शिमला/शैल। क्या किसी को प्रदेश के डी.जी.पी. के हाथों या उसके माध्यम से अपनी जान और माल का खतरा हो सकता है? क्या ऐसी शिकायत को डी.जी.पी. अपने ही स्तर पर झूठ का पुलिन्दा कहकर शिकायतकर्ता के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज करवा सकता है? क्या ऐसी शिकायत पर अदालत के दखल पर भी पुलिस अज्ञात लोगों के खिलाफ एफ.आई.आर. दर्ज करके अपने निष्पक्ष होने का दावा कर सकती है? क्या डी.जी.पी. के खिलाफ शिकायत आने पर भी सरकार उसी तंत्र पर भरोसा करके एक निष्पक्ष जांच हो पाने का दावा कर सकती है? यह और ऐसे ही कई सवाल निशान्त द्वारा प्रदेश के डी.जी.पी. के खिलाफ एस.पी. शिमला को भेजी शिकायत के बाद उठ खड़े हुए हैं। क्योंकि जान और माल का ही खतरा हो जाने से बड़ा कोई आरोप नहीं हो सकता। जो भाजपा नेतृत्व प्रदेश की बिगड़ती कानून और व्यवस्था पर लगातार सरकार पर हमलावर होता रहा है वह ऐसे आरोपों पर मौन साध ले तो स्थिति और भी गंभीर हो जाती है। आज पूरे प्रदेश की नजरें इस प्रकरण पर लग गयी है। इसलिये इस पर चर्चा करना आवश्यक हो जाता है।
एस.पी. शिमला को संबोधित और मुख्य न्यायाधीश, मुख्यमंत्री गृह सचिव, महामहिम राज्यपाल, प्रधानमंत्री तथा महामहिम राष्ट्रपति को प्रेषित निशान्त शर्मा की शिकायत प्रदेश के हर संवेदनशील नागरिक के लिये एक गंभीर चिन्ता का विषय बन गयी है। शिकायत के मुताबिक निशान्त शर्मा और उसके परिवार को दो व्यक्ति धर्मशाला स्थित मकलोडगंज में जान और माल की धमकी देते हैं। इस धमकी की शिकायत लेकर वह एस.पी. को मिलते हैं और मामला दर्ज करने का आग्रह करते हैं। इसी दिन डी.जी.पी. का फोन निशान्त शर्मा को आता है और उसे डी.जी.पी. से शिमला आकर मिलने की बात की जाती है। डी.जी.पी. के फोन आने के बाद उसी दिन निशान्त शर्मा को यह धमकी मिलने के बाद उसके साथ पूर्व में घटे कुछ वाक्यों को लेकर निशान्त शर्मा एस.पी. शिमला को एक तीन पन्नों की मेल भेजकर डी.जी.पी. के खिलाफ एफ.आई.आर. करने का आग्रह करते हैं। यह मेल साइट पर आने के बाद डी.जी.पी. निशान्त शर्मा के खिलाफ उन्हें बदनाम करने का आपराधिक मामला दर्ज करवा देते हैं। निशान्त के खिलाफ यह मामला दर्ज होने की जानकारी उसे दो पत्रकार देते हैं। जिनके मोबाइल नम्बर शिकायत में दर्ज हैं। शिकायत में निशान्त शर्मा उसके साथ 25 अगस्त को गुरुग्राम में घटी घटना की जानकारी देता है। इस संबंध में हरियाणा पुलिस के पास दर्ज करवाई गयी शिकायत और जांच में सी.सी.टी.वी. कैमरे की जांच में सामने आये तथ्यों की जानकारी भी अपनी शिकायत में हिमाचल पुलिस को भेजता है। इसमें कुछ लोगों के नाम भी लिखता है। लेकिन यह सामने होने के बाद भी हिमाचल पुलिस कोई मामला दर्ज नहीं करती है। इसी बीच उच्च न्यायालय इस सब का स्वतंत्र संज्ञान लेकर स्टेटस रिपोर्ट तलब करता है।
