Friday, 19 September 2025
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घटती जा रही है केंद्रीय सहायता-तीन वर्षों में मिले 55150 करोड़

शिमला/शैल। केन्द्र सरकार से वस्तु एवम् सेवा कर क्षतिपूर्ति बन्द हो चुकी है। यह क्षतिपूर्ति बन्द होने के बाद इसके बदले में केन्द्र सरकार प्रदेश को कर्ज देकर सहायता कर रही है। केन्द्र से प्रदेश को वित्तायोग अनुदान बाह्य सहायता प्राप्त परियोजनाओं के अन्तर्गत अनुदान, केन्द्रिय प्रायोजित योजनाओं के अन्तर्गत अनुदान और ऋण के रूप सहायता मिलती है। प्रदेश में पूंजीगत निवेश के लिये दीर्घकालिक ब्याज मुक्त ऋण मिलता है। पूंजीगत निवेश विकास कार्यों पर लिया जाता है। पिछले तीन वर्षों में इन मदों में मिलने वाली सहायता का आकार लगातार घटता जा रहा है। इस परिदृश्य में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि आने वाले कुछ वर्षों में यह सहायता नहीं के बराबर रह जायेगी। ऐसी वस्तु स्थिति की ओर क्या प्रदेश का ध्यान अभी से नही जाना चाहिये? क्योंकि सरकार के बहुत से विभागों में 80ः कार्य बाह्य पोषित योजना के सहारे ही चल रहे हैं।
पिछले दिनों प्रदेश और केन्द्र में एक ही दल की सरकार रही है। फिर इस सहायता का आकार लगातार घटता गया है। ऐसे में अब सुक्खु सरकार को केन्द्र से कितनी सहायता मिल पायेगी इसका अन्दाजा लगाया जा सकता है। इस परिदृश्य में गारंटीयों की दिशा में सरकार टैक्स लगाने और कर्ज लेने के अतिरिक्त कैसे कदम बढ़ा पायेगी आने वाले दिनों में यह बड़ा सवाल होगा। क्या इस वस्तु स्थिति में प्रदेश मुख्य संसदीय सचिवों जैसे पदों को पोषित कर पायेगा?

यह है 3 वर्षों में मिली सहायता

 

क्या हिमाचल सरकार 1975 के आपातकाल को सही मानती है

  • लोकतंत्र प्रहरी सम्मान निधि वापस लेने से उठी चर्चा
  • शान्ता कुमार ने दी कड़ी प्रतिक्रिया

