Sunday, 21 December 2025
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प्रधानमंत्री की सभा में लोग लाने की जिम्मेदारी लगी प्रशासन के नाम

लाभार्थियों के नाम पर मुख्य सचिव को लिखना पड़ा पत्र
कांग्रेस के समय की योजनाओं के हो रहे उद्घाटन/ शिलान्यास
सावड़ा कुडू का 19-6-2005 को वीरभद्र ने किया था उद्घाटन
केंद्र द्वारा दी गई 72000 करोड़ और 2,30,000 की सहायता पर उठे सवाल
मंत्रिमंडल की पहली बैठक में किये भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस के वादे का क्या हुआ
कांग्रेस के अंतिम छः माह के फैसलों की समीक्षा कहां रह गयी

शिमला/शैल। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रस्तावित मण्डी यात्रा के अवसर पर जयराम सरकार ने बड़े-बड़े विज्ञापन जारी करके प्रदेश की जनता को यह जानकारी दी है कि इस अवसर पर 210 मेगावाट की लूहरी, 66 मेगावाट की धौलासिद्ध, 111 मेगावाट की सावड़ा कुडू और 143 मेगावाट की रेणुका सागर पनबजली परियोजना के उद्घाटन/ शिलान्यास करेंगे। इन योजनाओं के लिये जयराम सरकार ने कितना काम किया है और केंद्र की मोदी सरकार ने कितनी आर्थिक सहायता दी है इसका कोई ब्योरा जारी नहीं किया गया। जिसके लिये आज श्रेय लिया जाये। क्योंकि सावड़ा कुडू परियोजना एशियन विकास बैंक के सहयोग से बनी है और जनवरी 2021 से उत्पादन में आकर अब तक 120 करोड़ की बिजली बेच भी चुकी है। इस परियोजना की आधारशिला स्व. वीरभद्र सिंह ने 19 जून 2005 को रखी थी। धौलासिद्ध और लूहरी दोनों का काम एसजेवीएनएल के पास है और एक-एक डायवर्जन टनल तैयार हो चुकी है। इसी तरह रेणुका सागर बांध परियोजना का काम भी काफी समय से चला हुआ है। 2018 से ही कई बैठकें हो चुकी हैं। कुल मिलाकर यह सारी योजनाएं ऐसी हैं जिनका कोई उदघाटन/शिलान्यास इस समय नहीं बनता है। लेकिन जयराम सरकार प्रधानमंत्री से यह सब करवाने जा रही है। स्वभाविक है कि प्रधानमंत्री को इस की व्यवहारिक जानकारी न हो और उनसे केवल अपनी पीठ थपथपाना ही इसका उद्देश्य रहा हो। लेकिन प्रदेश की जनता तो यह सब जानती है और वह इस पर किसी भी तरह गुमराह नहीं होगी। राजनीतिक विश्लेषकों की नजर में चुनावी वर्ष में इस तरह के कामों से कोई लाभ नहीं मिलेगा बल्कि इससे प्रधानमंत्री की छवि को भी ठेस पहुंचेगी।
बल्कि इस अवसर पर यह सवाल पूछा जायेगा कि 2017 के चुनाव से पहले घोषित 69 राष्ट्रीय राजमार्गों का क्या हुआ है। स्मरणीय है कि इन राजमार्गों की जानकारी प्रदेश की जनता को जगत प्रकाश नड्डा ने यह कह कर दी थी कि उन्हें इस आशय का गडकरी के यहां से पत्र मिला है। लेकिन आज यह राजमार्ग प्रदेश की जनता के साथ एक मजाक साबित हुये हैं। 