Friday, 19 September 2025
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तीन वर्षों में प्रदेश के वित्तिय संस्थानों का 1,87,562करोड़ पहुंचा एनपीए के कगार पर

शिमला/शैल। इस समय प्रदेश का कर्जभार 60,000 करोड़ से पार जा चुका है। इस बढ़ते कर्ज के कारण आज प्रदेश का हर व्यक्ति 8 लाख के कर्ज तले आ चुका है। इस कर्ज के मुकाबले प्रति व्यक्ति आय अभी दो लाख से नीचे है। प्रदेश के सारे वित्तिय संस्थानों द्वारा दिये गये कर्ज में से सरकार के 2020-21 के आर्थिक सर्वेक्षण के आंकड़ो के मुताबिक 21,75623 लाख का ऋण आऊट स्टैण्डिंग हो चुका है। इस कर्ज के पूरा वापिस आ पाने की संभावनाएं नहीं के बराबर है। ऐसा इसलिये है कि केन्द्रिय वित्त मन्त्री ने जब कोरोना के कारण 20 लाख करोड़ का पैकेज जनता को दिया था तब बैंकों को यह निर्देश दिये गये थे कि वह लोगों को कर्ज देने में अपना हाथ पीछे न खींचे। यह आश्वासन भी दिया गया था कि यदि ऋण लेने वाला इसे वापिस नहीं कर पायेगा तो केन्द्र सरकार इसकी भरपायी करेगी। यह भरपायी कितनी, कब और कैसे होगी इसका कोई विवरण घोषित नही है। इस बढ़ते कर्ज के कारण प्रदेश का ऋण -जमा अनुपात 44ः33 पर आ गया है। वित्तिय संस्थानों के पास 33 रूपये का डिपाजिट आ रहा है और इसके बदले 44 रूपये का कर्ज दिया जा रहा है।
सरकार विकास के नाम पर कर्ज लेती है इस कर्ज से प्रदेश के प्रति व्यक्ति की आय करीब दो लाख और ऋण आठ लाख हो चुका है। इस कर्ज पर करीब आठ हजार प्रतिमाह ब्याज बनता है और आय सोलह हजार बनती है। ब्याज देने के बाद बचे आठ हजार में क्या परिवार का गुजारा हो सकता है। यह एक साधारण सा सवाल है जिसका कोई भी अनुमान लगा सकता है। इस कर्ज से प्रदेश के लोगों को कितना रोज़गार मिल पाया है इसका ब्योरा भी सरकार के सांख्यिकी विभाग के रिकार्ड में उपलब्ध है। इस रिकार्ड के मुताबिक वर्ष 2018-19 में सरकारी और प्राईवेट देानो ही क्षेत्रों में केवल 7,016 लोगों को ही रोज़गार मिल पाया है। इन आंकड़ो से यह स्पष्ट हो जाता है कि इस बढ़ते कर्ज के निवेश से न तो सरकार का राजस्व बढ़ रहा है न ही रोज़गार के अवसर बढे़ हैं। बल्कि जिस अनुपात में कर्ज बढ़ रहा है। उससे ज्यादा रफ्तार से प्रदेश में सारी सेवाओं का शुल्क बढ़ा है। सरकार के राजस्व में बढौत्तरी उत्पादन बढ़ने से नह बल्कि शुल्क के बढ़ाये जाने से हो रही है। कोरोना काल में जहां केन्द्र ने प्रदेश के कर्ज लेने की सीमा बढ़ाई है वहीं पर प्रदेश सरकार ने बिजली, पानी, परिवहन, पैट्रोल, डीजल, रसोई गैस आदि सारी सेवाओं के दाम बढ़ाये हैं। सरकार के कर्ज और मंहगाई से हर आदमी बुरी तरह प्रभावित हो रहा है।