उच्च न्यायालय में जब स्टेटस रिपोर्ट आती है तब महाधिवक्ता डी.एस.पी. ज्वालामुखी के आश्वासन पर मामले में एफ.आई.आर. दर्ज कर लेने की प्रतिबद्धता अदालत को देते हैं। महाधिवक्ता की प्रतिबद्धता के बाद धर्मशाला पुलिस निशान्त की शिकायत पर कुछ अज्ञात लोगों के खिलाफ मामला दर्ज कर लेती है। निशान्त के आरोपों का बड़ा केन्द्र डी.जी.पी. है। यह सही है कि इस मामले की जांच से पहले डी.जी.पी. को किसी भी तरह से दोषी नहीं ठहराया जा सकता। लेकिन जिस शिकायत के ज्यादा आरोप डी.जी.पी. के ही खिलाफ हो उस जांच की विश्वसनीयता स्थापित करने के लिये क्या किसी बाह्य एजेन्सी से जांच करवाना श्रेयस्कर नहीं होगा? क्योंकि जिस शिकायत में कुछ लोगों के सीधे नाम लिये गये हों क्या उसमें भी अनाम लोगों के खिलाफ मामला दर्ज करना न्याय संगत हो सकता है? निश्चित है कि पुलिस की नजर में जब डी.जी.पी. का किसी भी तरह से इसमें शामिल होना नहीं पाया गया होगा तभी अनाम के खिलाफ मामला दर्ज किया गया होगा। लेकिन क्या इससे सरकार की निष्पक्षता और जांच की विश्वसनीयता स्थापित हो पायेगी? यदि सरकार ने जांच के दौरान डी.जी.पी. को विभाग से अलग कर दिया होता या यह मामला सी.बी.आई. को सौंप दिया होता तो क्या इससे सभी की प्रतिष्ठा बहाल नहीं रहती? संभव है कि यह सारे सवाल आने वाले समय में अदालत के सामने भी उठें। क्योंकि डी.जी.पी. पर उठने वाले सवालों को तो विभाग अपनी प्रतिक्रिया में पहले ही सोशल मीडिया का प्रचार करार दे चुका है। डी.जी.पी. के अदालत में प्रतिवादी बनने या न बनने की स्टेज तो मामले का चलान दायर होने के बाद आयेगी।
शिमला/शैल। सी.पी.एस. मामला अब फिर प्रदेश उच्च न्यायालय में ही पहुंच गया है क्योंकि सर्वाेच्च न्यायालय ने प्रदेश सरकार की ट्रांसफर याचिका को अस्वीकार कर दिया है। राज्य सरकार ने सर्वाेच्च न्यायालय में याचिका दायर कर यह गुहार लगाई थी कि पंजाब छत्तीसगढ़ और बंगाल की ऐसी ही यचिकाएं सर्वाेच्च न्यायालय में लंबित हैं। इसलिए हिमाचल के मामले को भी सुप्रीम कोर्ट अपने पास लेकर उन मामलों के साथ सुने। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार का यह आग्रह यह कह कर ठुकरा दिया कि हिमाचल का मामला उनसे भिन्न है। इसलिए इसे प्रदेश उच्च न्यायालय ही सुनेगा। इस मामले का सुप्रीम कोर्ट के लिए स्थानांतर का आग्रह प्रदेश उच्च न्यायालय में लगी पेशी से एक दिन पहले किया गया था। जबकि यह मामला कई दिनों से प्रदेश उच्च न्यायालय में चल रहा था। इसलिए सुप्रीम कोर्ट में दायर किये गये आग्रह को मामले को लम्बाने के प्रयास के रूप में देखा गया। अब जब सुप्रीम कोर्ट ने इस आग्रह को अस्वीकार कर दिया है तब यह सवाल उठ रहा है कि सरकार ने ऐसा किया क्यों? स्मरणीय है कि हिमाचल में एक बार पहले भी स्वर्गीय वीरभद्र सिंह के कार्यकाल में मुख्य संसदीय सचिवों और संसदीय सचिवों की नियुक्तियां की गई थी। इन नियुक्तियों को जब प्रदेश हाईकोर्ट मंे चुनौती दी गई थी तब उच्च न्यायालय ने इन्हें सविधान संशोधन के विपरीत प्रकार रद्द कर दिया था।
