यदि इस उम्मीदवारी के राजनीतिक पक्षों पर विचार किया जाये तो पहला सवाल उठता है कि जब सिंघवी का नाम राज्यसभा के लिये हिमाचल से आया तब क्या इस वाटर सैस वाली पृष्ठभूमि को संज्ञान में नहीं लिया गया? संभव है कि इस पृष्ठभूमि की जानकारी हाईकमान को न रही हो लेकिन मुख्यमंत्री को तो यह जानकारी अवश्य रही होगी। ऐसे में दूसरा सवाल उठता है कि यह जानकारी होने के बावजूद सिंघवी की उम्मीदवारी को इसलिये स्वीकार कर लिया गया कि प्रदेश की जनता को अब पूछने बताने की आवश्यकता ही नहीं है। इन नैतिक सवालों के आयने में सरकार ने जितनी भी सेवाओं और वस्तुओं के दाम बढ़ाये हैं उनके औचित्य पर स्वतः सवाल उठते जायेंगे। ऐसे में यह फैसला एक ऐसा आत्मघाती कदम हो गया है जो कांग्रेस और सरकार का कहीं भी पीछा नहीं छोड़ेगा।
दूसरी और इस समय सुक्खू सरकार और संगठन में तालमेल का बड़ा अभाव चल रहा है। कार्यकर्ताओं को सरकार में उचित मान सम्मान नहीं मिल रहा है। इसकी शिकायतें हाईकमान तक भी पहुंची हुयी हैं। राजेन्द्र राणा और सुधीर शर्मा तो विधायक दल की बैठक से भी गायब रहे हैं। पूर्व मंत्री और जिला मंडी के कांग्रेस अध्यक्ष प्रकाश चौधरी ने तो पार्टी से ही त्यागपत्र दे दिया है। इससे पहले अभिषेक राणा ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया है। पार्टी में मुख्यमंत्री के व्यवहार को लेकर एक बड़े स्तर पर रोष फैलता जा रहा है। लोकसभा चुनावों में पार्टी को करारी हार मिलने की संभावनाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं। ऐसे में माना जा रहा है की पार्टी के असंतुष्ट विधायक अपना रोष प्रकट करने के लिये इस चुनाव को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल कर सकते हैं। फिर भाजपा ने अपने पच्चीस विधायकों के बल पर ही अपना उम्मीदवार उतार दिया हो ऐसा नहीं लगता। क्योंकि राष्ट्रीय परिदृश्य में कांग्रेस की सरकारों को अस्थिर करना मोदी-भाजपा की आवश्यकता बनता जा रहा है। हिमाचल में तो सरकार अपने ही बोझ से इतनी दब चुकी है की चाहकर भी इस स्थिति से बाहर नहीं आ सकती। मुख्य संसदीय सचिवों के मामले में मार्च में फैसला आने की संभावना है और तब पार्टी के समीकरणों में भारी बदलाव आयेगा यह तय है। इसलिये भाजपा ने हर्ष महाजन को उम्मीदवार बनाया है। जो कल तक कांग्रेस का कार्यकारी अध्यक्ष था। वह कांग्रेस को अच्छी तरह समझता है। मुख्यमंत्री के साथ हर्ष महाजन के रिश्ते जगजाहिर हैं। ऐसे में यह चुनाव एक बड़े घटना चक्र का पहला पड़ाव माना जा रहा है।