शिमला/शैल। सुक्खू सरकार ने पिछले सरकार द्वारा शुरू की गयी लोकतंत्र प्रहरी सम्मान योजना को यह कहकर बन्द कर दिया कि यह अपने चहेतों को लाभ पहुंचाने के लिये लायी गयी थी। यह सम्मान विधानसभा में एक एक्ट पारित करके दिया गया था और अब इसे निरस्त करने के लिये भी एक्ट ही लाया गया है। सरकार के इस फैसले पर कड़ी प्रतिक्रियाएं उभरी हैं। पूर्व मुख्यमंत्री शान्ता कुमार ने तो सरकार को पत्र लिखकर यह कहा है कि आप सम्मान मत दो लेकिन गाली तो मत दो। स्मरणीय है कि आज से 48 वर्ष पूर्व इस देश ने आपातकाल का दौर देखा और भोगा है। आज जो पीढ़ी 70 और उससे ऊपर की है उसने आपातकाल भोगा है। जबकि जो पीढ़ी आज प्रशासन में है वह उस समय मात्र दस बारह वर्ष की रही होगी। जो लोग आज संसद और विधानसभाओं में हैं उनमें से भी अधिकांश वह हैं जिन्होंने आपातकाल भोगा नहीं है। प्रदेश विधानसभा के अधिकांश सदस्य भी ऐसे ही है जिन्हें आपातकाल का व्यक्तिगत अनुभव नहीं है।
आपातकाल ठीक लगाया गया था या नहीं इस पर राय अलग-अलग हो सकती है। लेकिन यह सभी को मानना पड़ेगा कि तब लोकतांत्रिक अधिकार नहीं के बराबर रह गये थे। सत्ता से भिन्न राय रखने वालों को जेलों में डाल दिया गया था। विपक्ष के हजारों लोग जेलों में डाल दिये गये थे। कुछ की तो जेलों में ही मौत हो गयी थी। हिमाचल में ही ऊना के विद्यासागर जोशी की मौत जेल में हुई है। उन्नीस माह तक लोग जेलों में रहे हैं। गैर कांग्रेसी दलों के लोग अधिकांश में जेलों में डाल दिये गये थे। आपातकाल तब लगा था जब स्व.इंदिरा गांधी स्व. राजनारायण से चुनावी याचिका हार गई थी और जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा के फैसले पर उन्हें पद त्याग करना था। लेकिन उन्होंने पद त्याग का रास्ता न लेकर आपातकाल लगाने का फैसला ले लिया। संसद का कार्यकाल पांच वर्ष से बढ़ाकर छः वर्ष कर दिया था। इस कदम का विरोध करने वाला हर आदमी जेल में डाल दिया गया था। नसबन्दी ने गांव तक हर घर को हिला कर रख दिया था। मौलिक अधिकार एक तरह से स्थगित कर दिये गये थे। जो राजनीतिक स्थितियां उस समय आपातकाल और उससे पहले देश में निर्मित हुई थी आज भी वही परिस्थितियां खड़ी होती जा रही हैं। लोकतंत्र और लोकतांत्रिक संस्थाएं दोनों का अस्तित्व खतरे में है। विपक्षी नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार के नाम सारी जांच एजेंसियां लगा दी गयी हैं। एक तरह से अघोषित आपातकाल देश में चल रहा है। सरकार से असहमति जताना सरकार का विरोध करना माना जा रहा है। राहुल गांधी के खिलाफ आया फैसला और उसमें अपनाई गई प्रक्रिया इसका प्रमाण बन गयी है। इसी ने सारे विपक्ष को कांग्रेस के साथ खड़ा होने पर ला दिया है। लेकिन अभी तक आपातकाल घोषित नहीं है। लोकतंत्र बचाओ सबसे बड़ा मुद्दा बन गया है। लेकिन आपातकाल से एक कदम अभी पीछे हैं। ऐसे में जब सुक्खू सरकार लोकतंत्र प्रहरी सम्मान को रद्द कर रही है तब विपक्ष को अनचाहे ही आपातकाल पर पुरानी यादें और अनुभव फिर से याद करके लोगों के साथ सांझा करने का अवसर दे दिया है। यह सम्मान उन लोगों को दिया गया था जो उन्नीस माह जेल में रहे थे। जिन्होंने आपातकाल का विरोध करके लोकतंत्र को जिन्दा रखने के लिए अपने आप को दांव पर लगा दिया था। इन लोगों ने लोकतंत्र की सही मायनों में रक्षा की है। इन को दिया गया सम्मान नीतिगत तौर पर कैसे गलत हो सकता है। व्यक्तिगत मामलों में पात्रता पर सवाल उठ सकते हैं लेकिन वर्तमान परिस्थितियों में नीति को ही नकारना आज अपने में ही पक्ष को कमजोर कर देता है। क्योंकि आज भी मुद्दा लोकतंत्र बचाने का है। जो लोकतंत्र बचाने के लिये अपना सब कुछ दाव पर लगा चुके हैं उन्हें यह सम्मान दिया गया था। आज जब फिर लोकतंत्र बचाने का प्रश्न खड़ा हो गया है तब यह सम्मान वापस लेना नीतिगत तौर पर अपने ही पक्ष को कमजोर करता है। क्योंकि इससे बहस का रुख ही बदल जायेगा। विपक्ष इस परिदृश्य में आसानी से लोकतंत्र बचाओ की जगह राहुल बचाओ की ओर मोड़ देगा। विश्लेषकों की नजर में वर्तमान परिस्थितियों में यह फैसला राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस को कमजोर कर सकता है। क्योंकि इससे यही संदेश जायेगा कि हिमाचल सरकार आपातकाल की पक्षधर है।
इस वस्तुस्थिति में प्रदेश में राहुल के मुद्दे पर जन समर्थन जुटा पाना आसान नहीं होगा। पहले ही युवा कांग्रेस के सौ से अधिक पदाधिकारियों को उनके पदों से इसलिये हटा दिया गया कि वह दिल्ली की रैली में नहीं पहुंचे थे। कांग्रेस अध्यक्षा प्रतिभा सिंह ने भी यह कहा है कि इन लोगों को न तो समय पर सूचना ही दी गयी और न ही उनके पास संसाधन थे। अब इस परिदृश्य में यह स्थिति और भी जटिल हो जायेगी।