2017 के चुनाव में ही मण्डी की एक जनसभा में प्रधानमंत्री ने स्व. वीरभद्र सिंह से प्रदेश को दिये गये 72000 करोड़ का हिसाब मांगने की बात की थी। यही नहीं 2019 के चुनावांे में गृह मंत्री अमित शाह ने चुनावी रैली में केंद्र से मिली सहायता का आंकड़ा 2,30,000 करोड बताया है। लेकिन आज तक जयराम सहायता के इन आंकड़ांे को प्रदेश की जनता के सामने नहीं रख पायी है। आने वाले विधानसभा चुनाव में यदि प्रदेश के हर मतदाता ने यह सवाल पूछने शुरू कर दिये तो सरकार के सामने एक ऐसी परिस्थिति खड़ी हो जायेगी इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। क्योंकि 2017 का 46,500 करोड का कर्ज बढ़कर आज 70,000 करोड़ तक पहुंच रहा है। दूसरी ओर 2019-20 की आई कैग रिपोर्ट में यह खुलासा हुआ है की सरकार ने 96 योजनाओं में एक फूटी कौड़ी भी खर्च नहीं की और न ही इसका कोई कारण बताया है। इस खुलासे से यही सामने आता है कि सरकार यही समझती है कि जनता उसकी हर बात पर आंख मूंदकर विश्वास कर लेती है।
इस अवसर पर यह स्मरण करना भी आवश्यक हो जाता है कि जयराम सरकार ने अपने मंत्रिमंडल की पहली बैठक में जनता से क्या वायदे किये थे। उल्लेखनीय है कि जनवरी 2018 की पहली की बैठक में यह वायदा किया था कि भ्रष्टाचार कतई सहन नहीं होगा। इस वायदे की पूर्ति में अपने ही सौंपे किसी आरोप पत्र पर कोई कार्रवाई नहीं कर पायी है। जिस बिवरेज कॉरपोरेशन को लेकर बड़ा आडंबर खड़ा किया गया था उसका क्या हुआ। इसकी कोई आधिकारिक जानकारी बाहर नहीं आयी। पहली बैठक में यह कहा गया था कि कांग्रेस सरकार द्वारा पिछले 6 माह में लिये गये फैसलों की समीक्षा होगी और गलत फैसलों को बदला जायेगा। लेकिन 4 वर्षों में ऐसा कुछ भी सामने नहीं आया है कि कांग्रेस का यह फैसला गलत था और इसे बदला गया है। इसी बैठक में यह भी फैसला लिया गया था कि सरकार हर विभाग को 100 दिन की कार्ययोजना बनाने के लिए कहे और फिर उसकी समीक्षा करेगी। पहली बैठक में उद्योगों को 5 वर्ष के लिए करों में सौ प्रतिश्त छूट की भी घोषणा की गयी थी लेकिन इस घोषणा के बावजूद हर वर्ष कर राजस्व में बढ़ोतरी हुई है जिसका अर्थ है कि आम आदमी पर करों का बोझ बढ़ाया जा रहा है। शायद इन्हीं नीतियों का परिणाम है कि आज प्रधानमंत्री की जनसभा में लोगों को लाने की जिम्मेदारी प्रशासन को सौंपी गई है। और इसके लिए मुख्य सचिव को लिखित में आदेश जारी करने पड़े। लोगों को लाने उनको ठहराने और उनके खाने की व्यवस्था प्रशासन को करनी पड़ रही है। जब इस पर विपक्ष ने सवाल उठाया तो भाजपा की ओर से यह कहा गया कि राहुल गांधी की रैली के लिए कांग्रेस ने भी ऐसा ही किया था। इससे यह सवाल उठना शुरू हो गया है कि क्या भाजपा ने यह वादा किया था कि वह कांग्रेस से भी बड़े भ्रष्टाचार करेगी।


क्या सामान्य वर्ग आयोग का गठन एक राजनीतिक विवश्ता हो गयी थी

क्या आरक्षण के किसी भी प्रावधान कोई बदलाव राज्य सरकार कर सकती है
क्या स्वर्ण मोर्चा की मांगों को संसद या सर्वोच्च न्यायालय तक ले जायेगी प्रदेश भाजपा
अन्य पिछड़े वर्गों का आरक्षण अभी भी 18% तक ही क्यों लटका है
जनजातीय क्षेत्रों के बजट में 3% की कटौती का प्रस्ताव क्यों

