-डा. राकेश कपूर-
शिमला/शैल। ऋषिगंगा अपेक्षाकृत छोटी नदी है जो रैणी में धौलीगंगा में मिल जाती है। धौलीगंगा विष्णुप्रयाग में अलकनंदा में मिल जाती है। लेकिन इस छोटी ऋषिगंगा में उठे जलजले के निशान रैली से लेकर तपोवन तक घटना के एक दिन बाद भी देखे जा सकते हैं। पूरी अलकनंदा की धारा में जो कलुषिता दिखाई दे रही है, वह भी घटना की भयावहता को बयान कर रही है।
घटना के दूसरे दिन ऋषिगंगा और धौलीगंगा में पानी बेहद कम है। इतना कम कि यदि सिर्फ नदी में पानी की धार को देखें, उसमें मलबे के कालेपन को दिमाग से उतार दें तो अंदाजा भी नहीं लगा सकते कि यही पानी है, जिसने एक जलविद्युत परियोजना का नामोनिशान मिटा दिया, एक निर्माणाधीन परियोजना को उजड़ी हुई अवस्था में तब्दील कर दिया, पुलों को बहा दिया, एक बड़े इलाके के लोगों का शेष भारत से संपर्क ही काट दिया और इन सबसे भी अधिक त्रासद, सरकारी आंकड़े में बहुत रोक कर भी जो संख्या 200 हो गयी है, इतने लोगों के प्राण हर लिए। तपोवन में निर्माणाधीन 530 मेगावाट की तपोवन-विष्णुगाड़ परियोजना की सुरंग में भरा हुए मलबा भी, अब मामूली धार में बह रहे पानी की घटना के वक्त के रौद्र रूप की हृदयविदारक गवाही दे रहा है। यह सुरंग नदी तल से काफी ऊपर है। नदी के पानी के साथ आया मलबा लगभग पूरा मोड़ काट कर इस सुरंग के अंदर घुसा है और लगभग 500 मीटर लंबी इस सुरंग को पूरी तरह मलबे ने पाट दिया। इस सुरंग के भीतर लगभग 50 मजदूर काम कर रहे थे, जब मलबे ने सुरंग को पूरी तरह भर दिया। 500 मीटर लंबी सुरंग में दूसरे दिन तक केवल 100 मीटर ही मलबा साफ किया जा सका। 24 घंटे से अधिक समय तक (इन पंक्तियों के लिखे जाने तक वह अवधि 48 घंटे होने को है) उस मलबे के लंबे-चौड़े ढेर के बीच फंसे हुए मजदूरों की क्या हालत हुई होगी या हो रही होगी, यह सोचना ही आपको सिहरन या अवसाद से भर देता है। सुरंग की सफाई में लगे एनडीआरएफ, आईटीबीपी आदि के सुरक्षा कर्मियों को टकटकी लगा कर लोग देख रहे हैं। जिनको अपने के साथ अनहोनी की सूचना मिल चुकी, उनमें से एक को सड़क पर ही बिलखते हुए देखना दुख और असहाय होने का भाव पैदा करता है। एक छोटी नदी के मामूली दिखने वाली पानी की धार ने ऐसा भयावह मंजर कैसे पैदा किया? नदी है तो उसमें पानी घटेगा-बढ़ेगा, लेकिन उसका वेग इतना मारक कैसे हुआ? क्या नदी तटों से कई फीट ऊपर तक बिखरे हुए मलबे के लिए सिर्फ नदी के पानी और उसके उफान को जिम्मेदार ठहरा कर इतिश्री कर ली जानी चाहिए? तपोवन-विष्णुगाड़ परियोजना की बैराज साइट पर जहां मजदूर सुरंग मलबे के ढेर में दबे हैं, वहां जगह-जगह सुरक्षा को लेकर बोर्ड लगे हुए हैं। लेकिन सुरक्षा का कोई इंतजाम या पूर्व चेतावनी का कोई तंत्र (अर्लि वार्निंग सिस्टम) अस्तित्व में रहा हो, ऐसे कोई चिन्ह नजर नहीं आते। सुरक्षा संबंधी बोर्डों की इफरात है पर बोर्ड न सुरक्षा कर सकते हैं और न खतरे की चेतावनी दे सकते हैं! उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत का ट्वीट है, जिसमें उन्होंने कल अपने जोशीमठ प्रवास की बात के साथ ‘हादसे को विकास के खिलाफ प्रोपेगैंडा का कारण’ न बनाने की अपील की है। तबाही का मंजर देखने की बाद और मलबे में दफन मजदूरों की सुरंग के मुहाने पर खड़े हो कर भी अगर चिंता परियोजना की ही हो रही है तो समझा जा सकता है कि पक्षधरता किस ओर है!