यह है शान्ता कुमार की प्रतिक्रिया

पहले 2000 मेगावाट का उत्पादन होगा उसके बाद दी जाएगी 300 यूनिट बिजली मुफ्त

  • क्या यह गारंटी देते समय ऐसी कोई शर्त रखी गयी थी
  • सरकार की ऊर्जा नीति पर उठने लगे सवाल
  • अपफ्रन्ट मनी ब्याज सहित लौटानी पड़ रही है
  • लेकिन संबद्ध प्रशासन में इसके लिए कोई जिम्मेदारी तय नहीं है

शिमला/शैल। कांग्रेस ने चुनावों से पूर्व प्रदेश की जनता को जो दस गारंटीयां दी है उनमें से एक गारंटी 300 यूनिट बिजली मुफ्त देने की भी है। यह गारंटीयां इसलिए दी गयी थी ताकि हर आदमी के जीवन स्तर की में गुणात्मक सुधार लाया जा सके। हर आदमी की क्रय शक्ति बढ़े। इन गारंटीयों के परिणाम स्वरूप प्रदेश में सत्ता परिवर्तन हो गया और कांग्रेस की सरकार बन गयी। सरकार बनने के बाद वायदे के मुताबिक प्रदेश के कर्मचारियों को ओल्ड पैन्शन योजना का लाभ मंत्रिमंडल की पहली ही बैठक में दे दिया गया। इसके बाद 18 से 60 वर्ष की महिलाओं को जो पंद्रह सौ रूपये प्रति माह देने की गारंटी थी उसमें करीब 11 लाख महिलाएं चिन्हित हुई हैं और उन्हें चरणबद्ध तरीके से यह लाभ देने की बात कही जा रही है अर्थात कुछ महिलाओं को इसी वर्ष से यह लाभ मिलना शुरू हो जायेगा। लेकिन तीन सौ यूनिट बिजली मुफ्त देने के मामले में अब यह कहा गया है की सरकार 3 वर्षों में 2000 मेगावाट बिजली का उत्पादन बढ़ायेगी और फिर 300 यूनिट बिजली मुफ्त बिजली उपभोक्ताओं को देगी। सरकार यह लाभ तुरन्त प्रभाव से इसलिए नहीं दे पा रही है क्योंकि उसे विरासत में एक अच्छी आर्थिक स्थिति नहीं मिली है। सरकार ने आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए कुछ उपाय किये हैं जिनमें एक शराब के ठेकों की नीलामी की प्रक्रिया में बदलाव करना था। इस बदलाव के परिणाम सकारात्मक रहे हैं और इससे अच्छा लाभ भी मिला है।
इसी तर्ज पर एक उपाय जल विद्युत परियोजनाओं पर जल उपकर लगाकर की चार हजार करोड़ की आय होने का अनुमान लगाया गया था। लेकिन इस उपकर पर जिस तरह से पंजाब और हरियाणा सरकारों ने एक ही दिन अपनी अपनी विधानसभाओं में प्रस्ताव पारित कर एतराज जताया है उसे स्पष्ट हो जाता है कि यह उपकर मामला एक बार अदालत में जरूर पहुंचेगा और इसके परिणाम आने में समय लगेगा। उपकर के अतिरिक्त 2000 मेगावाट विद्युत उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है। स्मरणीय है कि हिमाचल में जितनी जल विद्युत दोहन चिन्हित की गयी थी उसके आधार पर हिमाचल को उर्जा राज्य प्रचारित किया गया। इसी प्रचार पर प्रदेश में उद्योगों की आमंत्रित किया गया। 24500 मेगावाट की कुल क्षमता में से 11149 मेगावाट का दोहन किया जा चुका है। इससे प्रदेश को कर और गैर कर से इस वर्ष 2249.77 करोड़ की आय होने का अनुमान है। पिछले वर्ष की तुलना में इस बार 680 करोड़ की आय अधिक होने का अनुमान है और यह माना जा रहा है कि इस आय का बड़ा हिस्सा बिजली की दरें बढ़ने से होगा।
