर्चा इसलिए नहीं हुई थी क्योंकि वह एक चुनावी जनसभा में दिया भाषण था। लेकिन अब जब नड्डा ने यह आंकड़ा प्रदेश कार्यकारिणी में रखते हुए यह अपेक्षा की है कि वह इसे प्रदेश के हर आदमी तक पहुंचाये। नड्डा ने अपने संबोधन में उपचुनाव में मिली हार और 2022 तक का चुनाव भी मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के नेतृत्व में ही लड़ा जायेगा इस पर सीधे और स्पष्ट कुछ नहीं कहा है। केवल सरकार को मजबूत करने का आग्रह किया है। क्योंकि मुख्यमंत्री चाहे कोई भी हो राष्ट्रीय अध्यक्ष को अपने संबोधन में यही संदेश देना पड़ेगा।
नड्डा ने अपने संबोधन में उज्जवला योजना जैसी कई योजनाओं की याद प्रदेश के लोगों को दिलाई है। लेकिन वह यह बताना भूल गये कि इस योजना के तहत 67ः लाभार्थी आज रिफिल नहीं करवा पाये हैं। प्रदेश में घोषित हर योजना का व्यवहारिक पक्ष ऐसा ही है। अनुसूचित जाति के एक सम्मेलन में यह आरोप लगाया गया है कि उनके लिए आबंटित बजट का केवल 7 : ही यह सरकार खर्च रही है। इस आशय का ज्ञापन भी राज्यपाल को सौंपा गया है। परंतु अभी तक इस आरोप का जवाब तक नहीं आया है। इस परिप्रेक्ष में यह सवाल महत्वपूर्ण हो जाता है कि यदि केंद्र ने प्रदेश को 72 हजार करोड़ दिये हैं तो राज्य सरकार ने उसका उपयोग कैसे किया है। यह जानना प्रदेश की जनता का हक हो जाता है।
स्मरणीय है कि मोदी सरकार ने 2014 में केंद्र की सत्ता संभाली थी। उसके बाद इस सरकार में 2017 में अगले वित्त आयोग का गठन हुआ था। तब तक 2012 में आयी वित्त आयोग की सिफारिशें ही अमल में चल रही और इन सिफारिशों में प्रदेश के लिए 20 हजार करोड़ का ही आबंटन हो पाया था। ऐसे में मोदी सरकार द्वारा प्रदेश को 72 हजार करोड़ देने का मौका 2017 के आयोग की सिफारिशों में ही आता है। 72 हजार करोड़ का आंकड़ा दूसरी बार सामने आया है। वह भी पहले प्रधानमंत्री द्वारा और अब राष्ट्रीय अध्यक्ष द्वारा दोहराया गया है। जब इस स्तर के लोग यह कहें तो इस पर यकीन किया जाना चाहिये। लेकिन 2017 से लेकर अब तक प्रदेश सरकार 70000 करोड़ का तो ट्टण ही ले चुकी है। हर वर्ष बजट के बाद टैक्स और अन्य शुल्क सरकार बढ़ाती आ रही है। जबकि जनता को यह परोसा जाता है कि सरकार कर मुक्त बजट लायी है। रिकॉर्ड बताता है कि हर वर्ष कर राजस्व और गैर कर राजस्व में बढ़ौतरी हो रही है। ऐसे में इस दौरान प्रदेश सरकार द्वारा करीब डेढ़ लाख करोड़ खर्च कर दिये जाने के बाद भी यदि पुलिस जैसे विभाग को भी अपनी जायज मांगे मनवाने के लिए हड़ताल का अपरोक्ष सहारा लेना पड़े तो यह सबके लिये चिंता और चिंतन का विषय हो जाता है। क्योंकि केंद्र द्वारा इतनी खुली सहायता के बाद भी राज्य सरकार को कर्ज लेना पड़े तो इस पर जनता को सवाल पूछने का हक हो जाता है। राज्य सरकार को बताना चाहिए कि यह आवंटन भी 69 राष्ट्रीय राजमार्गों जैसा ही है या सही में इतना पैसा प्रदेश को मिला है। क्योंकि 2022 में तो अगले वित्त आयोग की सिफारिशें आ जायेंगी।

कृषि कानूनों की वापसी के साथ ही एमएसपी के लिए वैधानिक प्रावधान क्यों नही

एमएसपी की प्रक्रिया को समझना होगा
जब दूसरे उद्योगपति अपने उत्पादों की कीमतें स्वयं तय करते हैं तो किसान के लिए एमएसपी का विरोध क्यों

