शान्ता ने दिया था बसपा जे पी उद्योग को
बसपा में डूबे हैं बोर्ड के 92 करोड़
विवेकानन्द मैमोरियल ट्रस्ट है शान्ता का ड्रीम प्रोजेक्ट
अब ट्रस्ट का प्रबन्धन 2010 से जे पी के पास है
ट्रस्ट के अस्पताल को जनता ने भी दिये हैं 23 करोड़
ट्रस्ट के लिये सरकार ने भी 1 रूपये पर दी है ज़मीन
अब मरीजों से कमरे का किराया ही 8000 प्रतिदिन लेने का है आरोप
शिमला/शैल। विवादित कृषि कानूनों का प्रमुख आधार शान्ता कमेटी की सिफारिशें रही है यह स्पष्ट हो चुका है। यह चर्चा बाहर आने के बाद शान्ता कुमार इन कानूनों के समर्थन में पूरी तरह खुलकर सामने आ गये हैं। इन कानूनों को कृषि सुधारों का नाम देते हुए शान्ता ने स्पष्ट कहा है कि सरकार इन्हें वापिस नहीं लेगी। शान्ता ने एक ब्यान जारी करके कहा है कि शरद पवार और कपिल सिब्बल इन सुधारों का समर्थन कर चुके हैं और उनके विडियोज़ इसके गवाह हैं जो मुकर नहीं सकते। लेकिन यहां पर शान्ता यह स्पष्ट करना भूल गये कि कांग्रेस के समय में राजनाथ सिंह, सुषमा स्वराज और अरूण जेटली इनका विरोध क्यों कर रहे थे। इनके विरोध के विडियोज़ आज बाहर आ चुके हैं। इनसे यह सवाल उठ रहा है कि क्या आज किसान हितों की परिभाषा बदल गयी है।
शान्ता कुमार ने कृषि कानूनों का समर्थन करते हुए अपने 1990 के मुख्यमन्त्री काल में प्रदेश के बिजली क्षेत्र में निजिक्षेत्र को लाने के लिये एक लम्बा चौड़ा वक्तव्य ‘‘निजिकरण क्यों’’ के शीर्षक से जारी किया था। इसमें आंकड़े जारी करते हुए कहा गया कि निजिकरण क्यों आवश्यक है। यह आरोप भी लगाया गया था कि सरकारी कर्मचारी ईमानदारी से काम नहीं करता है और भ्रष्टाचार का कारण बनता है। उस समय प्रदेश बिजली बोर्ड प्रबन्धन के साथ निजिकरण की नीति को लेकर मतभेद भी हुए थे। बोर्ड के तत्कालीन अध्यक्ष कैलाश महाजन को उनके पद से हटा दिया गया था। बोर्ड कर्मचारियों ने एक बहुत बड़ा आन्दोलन किया था। शान्ता कुमार की सरकार संकट में आ गयी थी। बड़े प्रयासों से इस आन्दोलन को शान्त किया गया था। उस समय निजिकरण के नाम पर बसपा परियोजना को बिजली बोर्ड से छीन कर जे पी उद्योग को दिया गया था। बिजली बोर्ड इस परियोजना पर काफी निवेश कर चुका था इसलिये जेपी उद्योग और बिजली बोर्ड के बीच यह समझौता हुआ था कि जे पी उद्योग बिजली बोर्ड के निवेश को 16% ब्याज सहित वापिस करेगा। लेकिन जेपी उद्योग ने यह पैसा बिजली बोर्ड को वापिस नहीं किया। यहां तक कहा गया कि जब वसपा उत्पादन में आ जायेगा तब यह पैसा वापिस कर देगा। परन्तु 2003 में उत्पादन में आने के बाद भी यह पैसा वापिस नहीं हुआ। जब यह रकम ब्याज सहित 92 करोड़ हो गयी तब इसे यह कह कर बट्टे खाते में डाल दिया गया कि यदि यह पैसा वसूला जाता है तो जेपी उद्योग इसे उपभोक्ताओं पर डाल देगा इसलिये यह वापिस न लिया जाये। सरकार के इस तर्क पर कैग ने कड़ी आपत्ति दर्ज की है लेकिन कैग की आपत्तियों को नजरअन्दाज करके जेपी को यह 92 करोड की राहत प्रदान कर दी गयी। यहीं नहीं जब जेपी ने सारे नियमों को ताक पर रख कर बघेरी में थर्मल प्लांट लगाने का प्रयास किया था तब यह मामला प्रदेश उच्च न्यायालय में पहुंच गया था। उच्च न्यायालय ने इसका कड़ा संज्ञान लेकर जेपी को जुर्माना लगाने के साथ इसकी जांच के लिये एक कमेटी का गठन किया था। प्रशासन और उद्योग का इसे एक नापाक गठजोड़ करार देते हुए संवद्ध अधिकारियों के खिलाफ कड़ी कारवाई करने के निर्देश दिये थे। इस जांच कमेटी का मुखिया केसी सडयाल को बनाया गया था और उनकी सेवानिवृति के बाद भी उच्च न्यायालय ने उन्ही को इसका अध्यक्ष रखा था। इस कमेटी की रिपोर्ट और उस पर हुई कारवाई की जानकारी आज तक सामने नहीं आ पायी है।