प्रदेश में बिजली का उत्पादन केंद्रीय क्षेत्र संयुक्त और निजी क्षेत्र में हो रहा है। संयुक्त और केंद्रीय क्षेत्र से 12% तक मुफ्त बिजली ली जा रही है। कुल उत्पादन का करीब 46% दोहन इस क्षेत्र के पास है। निजी क्षेत्र से 30% तक मुफ्त बिजली ली जा रही है। राज्य क्षेत्र से 3800 मेगावाट की विभिन्न योजनाएं कार्यशील हैं और इनमें 12% मुफ्त बिजली का प्रावधान रखा गया है। जबकि निजी क्षेत्र में बन रही परियोजनाओं में हस्ताक्षेप अनुबंधों की अनुपालन न होने पर कोई दंडात्मक कारवाई का प्रावधान नहीं है। कडच्छम वांगतू परियोजना 1045 मेगावाट हस्ताक्षरित हुयी थी और 2021 में इसके साथ अनुपूरक अनुबंध हुआ क्योंकि इसमें 45 मेगावाट क्षमता बढ़ा ली थी। परंतु इस बढ़ौतरी पर सरकार को कोई अतिरिक्त बिजली नहीं मिल रही। अब मार्च में इसे नोटिस जारी करना पड़ा है। लेकिन बोर्ड प्रबंधन के खिलाफ कोई कारवाई नहीं की गयी है। प्रदेश में स्थापित 172 परियोजनाओं में से 108 परियोजनाएं उत्पादन के बाद एल.ए.डी.एफ. नहीं दे रही है क्योंकि 2009 की अधिसूचना में इसके लिए प्रावधान ही नही किया गया। 18 परियोजना निर्माताओं ने इस अधिसूचना के खिलाफ अदालत से स्टे ले रखा है। राज्य क्षेत्र में जो परियोजनाएं चल रही हैं वह वर्ष में इतना समय रिपेयर आदि के नाम पर बन्द रहती हैं कि उसी से हानि की स्थिति पैदा हो जाती है जबकि निजी क्षेत्र की परियोजनाओं में रिपेयर आदि के लिए बहुत ही अल्प समय के लिए इन्हें बंद रखना पड़ता है। इसी में एक बड़ा खेल हो जाता है और किसी का ध्यान नहीं जाता। यही नहीं विद्युत ट्रांसमिशन की सारी जिम्मेदारी सरकार ने अपने ऊपर ले रखी है। इसी ट्रांसमिशन में 40% बिजली रास्ते में ही गायब हो जाती है जिसकी कीमत सरकार को चुकानी पड़ती है।
दूसरी ओर अपफ्रन्टमनी की करोड़ों की देनदारी सरकार के नाम पढ़ रही है जबकि यह परियोजनाएं लगने से पहले ही इनका आबंटन रद्द हो गया। आबंटितों ने नियमानुसार इनके लिए अपफ्रन्ट प्रीमियम जमा करवा रखा है लेकिन प्रशासनिक सहयोग समयानुसार न मिलने के कारण योजनाएं लग नहीं पायी और आबंटन रद्द हो गये। अब यह लोग अपना-अपफ्रन्ट वापस मांग रहे हैं। अदाणी पावर से शुरू हुई यह मांग ऊल डुग्गर और सैली परियोजना तक पहुंच गयी है। यह कंपनियां अपफ्रन्ट वापस दिये जाने के आदेश अदालतों से ले चुकी है। इनकी रकमों पर ब्याज की अदायगी भी करनी पड़ रही है। एक और सरकार ऊर्जा से आय बढ़ाने के प्रयासों में लगी है तो दूसरी और प्रशासन की नालायकी इस तरह से सरकार के प्रयासों पर भारी पड़ रही है। क्योंकि कंपनियां तो परियोजनाएं लगाने आती हैं लेकिन प्रशासन समय पर औपचारिकताएं पूरी नहीं करता है और परिणामस्वरूप परियोजनाओं का आबंटन रद्द हो जाता है और संबंधित प्रशासन की कोई जिम्मेदारी तय नहीं की जाती है। ऐसे में जब तक संबंधित प्रशासन की जवाबदेही तय नहीं की जाती है तब तक उर्जा क्षेत्र से अपेक्षित लाभ मिल पाना संभव नहीं होगा। क्या सुक्खू सरकार व्यवस्था परिवर्तन के नाम पर प्रशासन को जवाबदेह बना पाती है या नहीं यह देखना दिलचस्प होगा। क्योंकि जिस तरह की चाल अब तक प्रशासन चलता आया है उसके चलते 300 यूनिट मुफ्त बिजली देने की गारंटी तीन साल बाद भी पूरी होना कठिन है।

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