पहले आनन्द फिर रामलाल ठाकुर और अब प्रतिभा सिंह के ब्यानों से उठी चर्चा
शिमला/शैल। पिछले कुछ अरसे से प्रदेश कांग्रेस के कुछ बड़े नेता भाजपा और जयराम सरकार पर हमलावर होने के बजाये अपने संगठन पर ही ज्यादा हमलावर होते नजर आ रहे हैं। यह सिलसिला बड़े नेता आनन्द शर्मा से शुरू होकर रामलाल ठाकुर से होते हुए प्रदेश अध्यक्ष सांसद प्रतिभा सिंह तक पहुंच गया है। आनन्द शर्मा ने चुनाव कमेटी की अध्यक्षता से यह कहकर त्यागपत्र दे दिया कि उन्हें उचित मान सम्मान नहीं दिया जा रहा है। इस आश्य का पत्र सीधे सोनिया गांधी को भेजा दिया। लेकिन आनन्द के त्यागपत्र पर संगठन में कोई बड़ी हलचल नहीं हुई क्योंकि वह बहुत पहले ही जी-23 समूह के बड़े नेता के रूप में चिन्हित हो चुके थे। आनन्द के बाद रामलाल ठाकुर ने पार्टी के उपाध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया। यह त्यागपत्र देते हुए जो सवाल उन्होंने अब सार्वजनिक रूप से संगठन पर उठाये हैं उन पर वह अब तक चुप क्यों थे। जब अपराधिक छवि के लोग संगठन में महत्वपूर्ण होते जा रहे थे तब वह खामोश क्यों थे। क्योंकि अब जब उन्हीं के उठाये हुये प्रश्न उन्हीं से पूछे जाएंगे तब क्या उत्तर देंगे? यह सवाल उठने के बाद भी वह किस नैतिकता से संगठन में बने हुए हैं इसका जवाब शायद वह न दे पायें। क्योंकि गलत समय पर यह सवाल उठाये गये हैं। जबकि इसी दौरान जब कार्यकारी अध्यक्ष पवन काजल और विधायक लखविंदर राणा पार्टी छोड़ कर गये थे तब यह सवाल पार्टी के भीतर उठाने का एक अच्छा अवसर था। इस समय सार्वजनिक रूप से यह सवाल उठाना संगठन को मजबूत करने की बजाये कमजोर करने का ज्यादा प्रयास माना जायेगा।
लेकिन अब जो साक्षातकार दी प्रिंट में प्रदेश अध्यक्ष प्रतिभा सिंह का सामने आया है उससे प्रदेश के राजनीतिक और प्रशासनिक हलकों में एक तरह से भूचाल की स्थिति खड़ी कर दी है। क्योंकि इस साक्षातकार के सामने आने के बाद प्रतिभा सिंह ने जो खण्डन जारी किया है उसके प्रत्युत्तर में दी प्रिंट ने पूरी स्क्रिप्ट का यूटयूब पर वीडियो जारी कर दिया हैै जिसे लाखों लोगों ने देख लिया है। इस साक्षातकार के सामने आने से यह सन्देह बन जाता है कि या तो प्रतिभा सिंह आज के राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य का सही में आकलन ही नहीं कर पायी है या फिर वह किसी राजनीतिक डर के साये में चल रही है। क्योंकि पिछले दिनों जब विक्रमादित्य सिंह ने सीबीआई को लेकर ट्वीट किया था उस समय यह सन्देश उभरा था कि आने वाले दिनों में हिमाचल में केंद्रीय जांच एजैन्सियों का दखल देखने को मिल सकता हैै। अब जब ऊना में रेत खनन माफिया के खिलाफ ईडी ने छापेमारी को अंजाम दिया है उससे यह आशंका का एकदम सही ठहरती है। क्योंकि ऊना में अवैध खनन का मामला शीर्ष अदालत तक पहुंचा हुआ है। इस पर अदालती जांच तक हो चुकी है। लेकिन उस समय ईडी ने इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया। संभव है कि अब चुनावी वक्त में इस छापेमारी की आंच कुछ राजनेताओं तक भी पहुंचे। ऐसे में राजनेताओं को इस तरह की स्थिति के लिये हर समय तैयार रहना होगा। लेकिन जिस तरह के ब्यान वरिष्ठ नेताओं के आने शुरू हो गये हैं उससे बहुत सारे सवाल उठने शुरू हो गये हैं।
