शिमला/शैल। कांग्रेस हाईकमान ने हिमाचल प्रदेश की राज्य से लेकर ब्लॉक स्तर तक सभी ईकाईयों को भंगकर दिया है। राजनीतिक हल्कों में इसे एक बड़ा फैसला माना जा रहा है। हिमाचल में कांग्रेस की सरकार को सत्ता में आये दो वर्ष होने जा रहे हैं। प्रतिभा वीरभद्र सिंह ने प्रदेश विधानसभा के चुनावों से पहले संगठन की अध्यक्षता संभाली थी। बल्कि जब मण्डी से लोकसभा का उप चुनाव लड़ा था तब कुलदीप राठौर अध्यक्ष थे। प्रतिभा सिंह की अध्यक्षता में पार्टी विधानसभा चुनाव जीत कर सत्ता में आ गयी। परन्तु पार्टी की सरकार बनने के बाद लोकसभा की चारों सीटें हार गयी। राज्य सभा चुनाव के दौरान चुनाव हारने के साथ ही पार्टी के छः विधायक भी संगठन को छोड़कर भाजपा में शामिल हो गये। इन विधायकों के पार्टी छोड़ने के कारण हुये विधानसभा उपचुनावों में कांग्रेस ने फिर से चालीस का आंकड़ा तो हासिल कर लिया लेकिन इसी चुनाव में लोकसभा की चारों सीटें हार जाने का सच हाईकमान को शायद अब तक स्पष्ट नहीं हो सका है। ऐसे में विश्लेषकों के लिये यह एक महत्वपूर्ण सवाल हो जाता है कि आखिर हाईकमान को यह कदम क्यों उठाना पड़ा। प्रतिभा सिंह निष्क्रिय पदाधिकारी को बाहर करने की बात अकसर करती रही है। अब हाईकमान ने प्रतिभा सिंह की बात मानकर संगठन को नये सिरे से गठन करने की सिफारिश मानकर क्या संदेश दिया है यह समझना आवश्यक हो जाता है।
यह एक स्थापित सच है कि पार्टी को सत्ता में लाने के लिये संगठन की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है। लेकिन सरकार बनने के बाद संगठन को साथ लेकर चलना सरकार की जिम्मेदारी हो जाती है। कांग्रेस ने विधानसभा का चुनाव सामूहिक नेतृत्व के नाम पर लड़ा था। विधानसभा चुनाव में सुक्खू मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित नहीं थे। सुक्खू मुख्यमंत्री केंद्रीय नेतृत्व की पसंद के कारण बने हैं। इसलिये मुख्यमंत्री बनने के बाद सबको साथ लेकर चलना मुख्यमंत्री की जिम्मेदारी थी। परन्तु मुख्यमंत्री बनने के बाद मंत्रीमण्डल की शपथ के पहले मुख्य संसदीय सचिवों को शपथ दिलाना शायद पहला फैसला था जिस पर संगठन में कोई विचार विमर्श नहीं हुआ था। जिस तरह की कानूनी स्थिति सर्वाेच्च न्यायालय के फैसले के कारण बन चुकी थी उसके परिदृश्य में यह नियुक्तियां कोई बड़ी राजनीतिक समझ का प्रदर्शन नहीं थी। बल्कि आज भी न्यायालय के फैसले की प्रतीक्षा बनी हुई है। विपक्ष का फिजूलखर्ची पर यह पहला हमला होता है। वितीय संकट में चल रहे प्रदेश में ऐसी नियुक्तियों की आवश्यकता नहीं थी क्योंकि प्रदेश के हालात श्रीलंका जैसे होने की चेतावनी इन नियुक्तियों से पहले ही दे दी गयी थी। फिर इन नियुक्तियों के बाद कैबिनेट रैंक में सलाहकारों और ओएसडी आदि की तैनाती ने स्थितियों को और गंभीर बना दिया। जब मंत्रिमण्डल का गठन हुआ तो उसमें कुछ पद खाली छोड़ दिये गये। खाली छोड़े गये पदों में से जब दो भरे गये तो उन्हें विभागों का आबंटन करने में ही आवश्यकता से अधिक देरी कर दी गयी। इस तरह राजनीतिक परिस्थितियां ऐसी बनती चली गयी कि संगठन सरकार में तालमेल का अभाव स्वतः ही सार्वजनिक होने लग पड़ा। राज्यसभा चुनाव तक पहुंचते- पहुंचते स्थितियां प्रबंधन से बाहर हो गयी।
