शिमला/शैल। राज्यसभा की सीट के लिये होने वाले चुनाव कहीं सरकार के लिये अनिष्टकारक न सिद्ध हो जाये इसकी आशंका लगातार बढ़ती जा रही है। क्योंकि कांग्रेस ने जो उम्मीदवार दिया है वह संयोगवश इसी सरकार के सबसे बड़े फैसले वाटर सैस को चुनौती देने वाली बिजली उत्पादक कंपनीयों का वकील है। सरकार ने अपने संसाधन बढ़ाने के लिये बिजली उत्पादक कंपनियों पर वाटरसैस लगाया है। इसके लिये सरकार ने वाकायदा विधानसभा में एक एक्ट पारित कर इसको अंजाम दिया है। इसके लिये वाटर सैस आयोग तक का गठन कर दिया गया है। लेकिन अब अभिषेक मनु सिंघवी के प्रदेश से राज्यसभा उम्मीदवार होने से सुक्खू सरकार और कांग्रेस की स्थिति हास्यास्पद हो गयी है। विधानसभा में कांग्रेस का बहुमत है और इस नाते उसकी जीत हो सकती है। लेकिन अब आने वाले लोकसभा चुनावों के बड़े मंच पर यह सवाल कांग्रेस नेताओं और कार्यकर्ताओं से पूछा जायेगा की वह वाटर सैस लगाने को कैसे जायज ठहराते हैं जब तुम्हारा ही राज्यसभा उम्मीदवार कांग्रेस का राष्ट्रीय प्रवक्ता देश का एक बड़ा वकील अदालत में तुम्हारे फैसले के विरोध में खड़ा है तो ऐसा एक्ट जनहित कैसे हो सकता है? क्या सरकार तब इस एक्ट को वापस लेगी? नेता प्रतिपक्ष जयराम ठाकुर ने सिंघवी के नामांकन दायर करने के बाद इसको लेकर सरकार पर बड़ा हमला बोला है।
यदि इस उम्मीदवारी के राजनीतिक पक्षों पर विचार किया जाये तो पहला सवाल उठता है कि जब सिंघवी का नाम राज्यसभा के लिये हिमाचल से आया तब क्या इस वाटर सैस वाली पृष्ठभूमि को संज्ञान में नहीं लिया गया? संभव है कि इस पृष्ठभूमि की जानकारी हाईकमान को न रही हो लेकिन मुख्यमंत्री को तो यह जानकारी अवश्य रही होगी। ऐसे में दूसरा सवाल उठता है कि यह जानकारी होने के बावजूद सिंघवी की उम्मीदवारी को इसलिये स्वीकार कर लिया गया कि प्रदेश की जनता को अब पूछने बताने की आवश्यकता ही नहीं है। इन नैतिक सवालों के आयने में सरकार ने जितनी भी सेवाओं और वस्तुओं के दाम बढ़ाये हैं उनके औचित्य पर स्वतः सवाल उठते जायेंगे। ऐसे में यह फैसला एक ऐसा आत्मघाती कदम हो गया है जो कांग्रेस और सरकार का कहीं भी पीछा नहीं छोड़ेगा।
दूसरी और इस समय सुक्खू सरकार और संगठन में तालमेल का बड़ा अभाव चल रहा है। कार्यकर्ताओं को सरकार में उचित मान सम्मान नहीं मिल रहा है। इसकी शिकायतें हाईकमान तक भी पहुंची हुयी हैं। राजेन्द्र राणा और सुधीर शर्मा तो विधायक दल की बैठक से भी गायब रहे हैं। पूर्व मंत्री और जिला मंडी के कांग्रेस अध्यक्ष प्रकाश चौधरी ने तो पार्टी से ही त्यागपत्र दे दिया है। इससे पहले अभिषेक राणा ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया है। पार्टी में मुख्यमंत्री के व्यवहार को लेकर एक बड़े स्तर पर रोष फैलता जा रहा है। लोकसभा चुनावों में पार्टी को करारी हार मिलने की संभावनाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं। ऐसे में माना जा रहा है की पार्टी के असंतुष्ट विधायक अपना रोष प्रकट करने के लिये इस चुनाव को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल कर सकते हैं। फिर भाजपा ने अपने पच्चीस विधायकों के बल पर ही अपना उम्मीदवार उतार दिया हो ऐसा नहीं लगता। क्योंकि राष्ट्रीय परिदृश्य में कांग्रेस की सरकारों को अस्थिर करना मोदी-भाजपा की आवश्यकता बनता जा रहा है। हिमाचल में तो सरकार अपने ही बोझ से इतनी दब चुकी है की चाहकर भी इस स्थिति से बाहर नहीं आ सकती। मुख्य संसदीय सचिवों के मामले में मार्च में फैसला आने की संभावना है और तब पार्टी के समीकरणों में भारी बदलाव आयेगा यह तय है। इसलिये भाजपा ने हर्ष महाजन को उम्मीदवार बनाया है। जो कल तक कांग्रेस का कार्यकारी अध्यक्ष था। वह कांग्रेस को अच्छी तरह समझता है। मुख्यमंत्री के साथ हर्ष महाजन के रिश्ते जगजाहिर हैं। ऐसे में यह चुनाव एक बड़े घटना चक्र का पहला पड़ाव माना जा रहा है।