इस सरकार के खिलाफ पूरे कार्यकाल में सदन के बाहर कोई बड़ी आक्रमकता देखने को नहीं मिली है। सरकार पर सवाल उठाने के बजाय कांग्रेस के नेता अपने अध्यक्ष बदलने पर ज्यादा ध्यान केंद्रित करते रहे हैं। सदन में तो चर्चा रही कि यह सरकार सबसे ज्यादा कर्ज लेने वाली सरकार के रूप में जानी जायेगी। लेकिन इस चर्चा को आम आदमी तक पहुंचाने के लिये कोई काम नहीं किया गया। आज चुनाव के वक्त तक जो संगठन सरकार के खिलाफ कोई आरोप पत्र न ला पाये उसकी नीयत के बारे में आम आदमी में सवाल उठने स्वाभाविक हैं। क्योंकि जब कांग्रेस ने आरोप पत्र बनाने के लिए कमेटी गठित की और आरोप पत्र जारी करने की तारीख तक घोषित कर दी थी तब मुख्यमंत्री ने भाजपा द्वारा कांग्रेस सरकार के खिलाफ सौंपे आरोप पत्र की जांच सीबीआई को सौंपने की बात की थी। मुख्यमंत्री के इस बयान के बाद आज तक कांग्रेस का आरोप तक चर्चा से बाहर है। जबकि इस सरकार के खिलाफ तो पहले वर्ष से ही पत्र बम आने शुरू हो गये थे जयराम सरकार के आधे मंत्री परोक्ष अपरोक्ष में इन बमों के साये में हैं। सरकार का शीर्ष प्रशासन गंभीर सवालों के घेरे में चल रहा है। जिस सरकार में यह सारा कुछ रिकॉर्ड पर चल रहा हो उसका मुख्य विपक्षी दल इस तरह के अन्तः विरोधों का शिकार हो जाये तो निश्चित रूप से आम आदमी पर इस पर भ्रमित होगा ही।
निशा सिंह के पत्र और मुख्यमंत्री की प्रतिक्रिया से उठी चर्चा
जब मुख्यमंत्री से न्याय न मिले तो क्या राज्यपाल से दखल की गुहार लगाना अपराध है
जब सरकार केंद्र और अपने ही निर्देशों की अनदेखी करें तो क्या विकल्प रह जाता है?
शिमला/शैल। जब मुख्यमन्त्री को सार्वजनिक रूप से अधिकारियों को अपनी सीमा में रहने के लिये कहना पड़े और मुख्य सचिव से भी वरिष्ठ अधिकारी को प्रदेश के राज्यपाल से दखल देने की गुहार लगानी पड़ जाये तो यह प्रमाणित हो जाता है कि प्रशासन के शीर्ष पर हालात बहुत ही विस्फोटक बन चुके हैं। ऐसा विस्फोट चुनावी बेला में राजनीतिक नेतृत्व के लिये कितना घातक हो सकता है इसका अंदाजा लगा पाना भी आसान नहीं होगा। क्योंकि जब वरिष्ठ अधिकारियों को भी राजनीतिक नेतृत्व से न्याय न मिल सके तो उसका सन्देश प्रशासन के सबसे अंतिम पायदान और जनता तक सुखद नहीं होता है। ऐसा तब होता है जब राजनीतिक नेतृत्व किन्ही कारणों से एक वर्ग विशेष से ही घिर कर रह जाता है और दस्तावेजी परमाणों को भी नजरअन्दाज करके एक पक्षीय राय बना लेता है। आईएएस सेवा देश की शीर्षस्थ सेवा है और इसके शीर्ष पर पहुंचे अधिकारियों का भी अपना एक मान सम्मान होता है। यही अधिकारी होते हैं जिन्हें नियमों कानूनों की जानकारी राजनीतिक नेतृत्व से निश्चित तौर पर अधिक होती है। कई बार जो अधिकारी किन्ही कारणों से राजनीतिक नेतृत्व से ज्यादा नजदीक हो जाते हैं वह अपने स्वार्थों से प्रभावित होकर राजनीतिक नेतृत्व को गुमराह करने में सफल हो जाते हैं। ऐसा करने के लिये नेतृत्व के सामने नियमों कानूनों की सही और पूरी जानकारी नही रखी जाती है और नेतृत्व में यह क्षमता नही रह जाती है कि वह अपने स्तर पर सही तथा निष्पक्ष जानकारी जुटा सके। ऐसी स्थिति में जब ऐसे प्रशासनिक अधिकारी अपने स्वार्थों के कारण अपने वरिष्ठों का भी अहित करने पर आमदा हो जाते हैं तब प्रशासन के शीर्ष पर हालात ऐसे विस्फोटक हो जाते हैं। इस समय जयराम ठाकुर का शीर्ष प्रशासन शायद इसी दौर से गुजर रहा है। मुख्यमंत्री को नियमों कानूनों की सही जानकारी ही नहीं दी जा रही है। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि नियमों कानूनों की अनुपालना ही नहीं होने दी जा रही है। क्योंकि इससे नुकसान प्रशासनिक नेतृत्व की बजाये राजनीतिक नेतृत्व का होता है। अभी लोक सेवा आयोग में अध्यक्ष और सदस्यों का शपथ ग्रहण समारोह जिस तरह से रुका उसके छिंटे प्रशासन पर न पढ़कर राजनीतिक नेतृत्व पर पड़े। इसके बाद यही फजीहत पूर्व मुख्यमंत्री स्व. वीरभद्र के मुख्य सुरक्षा अधिकारी रह चुके पदम ठाकुर की पुनर्नियुक्ति के मामले में हुई। क्योंकि इन्हीं पदम ठाकुर के खिलाफ भाजपा के आरोप पत्र में गंभीर आरोप लगे हुए हैं। इस वस्तुस्थिति की मुख्यमंत्री को जानकारी भी थी या नहीं यह सब गौण हो गया और नेतृत्व की फजीहत बड़ा मुद्दा बनकर चर्चित हो गयी।