इसी दौरान 2010 में शान्ता के ड्रीम प्रौजैक्ट विवेकानन्द मैमोरियल ट्रस्ट के अस्पताल का संचलान और प्रबन्धन इसी जेपी उद्योग को सौंप दिया गया है। इस ट्रस्ट के लिये सरकार ने एक रूपये की लीज पर कई एकड़ जमीन दे रखी है। बल्कि अब इसी जमीन में से ट्रस्ट ने 50 कनाल जमीन कायाकल्प को दी है। इस अस्पताल के निर्माण के लिये जनता ने भी करीब 23 करोड़ का योगदान दिया हुआ है। इस अस्पताल को मिनी पीजी आई बनाने का वायदा किया गया था और इसी उद्देश्य के लिये इसमें जेपी उद्योग को लाया गया था लेकिन जेपी उ़द्योग दस वर्षों में इसमें कोई विस्तार नहीं कर पाया है बल्कि अभी कुछ दिन पहले यहां आये एक मरीज और उसके परिजनों के साथ हुए व्यवहार का एक विडियो नीलम सूद के नाम से वायरल हुआ है। इसमें प्रबन्धन के व्यवहार को लेकर बहुत शर्मनाक आरोप लगाये गये हैं। जिनकी शांता के संस्थान में कल्पना करना भी अजीब लगता है। इसी विडियो में यह भी खुलासा किया गया है कि मरीजों से कमरे का किराया आठ हजार लिया जा रहा है। इस विडियो का कोई खण्डन नहीं किया गया है और न ही इस पर शांता से लेकर जयराम सरकार तक कोई कारवाई की है।
शांता दो बार प्रदेश के मुख्यमन्त्री और फिर केन्द्र में मन्त्री रह चुके हैं सीमेन्ट उद्योग को भी सरकारी नियन्त्रण से बाहर लाने में राज्य से लेकर केन्द्र तक उनका योगदान रहा है। उक्त प्रसंगों से स्पष्ट हो जाता है कि वह निजिक्षेत्र के कितने बड़े पक्षधर रहे हैं और आज भी हैं। हिमाचल में निजिकरण के इन प्रयोगों से प्रदेश की जनता और सरकार को कितना लाभ हुआ है यह सब जानते हैं। आज प्रदेश का कर्ज भार साठ हजार करोड़ से उपर जा चुका है। इसमें सबसे बड़ा योगदान इस निजिकरण की नीति का है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक और आवश्यक है कि क्या इन प्रत्यक्ष अनुभवों के बाद भी निजिक्षेत्र की वकालत की जानी चाहिये।
किसान सभा के डा. तनवर का शान्ता के नाम खुला पत्र
आदरणीय श्री शांता कुमार जी ,
हिमाचल एक बहुत छोटा राज्य है। संसद में इसकी ताकत भी बहुत कम है। परंतु छोटा राज्य होने के बावजूद हिमाचल प्रदेश को केंद्रीय मंत्रिमंडल में भाजपा और कांग्रेस दोनों दलों की सरकारों में महत्वपूर्ण मंत्रालयों का
संचालन करने का मौका मिला है। विशेष तौर पर आप खाद्य आपूर्ति एवं उपभोक्ता मामलों के मंत्री रहे हैं। प्रदेश का नेतृत्व भी किया। आप जिस संसदीय क्षेत्र का नेतृत्व करते रहे हैं उन क्षेत्रों में अगर कोई नकदी फसल है तो वह मक्की है। जिसके कुल उत्पादन का 3-4 लाख मीट्रिक टन उत्पादन ( Marketable Surplus )किसानों की आमदनी का मुख्य स्रोत है ।
मक्की का न्यूनतम समर्थन मूल्य 1850 रुपये प्रति क्विंटल तय है परंतु किसानों को अधिकतम कीमत 800-1100 रुपये ही मिल पाती है। हिमाचल प्रदेश का एकमात्र कृषि विश्वविद्यालय आपके गृह क्षेत्र पालमपुर में ही स्थित है। जिसमें शोध किया गया है कि मक्की से 34 किस्म के उत्पाद तैयार किये जा सकते हैं। अगर इसके लिए उस तरह के उद्योग या प्रसंस्करण केंद्र स्थापित किये जाएं। हिमाचल प्रदेश का किसान बहुत छोटा है। उसके थोड़े से अतिरिक्त उत्पाद में अगर मूल्य संवर्धन हो सके तो उसकी आजीविका में बेहतरी आ सकती है। आय भी दुगनी हो सकती है। मगर किसी भी प्रदेश सरकार में किसी के भी नेतृत्व में और हिमाचल प्रदेश से केन्द्र में प्रतिनिधित्व करने वाले किसी भी हिमाचली प्रतिनिधि ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। हिमाचल