Saturday, 20 December 2025
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कुण्डू प्रकरण पर सरकार की विश्वसनीयता फिर सवालों में

शिमला/शैल। डीजीपी कुण्डू के खिलाफ आये प्रदेश उच्च न्यायालय के फैसले को सर्वाेच्च न्यायालय ने रद्द कर दिया है। अब यह अपने पद पर बने रहेंगे। सर्वाेच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय द्वारा इस मामले की जांच के लिये एस.आई.टी. गठित करने के निर्देश को बहाल रखा है और शिकायतकर्ता निशान्त शर्मा और उसके परिवार को सुरक्षा उपलब्ध करवाने के निर्देश को भी बहाल रखा है। कुण्डू इसी वर्ष अप्रैल में सेवानिवृत होने जा रहे हैं। इस परिदृश्य में सर्वाेच्च न्यायालय का फैसला कुण्डू के लिये एक बड़ी राहत के रूप में देखा जा रहा है। लेकिन इस प्रकरण में आये उच्च न्यायालय और फिर सर्वाेच्च न्यायालय के फैसलों ने कुछ ऐसे बुनियादी सवाल सरकार की कार्यप्रणाली को लेकर खड़े कर दिये हैं जिनका परिणाम दूरगामी होगा। क्योंकि सर्वाेच्च न्यायालय ने कुण्डू को अपने पद से हटाने के उच्च न्यायालय के फैसले से असहमति जताई है। कुण्डू ने सर्वाेच्च न्यायालय में एस.पी. शिमला की रिपोर्ट की निष्पक्षता पर शिमला ब्लास्ट प्रकरण में आयी उनकी रिपोर्ट पर उठे सवालों के संद्धर्भ में प्रश्न उठाये हैं। इस प्रकरण में एस.आई.टी कब गठित होती है और उसकी जांच रिपोर्ट कब आती है यह सब आने वाला समय ही बतायेगा।
इस प्रकरण में सरकार की कार्यशैली पर जो सवाल उठते हैं वह आम आदमी के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण हो जाते हैं। क्योंकि निशान्त शर्मा की शिकायत पर कोई भी जांच होने से पहले ही उसके खिलाफ कुण्डू एक एफ.आई.आर. दर्ज करवा देते हैं और उसके होटल को निगरानी पर डाल देते हैं। जिन व्यापारिक सहयोगियों के खिलाफ निशान्त शर्मा की शिकायत है उन्हीं के साथ डी.जी.पी. की लम्बी बात होना उच्च न्यायालय के रिकॉर्ड पर आ चुका है और इस तथ्यात्मक रिकॉर्ड पर सर्वाेच्च न्यायालय ने कोई टिप्पणी नहीं की है। यह टिप्पणी न किया जाना उच्च न्यायालय में आये रिकॉर्ड की प्रामाणिकता पर भी कोई सवाल खड़े नहीं करता है क्योंकि उसकी सत्यता के आगे जांच में परखी जायेगी। लेकिन इस प्रकरण में जिस तरह से सवाल सरकार की निष्क्रियता और धर्मशाला पुलिस की कार्यशाली पर उठे हैं उससे पूरे तंत्र की विश्वसनीयता प्रश्नित हो गयी है।
उच्च न्यायालय ने जब डी.जी.पी. को हटाने के पहली बार निर्देश दिये तो सरकार ने उस पर अमल करते हुये उन्हें तो प्रधान सचिव आयुष तैनात कर दिया लेकिन एस.पी. कांगड़ा को लेकर सरकार चुप रही। जब उच्च न्यायालय ने दूसरी बार फैसले में रिकाल याचिका को अस्वीकार कर दिया तब भी एस.पी. को लेकर सरकार की ओर से कोई कारवाई सामने नहीं आयी। फिर जब कुण्डू उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ दूसरी बार सर्वाेच्च न्यायालय गये तो शायद वहां पर सरकार का पक्ष रखने के लिये कोई उपलब्ध ही नहीं था। सरकार के ऐसे आचरण से क्या यह सन्देश नहीं जाता है कि सरकार की पहली प्राथमिकता अधिकारी हैं न की आम आदमी।

कोर कमेटी की बैठक में शान्ता, धूमल और अनुराग का गैर हाजिर रहना पुराने संबंधों की छाया तो नहीं?