ठीक आज यही स्थिति निशा सिंह के वायरल हुए पत्र के बाद उभरी है। क्योंकि जब मुख्यमंत्री को लिखे पत्र का भी सही से जवाब न आये तो इतने बड़े अधिकारी के पास राज्यपाल से मामले में दखल देने की गुहार लगाने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं रह जाता है। इस समय प्रशासन के शीर्ष पर जिस तरह की विस्फोटक स्थिति बनी हुयी है उसका एक ही कारण है कि कुछ लोगों को अनुचित लाभ देने के लिये उन नियमों/निर्देशों की अनुपालना तक नहीं हो रही है जो सर्वाेच्च न्यायालय के प्रशासन तक पर लागू हैं। यहां तक चर्चाएं बाहर आ रही हैं कि यूपीएससी में फेल होने को भी योग्यता बना दिया गया है। निश्चित तौर पर ऐसा न तो मुख्यमंत्री की जानकारी में होगा और न ही उनके निर्देशों से हुआ होगा। लेकिन यह सब उन्हीं के कार्यकाल में नियमों को संशोधित करके अंजाम दिया गया है तो निश्चित रूप से उन्हीं के नाम लगेगा। ऐसे में यदि अभी भी जयराम प्रशासन केंद्र सरकार और अपने निर्देशों की अनुपालन नहीं कर पाता है तो पूरी स्थिति विस्फोटक हो जायेगी। उसमें कुछ भी बचना संभव नहीं रह पायेगा।
राज्य सरकार के निर्देश जिनकी अनुपालना नही हुई


भारत सरकार के निर्देश जिनकी अनुपालना नही हुई

मंत्रियों से लेकर नीचे हर नेता जवाब देने के लिए उतरा मैदान में
शिमला/शैल। राजनीतिक दलों द्वारा चुनावी वायदों के रूप में मुफ्ती योजनाओं की घोषणाएं किया जाना कितना जायज है? क्या इनकी कोई सीमा तय होनी चाहिये? ऐसी घोषणाओं का पूरी आर्थिकी पर कितना और क्या असर पड़ता है? यह सवाल हमारे देश में भी श्रीलंका की स्थिति के बाद चर्चा और चिन्तन का विषय बने हुए हैं। सबसे पहले वरिष्ठ नौकरशाहों के एक बड़े वर्ग ने प्रधानमन्त्री के समक्ष यह विषय उठाते हुए यह कहा था कि यदि राज्यों को ऐसी घोषणाओं से न रोका गया तो कुछ राज्यों की हालात कभी भी श्रीलंका जैसी हो जायेगी। इसके बाद यह मामला सर्वाेच्च न्यायालय तक पहुंच गया और वहां उसे तीन जजों की पीठ को सौंप दिया गया है। आशा की जा रही है कि गुजरात और हिमाचल विधानसभा के चुनाव से पूर्व ही शायद कोई सुप्रीम निर्देश आ जाये। यह विषय कितना गंभीर और व्यापक है इसको सही परिप्रेक्ष में समझने के लिए आर्थिकी से जुड़े कुछ आंकड़े ध्यान में रखना आवश्यक हो जाता है क्योंकि केन्द्र से लेकर राज्यों तक हर प्रदेश कर्ज में इतना डूब चुका है कि सभी एफ आर बी एम के मानकों को अंगूठा दिखा चुके हैं। इन मानकों के अनुसार कोई भी राज्य जी डी पी के तीन प्रतिश्त से लेकर पांच प्रतिश्त तक ही कर्ज ले सकता है। जून में जो तेरह राज्यों की रिपोर्ट आर बी आई ने जारी की थी उसके मुताबिक कुछ राज्य 240% से 347% कर्ज ले चुके हैं। कैग रिपोर्ट के मुताबिक हिमाचल प्रदेश का कर्ज भार ही जी डी पी के करीब 40% पहुंच गया है