प्रदेश की इस वित्तिय स्थिति के परिदृश्य में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि इसके लिये सरकार की नीतियों के अतिरिक्त और किसी को दोष नहीं दिया जा सकता है। 1990 के दशक में प्राइवेट सैक्टर को लाने के लिये यह प्रचारित किया गया था कि सरकारी कर्मचारी काम नहीं करता है और भ्रष्ट है। लेकिन आज इसी प्राइवेट क्षेत्र के खिलाफ रोष सडकों तक आ पहुंचा है। आज कर्मचारियों के बाद अधिकारियों को दोष दिया जाने लगा है कि वह काम नहीं कर रहे हैं। इस वस्तु स्थिति में यह आवश्यक हो जाता है कि यह देखा जाये कि सरकार सही में कर्ज को विकास कार्यों पर ही खर्च कर रही है या कर्ज लेकर घी पीने का काम कर रही है। जब सरकार कुछ चिन्हित लोगों को लाभ पहुंचाने के लिये नियमों/कानूनों को नज़रअन्दाज करने तक आ जाती है तो उसे कर्ज लेकर घी पीने की संज्ञा दी जाती है। सरकार ने वित्तिय संकट के चलते अपने कर्मचारीयों और पैन्शनरों को मंहगाई भत्ते की किश्त नहीं दी है। लेकिन अधिकारियों को बिना पदों और नियमों के प्रोमोट कर रही है। एक अतिरिक्त मुख्य सचिव पहले बनाया और अब एक अन्य को बनाने की कवायद चल रही है। मन्त्रीयों/ अधिकारीयों के लिये मंहगी गाड़ियां खरीदी जा रही है। तीन वर्षों में 250 के करीब गाडीयां खरीदी गयी हैं। ठेकेदारों को खुले हाथ से पैसा लुटाया जा रहा हैं हाईड्रो इन्जिनियरिंग कालिज में आठ करोड़ ऐसे लुटा दिया गया और विपक्ष द्वारा इस मुद्दे को उठाने के बावजूद इसमें औपचारिक जांच तक नहीं की गयी। भ्रष्टाचार को संरक्षण देने के लिये अदालत के निर्देशों तक को नज़़रअन्दाज किया जा रहा है। प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड में इसके चर्चे हर जुबान पर हैं। इन्ही चर्चाओं का परिणाम है कि आज शीर्ष नौकरशाही में शीतयुद्ध की चर्चाओं तक के हालात पैदा हो गये हैं। हर आदमी नियमों को अंगूठा दिखाकर अपने लिये लाभ का जुगाड़ भिडानेे में लग गया है। क्योंकि जब एक कनिष्ठ अधिकारी के सारे अपराध नज़रअन्दाज हो सकते हैं तो फिर वरिष्ठ अपने लाभ के लिये ऐसा क्यों नही करेेंगे।
जब शीर्ष अफसरशाही में काम का बंटवारा पक्षपात पूर्ण होना शुरू हो जाता है तब यह स्थिति एक स्टेज पर शीतयुद्ध की शक्ल ले लेती है और फिर इसका असर पूरे प्रदेश की वित्तिय स्थिति पर पड़ना शुरू हो जाता है। बैंकों पर दबाव बढ़ जाता है और वहां नियमों/कानूनों को अंगूठा दिखाते हुए कर्ज बांटे जाने लग पड़ते हैं। आम आदमी का पैसा लुटाया जाता है और तन्त्र मूक दर्शक बन कर बैठा रहता है। कांगड़ा केन्द्रिय सहकारी बैंक द्वारा मनाली की एक पर्यटन ईकाई को 65 करोड़ का ऋण स्वीकृत कर दिया जाता है और इसमें सात करोड़ की पहली किश्त बैंक की राजकीय महाविद्यालय ऊना स्थित ब्रांच से जारी कर दी जाती है। मुद्दा उठता है और कोई कारवाई नहीं होती है। ऊना के चताड़ा गांव में यही कांगड़ा सहकारी बैंक 8 कनाल 4 मरले जमीन पर एक करोड़ का ऋण दे देता है। इसी तरह की स्थिति हरिपुर में हुई है। इन प्रकरणों से यही उभरता है कि इस तरह के चलन से अन्ततः यह वित्तिय संस्थान डूब जायेंगे।

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