मुख्यमंत्री ने पदभार संभालते ही प्रदेश की हालत श्रीलंका जैसे होने की चेतावनी तो दे दी थी। लेकिन उससे निपटने के लिए कर्ज और कर लगाने का आसान रास्ता चुन लिया। यह रास्ता चुनने के कारण विधानसभा चुनावों में दी गारंटीयां पूरी करने में कठिनाई आना स्वभाविक था। इसके परिणाम स्वरूप हर गारंटी में पात्रता के राइटर लगाने पड़ गये। राइटर लगाने का अघोषित कारण केन्द्र द्वारा आर्थिक सहयोग न मिलना प्रचारित किया गया। परन्तु इस प्रचार पर सुक्खू के कुछ मंत्रियों ने ही प्रश्न चिन्ह खड़े कर दिये। भाजपा नेताओं ने केंद्रीय सहायता और सरकार द्वारा कर्ज लेने के आंकड़े जारी करने शुरू कर दिये। स्थितियां यहां तक उलझ गई कि प्रदेश की कठिन वितीय स्थिति का रिकॉर्ड विधानसभा के पटल पर रखते हुये मुख्यमंत्री को वेतन भत्ते निलंबित करने का फैसला पटल पर रखना पड़ गया। सरकार ने वित्तीय संसाधन बढ़ाने के लिये जिस तरह का करभार जनता पर बढ़ाना शुरू किया उन फैसलों पर सरकार जगहसाई का पात्र बन गयी। हर फैसले का स्पष्टीकरण जारी करने की बाध्यता बन गयी। अब जिस तरह से समोसा कांड और मुख्यमंत्री के फोटो प्रैस में जारी करने पर सरकार को पत्र लिखने पड़ गये हैं उससे यह सीधे सन्देश गया कि शायद शीर्ष नौकरशाही पर सरकार का नियंत्रण नहीं रह गया है। फैसलों के स्पष्टीकरणों से भाजपा के आरोप स्वतः ही प्रमाणित होते जा रहे हैं।
ऐसी वस्तुस्थिति में संगठन की इकाईयां भंग करके नये सिरे से गठन करने की कवायद का कितना व्यवहारिक लाभ होगा इस पर चर्चाएं चल पड़ी है। क्योंकि सरकार पर एक आरोप मित्रों की सरकार होने का बड़े अरसे से लगना शुरू हो गया है। ऐसे में स्वभाविक है कि यह मित्र लोग संगठन में भी बड़ा हिस्सा चाहेंगे। जबकि इस समय संगठन में ऐसे लोगों की आवश्यकता होगी जो अपनी ही सरकार से तीखे सवाल पूछने का साहस रखते हों। क्योंकि सरकार का सन्देश कार्यकर्ता के माध्यम से ही जनता तक जाता है और इस समय फैसलांे के स्पष्टीकरण के अतिरिक्त जनता में ले जाने वाला कुछ नहीं है। सरकार की परफॉरमैन्स अपनी गारंटीयों के तराजू में ही बहुत पिछड़ी हुई है। गारंटी 18 से 60 वर्ष की हर महिला को पन्द्रह सौ देने की थी जो अब पात्रता के मानकों में ऐसी उलझ गयी है की आने वाले समय में सरकार की सबसे बड़ी असफलता बन जायेगी। यही स्थिति रोजगार के क्षेत्र में है। ऐसे में यह देखना रोचक होगा कि इस परिदृश्य में संगठन का पुनर्गठन किन आधारों पर होगा। क्योंकि यह सरकार जिस तरह की वस्तुस्थिति में उलझ चुकी है उससे बाहर निकल पाना आसान नहीं होगा। नये पदाधिकारी सरकार के फैसलों पर कैसे अपना पक्ष रख पायेंगे? क्योंकि वित्तीय संकट के लिये पिछली सरकार को कोसते हुए उसके खिलाफ कौन सी कारवाई शुरू की गयी है। इसका कोई जवाब इस सरकार के पास नहीं है। ऐसे में यह पुनर्गठन प्रदेश नेतृत्व से ज्यादा हाईकमान की कसौटी बन जायेगा।