इस परिदृश्य में आज जब हिमाचल के चुनावों के परिप्रेक्ष में भाजपा कांग्रेस और आप में इन मुफ्ती की घोषणाओं को लेकर आपस में होड़ लग गयी है तब प्रदेश की आर्थिक स्थिति को लेकर कुछ सवाल जनहित में सार्वजनिक मंच से इन तीनों दलों से पूछे जाने आवश्यक हो जाते हैं। क्योंकि मुफ्ती योजनाओं की घोषणाओं की शुरुआत आप ने की थी। आप को मात देने के लिये जयराम सरकार ने पहले 60 यूनिट और फिर 125 यूनिट बिजली मुफ्त देने की घोषणा कर दी। लेकिन सरकार यहीं नहीं रुकी महिलाओं को बस किरायों में छूट का ऐलान कर दिया गया। घोषणाओं की इस दौड़ में कांग्रेस ने दस गारंटीयों का ऐलान करके सरकार को पीछे छोड़ दिया। लेकिन सरकार ने कांग्रेस की गारंटीयों के जवाब में सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता विभाग के माध्यम से चलायी जा रही 31 योजनाओं की सूची जारी करके यह दावा किया है कि सरकार कांग्रेस की दस गारंटीयों से पहले ही लोगों को 31 योजनाओं के माध्यम से सब कुछ दे चुकी है। मंत्रीयों से लेकर नीचे तक भाजपा का हर नेता कांग्रेस को जवाब देने के काम में लग गया है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि कांग्रेस की गारंटीयों से सही में सरकार और भाजपा परेशान हो उठी है। क्योंकि कांग्रेस की गारंटीयों का सच तो सरकार बनने के बाद पता चलेगा जबकि भाजपा के दावों का सच तो अभी जमीन पर पता चल जायेगा।
जयराम सरकार पर सबसे बड़ा आरोप सदन के भीतर और बाहर प्रदेश को कर्ज के गर्त्त में धकेलने का लगता आ रहा है। जयराम ठाकुर ने अपने पहले बजट भाषण में सदन में यह जानकारी रखी थी कि उनको विरासत में करीब 46,000 करोड का कर्ज मिला है। यह भी कहा था कि वीरभद्र सरकार ने 18,000 करोड सीमा से अधिक लिया है। अभी मानसून सत्र में दी गयी जानकारी के मुताबिक कुल कर्ज 63,735 करोड़ है और जीडीपी 1,75,173 करोड़। 2021-22 और 2022-23 में विभिन्न योजनाओं के तहत केन्द्र से 25,524 करोड सहायता के रूप में और 912 करोड के रूप में मिले हैं। केंन्द्रिय करों में प्रदेश की हिस्सेदारी के रूप में 35,454 करोड मिला है। इस तरह से 2021-22 और 2022-23 में केन्द्र से कुल 60,978 करोड मिला है जबकि दोनों वर्षों का कुल बजट एक लाख करोड़ के अधिक का है। इन दो वर्षों में राज्य के अपने साधनों से करीब 24,000 करोड सरकार को मिला है। इस तरह केन्द्र और राज्य के अपने साधनों से बजट दस्तावेजों के मुताबिक 85,085 करोड़ मिला जबकि खर्च एक लाख करोड से अधिक हुआ और यह कर्ज लेकर पूरा किया गया।
कैग रिपोर्ट के मुताबिक 2017-18, 2018-19 और 2019-20 में केन्द्रिय सहायता के नाम पर कुछ योजनाओं में कोई पैसा सरकार को नहीं मिला है। शायद इसी कारण से सौ योजनाओं पर सरकार एक भी पैसा खर्च नहीं कर पायी है। 2019 में स्कूलों में बच्चों को वर्दियां तक नहीं दी जा सकी है। जबकि 2019 में लोकसभा के चुनाव हुए और इस वर्ष के बजट में सरकार का कुल बजट अनुमानों से करीब सोलह हजार करोड अधिक खर्च हुआ है और यह खर्च जुटाने के लिए कर्ज लेने के अतिरिक्त और कोई साधन नहीं रहा है। बल्कि बजट दस्तावेजों के मुताबिक सरकार की पूंजीगत प्राप्तियां भी शुद्ध ऋण होती है। इस तरह यदि बजट के आंकड़ों का सही से अध्ययन किया जाये तो कुल कर्ज का आंकड़ा एक लाख करोड से पार हो जाता है। आज जब राजनीतिक दल अभी से चुनावी गारंटीयां लेकर आ रहे हैं तब उनसे प्रदेश की इस बजटीय स्थिति पर भी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिये। राजनीतिक दलों से कर्ज की सही स्थिति की जानकारी को लेकर प्रश्न पूछे जाने चाहिये। यह स्पष्ट किया जाना चाहिये की बिना कर्ज लिये और टैक्स लगाये वायदों को कैसे पूरा किया जायेगा।
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