हिमाचल में भी दिल्ली मॉडल सफल नहीं हो सकता
दिल्ली मॉडल को मुफ्ती की घोषणाओं से मुक्त होना होगा
आप का प्रादेशिक नेतृत्व अभी तक शिक्षा और स्वास्थ्य के पाठों से बाहर क्यों नहीं निकल पा रहा है
शिमला/शैल। क्या आम आदमी पार्टी की पंजाब के संगरूर में हार केजरीवाल के बहुप्रचारित दिल्ली मॉडल को झटका है? क्या यह मॉडल जनता की अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं है? इसलिए चार माह बाद ही पंजाब की जनता ने इसे नकार दिया? क्या पंजाब की इस हार का असर अन्य राज्यों में भी पार्टी की संभावनाआंे को प्रभावित करेगा? क्या हिमाचल में इसका तुरन्त प्रभाव पड़ेगा? ऐसे बहुत सारे सवाल है जो इस हार के बाद उठ खड़े हुये हैं। क्योंकि पंजाब में चार माह पहले ही पार्टी ने 92 सीटें जीतकर ऐतिहासिक जीत दर्ज कर दी थी। दिल्ली मॉडल के नाम पर पंजाब की जनता ने अन्य दलों को ऐसी हार दी थी की प्रकाश सिंह बादल और कैप्टन अमरेन्द्र जैसे नेता हार गये। लेकिन आज उसी पंजाब में पार्टी के मुख्यमंत्री भगवंत मान को उन्ही के बूथ पर हार मिलना और केवल 45ः मतदान होना ऐसा सच है जिसने पार्टी की बुनियाद को हिला कर रख दिया है। पंजाब की जीत के सहारे ही हिमाचल में पार्टी कांग्रेस और भाजपा का विकल्प बनने का दावा करने लगी थी। इस समय जनता महंगाई और बेरोजगारी से इस कदर परेशान हो चुकी है कि वह केंद्र से लेकर राज्यांे तक वर्तमान सत्ता से निजात पाना चाहती है इसीलिये आप को यह विकल्प के रूप में देखा जाने लगा था। लेकिन पंजाब की हार ने विकल्प की सारी संभावनाओं पर अब ऐसा प्रश्न चिन्ह लगा दिया है जिससे बाहर निकलना आसान नहीं रह गया है। इस परिदृश्य में यह समझना आवश्यक हो जाता है की जिस दिल्ली मॉडल के नाम पर दिल्ली में सरकार चल रही है और दिल्ली का उप चुनाव भी जीत लिया है तो फिर उसी मॉडल के कारण पंजाब में ऐसी हार क्यूं? यहां यह स्मरण रखना आवश्यक है कि दिल्ली की संरचना देश के अन्य राज्यों से भिन्न है। जितना कर राजस्व दिल्ली को मिलता है उतना किसी दूसरे राज्यों को नहीं मिलता। केंद्र शासित राज्य होने के कारण बहुत सारे विभाग केंद्र के पास हैं। दिल्ली में ग्रामीण क्षेत्र नहीं के बराबर है। दिल्ली की नगर निगमों के पास सरकार का आधे से ज्यादा काम है। दिल्ली में कर राजस्व सबसे अधिक होने के कारण शीला दीक्षित के समय तक सरकार के पास सरप्लस राजस्व था। कैग रिपोर्ट के मुताबिक जब केजरीवाल ने सत्ता संभाली थी तब दिल्ली के पास करीब 13000 करोड़ का सरप्लस था। केजरीवाल ने राजस्व को जनता तक पहुंचाने का काम तो किया। लेकिन इसकी सारी सेवाएं जनता को मुफ्त में उपलब्ध करवानी शुरू कर दी। इस मुफ्ती के कारण जो सरप्लस राजस्व विरासत में मिला था वह अब लगभग खत्म होने के कगार पर है। बल्कि कोविड काल में केंद्र सरकार से 5000 करोड़ की सहायता मांगने की स्थिति आ गयी थी। मुफ्ती योजनाओं को ही दिल्ली