प्रदेश छोटा राज्य है लेकिन इसकी जलवायु और इसकी जैव विविधता इसकी बहुत बड़ी ताकत है पर कभी न उसका सही आकलन किया गया और न ही उसके वैज्ञानिक अधिकतम दोहन के लिए कोई योजना बनाई गई। बल्कि राज्य सरकारें केन्द्र से अपना उचित हक या हिस्सा लेने में भी सफल नहीं हो पाई। आज अगर कोई भी तबका अपने हक की मांग उठाता है तो वह या तो "अर्बन नक्सल " हो जाता है या माओवादी, नक्सलवादी करार दिया जाता है। किसी भी आंदोलन में चीन और पाकिस्तान की साजिश बता दी जाती है। देशद्रोही ठहराया जाता है। असल मुद्दे को क्षेत्र, धर्म, जाति, राजनैतिक विचारधाराओं के खांचे में फिट करने की कोशिश की जाती है। खेद तब अधिक होता है जब आप जैसे दूरदृष्टा और वरिष्ठ राजनीतिज्ञ की ओर से ऐसे बयान सामने आते हैं। इस समय जब किसान आंदोलन में है, बेहतर होता कि " किसान मोर्चा "और "भारतीय किसान संघ " जैसे संगठन भी किसानों के पक्ष में आकर खड़े होते और उनकी मांगों की पैरवी करते। केंद्रीय मांगों के साथ हिमाचल के किसानों की
मांगें भी उठाते। लेकिन प्रदेश के मुख्यमंत्री और भाजपा और संघ से जुड़े किसान संगठनों का आंदोलन के खिलाफ बोलना और लाखों आंदोलनकारी किसानों को यह कहकर नासमझ बताना कि उन्हें राजनैतिक दल गुमराह कर रहे हैं, अन्नदाता का निरादर है। उचित यही होगा कि प्रदेश के सभी किसान संगठन केंद्र सरकार से हिमाचल के
किसानों के हित में केरल की तर्ज़ पर सब्ज़ियों, फलों और मसालों में न्यूनतम समर्थन मूल्य की मांग करें। मक्की, धान और गेहूं के अतिरिक्त उत्पादन की खरीद के लिए प्रदेश में कलेक्शन सेंटर खुलवाने की मांग करें और फल, सब्ज़ियों, मक्की के लिए प्रसंस्करण उद्योग स्थापित करने की मांग करें। उचित दाम न मिल पाने की स्थिति में अपने उत्पाद के सुरक्षित भंडारण के लिए सी.ए. स्टोर, कोल्ड स्टोर, कूलिंग चेम्बर बनवाने की मांग करें। ये अपील प्रदेश के करीब 10 लाख किसान परिवारों की ओर से आपसे भी है औरसभी किसान संगठनों, राजनैतिक दलों और सरकार से भी है।
Dr. Kuldip Singh Tanwar
किसान सभा ( HKS ). 13:12:2020
कैग रिपोर्टों के आईने में वित्तिय स्थिति
शिमला/शैल। इस समय प्रदेश का कर्जभार 60,000 करोड़ से ऊपर जा चुका है। इस कर्ज की किश्तें और ब्याज चुकाने के लिये भी कर्ज लिया जा रहा है। वेत्तन और पैन्शन के बाद खर्च की तीसरी बड़ी मद कर्ज की किश्त और ब्याज है। सरकार विकास कार्यों के नाम पर कर्ज लेती है लेकिन सरकार का वित्तिय प्रबन्धन किस कदर गड़बड़ा चुका है इसका अनुमान सीएजी की रिपोर्ट की इस टिप्पणी से लगाया जा सकता है। जब विकास के नाम लिये गये कर्ज में से विकास पर खर्च करने के लिये कुछ भी शेष न बचे बल्कि स्थिति शून्य से भी नीचे की हो जाये तो उसका समग्रता से क्या प्रभाव पड़ेगा यह चिन्ता और चिन्तन के लिये एक बड़ा सवाल बन जाता है। प्रदेश का कर्जभार उसकी तय सीमाओं से आगे निकलता जा रहा है इसका कड़ा संज्ञान लेते हुए केन्द्र के वित्तविभाग ने मार्च 2016 में ही प्रदेश सरकार को इसकी चेतावनी देते हुए कर्ज की सीमा तय कर दी थी। मार्च 2016 की इस चेतावनी के बाद ही नोटबन्दी का फैसला आया और उसके बाद जीएसटी का फैसला आया। इन फैसलों का अर्थव्यवस्था पर क्या असर पड़ा है यह हर आदमी जानता है।
