शिमला/शैल। इस समय प्रदेश का कर्जभार 60,000 करोड़ से पार जा चुका है। इस बढ़ते कर्ज के कारण आज प्रदेश का हर व्यक्ति 8 लाख के कर्ज तले आ चुका है। इस कर्ज के मुकाबले प्रति व्यक्ति आय अभी दो लाख से नीचे है। प्रदेश के सारे वित्तिय संस्थानों द्वारा दिये गये कर्ज में से सरकार के 2020-21 के आर्थिक सर्वेक्षण के आंकड़ो के मुताबिक 21,75623 लाख का ऋण आऊट स्टैण्डिंग हो चुका है। इस कर्ज के पूरा वापिस आ पाने की संभावनाएं नहीं के बराबर है। ऐसा इसलिये है कि केन्द्रिय वित्त मन्त्री ने जब कोरोना के कारण 20 लाख करोड़ का पैकेज जनता को दिया था तब बैंकों को यह निर्देश दिये गये थे कि वह लोगों को कर्ज देने में अपना हाथ पीछे न खींचे। यह आश्वासन भी दिया गया था कि यदि ऋण लेने वाला इसे वापिस नहीं कर पायेगा तो केन्द्र सरकार इसकी भरपायी करेगी। यह भरपायी कितनी, कब और कैसे होगी इसका कोई विवरण घोषित नही है। इस बढ़ते कर्ज के कारण प्रदेश का ऋण -जमा अनुपात 44ः33 पर आ गया है। वित्तिय संस्थानों के पास 33 रूपये का डिपाजिट आ रहा है और इसके बदले 44 रूपये का कर्ज दिया जा रहा है।
सरकार विकास के नाम पर कर्ज लेती है इस कर्ज से प्रदेश के प्रति व्यक्ति की आय करीब दो लाख और ऋण आठ लाख हो चुका है। इस कर्ज पर करीब आठ हजार प्रतिमाह ब्याज बनता है और आय सोलह हजार बनती है। ब्याज देने के बाद बचे आठ हजार में क्या परिवार का गुजारा हो सकता है। यह एक साधारण सा सवाल है जिसका कोई भी अनुमान लगा सकता है। इस कर्ज से प्रदेश के लोगों को कितना रोज़गार मिल पाया है इसका ब्योरा भी सरकार के सांख्यिकी विभाग के रिकार्ड में उपलब्ध है। इस रिकार्ड के मुताबिक वर्ष 2018-19 में सरकारी और प्राईवेट देानो ही क्षेत्रों में केवल 7,016 लोगों को ही रोज़गार मिल पाया है। इन आंकड़ो से यह स्पष्ट हो जाता है कि इस बढ़ते कर्ज के निवेश से न तो सरकार का राजस्व बढ़ रहा है न ही रोज़गार के अवसर बढे़ हैं। बल्कि जिस अनुपात में कर्ज बढ़ रहा है। उससे ज्यादा रफ्तार से प्रदेश में सारी सेवाओं का शुल्क बढ़ा है। सरकार के राजस्व में बढौत्तरी उत्पादन बढ़ने से नह बल्कि शुल्क के बढ़ाये जाने से हो रही है। कोरोना काल में जहां केन्द्र ने प्रदेश के कर्ज लेने की सीमा बढ़ाई है वहीं पर प्रदेश सरकार ने बिजली, पानी, परिवहन, पैट्रोल, डीजल, रसोई गैस आदि सारी सेवाओं के दाम बढ़ाये हैं। सरकार के कर्ज और मंहगाई से हर आदमी बुरी तरह प्रभावित हो रहा है।
प्रदेश की इस वित्तिय स्थिति के परिदृश्य में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि इसके लिये सरकार की नीतियों के अतिरिक्त और किसी को दोष नहीं दिया जा सकता है। 1990 के दशक में प्राइवेट सैक्टर को लाने के लिये यह प्रचारित किया गया था कि सरकारी कर्मचारी काम नहीं करता है और भ्रष्ट है। लेकिन आज इसी प्राइवेट क्षेत्र के खिलाफ रोष सडकों तक आ पहुंचा है। आज कर्मचारियों के बाद अधिकारियों को दोष दिया जाने लगा है कि वह काम नहीं कर रहे हैं। इस वस्तु स्थिति में यह आवश्यक हो जाता है कि यह देखा जाये कि सरकार सही में कर्ज को विकास कार्यों पर ही खर्च कर रही है या कर्ज