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वित्त वर्ष के दो माह में ही खजाना खाली क्यों हो गया?

  • मार्च 2021 में वित्त विभाग ने जो आकलन विधानसभा में रखे थे वह सही क्यों नहीं उतरे
  • 13000 करोड़ की अनुपूरक मांगे आने से बजट की विश्वसनीयता कहां बची?
  • यह 13000 करोड़ का खर्च कहां से पूरा किया गया क्या कर्ज लिया गया या टैक्स लगाया गया

शिमला/शैल। वित्तीय वर्ष के तीसरे माह ही सुक्खू सरकार का खजाना खाली हो गया है। आधा दर्जन निगमों बोर्डों और कुछ विभागों के आउटसोर्स कर्मचारियों को वेतन तक नहीं मिल पाया है। हजारों करोड़ का ठेकेदारों का भुगतान रुक गया है। मुख्य सचिव के मुताबिक एक हजार करोड़ का घाटा चल रहा है। इस घाटे को पाटने के लिए 800 करोड का कर्ज लिया गया है। जिसके बावजूद दो सौ करोड़ का घाटा चलता रहेगा और परिणामतः इतने भुगतान रुकते रहेंगे। सरकार का आरोप है कि केन्द्र ने प्रदेश की कर्ज लेने की सीमा में 5500 करोड़ की कटौती करके राज्य सरकार के हाथ बांध दिये हैं। इसलिये यह संकट खड़ा हुआ है। केन्द्र सरकार ने कुछ राज्यों की कर्ज लेने की सीमा में कटौती की है। हिमाचल पहले 14500 करोड का कर्ज ले पाता था जो अब केवल नौ हजार करोड ही ले पायेगा। स्मरणीय है कि केन्द्र ने कोविड के लॉकडाउन काल में राज्यों के कर्ज लेने की सीमा में बढ़ौतरी की थी जिसे अब वापस लिया गया है। सुक्खू सरकार ने सत्ता संभालते ही प्रदेश में श्रीलंका जैसे हालत होने की चेतावनी जनता को दी थी। स्वभाविक है कि यह चेतावनी प्रशासन से वित्तीय फीडबैक मिलने के आधार पर ही दी गयी होगी। यह चेतावनी अपने में ही एक असाधारण स्थिति का संकेत थी।
लेकिन क्या सरकार का अपना आचरण इस चेतावनी के मुताबिक रहा है? क्या सरकार ने अनावश्यक खर्चों पर कोई लगाम लगायी? क्या सरकार बनने पर नयी और महंगी गाड़ियां नहीं खरीदी गयी? कितने समय तक तो रिपेयर के काम ही चलते रहे बल्कि इस आशय के बजट सत्र में विधायक रणधीर शर्मा के प्रश्न के जवाब में यह कहा गया कि अभी सूचना एकत्रित की जा रही है। जब प्रदेश की वित्तीय स्थिति श्रीलंका जैसी होने की आशंका उभर आयी थी तो फिर मुख्य संसदीय सचिवों और करीब आधा दर्जन कैबिनेट रैंक नियुक्तियों का बोझ प्रदेश पर क्यों डाला गया? यह सारे सवाल अब खजाना खाली होने का समाचार बाहर आने के बाद जवाब के लिये खड़े हो गये हैं। क्योंकि खजाना खाली होने का असर किसी मन्त्री या बड़े अधिकारी पर नहीं पड़ेगा। इससे किसी छोटे कर्मचारी/आउटसोर्स कर्मचारी या किसी छोटे अखबार पर व्यावहारिक रूप से पड़ेगा। सरकार पर तो वोट के समय असर पड़ेगा।
