शिमला/शैल। क्या विधानसभा अध्यक्ष निर्दलीय विधायकों के त्यागपत्रों को स्वीकारने या अस्वीकारने का फैसला लेने में देरी करने से सरकार को गिरने से बचा पायेंगे? क्योंकि इस फैसले को लम्बाने का एक ही अर्थ है कि किसी तरह निर्दलीय विधायकों के विधानसभा क्षेत्रों को रिक्त होने और वहां पर भी उपचुनाव की घोषणा को चुनाव अधिसूचना जारी होने तक रोक रखा जा सके। निर्दलीय विधायक भाजपा में शामिल हो चुके हैं और भाजपा ने उन्हें उन्हीं क्षेत्रों से अपने उम्मीदवार घोषित करके इस पर मोहर लगा दी है कि यह लोग राजनीतिक दल में शामिल हो चुके हैं। इनके भाजपा में शामिल होने के बाद यह लोग स्वतः ही दल बदल कानून के दायरे में आ गये हैं। दल बदल कानून के दायरे में ंआने के बाद इनके खिलाफ निष्कासन की कारवाई करना विधानसभा अध्यक्ष का दायित्व है। यदि इन लोगों ने त्यागपत्र न दिये होते और सिर्फ भाजपा में शामिल होने की ही जानकारी दी होती तो क्या तब भी अध्यक्ष इनके खिलाफ निष्कासन की कारवाई को लटकाये रखते? शायद नहीं। इन लोगों ने अपने त्यागपत्र सौंपकर अध्यक्ष और पूरी सरकार को उस मुकाम पर लाकर खड़ा कर दिया है जहां पर सिर्फ यही कहा जा रहा है कि यह सब सरकार बचाने के कमजोर प्रयास है। क्योंकि इन्होंने अपने त्यागपत्र अध्यक्ष को मिलकर सौंपे हैं और इसकी वीडियो भी जारी हो चुकी है। निर्दलीय विधायकों ने राज्यपाल से मिलकर उन्हें भी त्यागपत्रों की प्रति सौंपी है। राज्यपाल ने इन त्यागपत्रों को अपनी राय के साथ अध्यक्ष को भेजा। राज्यपाल ने अपनी राय में संवैधानिक प्रावधान और सर्वाेच्च न्यायालय के फैसलों का जिक्र करते हुए इन त्यागपत्रों को स्वीकार कर लेने की राय दी है। राज्यपाल ने अपनी राय में स्पष्ट कहा है कि इस विषय पर अन्तिम फैसला विधानसभा अध्यक्ष का ही विशेषाधिकार है। लेकिन इसी राय के साथ यह भी स्पष्ट हो जाता है कि राज्यपाल भी पूरी घटनाक्रम पर अपनी नजर बनाये हुये हैं। अब यह स्थिति बन गयी है कि कांग्रेस के बागियों को तो निष्कासित करने में अध्यक्ष ने चौबिस घंटे से भी कम का समय लिया। लेकिन निर्दलीयों को लेकर मामले को लम्बाने का प्रयास किया जा रहा है। आम आदमी की नजर में यह सरकार बचाने के असफल प्रयास है। क्योंकि यह प्रयास तो बागियों का निष्कासन लटकाने में होना चाहिये था। विधानसभा सचिवालय ने तो निर्दलीयों के त्यागपत्र के बाद इन्हें सदन की विभिन्न कमेटीयों में सदस्य नामित किया है। क्योंकि यह अभी विधायक हैं ऐसे में यदि यह अपने त्यागपत्र वापस लेकर सिर्फ भाजपा में शामिल होने की ही जानकारी दे तो क्या अध्यक्ष इनके खिलाफ दल बदल के प्रावधान के तहत निष्कासन की कारवाई नहीं करेंगे? यदि उसे स्थिति में भी कारवाई को लटकाने का प्रयास किया जाता है तो क्या यह राजनीतिक और प्रशासनिक अस्थिरता नहीं बन जायेगा? क्या ऐसी स्थिति में राज्यपाल के हस्तक्षेप के लिये न्योता नहीं बन जायेगी? जब निर्दलीय त्यागपत्र स्वीकार करने के लिये अध्यक्ष के कक्ष के बाहर धरने