  • नड्डा के चुनाव लड़ने से इन्कार के साथ ही फैसला चुनाव कमेटी पर छोड़ने का अर्थ क्या है
  • क्या भाजपा सुक्खू सरकार को अपने ऐजैण्डे पर चुनाव लड़ने के लिए बाध्य कर पायेगी।

शिमला/शैल। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष और हिमाचल से राज्यसभा सांसद जगत प्रकाश नड्डा की अध्यक्षता में हुई कोर कमेटी की बैठक में पूर्व मुख्यमंत्रीयांे शान्ता कुमार और प्रेम कुमार धूमल तथा केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर के न आने से भाजपा के अन्दर के हालात को लेकर अनचाहे ही जो सन्देश गया है वह कोई बहुत सुखद नहीं है। क्योंकि नड्डा के इस दौर से पहले बड़ी प्रमुखता से यह समाचार छपा था कि नड्डा प्रदेश से लोकसभा चुनाव लड़ने जा रहे हैं। स्वभाविक था कि इस दौरे में नड्डा के चुनाव लड़ने का सवाल मीडिया के लिये एक प्रमुख मुद्दा रहता। नड्डा ने चुनाव लड़ने से इन्कार करते हुये यह भी जोड़ दिया कि चुनाव कमेटी का निर्णय सर्वोपरि होगा। इससे स्पष्ट हो जाता है कि नड्डा के चुनाव लड़ने का फैसला अभी यथास्थिति बना हुआ है। चुनाव लड़ने की संभावना इसलिये प्रबल हो जाती है कि उनका राष्ट्रीय अध्यक्ष का दूसरा कार्यकाल इसी वर्ष समाप्त हो जायेगा और तीसरे कार्यकाल की अनुमति भाजपा का संविधान नहीं देता। राज्यसभा में तीसरे कार्यकाल के लिये भी यही स्थिति है और अभी चुनावी राजनीति से शायद वह रिटायर होना नहीं चाहेंगे।
इस परिपेक्ष में नड्डा का यह दौरा भाजपा की चुनावी स्थितियों के आकलन के साथ ही उनके व्यक्तिगत आकलन के लिए भी महत्वपूर्ण माना जा रहा है। प्रदेश के विधानसभा चुनाव भी उनकी राष्ट्रीय अध्यक्षता के कार्यकाल में ही हुये हैं। नड्डा का गृह प्रदेश होने के नाते विधानसभा चुनावों में उनके परोक्ष/अपरोक्ष फैसलों का ही वर्चस्व रहा है। विधानसभा चुनावों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह की चुनावी सभाओं के बावजूद भी भाजपा एक प्रतिशत से भी कम मतों के अन्तर से चुनाव हार गयी। पार्टी ने इन चुनावों के लिये मुख्यमंत्री भी घोषित कर रखा था। विधानसभा की हार के कारणों में नड्डा के प्रदेश में एकधिकार दखल को भी बड़ा कारण माना गया है। क्योंकि प्रदेश में कई बार नेतृत्व परिवर्तन की अटकलें उठी मंत्रिमण्डल में फेरबदल कुछ मंत्रियों को हटाने और विभागों में परिवर्तन की चर्चाएं चली जो अन्त में सिर्फ से आगे नहीं बढ़ पायी। इस सबका परिणाम पार्टी की हार के रूप में सामने आया। अनुराग ठाकुर और जयराम ठाकुर के बीच केंद्रीय विश्वविद्यालय को लेकर देहरा में एक सार्वजनिक मंच पर हुआ विवाद आज भी सबको याद है। राजीव बिन्दल को किस तरह से प्रताड़ित किया गया था वह भी कोई बहुत पुरानी बात नहीं है। यह सब कुछ आज कोर कमेटी की बैठक में भाजपा के इन तीन बड़े नेताओं का न आना राजनीतिक विश्लेष्कांे के लिये बहुत कुछ दे गया है।
क्योंकि यदि नड्डा लोकसभा के लिये उम्मीदवार बनाये जाते हैं तो उनके लिये यह स्थिति नहीं है कि वह प्रदेश की किसी भी ओपन सीट से चुनाव लड़ने का साहस कर पायें। उनके लिये हमीरपुर ही उनकी पहली पसन्द होगी और वहां से अनुराग ठाकुर को बदलना बहुत आसान नहीं होगा। वैसे बहुत अरसे से अनुराग को चंडीगढ़ शिफ्ट करने की चर्चाएं राजनीतिक हलकों में चल रही हैं। वैसे इस समय भाजपा में डॉ. बिन्दल के अतिरिक्त कोई दूसरा बड़ा नेता सुक्खू सरकार के खिलाफ ज्यादा सटीक आक्रमकता नहीं दिखा रहा है। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि भाजपा लोकसभा का यह चुनाव सुक्खू सरकार को अपने एजेंडा पर लड़ने के लिये बाध्य कर पायेगी या स्वयं सरकार के ऐजैण्डे के ट्रैप में आ जायेगी। क्योंकि इस समय सरकार और भाजपा का शीर्ष नेतृत्व आपस में पूरे तालमेल से चल रहा है।