 शिमला/शैल। प्रधानमंत्री ने तीनों कृषि कानूनों को संसद के अगले सत्र में वापस लेने की घोषणा कर दी है। इस घोषणा के साथ ही आंदोलनरत किसानों से घर वापस जाने की अपील की है। परंतु किसानों ने अभी घर वापसी जाने से यह कहकर इंकार कर दिया है कि वह इस घोषणा पर अमल होने तक इंतजार करेंगे। इसी के साथ किसानों ने एम एस पी का वैधानिक प्रावधान किये जाने की भी मांग की है। स्मरणीय है कि केंद्र सरकार ने 10 जुलाई 2013 को पत्र संख्या F.No.-6-3/2012-FEB-ES(VOl-11) के माध्यम से एक आदेश जारी किया था। इस आदेश में कहा गया था कि सरकार ने फसलों की खरीद करने के लिए कम से कम समर्थन मूल्य जारी रखने का फैसला किया है। इसके लिए सरकार की एजेंसियां काम करेंगी और खरीद जारी रखेंगी। इसमें एफसीआई हर प्रकार के अनाज की खरीद करेगी नाफेड, सीडब्ल्यूसी, एनसीसीएफ तथा एसएफएसी दालों और तेल वाले बीजों की खरीदेंगी। नाफेड को कपास खरीदने की भी जिम्मेदारी दी गई थी। लेकिन इन विवादित कृषि कानूनों के आने से यह सारी व्यवस्था तहस महस हो गयी। इस आंदोलन के दौरान भी सरकार यह दावा करती रही की एमएसपी को हटाया नहीं गया है। परंतु व्यवहार में यह कहीं पर भी दिखाई नहीं दिया। इसलिए आज किसान इसका वैधानिक प्रावधान किये जाने की मांग कर रहे हैं।

एमएसपी स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट का परिणाम है और लंबे समय से इस आयोग की रिपोर्ट को लागू करने की मांग चली आ रही है। 2014 के चुनाव में नरेंद्र मोदी ने भी यह वायदा किया था की चुनाव जीतने के बाद कुर्सी पर बैठते ही पहला काम वह इस रिपोर्ट को लागू करने का करेंगे। लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। यहां यह भी महत्वपूर्ण है कि सरकार ने 1964 में एक एग्रीकल्चर प्राइसिंग कमीशन बनाया था और इसकी डयूटी लगाई थी की किसान की हर फसल का विक्रय मूल्य तय किया जाये। इस कमीशन नें यह मूल्य तय करते समय किसान की लागत का ध्यान नहीं रखा। इसके लिए 1985 में एक नया एग्रीकल्चर लागत और कीमत कमीशन बनाया गया। इस कमीशन को कीमतें तय करने के लिए 12 बिंदु दिए गये जिनमें एक पैदावार की लागत दो पैदावार के लिए प्रयोग की गई वस्तुओं के मूल्य में बदलाव तीन लागत और पैदावार की कीमतों में संतुलन चार बाजार के झुकाव 5 डिमांड और सप्लाई 6 फसलों का आपसी संतुलन सात तय की जाने वाली कीमत का उद्योग पर असर 8 कीमत का लोगों पर बोझ 9 आम कीमतों पर असर 10 अंतरराष्ट्रीय कीमतों की स्थिति 11 किसान द्वारा दी गई और वसूल की गई कीमत का संतुलन 12 बाजारी कीमतों पर सब्सिडीज का असर। लेकिन इन बिंदुओं को देखने से पता चलता है कि इनमें 4, 5, 7, 9, 10 और 12 का किसान के साथ कोई ताल्लुक नहीं है। इस तरह कीमतें तय करने का नतीजा यह निकला कि किसान का लागत मूल्य एमएसपी से ज्यादा आया। पंजाब हरियाणा उच्च न्यायालय में लंबित किसानों की एक याचिका में इस आश्य के सारे दस्तावेज आ चुके हैं। जिनके मुताबिक लागत और एमएसपी में 300 से लेकर 400 रूपये तक का फर्क है।
न्यूनतम समर्थन मूल्य का अर्थ है कि कम से कम यह कीमत तो मिलनी ही चाहिए। सरकार इसको तीन तरह से तय करती है। A 2 पहले नंबर पर वह लागत जो किसान ने खेत जोतने, बीजने, बीज, तेल और मशीनों के किराये के लिए अपने पास से खर्च की।
A2+FL यानी A2 में फैमिली लेबर इसमें नकद खर्च के अतिरिक्त परिवार द्वारा की गई मेहनत जोड़ी जाती है। C2 यानी कॉम्प्रिहैंसिव कास्ट (व्यापक लागत) नकद किया खर्च जमा पारिवारिक मेहनत जमा जमीन का ठेका किराया या जमीन की कीमत पर बनता ब्याज आदि।
लेकिन सरकार A2 को गिन कर ही एमएसपी का ऐलान करती है। कभी इसमें फैमिली लेबर जोड़ लेती है लेकिन C2 देने को बिल्कुल तैयार नहीं होती। जबकि स्वामीनाथन कमीशन ने C2+ 50% देने की सिफारिश की है। इस परिप्रेक्ष में यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि जब सरकार ने तीनों कानून को वापस लेने का ऐलान कर दिया है तो अब एमएसपी पर भी किसान प्रतिनिधियों से चर्चा करके इसे तय करने के मानक पर सहमति बनाकर इसके लिए वैधानिक प्रावधान कर दिया जाना चाहिए। क्योंकि आज केवल किसान ही ऐसा उत्पादक है जिस की उपज की कीमत दूसरे निर्धारित करते हैं जबकि अन्य सभी उत्पादक अपने उत्पाद की कीमत स्वंय तय करते हैं।

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