सुक्खू सरकार ने जब सत्ता संभाली थी तब प्रदेश के कर्ज और देनदारियों के आंकड़े जारी करते हुए प्रदेश की वित्तीय स्थिति पर श्वेत पत्र जारी करने की बात की थी जो बजट सत्र में नहीं आया। अब जब खजाना खाली होने के समाचार सामने आ गये हैं तब एक बार फिर श्वेत पत्र लाने की चर्चा चल पड़ी है। इसलिये कुछ वित्तीय प्रश्न उठाने आवश्यक हो जाते हैं। नयी सरकार का शपथ ग्रहण 11 दिसम्बर को हुआ 12 दिसम्बर को पिछले छः माह के फैसले बदले गये। तभी डीजल पर 3 रूपये वैट बढ़ाने का फैसला लिया गया। दिसम्बर से फरवरी तक कई सेवाओं और वस्तुओं के दाम बढ़ाये गये। कर्ज तक लिया गया। जब बजट सत्र शुरू हुआ तो तेरह हजार करोड़ की अनुपूरक मांगे लाकर वर्ष 2022ं-23 के खर्चे पूरे किये गये। उसके बाद वर्ष 2023-24 का बजट पारित हुआ। क्या वर्ष 2022-23 की अनुपूरक मांगे या वर्ष 2023-24 का बजट पारित करते हुये ऐसा कोई संकेत दिया गया था कि दो माह बाद ही खजाना खाली हो जायेगा। क्योंकि जब इतनी बड़ी अनुपूरक मांगे पारित की गयी थी तब यह नहीं माना गया था कि इससे वर्ष 2022-23 के बजट का आकार बढ़ गया है।
स्मरणीय है कि 6 मार्च 2021 को विधानसभा में एफ.आर.बी.एम. प्रावधानों के तहत वर्ष 2024-25 तक जो लक्ष्य वित्त विभाग द्वारा प्रस्तुत किये गये थे वह कितने सही निकले हैं इस पर अब कोई सवाल क्यों नहीं उठाया गया है। इन लक्ष्यों के मुताबिक वर्ष 2023-24 के लिये राजस्व प्राप्तियां 41438.73 करोड आंकी गयी थी। लेकिन बजट में यह प्राप्तियां 37999.87 करोड़ रखी गयी है यह अन्तर क्यों आया? इसी तरह राजस्व व्यय 43984.32 करोड़ दिखाया गया था जो बजट दस्तावेजों 42704.00 करोड दिखाया गया है जो लक्ष्य से करीब एक हजार करोड़ कम है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि मार्च 2021 में राजस्व आय और व्यय के जो लक्ष्य सदन में रखे गये थे वह मार्च 2023 में बदल कैसे गये। यही स्थिति वर्ष 2022-23 में रही है। वित्त विभाग के आकलनों में इतना अन्तर क्यों आया? क्या इसके लिये कोई जिम्मेदारी तय की गयी? किन विभागों की परफॉरमैन्स लक्ष्यों के अनुरूप नहीं रही है। इसी परिपेक्ष में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि वित्त विभाग के वर्तमान आकलनों पर भी कैसे निर्भरता बनाई जा सकती है।
क्योंकि केन्द्र सरकार सितम्बर 2020 से राज्य सरकार को अपने खर्चों में कटौती करने की चेतावनी देती रही है। लेकिन इस चेतावनी को नजरअन्दाज किया जाता रहा। कर्ज लेकर घी पीने को चरितार्थ किया जाता रहा। इस समय सरकार का आउटस्टैंडिंग क़र्ज़ ही जी.डी.पी. का करीब 40ः हो चुका है। ऐसे में अब जब कर्ज की सीमा में कटौती कर दी गयी है और सरकार का खजाना खाली चल रहा है तो गारंटीयां पूरी कर पाना बहुत कठिन हो जायेगा। सरकार जिन संसाधनों से संसाधन बढ़ाने के प्रयास कर रही है उनके व्यवहारिक परिणाम इसी कार्यकाल में आ पायेंगे इसको लेकर संदेह व्यक्त किया जा रहा है। माना जा रहा है कि अधिकारियों की ओर से सरकार को सही राय नहीं मिल रही है।