लेकर घी पीने का काम कर रही है। जब सरकार कुछ चिन्हित लोगों को लाभ पहुंचाने के लिये नियमों/कानूनों को नज़रअन्दाज करने तक आ जाती है तो उसे कर्ज लेकर घी पीने की संज्ञा दी जाती है। सरकार ने वित्तिय संकट के चलते अपने कर्मचारीयों और पैन्शनरों को मंहगाई भत्ते की किश्त नहीं दी है। लेकिन अधिकारियों को बिना पदों और नियमों के प्रोमोट कर रही है। एक अतिरिक्त मुख्य सचिव पहले बनाया और अब एक अन्य को बनाने की कवायद चल रही है। मन्त्रीयों/ अधिकारीयों के लिये मंहगी गाड़ियां खरीदी जा रही है। तीन वर्षों में 250 के करीब गाडीयां खरीदी गयी हैं। ठेकेदारों को खुले हाथ से पैसा लुटाया जा रहा हैं हाईड्रो इन्जिनियरिंग कालिज में आठ करोड़ ऐसे लुटा दिया गया और विपक्ष द्वारा इस मुद्दे को उठाने के बावजूद इसमें औपचारिक जांच तक नहीं की गयी। भ्रष्टाचार को संरक्षण देने के लिये अदालत के निर्देशों तक को नज़़रअन्दाज किया जा रहा है। प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड में इसके चर्चे हर जुबान पर हैं। इन्ही चर्चाओं का परिणाम है कि आज शीर्ष नौकरशाही में शीतयुद्ध की चर्चाओं तक के हालात पैदा हो गये हैं। हर आदमी नियमों को अंगूठा दिखाकर अपने लिये लाभ का जुगाड़ भिडानेे में लग गया है। क्योंकि जब एक कनिष्ठ अधिकारी के सारे अपराध नज़रअन्दाज हो सकते हैं तो फिर वरिष्ठ अपने लाभ के लिये ऐसा क्यों नही करेेंगे।
जब शीर्ष अफसरशाही में काम का बंटवारा पक्षपात पूर्ण होना शुरू हो जाता है तब यह स्थिति एक स्टेज पर शीतयुद्ध की शक्ल ले लेती है और फिर इसका असर पूरे प्रदेश की वित्तिय स्थिति पर पड़ना शुरू हो जाता है। बैंकों पर दबाव बढ़ जाता है और वहां नियमों/कानूनों को अंगूठा दिखाते हुए कर्ज बांटे जाने लग पड़ते हैं। आम आदमी का पैसा लुटाया जाता है और तन्त्र मूक दर्शक बन कर बैठा रहता है। कांगड़ा केन्द्रिय सहकारी बैंक द्वारा मनाली की एक पर्यटन ईकाई को 65 करोड़ का ऋण स्वीकृत कर दिया जाता है और इसमें सात करोड़ की पहली किश्त बैंक की राजकीय महाविद्यालय ऊना स्थित ब्रांच से जारी कर दी जाती है। मुद्दा उठता है और कोई कारवाई नहीं होती है। ऊना के चताड़ा गांव में यही कांगड़ा सहकारी बैंक 8 कनाल 4 मरले जमीन पर एक करोड़ का ऋण दे देता है। इसी तरह की स्थिति हरिपुर में हुई है। इन प्रकरणों से यही उभरता है कि इस तरह के चलन से अन्ततः यह वित्तिय संस्थान डूब जायेंगे।
शिमला/शैल। प्रदेश विधानसभा के लिये अगले चुनाव दिसम्बर 2022 में होने हैं। इन चुनावों की तैयारी में राजनीतिक दल अभी से जुट गये हैं। भाजपा ने मिशन रिपीट शुरू कर दिया है। भाजपा की तर्ज पर ही कांग्रेस ने भी चुनावी तैयारीयों के नाम पर तीन महत्वपूर्ण कमेटीयों का गठन कुछ दिन पहले कर दिया है। कांग्रेस की यह कमेटीयां हैं राजनीतिक मामलों की चुनाव रणनीति समिति, समन्वयन समिति और अनुशासन समिति। प्रदेश
