स्मरणीय है कि कोविड काल में मोदी सरकार ने जब तीन कृषि कानून पारित किये थे तब उसी दौरान श्रम कानूनों में भी बदलाव कर दिया था। इस बदलाव से श्रमिकों के अधिकारों पर बड़ा नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। इस बदलाव से उद्योग मालिकों को ही लाभ हुआ है। लेकिन इस बदलाव के कारण कारखानों में मालिकों/प्रबन्धन द्वारा तालाबन्दी घोषित करने की औपचारिकताओं में बदलाव नहीं आया है। तालाबन्दी घोषित करने से पहले उससे जुड़े कारणों और उन्हें हल करने के लिये किये गये प्रयासों की अधिकारिक जानकारी संबद्ध प्रशासन को दी जानी होती है। सीमेंट कारखानों को बन्द करने का कारण इसमें घाटा होना बताया गया है और घाटे का कारण सीमेंट ढुलाई के रेट ज्यादा होना कहा गया है। यदि इन कारणों को सही भी मान लिया जाये तो पहला सवाल यह उठता है कि अदाणी समूह ने 2022 में ही होलिसिम से 82000 करोड में यह कारखाने खरीदे हैं और इस लेन-देन में कोई टैक्स नहीं दिया गया है तो अदाणी को इस उद्योग में घाटा होने की जानकारी कब मिली। घाटा हटाने के क्या प्रयास किये गये और उनमें यहां काम कर रहे कर्मचारियों तथा ढुलाई से जुड़े ट्रक ऑपरेटरों की क्या भूमिका रही है। स्वभाविक है कि ऐसे सारे प्रयास करने और उनके विफल रहने के बाद कारखाने के मालिक/प्रबन्धन को तालाबन्दी की नौबत आती है। तालाबन्दी से पहले क्या प्रबन्धन ने इस आशय की जानकारी संबद्ध प्रशासन को दी है या नहीं? इसकी कोई जानकारी अब तक सामने नहीं आयी है। यदि ऐसी कोई पूर्व जानकारी प्रशासन के पास नहीं रही है तो यह तालाबन्दी सीधे अवैध हो जाती है और इसके लिए प्रबन्धन के खिलाफ आपराधिक कारवाई बनती है। लेकिन इस दिशा में सरकार की ओर से कोई कारवाई किये जाने के संकेत अब तक नहीं मिले हैं। जबकि कारखाना प्रबन्धन की ओर से पत्र बाहर आया है उसमें कहा गया है कि सीमेंट ढुलाई के लिए केवल 550 ट्रकों की आवश्यकता है जबकि इसमें 3311 ट्रक लगे हैं। इन्हें आने वाले दिनों में कम करने की आवश्यकता होगी।
दूसरी ओर यदि प्रशासन द्वारा किये गये प्रयासों पर नजर डाली जाये तो यह सामने आता है कि इसमें डी.सी. बिलासपुर पंकज राय और डी.सी. सोलन कृतिका कुल्हारी के स्तर पर वार्ता हुई। इसके बाद एस.डी.एम. अर्की और बिलासपुर के स्तर पर वार्ता हुई। लेकिन मामला नहीं सुलझा और निदेशक उद्योग राकेश प्रजापति के स्तर पर वार्ता हुई और बेनतीजा रही। परिवहन सचिव आर.डी.नजीम के स्तर पर हुई वार्ता भी विफल रही। निदेशक खाद्य एवं आपूर्ति के.सी. चमन के स्तर पर एक उप समिति बनाई गयी। ढुलाई की दरें निर्धारित करने के लिये एक एजैन्सी की सेवाएं भी ली गयी। लेकिन सरकार के स्तर पर हुई यह सारी वार्ताएं विफल रहने के बाद 20 जनवरी को उद्योग मंत्री हर्षवर्धन चौहान के स्तर पर हुई वार्ता भी विफल रही है।
उद्योग मंत्री के साथ भी वार्ता विफल रहने के बाद सारी वार्ताएं बन्द है और मामला मुख्यमंत्री पर छोड़ दिया गया है। लेकिन इस सारे परिदृश्य में यह सवाल उठता है की सरकार तालाबन्दी की वैधता और अवैधता को लेकर स्थिति स्पष्ट क्यों नहीं कर पा रही है? यदि तालाबन्दी वैध है तो निश्चित है कि यह सब कुछ एक अरसे से शीर्ष प्रशासन के संज्ञान में चल रहा था। ऐसे में यह भी सवाल उठता है कि नई सरकार का गठन तो ग्यारह दिसम्बर को हुआ और तालाबन्दी 14 दिसम्बर को हो गयी तो क्या शीर्ष प्रशासन ने इसकी जानकारी मुख्यमंत्री को नहीं दी है? यदि यह तालाबन्दी अवैध है तो सरकार अवैधता पर कारवाई क्यों नहीं कर रही है? क्योंकि इस पर सरकार के मौन से यह भ्रम भी पनप रहा है कि यह सारा मामला कहीं किसी बड़े राजनीतिक खेल की भूमिका तो नहीं बन रहा है?