क्या 7900 करोड़ में से 8285 करोड़ खर्च किये जा सकते हैं
एफ आर वी एम में 14वें वित्त आयोग की संस्तुति के बाद भी संशोधन क्यों नही
शिक्षा, स्वास्थ्य और ग्रामीण विकास में पूरा बजट ही खर्च क्यों नही हो रहा
शिमला/शैल। मुख्यमन्त्री जयराम ठाुकर प्रदेश का चौथा बजट पेश करेंगे। इस बजट के लिये भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सुरेश कश्यप ने जनता से सुझाव मांगे थे। सुझाव मांगना अच्छा प्रयास है। लेकिन यह सुझाव देने के लिये यह जरूरी है कि पूर्व में जो बजट दिये गये हैं उन पर कितने प्रतिशत अमल हो पाया है। अमल के इस गणित को समझने के लिये यह जानना आवश्यक हो जाता है कि सरकार की आय के स्त्रोत क्या रहे हैं। हिमाचल प्रदेश विशेष राज्यों की श्रेणी में आता है। इस नाते प्रदेश की वार्षिक योजना का 90% केन्द्र से अनुदान और 10% ऋण के रूप में मिलता है। इसके अतिरिक्त प्रदेश को करो और गैर करो, केन्द्रीय करो व शुल्कों के राज्यांश के रूप में राजस्व की प्राप्ति होती है। प्रदेश को करो आदि के अपने संसाधनों से सीएजी के मुताबिक 30% और केन्द्रिय करो के हिस्से के रूप में 18% राजस्व मिलता है। शेष 49% और केन्द्रिय अनुदान के रूप में केन्द्र से प्राप्त होता है। इन्ही साधनो के बीच सरकार को अपना योजना और गैर योजना का बजट तैयार करना होता है। गैर योजना बजट में सरकार के प्रतिबद्ध खर्चे शामिल रहते हैं जिनमें कर्मचारियों का वेत्तन व मजदूरी पेन्शन, देयताएं, ब्याज, भुगतान तथा उपदानों आदि पर खर्च आ जाता है। योजना का बजट विकासात्मक कार्यों पर होने वाला खर्च होता है। बजट में सरकार के एक वर्ष की आय और खर्च का अनुमान रहता है। इसलिये यह आवश्यक हो जाता है कि सरकार अगला बजट पेश करते हुए इसका ब्यौरा भी सामने रखे की पिछले वर्ष की योजना पर कितने प्रतिशत अमल हुआ है और कितने प्रतिशत किन कारणों से शेष रहा है। लेकिन ऐसा होता नहीं है।
वर्ष 2020-21 का कुल बजट 49130.84 करोड का था। इसमें वार्षिक योजना 7900 करोड़ की थी। यह 7900 करोड़ प्रदेश के विकास कार्यों पर एक वर्ष में खर्च किया जाना था। बजट से पहले मुख्यमन्त्री विधायकों से उनकी एक वर्ष के लिये क्या प्राथमिकतायें इस पर चर्चा करते हैं। विधायक प्रायः तीन से चार योजनाएं प्राथमिकताओं की सौंपते हैं। इन योजनाओं के लिये इसी वर्ष के बजट से धन का प्रावधान किया जाता है। वर्ष 2020-21 का बजट प्रस्तुत करते हुए मुख्यमन्त्री ने यह घोषणा की थी कि ‘‘विधायक प्राथमिकता योजनाओं के लिये प्रति विधानसभा चुनाव क्षेत्र धन राशी की सीमा 120 करोड़ रूपये होगी। इसी के साथ विधायक क्षेत्र विकास निधि योजना के अन्र्तगत अब 1 करोड़ 75 लाख रूपये तथा विवेक अनुदान राशी 10 लाख रूपये होगी। यदि विधायक प्राथमिकताओं और क्षेत्र विकास तथा अनुदान के लिये रखी गयी राशी का प्रदेश के 68 विधानसभा क्षेत्रों के लिये गणित किया जाये तो यह कुल राशी 8285.8 करोड़ बनती हैं। विधायकों की इन योजनाओं में सरकार की सारी योजनाएं शामिल नहीं रहती है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि जब प्रदेश की विकास योजना ही कुल 7900 करोड़ रूपये की है तो उसमें से विधायकों के लिये ही 8285 करोड़ का प्रावधान कैसे और कहां से किया जा सकता है।