शिमला/शैल। प्रदेश भाजपा 2014 और 2019 के दोनों लोकसभा चुनाव में यहां की चारों सीटों पर जीत हासिल करती रही है। मण्डी में जब पण्डित राम स्वरुप के निधन के कारण उपचुनाव हुआ तब यहां से कांग्रेस प्रत्याशी प्रतिभा सिंह विजयी हुई। जबकि मण्डी जयराम ठाकुर का गृह क्षेत्र था और वह सरकार का नेतृत्व कर रहे थे। 2019 के चुनावों के बाद यदि हिमाचल के सांसदो की प्रदेश में सक्रियता का आकलन करें और यह देखें कि किसकी क्या उपलब्धि व्यक्तिगत तौर पर रही है तो शायद उल्लेखनीय कुछ भी नहीं मिले। क्योंकि 2019 के बाद देश में भाजपा की पहचान केवल मोदी ही बन चुके हैं। आज भी मोदी के बिना भाजपा नहीं है कि स्थिति है। 2017 में प्रदेश में भी भाजपा की सरकार मोदी के नाम पर बनी थी। लेकिन 2022 के चुनाव आने तक प्रदेश की जयराम सरकार मोदी-शाह के भरपूर प्रयास के बावजूद सता में वापसी नहीं कर पायी। भाजपा प्रदेश में वापसी क्यों नहीं कर पायी जबकि लोकसभा की चारों सीटें उसके पास थी। यह हार एक प्रतिशत से भी कम अन्तर से हुई है। और इस हार के कारणों को आज तक सार्वजनिक नहीं किया जा सका है। जयराम सरकार के वक्त भाजपा सांसदों कि क्या स्थिति थी यह प्रदेश का हर आदमी जानता है। जबकि जगत प्रकाश नड्डा भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे और अनुराग ठाकुर वरिष्ठ मंत्री थे। लेकिन इसके बावजूद भाजपा विधानसभा चुनाव हार गई थी। यह चर्चा आज इसलिये प्रसांगिक हो जाती है क्योंकि भाजपा लोकसभा प्रत्याशियों की घोषणा अब तक नहीं कर पायी है। पिछले दिनों जब यह चर्चा उठी की नड्डा प्रदेश से लोकसभा चुनाव लड़ सकते हैं उसके बाद से पार्टी के भीतरी हल्कों में इसको लेकर दबी जुबान से यह चर्चा गंभीर हो गई है। नड्डा के प्रदेश दौरों से इन चर्चाओं को और बल मिलता जा रहा है। इन चर्चाओं का आधार यह माना जा रहा है कि नड्डा की राज्यसभा टर्म खत्म हो गई है और उनको दूसरी टर्म पार्टी के नियमानुसार मिलना संभव नहीं माना जा रहा है। यह स्थिति राष्ट्रीय अध्यक्षता से लेकर है। ऐसे में नड्डा को सक्रिय राजनीति में बने रहने के लिये लोकसभा चुनाव लड़ना एक आसान विकल्प माना जा रहा है। नड्डा के लोस प्रत्याशी बनने की सूरत में अनुराग ठाकुर को चण्डीगढ़ शिफ्ट किये जाने की संभावना बनती जा रही है। क्योंकि पूरे देश में चुनाव तो मोदी के नाम से ही लड़ा जाना है। लेकिन चण्डीगढ में मेयर के चुनाव में जो कुछ घटा है और सर्वाच्च न्यायालय ने जिस तरह से उसका संज्ञान लिया है उसके बाद परिदृश्य कुछ बदलता नजर आ रहा है। चण्डीगढ़ के इस परिदृश्य में हिमाचल के लोस उम्मीदवारों की घोषणा में देरी बर्तने का रास्ता लिया गया है।