इसके बाद प्रदेश सरकार ने इस फैसले के खिलाफ सर्वाेच्च न्यायालय में एक एस.एल.पी. फाइल कर दी। एस.एल.पी. फाइल करने के बाद राज्य सरकार ने एक और अधिनियम लाकर ऐसी नियुक्तियों को लाभ के दायरे से बाहर करके पुनः ऐसी नियुक्तियों का रास्ता निकाल लिया। लेकिन सरकार के इस अधिनियम को भी उच्च न्यायालय में चुनौती दे दी गई जो अब तक लंबित चल रही है। लेकिन इसी मामले में प्रदेश सरकार ने जयराम सरकार के कार्यकाल में यह शपथ पत्र उच्च न्यायालय में दायर कर रखा है कि यदि राज्य सरकार ऐसी नियुक्तियां करने का फैसला लेती है तो उसके लिये उच्च न्यायालय से पूर्व अनुमति ली जायेगी इसी कारण से जयराम के कार्यकाल में ऐसी नियुक्तियां नहीं की गयी थी। यह मामला उच्च न्यायालय में अब तक लंबित चल रहा है। दूसरी ओर जो एस.एल.पी. सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई थी उसे 2017 में असम के मामले के साथ टैग करके जुलाई 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दे दिया है कि राज्य विधायिका को ऐसा अधिनियम पारित करने का अधिकार ही नहीं है।
अब प्रदेश उच्च न्यायालय में मुख्य संसदीय सचिवों की नियुक्तियों के खिलाफ तीन यचिकाएं लंबित चल रही हैं। स्मरणीय है कि मंत्रीमण्डलों का आकार जब-जब राजनीतिक कारणों से आवश्यकता से अधिक बड़ा होने लगा और इस पर जनता में आवाज़ उठने लगी तब संसद ने एक संविधान संशोधन लाकर मंत्रिमण्डल के आकार की सीमा तय कर दी थी। उस सीमा के अनुसार हिमाचल में अधिक से अधिक मुख्यमंत्री सहित केवल 12 मंत्री हो सकते हैं। इस समय सुक्खू मंत्रिमण्डल में मंत्रियों के तो तीन पद खाली चल रहे हैं। जबकि छः मुख्य संसदीय सचिव नियुक्त कर रखे हैं। इन नियुक्तियों को चुनौती देती हुई तीन याचिकाएं उच्च न्यायालय में विचाराधीन चल रही है। एक याचिका भाजपा के एक दर्जन विधायकों द्वारा दायर की गई है। माना जा रहा है कि यह याचिका भाजपा हाईकमान के अनुमोदन के बाद ही डाली गयी है। निश्चित है कि भाजपा लोकसभा चुनावों से पहले इस मामले में फैसला आने का प्रयास करेगी। यह भी तय है कि यह फैसला आने के बाद सरकार और कांग्रेस संगठन के समीकरणों में बदलाव आयेगा। लोकसभा चुनावों के लिये भी सत्ता के इस तरह के उपयोग का मामला एक मुद्दा बनेगा। क्योंकि यह सवाल उठेगा कि जब प्रदेश में ऐसा पूर्व में भी घट चुका था और भाजपा ने इसी कारण से ऐसी नियुक्तियां नहीं की थी तो सुक्खू सरकार को कठिन वित्तीय स्थितियों में भी ऐसी नियुक्तियां करने की राजनीतिक आवश्यकता क्यों खड़ी हो गई थी? आज नेता प्रतिपक्ष तो सीधे आरोप लगा रहे हैं कि छः विधायकों का भविष्य जानबूझकर दाव पर लगा दिया गया है। अब प्रदेश उच्च न्यायालय का फैसला आने में भी लम्बा समय लगने की संभावना नहीं मानी जा रही है। यह फैसला आने का सुक्खू सरकार की सेहत पर क्या असर पड़ेगा इस पर शिमला से लेकर दिल्ली तक सबकी नज़रें लग गयी हैं।
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