शिमला/शैल। जयराम सरकार को स्वर्ण मोर्चा के दबाव के आगे सामान्य वर्ग आयोग के गठन की अधिसूचना जारी करनी पड़ी है। स्वर्ण मोर्चा लंबे समय से इस आयोग के गठन की मांग कर रहा था। विधानसभा के पिछले सत्र में भी मोर्चा के लोगों ने सदन के बाहर प्रदर्शन किया था। उस समय कांग्रेस विधायक विक्रमादित्य सिंह ने भी इस मांग का समर्थन किया था। मुख्यमंत्री ने भी यह आश्वासन दिया था कि सरकार आयोग का गठन करेगी। इस परिदृश्य में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि जब आयोग के गठन के लिए सरकार वचनबद्ध थी तो फिर मोर्चा के लोगों का हरिद्वार तक की पदयात्रा, शिमला में एट्रोसिटी एक्ट की शव यात्रा और अंत में धर्मशाला में मोर्चा को उग्र आंदोलन तक ले जाने की राजनीतिक आवश्यकता क्यों पड़ी? क्या यह आंदोलन प्रायोजित था? क्या इस आंदोलन और आयोग के गठन के पीछे कोई लंबी रणनीति है? यह सवाल इसलिए प्रसांगिक हैं क्योंकि ऐसे आयोग के गठन को किसी भी अधिनियम से बल नहीं मिलता है। इसे आयोग का गठन होने से किसी को लाभ नही मिल पायेगा। क्योंकि स्वर्ण मोर्चा की जो भी मांगे जातिगत आरक्षण हटाने को लेकर है उन पर कुछ भी कर पाना प्रदेश सरकार के अधिकार क्षेत्र में है ही नहीं। राज्य सरकार केवल केंद्र सरकार को इस तरह के आग्रह की सूचना और सिफारिश ही भेज सकती है। इस व्यवहारिक पक्ष को सामने रखते हुये सामान्य वर्ग आयोग के गठन से आने वाले दिनों में एक ऐसे राजनीतिक वातावरण की परिस्थितियां निर्मित हो जायेंगी जो सरकार और प्रदेश दोनों के ही हित में नहीं होंगी।
यह स्पष्ट है कि स्वर्ण मोर्चा की मुख्य मांग है कि जातिगत आरक्षण समाप्त करके सारा आरक्षण आर्थिक आधार पर किया जाये। पूर्व मुख्यमंत्री और प्रदेश भाजपा के वरिष्ठ नेता शांता कुमार ने भी एक बयान में मोर्चा की इस मांग का समर्थन करते हुए राष्ट्रीय स्तर पर ऐसे आंदोलन की आवश्यकता पर बल दिया है। शांता कुमार के इस बयान से यह संकेत उभरते हैं कि इस तरह के किसी आंदोलन की भूमिका तैयार की जा रही है। क्योंकि जातिगत आरक्षण देश की संसद द्वारा आयोगों काका कालेलकर 1953 और वी पी मंडल 1979 तथा विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा आरक्षण के आकार और आधार निर्धारित करने के लिए गठित 17 आयोगों की सिफारिशों के आधार पर लागू किया गया था। इसमें दोनों केंद्रीय आयोगों ने जाति को आरक्षण का आधार माना था। जबकि राज्य स्तर पर 17 में से चार कर्नाटक जम्मू-कश्मीर पश्चिम बंगाल और गुजरात ने आर्थिक स्थिति को आरक्षण का आधार माना था। इस परिदृश्य में जब मंडल आयोग की सिफारिसें 1990 में लागू करने का फैसला वी पी सिंह सरकार ने किया तब देश में किस तरह का हिंसक विरोध हुआ था यह सब जानते हैं। इसी विरोध के परिणाम स्वरूप वी पी सिंह की सरकार गिर गई थी। इसके बाद पी बी नरसिंह राव सरकार आयी। इस सरकार ने 25 सितम्बर 1991 को उंची जातियों के आर्थिक दृष्टि से कमजोर तबकों के लिए 10% अतिरिक्त आरक्षण देने का फैसला लिया। क्योंकि 1963 में ही सर्वोच्च न्यायालय बालाजी बनाम मैसूर राज्य में यह फैसला दे चुका था कि आरक्षण 50% से कम होना चाहिए। इस पर मंडल आयोग की सिफारिशों का मामला फिर सर्वोच्च न्यायालय पहुंच गया। 