विधायकों की योजनाओं के लिये प्लान से ही प्रावधान किया जाता है नान प्लान से नहीं क्योंकि यह तय प्रतिबद्ध खर्चों में शामिल नहीं रहता है। इसीलिये कोरोना काल में इसे स्थगित रखने की घोषणा की गयी थी। विधानसभा मेें जब बजट भाषण में मुख्यमन्त्री ने इस मुद्दे में पैसा बढ़ाये जाने की घोषणा की थी तब सभी ने तालियां बजाकर इसका स्वागत किया था। लेकिन मुख्यमन्त्री से लेकर विधायकों तक ने यह गणित नही किया कि उनको दी जा रही राशी ही योजना के वार्षिक आकार से बढ़ जाती है। मुख्यमन्त्री को वित्त विभाग ने जो आंकडे परोसे वही उन्होंने आगे रख दिये। यह जानने का प्रयास किसी ने नहीं किया कि इसमें कितना बड़ा विरोधाभास खड़ा हो गया है। यदि अब तक पेश किये गये तीनों बजटों का इस नजरिये से अध्ययन किया जाये तो ऐसे दर्जनों विरोधाभास सामने आ जायेंगे। इससे यह भी सामने आता है कि प्रदेश की नौकरशाही राजनीतिक नेतृत्व को कितनी गंभीरता से लेती है।
इसी संद्धर्भ में यदि कृषि से संवद्ध योजनाओं पर नजर डाले तो इसमें 17 योजनाओं पर काम किया जा रहा है। लेकिन इन योजनाओं के प्रति प्रशासन किस गंभीरता से काम कर रहा है। इसका खुलासा 31 मार्च 2019 तक की सीएजी की रिपोर्ट से हो जाता है। इन योजनाओं के लिये 447.40 करोड़ का मूल बजट प्रावधान रखा गया था। लेकिन इसमें 100.12 करोड़ रूपये प्रशासन खर्च ही नहीं कर पाया है। इन सारी योजनाओं का लाभ किसान को मिलना था। दूसरी ओर कृषि विश्वविद्यालय का शोध के लिये 39.09 करोड़ का प्रावधान रखा गया था लेकिन विश्वविद्यालय ने शोध पर 64.09 करोड़ खर्च किये। इस तरह शोध पर 25 करोड़ अधिक खर्च करके उस शोध से कृषि और किसानों को कितना लाभ हुआ इसका कोई ब्योरा सामने नहीं आया है। शिक्षा, स्वास्थ्य एवम् परिवार कल्याण तथा ग्रामीण विकास जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में पिछले कुछ वर्षो से पूरा बजट खर्च नही किया जा रहा है। सीएजी के मुताबिक शिक्षा में 2014-15 में 385.37 करोड़, 15-16 में 1076.22 करोड, 16-17 में 864.96 करोड़, 17-18 में 665.02 करोड़ और 18-19 में 955.16 करोड़ खर्च नहीं किये गये। स्वास्थ्य में इन्ही वर्षों में 151.89 करोड़, 366.81 करोड़, 295.90 करोड़, 211.66 करोड़ और 330.85 करोड बचाये गये। ग्रामीण विकास में 109.86, 228.23, 121.61, 402.93 और 383.93 करोड खर्च नहीं किये गये। यह आंकड़े सरकार के वित्तिय और प्रशासनिक प्रबन्धन पर प्रकाश डालते हैं। यही नहीं 14वें वित्त आयोग ने एफआरवीएम को संशोधित करने की संस्तुति की थी लेकिन यह संशोधन अभी तक नहीं हो पाया है।
इस समय प्रदेश साठ हजार करोड़ से भी अधिक के कर्ज तले आ चुका है। यह स्थिति हर वर्ष बदत्तर होती जा रही है क्योंकि वित्तिय प्रबन्धन की कमीयों के लिये एफआरवीएम में प्रशासन की कोई जिम्मेदारी नहीं रखी गयी है। यह जिम्मेदारी न होने का ही परिणाम है कि 7900 करोड की वार्षिक योजना में विधायक प्राथमिकता और क्षेत्र विकास योजनाओं के लिये 8285 करोड खर्च किये जाने की घोषणा कर दी गयी हैं इसलिये आज जब नया बजट तैयार किया जा रहा है तब सरकार से यह अपेक्षा की जानी चाहिये की वह ऐसे विरोधाभासों से बचे।