पर बैठकर अध्यक्ष का ध्यान आकर्षित करने का प्रयास करने के बाद भी अध्यक्ष त्यापत्र स्वीकारने में देेरी करे तो उसे स्थिति को क्या कहा जायेगा? कानून के जानकारों के मुताबिक अध्यक्ष फैसला लेने में जितना समय लगायेंगे वह स्थिति स्वतः ही राज्यपाल के हस्तक्षेप की भूमिका तैयार करना बन जायेगा। क्योंकि अस्थिरता का संज्ञान लेना राज्यपाल का वैधानिक दायित्व है। इसलिये अस्थिरता की परिभाषा राज्यपाल का अपना विवेक है जिसे किसी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती।
शिमला/शैल। इस समय प्रदेश राजनीतिक अस्थिरता की दहलीज तक पहुंच चुका है। कांग्रेस के छः विधायक निष्कासित हो चुके हैं और इन स्थानों पर उपचुनाव की भी घोषणा हो चुकी है। कांग्रेस के बाद अब भाजपा के नौ विधायकों के खिलाफ अवमानना की कारवाई शुरू हो चुकी है। संभव है कि उनके खिलाफ भी अध्यक्ष अवमानना की याचिका को स्वीकार करके इनको भी निष्कासित कर दें। स्थितियां इस हद तक पहुंच चुकी है कि ऐसे में जो सवाल अहम हो रहे हैं उन में पहला और बड़ा सवाल यह है कि इस खेल का अन्तिम परिणाम क्या होगा। क्या प्रदेश अन्ततः मध्यावधि चुनावों की ओर बढ़ेगा? क्या हालत राष्ट्रपति शासन तक पहुंच जाएंगे? प्रदेश में इस तरह की राजनीतिक अस्थिरता का वातावरण पहली बार बन रहा है जो प्रदेश के लिये किसी भी तरक से सही नहीं है। क्योंकि इस परिदृश्य में कांग्रेस के बागियांे को भाजपा में शामिल करवाना अनिवार्यता बन जायेगा और इसका परिणाम होगा छः सीटों पर उपचुनाव। यदि यह बागी भाजपा में शामिल न हो और सर्वाेच्च न्यायालय से इनका निष्कासन रद्द हो जाये जिसकी संभावना बहुत प्रबल है तो उस स्थिति में यह कांग्रेस के ही सदस्य रहते हैं और इससे भाजपा को कोई लाभ नहीं मिलता। क्योंकि तब कांग्रेस सरकार बचाने के लिए नेता को बदलने तक की बात कर सकती है। इसलिये बागियों को भाजपा में शामिल करवाना और उपचुनाव में जाना भाजपा की आवश्यकता बन गया है। इस स्थिति का अंतिम परिणाम राष्ट्रपति शासन और फिर मध्यावधि चुनाव होना तय है। इस परिदृश्य में यह सवाल आम आदमी की ओर से महत्वपूर्ण हो जाता है की प्रदेश को इस स्थिति तक पहुंचाने के लिये कौन जिम्मेदार है। प्रदेश में सरकार कांग्रेस की है इसलिए उसकी भूमिका का पहले आकलन करना आवश्यक हो जाता है। प्रदेश की आर्थिक स्थिति और बढ़ते हुये कर्जभार पर कांग्रेस बतौर विपक्ष पूर्व सरकार के खिलाफ मुद्दा उठाती रही है। परन्तु सत्ता में आने के लिए दस गारंटियां चुनाव में जारी कर बैठी। इससे सरकार तो बन गयी लेकिन गारंटियां गले की फॉस बन गयी। जब प्रदेश की आर्थिक स्थिति गारंटियां पूरी कर पाने में असमर्थ साबित हो रही थी तो उसी वक्त सलाहकारों और मुख्य संसदीय सचिवों की फौज खड़ी करके प्रदेश पर अवांछित बोझ क्यों डाला? यही नहीं मंत्रिमंडल में क्षेत्रीय असंतुलन खड़ा कर लिया गया। जो नौकरशाही प्रदेश को कर्ज़ के चक्रव्यूह में डालने के लिये जिम्मेदार है उसी को सरकार बनने पर सिर पर बिठा