16 नवंबर 1992 को इंदिरा साहनी बनाम भारत का सरकार में ऐतिहासिक फैसला आ गया और आरक्षण की अधिकतम सीमा 50% निर्धारित कर दी गयी। 8 सितंबर 1993 को इस फैसले को लागू करने की अधिसूचना जारी हो गयी। जिसमें अन्य पिछड़े वर्गों के लिए 27%आरक्षण कर दिया गया। इसमें यह महत्वपूर्ण रहा है कि सर्वोच्च न्यायालय ने उंची जातियों के आर्थिक रूप से दुर्बल वर्गों और पिछड़ी जातियों के सम्पन लोगों के लिए आरक्षण को सामान्य करार दे दिया। इसके लिए संविधान की धारा 16(4) को आधार बनाया गया इसी में पिछड़ी जातियों के संपन्न लोगों को चिन्हित करने के लिए क्रीमी लेयर का मानक रखा गया। उस समय यह क्रीमी लेयर एक लाख आय रखी गयी थी जो अब मोदी सरकार ने बढ़ाकर आठ लाख कर दी है। यही नहीं सर्वोच्च न्यायालय ने जब भी आरक्षण को लेकर कोई व्यवस्था देने का प्रयास किया है तो मोदी सरकार ने ऐसे हर प्रयास को संसद में निरस्त कर दिया है। आज भी हिमाचल प्रदेश में अन्य पिछड़ी जातियों के लिए तय आरक्षण की 27 प्रतिशत सीमा का व्यवहारिक रूप से पालन नहीं हो रहा है। सरकारी नौकरियों में आरक्षण अभी 18%से आगे नहीं बढ़ पाया है। अन्य क्षेत्रों में तो यह 10% से भी बहुत कम है। दूसरी ओर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए जो 9% बजट का प्रावधान रखा गया है उसमें से भी 3% काटकर उन जनजातियों को देने का फैसला लिया जा रहा है जो जनजातीय क्षेत्रों से बाहर रह रही हैं। जबकि इन्हीं वर्गों ने पिछले दिनों शिमला में आयोजित एक सम्मेलन यह आरोप लगाया है कि उनके लिए आवंटित बजट का 7% भी खर्च नहीं किया जा रहा है।
इस वस्तु स्थिति में सामान्य वर्ग आयोग स्वर्ण मोर्चा की मांगों पर अमल करने के लिए क्या कर पायेगा। क्योंकि आरक्षण के किसी भी प्रावधान को बदलने या उसमें कुछ जोड़ने घटाने का एक ही मंच है और वह संसद है। दूसरा मंच सर्वोच्च न्यायालय है लेकिन उसके फैसलों को बदलने का अधिकार संसद के पास रहता है। ऐसे में जब आने वाले दिनों में मोर्चा का नेतृत्व सरकार से यह पूछेगा कि उसकी मांगों का क्या हुआ तो सरकार क्या जवाब देगी। क्या सरकार मोर्चा की मांगे केंद्र सरकार को भेजेगी और अपने सांसदों के माध्यम से संसद में उठवायेगी? या सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटायेगी? यह सवाल चुनावी वर्ष में हर रोज उठाने के लिये मंच तो बन ही चुका है। इसी के साथ अन्य पिछड़ा वर्ग के लोग भी उनके लिये तय आरक्षण कि 27 प्रतिशत सीमा की हर क्षेत्र में अनुपालन की मांग करेंगे। जनजातीय क्षेत्रों के बजट में 3% की कटौती के प्रस्ताव पर यहां के नेतृत्व की प्रतिक्रिया क्या रहेगी यह देखना भी दिलचस्प होगा। सरकार ने स्वर्ण मोर्चा के प्रदर्शन के दबाव में आयोग का गठन कर दिया पेंशन योजना के प्रदर्शन पर उनके लिये कमेटी का गठन कर दिया। इससे यह स्पष्ट हो गया है कि अपनी मांग मनवाने के लिये सरकार को आंखे दिखाने का ही विकल्प शेष रह गया है।