मॉडल की संज्ञा दे दी गयी। पंजाब के चुनाव में भी मुफ्ती के सारे दरवाजे खोल दिये गये। हर वर्ग को कुछ न कुछ मुफ्त देने की घोषणाएं कर दी गयी। दिल्ली में बहुत कुछ मुफ्त मिल रहा था इसलिये पंजाब में भी इस पर विश्वास कर लिया गया और सत्ता परिवर्तन हो गया। लेकिन सत्ता में आने पर जब पंजाब की आर्थिक स्थिति की सही जानकारी सामने आयी तब अपने वायदे पूरे करने के लिये केंद्र से 50 हजार करोड़ की मांग कर दी गयी। इस मांग की प्रतिक्रिया के परिदृश्य में ही तो दिल्ली में वरिष्ठ अधिकारियों की प्रधानमंत्री से बैठक हुई और यह आग्रह किया गया कि यदि मुफ्ती की घोषणाओं पर अंकुश न लगाया गया तो कुछ राज्यों की स्थिति श्रीलंका जैसी हो जायेगी। यह इशारा आम आदमी पार्टी और पंजाब की ओर ज्यादा था। यही पंजाब के राजनीतिक परिदृश्य में फिर से बदलाव का कारण बन गया। क्योंकि जनता को तो घोषणा की पूर्ति चाहिये थी। जबकि आज देश का कोई भी राज्य कर्ज के बिना कर्मचारियों को वेतन देने की स्थिति में नहीं रह गया है। मुफ्ती के वायदे पूरे न हो पाने के कारण भ्रष्टाचार के खिलाफ उठाये गये कदमों का भी जनता पर कोई प्रभाव नहीं हो सका। बल्कि इस हार के बाद यह बहुत आवश्यक हो गया है कि केजरीवाल के दिल्ली मॉडल को केंद्र और राज्यों की जमीनी आर्थिक स्थिति के आईने में रखकर एक व्यापक बहस कर ली जाये। क्योंकि जब जनता को हकीकत से दो-चार होना पड़ता है तो न केवल उसके भ्रम टूट जाते हैं बल्कि उसका विश्वास भी टूट जाता है। आज पंजाब की हार का असर हिमाचल में भी पार्टी के गठन पर पड़ेगा यह तय है। क्योंकि हिमाचल की जनता को प्रभावित करने के लिये केजरीवाल हर बार पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान को अपने साथ लेकर आये हैं। परंतु अब जब मान अपने बूथ पर ही हार गये हैं तो हिमाचल की जनता इससे प्रभावित नहीं हो पायेगी। फिर हिमाचल की आप इकाई अभी तक केंद्रीय नेताओं द्वारा पढ़ाये शिक्षा और स्वास्थ्य के पाठ से आगे नहीं बढ़ पाये हैं। फिर यह भी नहीं बताया गया कि इन क्षेत्रों को सुधारने के लिये कौन से व्यवहारिक कदम उठाये जायेंगे। ऐसे में यह बहुत आवश्यक है कि जब तक स्थानीय नेतृत्व की अपनी विश्वसनीयता प्रदेश की जनता में नहीं बन पायेगी तब तक पार्टी का आगे बढ़ पाना बहुत ज्यादा संभव नहीं होगा। संयोगवश प्रादेशिक नेतृत्व में से अभी तक किसी पर भी यह विश्वास नहीं बन पाया है कि उसके पास प्रदेश का विस्तृत अध्ययन हो जो पूरी प्रमाणिकता के साथ कांग्रेस और भाजपा को एक साथ चुनौती देने की क्षमता रखता हो। हिमाचल को दिल्ली के मॉडल से चलाने के प्रयास सफल नहीं हो सकते। यह प्रदेश नेतृत्व को अब समझ आ जाना चाहिये।
शिक्षा और सैनिक स्कूलों में प्राइवेट सैक्टर की भागीदारी पर पार्टी खामोश क्यों