शिमला/शैल। विधानसभा बजट सत्र चौदह फरवरी से होने जा रहा है। पिछले वर्ष यह बजट सत्र चौदह मार्च से शुरू हुआ था। बजट सत्र का एक माह पहले ही बुला लिया जाना निश्चित रूप से लोकसभा चुनावों का समय से पहले होने का स्पष्ट संकेत है। स्पष्ट है कि जब चुनाव पहले होंगे तो आचार संहिता भी पहले ही लग जायेगी। आचार संहिता पहले लगने से सरकार विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस द्वारा दी गई गारंटीयों के अमल पर कोई व्यावहारिक कदम नहीं उठा पायेगी। भाजपा इन गारंटीयों पर सरकार से सवाल पूछने के लिये स्वतंत्र रहेगी। वैसे भाजपा और सरकार के रिश्ते बहुत सारे मुद्दों पर आपसी भाईचारे जैसे ही हैं। क्योंकि भाजपा जब सत्ता में थी तो उसने भाजपा द्वारा ही तब की कांग्रेस सरकार के खिलाफ अपने ही सौंपे आरोप पत्रों पर कोई जांच नहीं बैठायी थी। अब उसी रिश्ते को एक कदम और आगे बढ़ाते हुये सुक्खु सरकार ने व्यवस्था परिवर्तन के नाम पर भाजपा काल के प्रशासन को न केवल यथास्थिति बनाये रखा बल्कि उसे उचित पुरस्कार भी दिया। चुनावों के दौरान सार्वजनिक रूप से जारी किये गये अपने ही आरोप पत्र पर कोई जांच बिठाने का जोखिम नहीं उठाया। पांच सौ से अधिक संस्थाओं को बन्द करके तथा मुख्य संसदीय सचिवों की नियुक्ति करके ठोस मुद्दे भी उपलब्ध करवाये हैं। इन दोनों को भाजपा ने उच्च न्यायालय तक पहुंचा दिया है।
इसी के साथ भाजपा पर जो आरोप प्रदेश को कर्ज में डूबाने का कांग्रेस लगाती थी उसमें अपने ही कर्ज के आंकड़े से पृष्ठभूमि में धकेल दिया है। पीछे बरसात में आयी आपदा में केन्द्र द्वारा प्रदेश की उचित सहायता न करने के आरोपों को अब राम मन्दिर प्राण प्रतिष्ठा के अवसर पर सरकार के राम मय होने के आचरण ने पीछे धकेल दिया है। सरकार ने विधायकों को मिलने वाली विधायक विकास निधि का आवंटन वित्तीय कारणों से रोक रखा था। लेकिन जैसे ही लोकसभा चुनाव समय से पहले होने के संकेत आये और भाजपा ने इस निधि को जारी करने के लिये समय की रेखा भी खींच दी तो सरकार ने यह राशि तुरन्त प्रभाव से जारी कर दी। आपसी भाईचारे और सहयोग के इससे अच्छे उदाहरण और क्या हो सकते हैं।
यह सब इसलिये प्रासंगिक और महत्वपूर्ण है क्योंकि इस समय किसानी/बागवानी से जुड़ी सारी योजनाएं फील्ड में व्यावहारिक रूप से दम तोड़ चुकी हैं। मनरेगा में पिछले नौ माह से सरकार सामान की खरीद के लिए कोई पैसा जारी नहीं कर पायी है। गांव में मनरेगा के तहत बनने वाले ‘गौ शैड’ के लिये कोई पैसा जारी नहीं कर पायी है। कुटलैहड़ विधानसभा क्षेत्र में तो विधायक की अपनी पंचायत और अपने ही गांव के कई लोग इस सहायता की ‘‘इन्तजार’’ में बैठे हुये हैं। बागवानी से जुड़ी सारी योजनाएं दम तोड़ चुकी है क्योंकि इनके लिये न केन्द्र और न ही राज्य की मद से पैसा जारी हो पा रहा है। इसलिए इस समय कांग्रेस और भाजपा दोनों मौन साधे बैठे हैं। सबसे बड़ी चौंकाने वाली स्थिति तो यह है कि केन्द्र सरकार के कृषि व किसान कल्याण मंत्रालय द्वारा ‘‘खाता एक नजर में’’ जारी रिपोर्ट के अनुसार इस मंत्रालय की विभिन्न योजनाओं के तहत पिछले पांच वर्षों में 105543.71 करोड़ रुपया लैप्स कर दिया गया है। यह पैसा लाभार्थियों को जारी ही नहीं किया गया है। इस रिपोर्ट के मुताबिक किसान सम्मान निधि के तहत जारी 6000 वार्षिक पाने वालों का आंकड़ा भी प्रश्नित हो जाता है। कृषि मंत्रालय की यह रिपोर्ट केन्द्र सरकार के दावों के खिलाफ एक महत्वपूर्ण दस्तावेज हो जाता है। इस रिपोर्ट पर भाजपा की चुप्पी तो समझ आ सकती है लेकिन कांग्रेस के चुप रहने को भाईचारे की संज्ञा न देकर और क्या नाम दिया जा सकता है। ऐसे भाईचारे के परिदृश्य में चुनाव परिणाम क्या रहेंगे इसका अनुमान लगाया जा सकता है।
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