कोविड को लेकर "Covid Vaccination Voluntary, Hasn't Mandated Vaccination" केंद्र सरकार का सर्वोच्च न्यायालय में शपथ पत्र

क्या इस शपथ पत्र के बाद भी कोई अधिकारी टीकाकरण के आदेश जारी कर पायेगा
क्या आरोग्य सेतु एप पर भी सरकार का ऐसा ही स्टैंड नहीं रहा है

शिमला/शैल। कोविड वैक्सीन को लेकर सर्वोच्च न्यायालय में नेशनल टेक्निकल एडवाइजरी ग्रुप ऑफ इम्यूनाइजेशन के पूर्व सदस्य डॉक्टर जैकव पुलियेल ने एक याचिका दायर करके वैक्सीन के संबंध में हुए ट्रायल्स का डाटा उपलब्ध करवाने का आग्रह किया था। इस याचिका की पैरवी सर्वोच्च न्यायालय में वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण कर रहे हैं। यह याचिका शीर्ष अदालत में न्यायमूर्ति एल नागेश्वरा राव और बी.आर.गवई की पीठ में चल रही है। इस याचिका में सर्वोच्च न्यायालय के सामने यह भी रखा गया है कि Vaccine Mandates Are Not Proportionate To Personal Liberty, इसमें कई राज्य सरकारों के निर्देशों का नाम लेकर जिक्र किया गया है। अदालत ने इन सभी राज्यों को इसमें पार्टी बनाने के निर्देश देते हुये इस आरोप का कड़ा संज्ञान लिया है। पिछले सप्ताह सुनवाई के लिए आये इस मामले में भारत सरकार के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय और केंद्रीय ड्रग्ज स्टैंडर्ड कंट्रोल ऑर्गेनाइजेशन की ओर से दायर किये गये शपथ पत्र में कहा गया है कि कोविड-19 के वैक्सीनेशन के लिए कोई वैधानिक अनिवार्यता नहीं रखी गयी है और यह वैक्सीनेशन एकदम ऐच्छिक है। यह शपथ पत्र सर्वोच्च न्यायालय में दायर किया गया है। इसलिए इस पर संदेह नहीं किया जा सकता। इस शपथ पत्र से कोविड-19 की गंभीरता को लेकर कई बुनियादी सवाल उठ खड़े होते हैं।
यदि पिछले कुछ वर्षों पर नजर डाली जाए तो यह सामने आता है कि हर 10-12 वर्ष के अंतराल में कोई न कोई बीमारी आती रही है। कोविड-19 से पहले स्वाइन फ्लू था। और स्वाइन फ्लू तथा कोविड के लक्षणों में कोई ज्यादा अंतर नहीं है। दोनों एक जैसे ही गंभीर कहे गये हैं। देश में हर जन्म और मरण का पंजीकरण होता है यह नियम है। मरण के आंकड़े संसद में गृह मंत्रालय के तहत रजिस्ट्रार जनरल द्वारा रखे जाते हैं। 2018 तक के आंकड़े संसद में रखे जा चुके हैं और इनके अनुसार देश में 2018 में 69 लाख लोगों की मौत हुई है। हिमाचल का आंकड़ा ही 48000 रहा है। इसी आंकड़े के में स्वाइन फ्लू से हुई मौतें भी शामिल हैं। लेकिन इन मौतों के बावजूद भी कोई लॉकडाउन घोषित नही किया गया था और न ही वैक्सीनेशन के लिए आज की तरह कोई स्पेशल ड्राइव शुरू किया गया था। जबकि फरवरी 2020 में भी आईजीएमसी शिमला के अतिरिक्त मंडी और धर्मशाला में स्वाइन फ्लू के मरीज दाखिल थे। उस दौरान भी मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने एक पत्रकार वार्ता में स्पेशल आईसीयू बनाने के निर्देश दिये थे।
लेकिन कोविड-19 के मामले में देश में 24 मार्च 2020 को लॉकडाउन घोषित कर दिया गया जो कई चरणों में चला। इस लॉकडाउन के कारण अस्पतालों में ओपीडी और इन डोर दोनों सेवाएं बंद हो गई। उस समय अकेले आईजीएमसी का ओपीडी का 2018 का आंकड़ा 8 लाख रहा है। यदि उस समय अस्पताल में दाखिल मरीजों का 1ः भी गंभीर रहा होगा तो उसका इलाज बंद होने पर उसकी क्या स्थिति रही होगी इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। कोविड कि वैक्सीन तो 16 जनवरी 2021 से शुरू हुई लेकिन इसका निर्माण लॉकडाउन से पहले ही हो चुका था यह तथ्य सामने आ चुका है। अप्रैल 2020 को तो एक डॉ. कुनाल शाह ने सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर करके इसके संभावित इलाज पर कुछ आशंकाएं उठाई थी। जिन्हें जस्टिस रमना की पीठ ने आईसीएमआर को भेज दिया था। इसी दौरान अजीम प्रेम जी के सहयोग से उनके एक नागपुर स्थित एनजीओ साथी की एक स्टडी भी सामने आई जिसमें खुलासा किया गया है कि फॉर्मा कंपनियां अपनी दवाएं प्रमोट करने के लिए किस तरह के हथकंडे अपनाती हैं। फार्मा कंपनियों की इसी तरह की भूमिका का पूर्व मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री शांता कुमार ने भी अपनी आत्मकथा में उल्लेख किया है। आज भी सरकार के पास ऐसी कोई स्टडी नहीं है की लॉकडाउन से पूर्व जो लोग ओपीडी और इन डोर होकर इलाज करवा रहे थे उनमें से इलाज बंद होने पर कितने कोविड के संक्रमण का शिकार हुये और मर गये। आज यह सारे सवाल इसलिये प्रसांगिक हो जाते हैं की सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में शपथ पत्र देकर यह कहां है की वैक्सीनेशन अनिवार्य नहीं वर्ण एच्छीक है। क्या इस शपथ पत्र के बाद कोई भी अधिकारी वैक्सीनेशन को लेकर कोई लिखित आदेश करेगा। आज जो स्टैंड वैक्सीनेशन को लेकर लिया गया है पूर्व में ऐसा ही स्टैंड आरोग्य सेतु एप को लेकर भी रहा है।
अब जब केंद्र सरकार ने शपथ पत्र देकर यह कहा कि वैक्सीनेशन ऐच्छिक है और इसे वैधानिक अनिवार्यता नहीं बनाया गया है तब यह सवाल उठना भी स्वाभाविक है। इसको लेकर जो अन्य मास्क आदि को लेकर जो निर्देश जारी किये गये हैं और उनकी अनुपालना न किये जाने पर जो जुर्माना आदि लगाया जा रहा है उसका वैधानिक आधार क्या है। क्योंकि किसी भी बीमारी का सबसे बड़ा पक्ष उसकी दवाई होता है। यह वैक्सीनेशन इस बीमारी में दी जाने वाली कोई दवाई नहीं है इससे केवल इसके संक्रमण से कुछ समय के लिए बचा जा सकता है। यह भी नहीं है कि वैक्सीनेशन लेने के बाद आदमी कोविड का संक्रमित नहीं हो सकता। इसलिए जो लोग इस बीमारी को महामारी की संज्ञा देने का विरोध करते हुये इसे सामान्य बीमारियों की तरह ही लेने की राय दे रहे थे वह शायद सही थे। 24 मार्च 2020 को लॉकडाउन लगाकर जिस तरह की बंदीशें लगा दी गई थी और उनसे जिस तरह का नकारात्मक प्रभाव देश की आर्थिकी और अन्य क्षेत्रों पर पड़ा है उस सब पर सरकार के इस शपथ पत्र के बाद देर सवेर जो सवाल और चर्चाएं उठाएंगे उनका अंतिम परिणाम कहीं आपातकाल में लाये गये नसबंदी अभियान जैसा ही न हो इसकी संभावनाएं बनती जा रही है।

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