विकास की कैसी मार है, वह जोशीमठ क्षेत्र में प्रस्तावित और बन रही परियोजना की एक संक्षिप्त सूची से समझिए। मलारी-जेलम, जेलम- तमक, मरकुड़ा-लाता, लाता-तपोवन, तपोवन-विष्णुगाड़, विष्णुगाड़- पीपलकोटी आदि। यानि जिस विकास के खिलाफ प्रोपेगैंडा न करने की बात मुख्यमंत्री कह रहे हैं, वह विकास हो जाये तो यहां हर कदम पर जलविद्युत परियोजना होगी। एक परियोजना का पावर हाउस जहां है, वहां दूसरी परियोजना की बैराज साइट शुरू हो रही है। जिस परियोजना की साइट में मजदूरों के फंसे होने के चलते मुख्यमंत्री ने जोशीमठ में रात्रि प्रवास किया, उस तपोवन विष्णुगाड़ परियोजना का एक किस्सा सुनिए और विकास की इस मार को समझिए। 2003-04 से इस परियोजना के खिलाफ जोशीमठ में भाकपा (माले) के राज्य कमेटी सदस्य काॅमरेड अतुल सती के साथ आंदोलन में काफी अरसे तक शामिल रहने के चलते, इस परियोजना के संदर्भ में बहुत सारी जानकारी है, जिसे मैं क्रमबद्ध तरीके से साझा करूंगा। लेकिन फिलहाल यह शुरुआती किस्से देखिये। एनटीपीसी द्वारा बनाई जा रही तपोवन-विष्णुगाड़ परियोजना की डीपीआर में उल्लेख था कि भूगर्भ वैज्ञानिकों ने सलाह दी कि जिस स्थल पर बैराज प्रस्तावित है (जिसके अब ध्वंसावशेष खड़े हैं), उसे वहाँ नहीं बनाया जाना चाहिए क्यूंकि वहां (जहां सुरंग बनेगी) गर्म पानी के सोते (हाट वाटर स्प्रिंग्स) होने की संभावना है। फिर डीपीआर में पूरी गणित के साथ समझाया गया था कि उस स्थान पर बैराज न बनाने से कितना आर्थिक नुकसान होगा, लिहाजा कंपनी बैराज वहीं बनाएगी। इससे आप समझ सकते हैं कि वैज्ञानिक तकनीक का उपयोग करते हुए भी इन परियोजनाओं में वैज्ञानिक राय को मुनाफे के लिए किनारे धकेलने की प्रबल प्रवृत्ति है। विकास सबको चाहिए, बिजली भी चाहिए पर सवाल है-किस कीमत पर? विज्ञान से हासिल क्षमताओं का अवैज्ञानिक उपयोग करके आक्रांता की तरह प्राकृतिक संसाधनों का दोहन किया जाएगा तो प्रकृति की मार तो झेलनी ही पड़ेगी। उस मार से गाफिल ‘विकास’ का जाप करना उन्हीं के लिए आसान है, जो जानते हैं कि प्रकृति जब पलटवार कर रही है तो उस घातक प्रहार से वे कोसों दूर अपनी सुरक्षित खोहों में हैं।
निर्भया फण्ड के तहत मिले 9.36 करोड़ प्राईवेट कंपनीयों के हवाले
सार्वजनिक वाहनों मे जीपीएस लगाने का काम प्राईवेट कंपनीयों को क्यों
प्राईवेट कंपनीयों के पास पहुंचे डाटा की सुरक्षा पर उठे सवाल
शिमला/शैल। हिमाचल सरकार समाज कल्याण कार्यक्रमों के प्रति कितनी गंभीर है इसका अनुमान विधानसभा पटल पर रखे गये आर्थिक सर्वेक्षण में दर्ज ब्योरे से मिल जाता है। इस ब्यौरे के अनुसार सरकार सामाजिक न्याय एवम् अधिकारिता विभाग समाज कल्याण के कार्यक्रमों का संचालन करता है। इसमें अल्प संख्यक वित्त एवम् विकास निगम, हिमाचल प्रदेश पिछड़ा वर्ग वित्त एवम् विकास निगम तथा हिमाचल प्रदेश अनुसूचित जाति एवम् अनुसूचित जन जाति विकास निगम भी सरकार को सहयोग कर रहे हैं। इनके अतिरिक्त सक्षम गुड़िया बोर्ड भी गठित है। इसी के साथ विभाग महिलाओं, बच्चों और एससी/एसटी के कल्याण के लिये 30 योजनाओं को भी कार्यान्वित कर रहा है। तीन निगमों और 30 योजनाओं के लिये 12.52 करोड़ का प्रावधान 2019-20 में रखा गया था।