अध्यक्ष कुलदीप राठौर ने इन कमेटीयों का गठन प्रदेश प्रभारी की सहमति और हाई कमान की स्वीकृति से ही किया होगा यह स्वभाविक है। इन कमेटीयों में पूर्व मुख्यमन्त्री वीरभद्र सिंह और विधायक दल के नेता मुकेश अग्निहोत्री तो स्वभाविक रूप से सभी कमेटीयों में शामिल हैं ही इनके अतिरिक्त प्रदेश के सभी वरिष्ठ और महत्वपूर्ण युवा नेताओं को शामिल किया गया है। लेकिन राज्य सभा संासद पूर्व केन्द्रिय मन्त्री और राज्य सभा में दल के उपनेता आनन्द शर्मा का नाम किसी भी कमेटी में न होना राजनीतिक हल्को में चर्चा का विषय बन गया है। यह चर्चा इसलिये महत्वपूर्ण है कि जब दिल्ली में कांग्रेस के तेईस नेताओं का सोनिया गांधी को लिखा पत्र सार्वजनिक हुआ था तो यह पत्र लिखने वालों में आनन्द शर्मा का नाम भी बड़ी प्रमुख भूमिका के साथ सामने आया था। आनन्द शर्मा की पत्र लिखने में प्रमुख भूमिका होने पर हिमाचल में तीव्र प्रतिक्रिया सामने आयी थी। पार्टी के वरिष्ठ उपाध्यक्ष केहर सिंह खाची ने तो आनन्द शर्मा को सोनिया गांधी से क्षमा याचना करने के लिये कह दिया था। बल्कि खाची के ब्यान के बाद ही कौल सिंह ने इस पत्र से किनारा कर लिया था। इस परिदृश्य में आनन्द शर्मा को कमेटीयों से बाहर रखा जाना चर्चा का विषय बनना स्वभाविक है।
जब वीरभद्र सिंह ने सुक्खु को अध्यक्ष पद से हटाने के लिये मुहिम छेड़ दी थी तब कुलदीप राठौर को प्रदेश अध्यक्ष बनाने के लिये आनन्द शर्मा ने ही वीरभद्र, मुकेश अग्निहोत्री और आशा कुमारी को राज़ी किया था और पत्र लिखवाया था। कुलदीप राठौर को आनन्द शर्मा की पसन्द माना जाता है। इसलिये यह संभव नहीं हो सकता कि कुलदीप राठौर ने अपने ही स्तर पर आनन्द शर्मा को इन कमेटीयों से बाहर रखने का जोखिम उठा लिया हो। कुलदीप राठौर के प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद पार्टी ने पहले लोकसभा चुनावों और उसके बाद विधानसभा उपचुनावों का सामना किया और दोनों में हार देखनी पड़ी। लोकसभा चुनावों में पार्टी की हार के संकेत तो उसी समय मिल गये थे जब वीरभद्र सिंह ने मण्डी से होने वाले संभावित प्रत्याशी को लेकर यह ब्यान दिया था कि कोई भी ‘‘मकरझण्डू’’ चुनाव लड़ लेगा। वीरभद्र का चुनावों की पूर्व संध्या पर ऐसा ब्यान आना पार्टी की चुनावी तैयारीयों और उसके उम्मीदवारों की गंभीरता को लेकर बहुत कुछ स्पष्ट कर जाता है। लेकिन वीरभद्र सिंह के ऐसे ब्यान पर पार्टी अध्यक्ष और प्रभारी दोनो ही कुछ नहीं कर सके।
वीरभद्र प्रदेश मे कांग्रेस के वरिष्ठतम नेता हैं। आनन्द शर्मा को कांग्रेस में लाने और समय आने पर दिल्ली में स्थापित करने का श्रेय भी वीरभद्र सिंह को ही जाता है। अपने विरोधीयों से किस हद तक लड़ सकते हैं यह 1993 में प्रदेश देख चुका है जब सुखराम आधे विधायकों को लेकर चण्डीगढ़ बैठे रहे और शिमला में वीरभद्र सिंह ने अपने समर्थकों से विधानसभा का घेराव कराकर हाईकमान को उन्हें मुख्यमन्त्री की शपथ दिलाने के लिये बाध्य कर दिया था। उस समय आनन्द शर्मा ने किस हद तक वीरभद्र का साथ दिया है यह भी पूरा देश जानता है आज यह पुराने प्रसंग इसलिये प्रसांगिक हो गये हैं कि वीरभद्र के सामने ही आनन्द शर्मा को संगठन की कमेटीयों से बाहर कर दिया गया और वह चुप हैं। कुछ हल्को में यह माना जा रहा है कि वीरभद्र परिवार के खिलाफ जो सीबीआई और ईडी में आज भी मामले लंबित चले आ रहे हैं उनके कारण वीरभद्र सिंह