क्या कांग्रेस लोस की चारों सीटें जीत पायेगी?

  • सरकार के फैसलों और योजनाओं का दम भरने वाला कोई भी मंत्री उम्मीदवार बनने को तैयार होगा
  • नये मंत्रियों को अब तक विभागों का आवंटन न हो पाना क्या सरकार के अन्दर का आईना नहीं है।
शिमला/शैल। क्या सुक्खू सरकार और कांग्रेस संगठन प्रदेश की चारों सीटों पर जीत दर्ज कर पायेगी? यह सवाल पिछले दिनों प्रदेश के वरिष्ठ नेताओं की दिल्ली में हाईकमान द्वारा बलायी गयी बैठक के बाद चर्चा में आया है। क्योंकि हाईकमान ने कांग्रेस की सरकार होने के नाते चारों सीटें जीतने का लक्ष्य सरकार को दिया है। हाईकमान कि यह अपेक्षा अव्यवहारिक भी नहीं है। क्योंकि कांग्रेस ने भाजपा सरकार के समय दो नगर निगमों और फिर मंडी लोकसभा के उपचुनाव में जीत हासिल की है। ऐसे में आज कांग्रेस की सरकार की परीक्षा होगी यह आने वाले लोकसभा चुनाव। विधानसभा चुनाव कांग्रेस ने एक प्रतिशत से भी कम अंतर से जीते हैं। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि इस एक वर्ष में सरकार ने अपनी वर्किंग से भाजपा को और कितना हशिये पर धकेला है। स्मरणीय है कि जब सुक्खू सरकार ने सत्ता संभाली थी तब जनता के सामने प्रदेश के हालात श्रीलंका जैसे होने की चेतावनी दी थी। इसी चेतावनी के परिदृश्य में पिछली सरकार के अंतिम छः माह में लिये फैसले बदलते हुये छः सौ से अधिक संस्थान बंद कर दिये। चुनाव में दी गारंटियों पर यह कहा कि पांच वर्षों में उन्हें पूरा किया जायेगा। प्रदेश की जनता के सामने श्रीलंका जैसे हालात हो जाने की स्थिति रखी गयी थी। तब यह उम्मीद बंधी थी कि सरकार अपने अनावश्यक खर्चों पर लगाम लगाते हुये एक उदाहरण प्रस्तुत करेगी। लेकिन जब ऐसे वक्तव्य के बाद मंत्रिमंडल के पहले विस्तार से दो घंटे पूर्व छः मुख्य संसदीय सचिवों की नियुक्तियां कर दी तब जनता को पहला झटका लगा। उसके बाद जब एक दर्जन से अधिक गैर विधायकों को कैबिनेट रैंक में सलाहकार प्रधान सलाहकार और ओएसडी बनाकर ताजपोशियां की गयी तब दूसरा झटका लगा। सरकार की कथनी और करनी पर सवाल उठने शुरू हो गये क्योंकि ऐसी नियुक्तियों की न कोई राजनीतिक आवश्यकता थी और न ही प्रशासनिक। इन नियुक्तियों पर अनचाहे ही यह संदेश चला गया है कि मुख्यमंत्री अपने मित्रों के ज्यादा दबाव में आ गये हैं। वितिय मुहाने पर स्थिति संभालने के लिये पेट्रोल-डीजल पर वैट बढ़ाने के साथ ही हर सेवा और वस्तु के दाम