जब दिल्ली में निर्भया कांड घटा था तब पूरे देश में महिलाओं की सुरक्षा एक बड़ा मुद्दा बन कर सामने आया था। सर्वोच्च न्यायालय ने भी इसका कड़ा संज्ञान लिया था। सारे सरकारी और गैर सरकारी कार्यस्थलों में महिलाओं की सुरक्षा और उनकी शिकायतों का संज्ञान लेने के लिये प्रकोष्ठ गठित करने के निर्देश दिये गये थे। इन्ही निर्देशों के परिणामस्वरूप केन्द्र में निर्भया फंड की स्थापना की गयी थी। इसके तहत राज्यों में कमाण्ड और कन्ट्रोल सैन्टर स्थापित किये जाने थे। इसके लिये सारे वाहनों मे जीपीएस सिस्टम लगाये जाने का प्रावधान किया जाना था। क्योंकि अधिकांश महिला अपराध वाहनों में घटे हैं। जीपीएस संयन्त्र लगाने की जिम्मेदारी परिवहन विभाग द्वारा बीएसएनएल या एनआईसी के सहयोग से पूरी की जानी थी। कमाण्ड और कन्ट्रोल प्रकोष्ठ राज्य सरकार के गृह विभाग के तहत होने थे क्योंकि उसी के पास पुलिस का नियन्त्रण होता है।
हिमाचल सरकार को केन्द्र द्वारा निर्भया फण्ड के 9.36 करोड़ दिये गये थे। इनसे राज्य में इस आशय का कमाण्ड एण्ड कन्ट्रोल सैन्टर स्थापित किया जाना था। इसके अतिरिक्त सार्वजनिक वाहनों में जीपीएस सिस्टम लगाये जाने थे। राज्य में करीब चार लाख सार्वजनिक वाहन हैं। इतने वाहनों में यह सिस्टम लगाना व्यापारिक दृष्टि से एक बड़ा काम है। यह बड़ा काम अपने ही लोगों को मिले इसके लिये प्रदेश सरकार ने महिला सुरक्षा के तहत स्थापित किये जाने वाले कमाण्ड एण्ड कन्ट्रोल सैन्टर की स्थापना का काम ही चार प्राईवेट कंपनीयों के हाथों में सौंप दिया है। यह कंपनीयां सार्वजनिक वाहनों में जीपीएस लगाने का काम करेंगे। इन वाहनों का डाटा इनके पास आ जायेगा। कल यदि इन वाहनों में कहीं किसी महिला के साथ कोई अपराध घट जाता है तो क्या इन कंपनीयों की व्यवस्था पर भरोसा किया जा सकता है।
अब तक करीब 30 हजार सार्वजनिक वाहनों में जीपीएस स्थापित किये जा चुके हैं और अन्य वाहनों में लगाये जाने हैं। लेेकिन यहां पर यह सवाल उठना स्वभाविक है कि जब यह वाहन डाटा प्राईवेट हाथों में चला जायेगा तब यह किस तरह कितना सुरक्षित रह पायेगा इसको लेकर सरकार ने कोई व्यवस्था नहीं कर रखी है। इसलिये यहां यह सवाल उठना भी स्वभाविक है कि एक ओर तो सरकार गुड़िया कांड के बाद गुड़िया बोर्ड का गठन कर रही है। लेकिन जिस निर्भया फण्ड के तहत महिला सुरक्षा के लिये ठोस कदम उठाये जाने हैं क्या उसे प्राईवेट हाथों में सौंपना एक सही फैसला हो सकता है? इसमें रोचक यह भी है कि महिला सुरक्षा के लिये बनाये जाने वाले कमाण्ड एण्ड कन्ट्रोल सैन्टर पर आर्थिक सर्वेक्षण में कुछ नहीं कहा गया है जबकि इसके लिये 9.36 करोड़ निर्भया फण्ड में मिले है।
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