के पास चुप रहने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं बचा है। यदि शिमला ग्रामीण से ताल्लुक रखने वाले भाजपा नेताओं के यहां से उभरे संकेतों को अधिमान दिया जाये तो यह वर्ग भाजपा हाईकमान को यह समझाने का प्रयास कर रहा है कि वीरभद्र परिवार को अदालत से एक बार दोषी करार दिलाकर उसे चुनाव लड़ने से ही अयोग्य करवा दिया जाये। चर्चा है कि प्रदेश भाजपा नेतृत्व का भी एक बड़ा वर्ग इस योजना को गलत नहीं मान रहा है। भाजपा ने 2014 के लोकसभा चुनावों से लेकर अब तक हुए हर चुनाव में इन केसों के माध्यम से उनकी आक्रामकता को सफलतापूर्वक कुन्द किया है। आज भी भाजपा को कांग्रेस में सबसे ज्यादा डर वीरभद्र सिंह से ही है।
ऐसे में जब आनन्द शर्मा को संगठन की कमेटीयों से बाहर रखा गया और केन्द्र में भी राज्य सभाओं में उपनेता होने के अतिरिक्त और कोई जिम्मेदारी नहीं दी गयी है तो उससे यही निकलता है कि या तो उन्हे प्रदेश में अगले चुनावों में किसी बड़ी भूमिका में उतारा जायेगा या फिर राज्यसभा की पारी समाप्त होने के बाद उन्हें उन्ही के हाल पर छोड़ दिया जायेगा। इसमें क्या घटता है यह तो आने वाला समय ही बतायेगा। लेकिन इस समय उन्हें बाहर रखना कोई शुभ संकेत नही है।
सरकार के तीन वर्षों पर कुछ सवाल
प्रदेश का कर्जभार 60,000 करोड़ से पार क्यों
प्रदेश के वित्तिय संस्थानों का 21,75,623 लाख का आऊट सोर्स स्टैण्डिंग ऋण कितना सुरक्षित है?
प्रदेश के बैंको का सीडी अनुपात 44.33 पर क्यों आ गया है
2541 करोड़ का बांटा गया मुद्रा लोन कितना वापिस आया है?
प्रदेश में लकड़ी का 226 हजार घन मीटर से घटकर 187 हजार घन मीटर रह जाना क्या चिन्ता का विषय नही?
शिमला/शैल। जयराम सरकार ने सत्ता में तीन वर्ष पूरे कर लिये हैं। यह तीन वर्ष पूरे होने पर मुख्यमन्त्री से लेकर नीचे तक सभी ने सरकार की उपलब्धियां गिनाने की रस्मअदायगी भी पूरी की है। इस अवसर पर जो मुख्य आयोजन रखा गया था उसके मुख्य वक्ता रक्षा मन्त्री राजनाथ सिंह थे। जयराम ने इस अवसर पर अपने पहली बार विधायक बनने से लेकर पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष और अब मुख्यमन्त्री बनने तक में राजनाथ सिंह के सहयोग और आशीर्वाद पर उनका विशेष आभार जताया है। लेकिन इस अवसर पर राजनाथ सिंह के संबोधन को पार्टी के ही लोगों ने कितनी गंभीरता और ईमानदारी से सुना है इसका प्रमाण सोलन कार्यालय में इस संबोधन के दौरान चल रहे नाच का विडियो वायरल होने से सामने आ गया है। इसी आधार पर इस सारे आयोजन को एक रस्मअदायगी से ज्यादा महत्व देना अर्थहीन हो जाता है। क्योंकि सभी मन्त्रीयों और अन्य बड़े नेताओं को ऐसे अवसरों पर कुछ तो बोलना ही होता है और वह सरकार तथा नेता की प्रशंसा के अतिरिक्त कुछ बोल भी नहीं सकते। लाभार्थीयों की इससे अधिक आवश्यकता भी नहीं होती है। इस नाते मुख्यमन्त्री से लेकर नीचे अंध भगत कार्यकर्ता तक यही एक बड़ी उपलब्धि है कि इस सरकार के भी सत्ता में तीन साल पूरे हो गये हैं। क्योंकि जिन्हें किसी भी कारण से ताजपोशी मिल गयी है उनके लिये इससे अच्छी सरकार और कोई हो ही नहीं सकती है। फिर 2019 का लोकसभा और उसके बाद विधानसभा के उपचुनाव इसी नेतृत्व के तहत जीते हैं।