लिया। इसी के कारण खुद कर्ज के सहारे चलने पर विवश हो गये और हर सेवा तथा वस्तु के दाम बढ़ाने पड़ गये। इसके परिणाम स्वरुप युवाओं को रोजगार नहीं दे पाये। जब असंतुलन कार्यकर्ताओं की अनदेखी और युवाओं के रोजगार के मुद्दे उठने लगे तो इसकी शिकायतें कांग्रेस हाईकमान तक पहुंची। खुले पत्र तक लिखे गये परन्तु मुख्यमंत्री से लेकर हाईकमान तक ने इसका कोई संज्ञान नहीं लिया। इस तरह यह मुद्दे उठाने वालों को उस मुकाम तक पहुंचा दिया गया कि वह प्रदेश की जनता के हित और पार्टी की वफादारी दोनों में से किसी एक चुनने के लिए बाध्य हो गये। राज्यसभा का उम्मीदवार तय करने के लिये प्रदेश नेतृत्व को विश्वास में नही लिया गया परिणाम स्वरुप आवाज़ उठाने वालों ने राज्यसभा में पार्टी के अधिकृत उम्मीदवार को हराकर फिर हाईकमान को चेता दिया। राज्यसभा चुनाव में जो घटा उसके बाद भी कांग्रेस नेतृत्व ने स्थिति को संभालने की बजाये अपने अहम के चलते और बिगाड़ दिया। क्योंकि राज्यसभा चुनाव में हुई क्रॉस वोटिंग के बाद कटौती प्रस्ताव और वित्त विद्येयक के पारण के दौरान सदन के पटल पर सरकार गिरने की संभावनाओं को टालने के लिये बागियों के खिलाफ रात को ही निष्कासन के नोटिस जारी कर दिये गये। यहां सरकार में कोई भी यह नहीं समझ पाया कि सरकार गिरने का परिणाम मध्यावधि चुनाव होगा और सदन का किसी भी पक्ष का विधायक चुनाव नहीं चाहेगा। इस स्थिति को नेता प्रतिपक्ष ने समझकर 28 फरवरी को अपने विधायकों से सदन में हंगामा करके अपने 15 विधायकों के निष्कासन की स्थिति खड़ी कर दी और अध्यक्ष ने उनका निष्कासन कर दिया। इस निष्कासन के बाद बजट के ध्वनिमत से पारित होने की स्थिति बन गई और बजट पारित भी हो गया। ऐसे में जब बजट पारित हो गया तो उसके बाद बागियों के खिलाफ आयी याचिका पर तुरन्त प्रभाव से कारवाई करना कोई राजनीतिक समझदारी नहीं था। क्योंकि यह याचिका लंबे समय तक अध्यक्ष के पास लंबित रह सकती थी। क्योंकि बजट पारित होते ही सदन में स्त्रावसान हो गया था और सरकार को तीन माह का समय संकट हल करने के लिये मिल जाता। लेकिन यहां पर सरकार और उसके सारे सलाहकार स्थिति का आकलन करने में असफल रहे और आज प्रदेश को इस मुकाम तक पहुंचा दिया गया। इस वस्तुस्थिति में यह देखना दिलचस्प होगा कि इसका लोकसभा चुनाव में क्या प्रभाव पड़ता है क्योंकि वर्तमान परिदृश्य में विपक्ष निश्चित रूप से सरकार पर भारी पड़ा है।The Joomla! content management system lets you create webpages of various types using extensions. There are 5 basic types of extensions: components, modules, templates, languages, and plugins. Your website includes the extensions you need to create a basic website in English, but thousands of additional extensions of all types are available. The Joomla! Extensions Directory is the largest directory of Joomla! extensions.
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