इस परिदृश्य में जयराम सरकार ने प्रदेश की सत्ता संभाली तो उसे कोई मजबूत अर्थव्यवस्था विरासत में नही मिली। जयराम के पहले बजट भाषण का केन्द्रिय बिन्दु भी वित्तिय स्थिति का यही पक्ष रहा है। लेकिन जयराम सरकार इस स्थिति पर कोई श्वेतपत्रा प्रदेश की जनता के सामने नही रख पायी। क्योंकि जिन अधिकारियों के प्रबन्धन के कारण केन्द्र से चेतावनी मिल गयी थी उन्ही अधिकारियों के हाथों में यह प्रबन्ध फिर केन्द्रित रहा और सफल प्रबन्धन की एक ही कसौटी बन गयी कर्ज हासिल करना। वित्तिय प्रबन्धन पर सबसे प्रमाणिक रिपोर्ट होती है कैग की रिपोर्ट। लेकिन कैग रिपोर्टों को पढ़ने और उनका संज्ञान लेने का जोखिम न तो अफसरशाही ने उठाया न ही राजनीतिक नेतृत्व ने। इन रिपोर्टो को नज़रअन्दाज करने का परिणाम है कि सरकार को लगभग हर माह कर्ज लेना पड़ रहा है। परन्तु जब यह सवाल सामने आता है कि यह कर्ज का पैसा खर्च कहां किया जा रहा है? इससे आम आदमी को क्या राहत मिल रही है तब यह सामने आता है कि सारी उपभोक्ता सेवाओं के दाम बढ़ गये हैं। जब पैट्रोल, डीजल, रसोई गैस से लेकर बिजली, पानी, बस किराया, स्कूल में बच्चों की फीस आदि सबके दाम बढ़ गये हैं का कड़वा सच सामने आता है तब यह सवाल उठना स्वभाविक हो जाता है कि कर्ज का बढ़ना और चीजों के दामो का बढ़ना कब तक चलता रहेगा। क्योंकि इसी बढ़ते कर्ज का परिणाम है कि स्कूलों और स्वास्थ्य सेवाओं में अध्यापकों और डाक्टरों के पद उच्च न्यायालय के निर्देशों के बाद भी नहीं भरे जा रहे हैं। यही नही हर नियुक्ति आऊट सोर्स के माध्यम से की जा रही है क्योंकि उसमें आऊट सोर्स के संचालक को कमीशन दिया जाना है। अब आऊट सोर्स को लेकर यहां तक चर्चाएं चल पड़ी है कि शायद कुछ मन्त्राीयों के परिजन भी अपरोक्ष में आऊट सोर्स के कारोबार में लग गये हैं। विधानसभा में एक प्रश्न के उत्तर में आयी जानकारी से ऐसे संकेत उभरे हैं।
इस सबके साथ जब यह जानकारी भी सामने आती है कि आर्थिक तंगी के बावजूद सरकार ने एक वर्ष में 229 गाड़ियां खरीदी है और यह खरीद भी बैंगलूर की कंपनी किर्लोस्कर मोटर प्रा. लि. के माध्यम से की गयी है। राजभवन के लिये 70 लाख की गाड़ी और मंत्रीयों के लिये 31 लाख से 36 लाख की गाड़िया खरीदी गयी है सेवानिवृति के बाद पुनः नियुक्ति पाने पर यदि किसी कर्मचारी के आवास में रिपेयर के नाम पर नया कमरा जोड़ दिया जाये तो आम आदमी का यह सोचना एकदम जायज़ हो जाता है कि यदि कर्ज लेकर यही विकास होना है तब इस विकास की कोई आवश्यकता नही रह जाती है। क्योंकि जब वित्तिय प्रबन्धन एफआरवीएम अधिनियम के प्रावधानों की भी उल्लघंना की जायेगी तो ऐसे प्रबन्धन पर सवाल उठना स्वभाविक हो जाते है। सरकार का वित्तिय प्रबन्धन एफआरवीएम अधिनियम से संचालित और नियन्त्रित होता है। इसलिये अधिनियम की धारा दस के मुताबिक प्रबन्धन की कमीयों को लेकर संवद्ध अधिकारियों के खिलाफ कोई भी आपराधिक मामला नही बनाया जा सकता है लेकिन इसी अधिनियम की धारा 7(2) के तहत यह भी जिम्मेदारी है Whenever there is a prospect of either shortfall in revenue or excess of expenditure over pre-specified levels for a given year on account of any new policy decision of the state Government that affects either the State Government or its public sector undertakings, the State Government, prior to taking such policy decision, shall take measure to fully offset the fiscal impact for the current and future years by curtailing the sums authorized to be paid and applied from and out of the consolidated Fund of the State under any Act enacted by Legislative Assembly to provide for the appropriation of such sums, or by taking interim measure for revenue augmentation, or by taking up a combination of both.