लेकिन सत्ता में बने रहने से हटकर एक दूसरा पक्ष भी होता है और वह है आम आदमी। इस आम आदमी को इन तीन वर्षों में क्या मिला। इस मिलने का सबसे बड़ा आधार साधन वित्त होता है। परिवार से लेकर देश तक सभी को धन उपलब्धता के माध्यम से ही मिलता है और यह धन या तो कमाने से या फिर संपति बेचकर या कर्ज उठाकर मिलता है। इस दृष्टि से केन्द्र से लेकर प्रदेश सरकार तक ने संपत्तियां बेचने और कर्ज उठाने के आसान रास्ते को ही अपनाया है। सरकार संपत्ति बेचने के लिये पीपीपी और वीओटी का रूट अपनाती है। जब सार्वजनिक संसाधनों का दोहन प्राइवेट सैक्टर को दिया जाता है तो उसके लिये यही रास्ता चुना जाता है। प्रदेश में सीमेन्ट और बिजली का उत्पादन इसी माध्यम से प्राइवेट सैक्टर के पास है। इस माध्यम से सरकारी खजाने को क्या हासिल हुआ है इसका प्रमाण वाईल्ड फ्लावर हाल, मकलोड़गंज बसपा परियोजना और आईएसबीटी शिमला जैसे दर्जनों मामलें हैं जिनका उल्लेख कैग रिपोर्टों में मिलता है। जयराम सरकार भी इसी संस्कार और संस्कृति को बढ़ाने में ईमानदारी से लगी हुई है। सरकारी नौकरियों में आऊट सोर्स भी इसी विधा का अंग है। आज शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे अहम विभागों में भी आऊट सोर्स के माध्यम से नोकरियां दी जा रही है। जिस क्षेत्र से मुख्यमन्त्री होगा उसी से आऊट सोर्स के ठेकेदार होंगे इस रस्म को भी ईमानदारी से निभाया जा रहा है। सरकारी नौकरियों में आऊट सोर्स लाने के लिये ही तो लाइने दी गयी थी। कि सरकारी कर्मचारी काम नहीं करता है। इसी के लिये तो ‘‘जो काम न करे उसे वेत्तन क्यों’’ के नाम से एक वक्तव्य प्रकाशित किया गया था। इसलिये आऊट सोर्स के माध्यम से नौकरी देने को सरकार की उपलब्धि या सरकारी धन के हथियाने का जायज साधन तैयार करना माना जाये इसका फैसला पाठक स्वयं करें। क्योंकि यह सरकार भी करोड़ों का कमीशन आऊट सोर्स के नाम पर दे रही है। मण्डी जिला में ही करीब एक दर्जन ऐसे ठेकेदार कार्यरत हैं।
लेकिन इस सबके बावजूद जिस तरह से यह सरकार प्रदेश को कर्ज के चक्रव्यूह में उलझाती जा रही है हर नागरिक के लिये ये चिन्ता का विषय बनता जा रहा है। क्योंकि इस समय प्रदेश का कर्जभार 60,000 करोड़ से ऊपर जा चुका है। आज प्रति व्यक्ति यह कर्ज शायद आठ लाख से भी उपर जा चुका है। कैग रिपोर्टों के मुताबिक विकास के नाम पर लिया जा रहा सारा कर्ज ब्याज चुकाने में ही लग रहा है। विकास के लिये इसमें से कुछ नहीं बच रहा है। सरकार इस ओर कतई भी चिन्तित नहीं है। जब सारा कर्ज गैर उत्पादक कार्यों पर ही खर्च हो जायेगा तो स्वभाविक है कि अन्य खर्च चलाने के लिये हर उत्पाद और सेवा के दाम बढ़ाने पड़ रहे है। पैट्रोल, डीजल, रसोई गैस और खाद्यान सभी के दाम बढ़ने का मुख्य कारण यही है। इसी कर्ज के कारण बिजली, पानी, परिवहन और स्कूलों में बच्चों की फीस तक बढ़ रही है। इस समय सरकार का वित्तिय प्रबन्धन पूरी तरह बिगड़ चुका है और इसके कारण विकास कार्य बुरी तरह प्रभावित हो रहे हैं। सरकार इसके लिये अब अफसरशाही को कोसने लग पड़ी है। जब कोई मुख्यमन्त्री अपने कार्यकाल के तीसरे वर्ष की समाप्ति पर अपनी असफलताओं के लिये नौकरशाही पर दोष डालने लग पड़े तो इससे साफ हो जाता है कि अब अफसरशाही के भी हाथ खड़े होने लग पड़े हैं।