 

 

यह है मार्च 2021 के आकलन

 

 

 

 

क्या गारंटियां देते समय कांग्रेस को वित्तीय स्थिति का ज्ञान नहीं था भाजपा

  • क्या कर्ज के सहारे दी गयी थी गारंटियां

शिमला/शैल। केन्द्र सरकार ने हिमाचल सहित कुछ राज्यों की ऋण सीमा में कटौती की है। प्रदेश की सुक्खू सरकार ने इस कटौती को केन्द्र द्वारा राज्य को सहयोग न देना करार दिया है। सरकार का आरोप है कि जब प्रदेश सरकार ने कर्मचारियों के लिये ओ.पी.एस. बहाल की तभी केन्द्र ने कर्ज की सीमा पर कैंची चला दी। सरकार के इस आरोप पर पलटवार करते हुये भाजपा ने पूछा कि जब कांग्रेस चुनाव से पूर्व गारंटियां बांट रही थी तब क्या उसको प्रदेश की वित्तीय स्थिति की जानकारी नहीं थी। भाजपा नेताओं सर्वश्री रणधीर शर्मा, त्रिलोक जमवाल, त्रिलोक कपूर और राकेश जम्वाल ने संयुक्त ब्यान में कहा है कि कांग्रेस के मन्त्री पांच-छः बार के विधायक रहे हैं और इस नाते प्रदेश की स्थिति की उन्हें जानकारी रहना आवश्यक है। इसलिए आज कांग्रेस नेता अपनी नाकामियों को छुपाने के लिये केन्द्र को दोष न दें। स्मरणीय है कि जब कांग्रेस विपक्ष में थी तब जयराम सरकार पर प्रदेश को कर्ज में डूबाने का आरोप लगाती थी। प्रदेश की जनता से कहा था कि सत्ता में आते ही वित्तीय स्थिति पर श्वेत पत्र लायेंगे। इसी सबको संज्ञान में रखते हुये चुनावों के दौरान दस गारंटियां जनता को परोसी थी। महिलाओं से 1500 रूपये के लिये फॉर्म तक भरवाये गये थे। युवाओं को पहले ही मंत्रिपरिषद की बैठक में एक लाख रोजगार उपलब्ध करवाने की बात की थी। भाजपा सरकार द्वारा दी जा रही 125 यूनिट मुफ्त बिजली की जगह 300 यूनिट मुफ्त देने की गारंटी दी थी। कांग्रेस की सारी गारंटियां अनिश्चितता के भंवर में उलझ गयी है। क्योंकि कर्ज की सीमा पर कटौती लगने से सुक्खू सरकार जिस कदर परेशान हो उठी है उससे लगता है कि यह गारंटियां कर्ज के सहारे ही पूरी करने की योजना थी जिस पर अब प्रश्न चिन्ह लग गया है। आज प्रदेश वितीय चुनौतियों के मुहाने पर एक नाजुक दौर से गुजर रहा है। सरकार वितीय चुनौतियों का सामना कर पाने में असमर्थ नजर आने लग गयी है। क्योंकि जो प्रशासन वितीय कुप्रबंधन के लिये मूलतः जिम्मेदार रहा है यह सरकार उसके खिलाफ कोई कारवाई करना तो दूर बल्कि उन्हें जिम्मेदार मानने तक को तैयार नहीं है। क्योंकि आज प्रदेश का शीर्ष प्रशासन ही उन्ही लोगों के हवाले कर दिया गया है। राज्य सरकारें जीडीपी के तीन प्रतिश्त तक ही कर्ज ले सकती है यह एक स्थापित नियम है। जब जब सरकारें इस सीमा का अतिक्रमण करती है तभी केन्द्र की ओर से चेतावनी जारी हो जाती है। हिमाचल सरकार को पिछले लम्बे समय से ऐसी चेतावनी जारी होती रही है। शैल इन चेतावनी को अपने पाठकों के सामने रखता भी रहा है। हिमाचल की सरकारें तो राज्य की समेकित निधि सीमा का भी अतिक्रमण करती आ रही है। हर कैग रिपोर्ट में इसका जिक्र होता आया है। हिमाचल को तो कर्ज की किश्त और ब्याज चुकाने के लिये भी कर्ज लेना पड़ता रहा है यह भी कैग रिपोर्ट में दर्ज है। जब देश कोरोना के कारण लॉकडाउन से गुजर रहा था और सारी गतिविधियां एक प्रकार से बन्द हो गयी थी तब केन्द्र ने दो बार राज्यों की कर्ज सीमा में बढ़ौतरी करी थी। अब जब स्थितियां सामान्य हो गयी है और सरकारे अपने राजनीतिक लाभों के लिये रेवड़ीयां बांटने की स्थिति में आ गयी है तब इस बढ़ी हुई कर्ज सीमा को वापस ले लिया गया है।
हिमाचल कांग्रेस ने सत्ता में आने के लिये दस गारंटियों का तोहफा जनता को दिया था। लेकिन यह नहीं कहा था कि कर्ज लेकर यह गारंटियां पूरी की जायेगी। फिर अभी तक यह सरकार जितना कर्ज ले चुकी है उसके आंकड़े विपक्ष जारी कर चुका है। इन आंकड़ों का कोई खण्डन नहीं आया है। मन्त्रीपरिषद की हर बैठक में किसी न किसी सेवा या वस्तु के दाम बढ़ते आ रहे हैं। लेकिन इसके बावजूद कोई गारंटी अभी तक लागू नहीं हो पायी है। जिस ओ.पी.एस. बहाली को बड़ी उपलब्धि करार दिया जा रहा है उसका व्यवहारिक खर्च सरकार के इस कार्यकाल में बहुत कम होने जा रहा है। यदि एन.पी.एस. के नाम पर केन्द्र के पास जमा नौ हजार करोड़ से अधिक की राशि राज्य सरकार को वापस मिल जाती है तो उसमें भी एक तरह से आमदनी हो जाती है। इसलिये ओ.पी.एस. का तर्क रखना ज्यादा सही नहीं होगा यह स्पष्ट हो जा रहा है कि सत्ता में आने के लिये ही गारंटियों का पासा फैंका गया था और इन्हें कर्ज से ही पूरा किया जाना था जिस पर अब प्रश्न चिन्ह लगता है नजर आ रहा है।