लेकिन यह जिम्मेदारी निभाई नही जा रही है क्योंकि राजनीतिक नेतृत्व शायद इस अधिनियम को स्वयं पढ़ता ही नही है और अधिकारियों के ही सहारे रहता है।
मार्च 2016 का केन्द्र का पत्र
31 मार्च 2019 की रिपोर्ट
2014-19 के दौरान, ब्याज और चुकौती करने के पश्चात्, भारत सरकार से प्राप्त आन्तरिक कर्ज ऋण व अग्रिमों तथा अन्य दायित्वों के माध्यम से उपलब्ध शुद्ध नीधियों में ऋणात्मक 63 करोड़ तथा धनात्मक 2,201 करोड़ के मध्य की भिन्नता पायी गयी। 2018-19 के दौरान राज्य को उपलब्ध निवल ऋण ऋणात्मक 1,204 करोड़ था।
Liabilities of the Government consist mainly of internal borrowings, loans and advances from GoI and balances in the Public Account. The total liability of the State as on 31st March 2018 was Rs.51,030 crore.
The overall fiscal liabilities of the State increased by 17,146 crore (51 per cent) from Rs.33,884 crore in 2013-14 to Rs.51,030crore in 2017-18. Fiscal liabilities of the State comprised Consolidated Fund liabilities and Public Account liabilities. The Consolidated Fund liability (Rs.34,671 crore) comprised market loans (Rs.21,574 crore), loans from GoI (Rs.1,079 crore) and other loans (12,018 crore, which includes Rs.6,635 crore on special security issued to NSSF of the GoI).
The Public Account liabilities(Rs.16,360 crore) comprises Small Savings and Provident Funds (Rs.13,237 crore), interest bearing obligations and non-interest bearing obligations like deposits (Rs.2,798 crore) and reserve funds (Rs.325 crore). The growth rate of fiscal liabilities was 8.01 per cent during 2017-18. The ratios of fiscal liabilities to GSDP varied between 36 per cent and 38 per cent during 2013-18. During 2017-18 it was 38 per cent and was higher than the norms as recommended by 14thFC (32.99 per cent) and FRBM Act/MTFPS (32.92 per cent). These liabilities stood at 1.86 times the revenue receipts and 5.39 times the own revenue resources at the end of 2017-18. The buoyancy ratio of fiscal liabilities to GSDP stood at 0.85 during 2017-18.
Transactions under Reserve fund and Deposits
Closing balance in the Reserve Fund as on 31 March 2018 was Rs.325.02 crore (Credit). Out of this, reserve fund bearing interest was Rs.8.48 crore (credit) and the share of the fund not bearing interest was Rs.316.54 crore (credit). In terms of the recommendations of the Twelfth Finance Commission, State Governments were required to create two significantreserve funds i.e. (i) Consolidated Sinking Fund to be administered by the Reserve Bank of India (RBI) for redemption of outstanding liabilities and amortization of open market loans availed of by them and (ii) Guarantee Redemption Fund to meet the contingent liabilities arising from the guarantees given. The position of these funds is depicted as under:
Consolidated Sinking Fund
The State Government required to make minimum annual contribution to the Fund at0.5 percent of the outstanding liabilities at the end of the previous financial year. The State Government, however, had not created a consolidated sinking fund. As on 31 March 2017, the outstanding liabilities of the Government of Himachal Pradesh were Rs.47,244 crore. Had there been a consolidated sinking fund, the liability of the State Government towards the fund would have been Rs.236.22 crore (0.5 percent of outstanding liabilities in previous year) in 2017-18 indicating that the revenue surplus is overstated and fiscal deficit is understated to that extent.
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