शिमला/शैल। हिमाचल की आम आदमी पार्टी इकाई की ओर से प्रदेश के स्कूलों की खस्ता हालत को आने वाले चुनाव का केंद्रीय मुद्दा बनाने का प्रयास किया जा रहा है। इसके लिये प्रदेश इकाई ने अपने कार्यकर्ताओं और दूसरे लोगों से अपने आसपास के स्कूलों के साथ सेल्फी लेकर भेजने का आग्रह किया है। अभी जब अग्निपथ योजना केंद्र सरकार ने जारी की और इसको लेकर पूरे देश का युवा आक्रोशित होकर सड़कों पर उतर आया। यह आक्रोश हिंसक विरोध की शक्ल तक ले गया। देश के विपक्षी दलों ने इस योजना के खिलाफ अपनी तीव्र प्रतिक्रियाएं जारी की है। इसी कड़ी में प्रदेश की आम आदमी इकाई ने भी राज्यपाल को एक ज्ञापन सौंपा है और इसे वापस लेने का आग्रह किया है। जबकि अब सेना की ओर से भी अधिकारिक रूप से यह ऐलान कर दिया गया है कि योजना वापस नहीं होगी। बल्कि भर्ती का शेडयूल जारी करने की बात की गयी है। स्वभाविक है कि इस ऐलान के बाद या तो यह विरोध गंभीर टकराव की शक्ल लेगा या स्वतः ही शांत हो जायेगा। क्या होता है यह आने वाला समय बतायेगा। लेकिन इस स्थिति में राजनीतिक दलों के लिये कुछ गंभीर सवाल अवश्य उछाल दिये हैं। इसमें भी हिमाचल के संदर्भ में आम आदमी पार्टी के लिये स्थिति और भी गंभीर होगी क्योंकि वह प्रदेश में एक तरह से राजनीतिक शुरुआत कर रही है। उसका कोई भी कमजोर प्रयास केवल सत्तारूढ़ भाजपा के लिये ही लाभकारी होगा और प्रदेश की आम जनता के लिए नहीं। आम आदमी पार्टी इकाई ने प्रदेश के स्कूलों की दशा दिशा को मुद्दा बनाने का प्रयास किया है। क्योंकि उनके राष्ट्रीय नेता अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया दो-दो बार हिमाचल आकर शिक्षा पर संवाद आयोजित करके यह मंत्र प्रदेश के नेताओं और कार्यकर्ताओं को दे गये हैं। कितने स्कूलों का परिणाम क्या रहा है? कितनों के अपने भवन नहीं है? कितनों स्कूलों में कितने अध्यापकों की कमी है? कितने एक ही टीचर के सहारे चल रहे हैं? यह सारे आंकड़े रखते हुये राष्ट्रीय नेतृत्व ने यह दावा किया है कि वह प्रदेश में शिक्षा की स्थिति को सुधार देंगे। इसके लिए धन कहां से आयेगा? इसके जवाब में भ्रष्टाचार पर नियंत्रण पाने की बात कहकर एक मंत्री का नाम लिये बगैर यह उछाल दिया कि जो मंत्री पहले दो कमरों के मकान में रहता था अब उसकी हैसियत बेटे की शादी की दस-दस रिसैप्शन देने की कैसे हो गयी? इस कथन से थोड़ी देर तालियां तो मिल सकती है लेकिन यह प्रश्न का उत्तर नहीं हो सकता है। हिमाचल की आर्थिक और भूगौलिक स्थिति दिल्ली से अलग है। हिमाचल में शिक्षा की यह स्थिति क्यों है इस पर प्रदेश के नेताओं से विस्तार में बात आनी चाहिये थी। क्योंकि हर चीज के लिये संसाधन आर्थिक स्थिति पर निर्भर करते हैं और प्रदेश पहले ही 70 हजार करोड़ के कर्ज के चक्रव्यूह में फंसा हुआ है। कर्ज के चक्रव्यूह से बाहर निकलने का क्या रास्ता होगा? जब तक इस पर संतोषजनक प्रारूप सामने नहीं आयेगा पार्टी को लेकर गंभीरता नहीं आ पायेगी। आज केंद्र सरकार नई शिक्षा नीति लेकर आ चुकी है इस नीति से आम आदमी पार्टी कितनी सहमत है इस पर अभी तक कोई शब्द नहीं कहा गया है। नई शिक्षा नीति में शिक्षा संस्थानों के लिये वित्तीय स्वायतता की बात की गयी है। इस पर पार्टी का स्टैंड क्या है? इसी के साथ शिक्षा में प्राइवेट सैक्टर की भागीदारी वित्तीय स्वायत्तता के संदर्भ में आने वाले समय का एक बड़ा मुद्दा होगा। जिस पर हर पार्टी को अपना पक्ष स्पष्ट करना होगा। लेकिन आप शिक्षा के इन महत्वपूर्ण बिंदुओं पर पूरी तरह खामोश है। ऐसा लगता है कि उसके प्रदेश नेतृत्व ने शिक्षा नीति को पढ़ा ही नहीं है। केवल शिक्षा के नाम पर एक लोक लुभावन स्थिति खड़ी करने का प्रयास किया जा रहा है। इससे अंत में राजनीतिक लाभ भी मिल पायेगा इसकी संभावना नहीं के बराबर रह जाती है।
शिक्षा ही की तरह अग्निपथ योजना को लेकर राज्यपाल को सौंपे गये ज्ञापन में भी पार्टी की गंभीरता नजर नहीं आती है। क्योंकि आज केंद्र सरकार ने सैनिक स्कूलों में प्राइवेट सैक्टर की भागीदारी लाने की योजना बना दी है। इस भागीदारी में 100 स्कूल खोले जाने की योजना है। इसके पहले चरण में 21 स्कूल खोले जा रहे हैं। यह स्कूल वर्तमान में चल रहे सैनिक स्कूलों से भिन्न होंगे। क्योंकि वर्तमान में चल रहे 35 सैनिक स्कूलों में से 33 रक्षा मंत्रालय की सोसायटी द्वारा दो सरकार चला रही है। एक उत्तर प्रदेश सरकार तथा दूसरा जम्मू कश्मीर द्वारा चलाया जा रहा है। लेकिन नये स्कूल एन.जी.ओं/प्राइवेट स्कूल/राज्य सरकारों की भागीदारी से चलाये जायेेंगे। इस योजना से सैनिक स्कूलों के संचालन में प्राइवेट सैक्टर का दखल आ जायेगा। सरकार और उसके समर्थक इस नीति का समर्थन कर रहे हैं। राजनीतिक दल इस पहलू पर खामोश हैं। जबकि सेना जैसे संस्थान मंे ऐसे नीतिगत फैसले के दूरगामी परिणाम होंगे। ऐसे में आज जब अग्निपथ पर युवा आक्रोशित है और यह प्राइवेट सैक्टर की प्रस्तावित भागीदारी भी आने वाले समय में इस युवा को सीधे प्रभावित करेगी। इस परिपेक्ष में आज राजनीतिक दलों और दूसरे विचारकों को अपनी स्थिति स्पष्ट करना आवश्यक हो जाता है। इस पर किसी भी दल की कैजुअल अप्रोच उसके लिए घातक सिद्ध होगी। आप की प्रदेश इकाई द्वारा राज्यपाल को सौंपे गए ज्ञापन में इस पर खामोशी पार्टी की गंभीरता को लेकर कई सवाल खड़े कर देती है।
Ministry of Defence approves 21 new Sainik Schools in partnership mode from academic year 2022-2023
Ministry of Defence (MoD) has approved setting up of 21 new Sainik Schools, in partnership with NGOs/private schools/State Governments. These schools will be set up in the initial round of the Government’s initiative of setting up of 100 new Sainik schools across the country in partnership mode. They will be distinct from the existing Sainik Schools.

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