बढ़ा दिये गये। जिस महंगाई से लोग निजात पाने की उम्मीद कर रहे थे उसे और बढ़ाने में सरकार ने कोई कसर नहीं छोड़ी। यही नहीं प्रदेश को कर्ज के चक्रव्यूह में डालने का जो आरोप पूर्व सरकार को लगाया जा रहा था उसे स्वयं कर्ज लेकर और आगे बढ़ा दिया गया। अब तक के कार्यकाल में ही बारह हजार करोड़ से अधिक का कर्ज ले लिया गया है। इतना कर्ज लेने के बाद भी कर्मचारियों को समय पर वेतन और पैन्शन का भुगतान नहीं हो पा रहा है। कैग ने भी 2022-23 की अपनी रिपोर्ट में स्पष्ट कर दिया है कि 2022-23 की अंतिम तिमाही में ज्यादा कर्ज लेने से इस वित्तीय वर्ष का कर्ज बड़ा है। जबकि नियमों के अनुसार सरकार अपने राजस्व के लिये कर्ज नहीं ले सकती। ऐसे में यह सवाल आने वाले समय में उठेगा ही की आखिर इतना कर्ज खर्च कहां किया गया। प्रशासनिक स्तर पर सुक्खू सरकार ने उसी शीर्ष प्रशासन को यथास्थान बनाये रखा जो भाजपा का विश्वस्त था। यह सब व्यवस्था परिवर्तन के नाम पर किया गया। यह प्रशासन जनता के प्रति कितना संवेदनशील और जवाबदेह रहा है उसका एक उदाहरण डीजीपी कुंडू प्रकरण में सामने आ गया है। राजनीतिक मंच पर सरकार और संगठन में किस तरह का तालमेल है यह कांग्रेस अध्यक्षा और पूर्व अध्यक्षों कुलदीप राठौर तथा कॉल सिंह ठाकुर के ब्यानों से सामने आता ही रहा है। इन संबंधों की पुष्टि अब नव नियुक्त मंत्रियों को अब तक विभागों का बंटवारा न हो पाने से हो जाती है। युवाओं को कितना रोजगार यह सरकार अब तक दे पायी है इसका खुलासा विधानसभा में इस आश्य के आये सवाल के उत्तर से हो जाता है। जिसमें कहा गया कि अभी सूचना एकत्रित की जा रही है। इस वस्तुस्थिति में आने वाले लोकसभा चुनाव के लिये कांग्रेस का कौन सा कार्यकर्ता चुनाव में जीत का वायदा करके उम्मीदवार बनने को तैयार हो पायेगा। कार्यकर्ताओं में चल रही चर्चाओं को यदि अधिमान दिया जाये तो संभव है कि उनकी ओर से यह सुझाव आ जाये कि सरकार की जिन योजनाओं और फैसलों को जनता में ले जाने की बात कर रहे हैं उन्हें जनता को अच्छे से समझा पाने में मंत्रियों से ज्यादा उपयुक्त कौन हो सकता है। इसके लिये हर सीट से किसी मंत्री को ही उम्मीदवार बनाया जाये और यह काम शीर्ष से ही शुरू हो। यदि कोई मंत्री उम्मीदवार बनने के लिये अपनी इच्छा से तैयार नहीं होता है तो उसी से सरकार की कथनी और करनी सामने आ जायेगी।

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