क्या सरकार में आपसी तालमेल का अभाव है

  • स्वास्थ्य विभाग में संबंधित मंत्री की जानकारी के बिना एनपीए का फैसला
  • नियमों में संशोधन किये बिना सहकारी बैंकों का नियंत्रण वित्त विभाग को सौंपना
  • मंत्री की पत्रकार वार्ता से पहले ही विभाग को लेकर मुख्यमंत्री का प्रेस नोट आ जाना
  • जन चर्चा का विषय बन रहे हैं यह फैसले

शिमला/शैल। हिमाचल सरकार ने डॉक्टरों का एनपीए बन्द कर दिया है। सरकार के इस फैसले से आहत होकर डॉक्टर हड़ताल पर चले गये हैं। सरकार के इस फैसले का स्वास्थ्य सेवाओं पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। क्योंकि एनपीए बन्द होने का अर्थ होगा कि डॉक्टर प्राइवेट प्रैक्टिस करने के लिये स्वतंत्र होंगे। सरकार ने यह फैसला क्यों लिया और इस पर उभरे रोष के कारण शुरू हुई हड़ताल का अन्तिम परिणाम क्या होगा यह तो आने वाला समय ही बतायेगा। लेकिन इस घटनाक्रम में एक महत्वपूर्ण तथ्य जो सामने आया है उसके मुताबिक प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री डॉ. धनीराम शांडिल को ही इस फैसले की जानकारी नही है। जब मीडिया ने उनसे इस फैसले के बारे में पूछा तो उन्होंने स्वयं कहा कि उन्हें इसकी जानकारी ही नही है। विपक्षी भाजपा ने स्वास्थ्य मंत्री की इस अनभिज्ञता के बारे में सरकार और मंत्री को आड़े हाथों लिया है। इससे भाजपा ने आरोप लगाया है कि एनपीए बन्द करने का मामला मंत्री परिषद की बैठक में लगा था और वहां सरकार ने फैसला लिया है। ऐसे में यह सवाल उठ रहा है कि स्वास्थ्य मंत्री फैसले की उन्हें जानकारी ही नही होने की बात क्यों कर रहे हैं? क्या उन्हें सही में यह याद ही नही रहा है कि उनके विभाग को लेकर कोई ऐसा फैसला लिया गया था या वह मामले को टालने की नीयत से अनभिज्ञता जता रहे थे। इसमें वास्तविकता क्या रही है यह तो मंत्री या सरकार ही स्पष्ट कर पायेंगे। लेकिन इस प्रकरण से आम आदमी में मंत्री और सरकार के बीच तालमेल को लेकर सवाल उठने शुरू हो गये हैं। क्योंकि इससे पूर्व सहकारिता विभाग को लेकर भी एक अजीब फैसला आया है। सहकारिता विभाग का प्रभार उप-मुख्यमत्री मुकेश अग्निहोत्री को सौपने से पहले प्रदेश के तीनों सहकारी बैंकों हिमाचल स्टेट को-ऑपरेटिव बैंक कांगड़ा केंद्रीय सहकारी बैंक और जोगिन्द्रा को-ऑपरेटिव का कंट्रोल सहकारिता विभाग से निकालकर वित्त विभाग को सौंप दिया गया है। यह बैंक सहकारिता अधिनियम के तहत स्थापित हुये हैं और इन्हीं नियमों से संचालित होते हैं। ऐसे में इनका नियंत्रण वित्त विभाग को सौंपने से पूर्व नियमों में संशोधन किया जाना चाहिये था जोकि नहीं हुआ है। कुछ हल्कों में इस फैसले को मंत्री पर अविश्वास तक करार दिया जा रहा है। क्योंकि परिवहन विभाग को लेकर कुछ ऐसा ही घट चुका है। परिवहन पर मंत्री की पत्राकार वार्ता से पहले परिवहन पर ही मुख्यमंत्री का प्रेस नोट जारी कर दिया जाना भी कोई अच्छा संकेत नहीं माना जा रहा है। ऐसी घटनाओं से सरकार को लेकर आम आदमी में कोई बहुत अच्छा संकेत और संदेश नहीं जा रहा है। कांग्रेस संगठन और सरकार में भी तालमेल के अभाव की चर्चाएं अब उठने लग पड़ी हैं। पत्र बम्ब फूटने शुरू हो गये हैं। सरकार जनता को अभी कोई राहत दे नहीं पायी है। संगठन के लोगों को भी छः माह में सरकार में कोई बड़ा मान सम्मान नही मिल पाया है। यह सरकार भी कुछ लोगों में घिर कर रह गयी है। यह चर्चाएं उठना शुरू हो गयी है।

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