यदि इन तीन वर्षों की वित्तिय स्थिति पर नज़र डाली जाये तो जो तथ्य सामने आते हैं उनमें सबसे पहले आता है मुद्रा ऋण के नाम पर 2541.43 करोड़ का कर्ज 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले बांटा गया। इसमें कितना अब तक वापिस आ पाया है इसका कोई रिकार्ड सरकार के पास उपलब्ध नहीं है। विधानसभा में आयी जानकारी के मुताबिक प्रदेश के सहकारी बैंकों का एनपीए ही 900 करोड़ से ऊपर जा चुका है। एनपीए की यह स्थिति 2018 में थी। लेकिन इसके बाद भी कृषि सहकारी सभाओं को 80685 लाख, गैर कृषि सहकारी सभाओं को 38703.88 लाख, अर्बन बैंकों को 75590.24 लाख और प्राइमरी भूसुधार बैक, राज्य एवम् केन्द्रिय बैंकों ने प्रदेश में 7,71039.79 लाख के ऋण एडवांस किये। यह कर्ज 2018-19 में दिये गये हैं। इनमें यदि इसी वर्ष 2018 -19 में ही आऊट स्टैण्डिंग हो चुके ऋणों का आंकड़ा भी सामने रखा जाये तो कृषि सहकारी सभाओं में 1,30,745.34 लाख, गैर कृषि सहकारी सभाओं में 35142.18 लाख, अर्बन बैंकों में 14538.12 लाख प्राईमरी लैण्ड मार्टगेज बैंक और राज्य एवम् केन्द्रिय बैंकों में 1895197.36 लाख के ऋण आऊट स्टैण्डिंग हो चुके हैं। इन ट्टणों का परिणाम है किसी डी अनुपात जो 30-9-2018 को 47.46 था वह 30-9-2019 को 44.33 पर आ गया है। बैंको का 30-8-2018 को प्रदेश सरकार में जो निवेश 263.69 करोड़ था वह 30-9-2018 को घटकर 233.09 करोड़ रह गया है। यह आंकड़े सरकार के 2019-20 के विधानसभा मे रखे आर्थिक सर्वेक्षण में दर्ज है। इन आंकडों से प्रदेश की वास्तविक वित्तिय स्थिति का पता चलता है। इन आंकड़ों के मुताबिक प्रदेश के सारे वित्तिय संस्थानों द्वारा जो 21,75,623.50 लाख का दिया गया ऋण है वह ऋण वापसी की समय सीमा पार कर चुका है। इसमें से कितना ऋण एनपीए हो जायेगा यह तो आने वाला समय ही बतायेगा लेकिन प्रदेश के सहकारी बैंकों के 980 करोड़ के एनपीए से ही पाठक अनुमान लगा सकते है।
प्रदेश और सरकार के वित्त की समझ रखने वाले यह मानेंगे की यदि सरकार इस जमीनी हकीकत को समझ कर नहीं चलेगी तो आने वाला समय बहुत ही कठिन हो जायेगा क्योंकि जब इन्हीं आंकड़ो के अनुपात में इसी सर्वेक्षण में इसी अवधि में हुए विकास के कुछ आंकड़ो पर भी नजर डाली जाये तो इस भयानकता को समझना आसान हो जायेगा। क्योंकि इस अवधि में फोरलेन सड़क 6 किमी, डबल लेन 3 किमी और सिंगल लेन 496 किमी सड़क निर्माण हुआ। 2017-18 में प्रदेश 226.5 हजार घन मीटर लक्कड़ थी जो 2018-19 में घटकर 187.6 हजार घन मीटर रह गयी है। प्राकृतिक संसाधन क्यों कम हो रहे हैं यह सवाल अहम है। आज सरकार के तीन वर्ष पूरे होने पर मुख्यमन्त्री से यह अपेक्षा की जानी चाहिये कि वह स्थिति की इस गंभीरता को सामने रखते हुए यह जानने का प्रयास करें कि ऐसा क्यों हुआ है। क्या इसके लिये अकेले नौकरशाही को ही जिम्मेदार ठहराना सही होगा।
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