शिमला/शैल। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने हिमाचल सरकार की परफॉरमैन्स को महाराष्ट्र और झारखण्ड विधानसभा चुनावों में फिर मुद्दा बनाकर उछाला है। प्रधानमंत्री ने आरोप लगाया है कि कांग्रेस ने विधानसभा चुनावों में सत्ता में आने के लिये जो गारंटीयां प्रदेश की जनता को दी थी आज उन्हें पूरा करने के लिये सरकार का वितीय सन्तुलन पूरी तरह से बिगड़ गया है। आज हिमाचल के कर्मचारियों को अपने वेतन भत्तों और एरियर के लिये सड़कों पर आना पड़ रहा है। कांग्रेस सत्ता में आने के लिये झूठी गारंटीयां देती है अब यह तथ्य कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष खड़गे ने भी स्वीकार कर लिया है। खड़गे ने एक पत्रकार वार्ता के दौरान कर्नाटक के उपमुख्यमंत्री डी.के.शिवकुमार पर अपनी नाराजगी जाहिर की है और कहा है कि गारंटीयां बजट को देखकर दी जानी चाहिये। मुख्यमंत्री सुक्खू ने प्रधानमंत्री के आरोप के जवाब में कहा है कि प्रदेश सरकार ने विधानसभा चुनाव में दी दस में से पांच गारंटीयां पूरी कर दी हैं। इन पांच गारंटीयों में कर्मचारियों की ओल्ड पैन्शन योजना बहाल कर दी है। पात्र महिलाओं को 1500 रूपये मासिक भत्ता, कक्षा एक से ही अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा प्रदान करना, 680 करोड़ का स्टार्टअप फण्ड स्थापित करना, दूध का न्यूनतम वेतन मूल्य लागू करना शामिल है। इसी के साथ मुख्यमंत्री ने यह भी दावा किया है कि कर्मचारियों के महंगाई भत्ते में 11ः की वृद्धि की गयी है। अर्थव्यवस्था में 23 प्रतिशत की बढ़ौतरी करके 2200 करोड़ का अतिरिक्त राजस्व अर्जित किया है। मुख्यमंत्री ने पांच गारंटीयां पूरी कर देने का दावा किया है। लेकिन इस दावे पर उस समय स्वतः ही प्रश्न चिन्ह लग जाता है जब यह सामने आता है कि गारंटींयां लागू होने के बाद भी कांग्रेस लोकसभा की चारों सीटें क्यों हार गयी। क्या गारंटीयां लागू होने का प्रदेश के कर्मचारियों और जनता पर कोई असर नहीं हुआ? सुक्खू सरकार ने मंत्रिमण्डल की पहली ही बैठक में कर्मचारियों के लिये ओल्ड पैन्शन बहाल कर दी थी। सरकार ने सारे कर्मचारीयों के लिये ओल्ड पैन्शन लागू करने की घोषणा की थी। लेकिन आज भी कुछ निगमों, बोर्डों और स्थानीय निकायों के कर्मचारी ओल्ड पैन्शन की मांग कर रहे हैं परन्तु सरकार उनकी मांग पूरी नहीं कर पा रही है। स्मरणीय है की प्रदेश के कर्मचारियों के लिये न्यू पैन्शन योजना 15 मई 2003 से लागू की गयी थी। इसके मुताबिक जो कर्मचारी 2004 से सरकारी सेवा में आये उन पर न्यू पैन्शन स्कीम लागू हुई और अब उन्हीं को ओल्ड पैन्शन के दायरे में लाया गया। 2003 तक के कर्मचारी तो पहले ही ओल्ड पैन्शन के दायरे में थे। पैन्शन तो सेवानिवृत्ति पर ही मिलनी है। ऐसे में 2004 से सरकारी सेवा में आये कितने लोग रिटायर हो गये होंगे जिनको ओल्ड पैन्शन का व्यवहारिक लाभ सरकार को देना पड़ा होगा। क्योंकि 2004 में लगे कर्मचारियों के 20 वर्ष तो 2024 में पूरे होंगे इसलिए अभी तक ओल्ड पैन्शन की देनदारी तो बहुत कम आयी होगी। दावा करने के लिये तो ठीक है परन्तु व्यवहारिक तौर पर यह पूरा सच नहीं है। इसी तरह 18 वर्ष से 60 वर्ष की हर महिला को 1500 रुपए प्रतिमाह देने की बात की गयी थी और प्रदेश की 22 लाख महिलाओं को इसका लाभ मिलना था। परन्तु अब जब इस योजना को लागू करने की बात उठी तो इसके लिये जो योजना अधिसूचित की गयी है उसमें पात्रता के लिये इतने राइडर लगा दिये गये हैं कि जिससे व्यवहारिक रूप से यह आंकड़ा 22 लाख से घटकर शायद दो तीन लाख तक भी नहीं रह जायेगा। फिर पूरे प्रदेश में इसे एक साथ लागू नहीं किया जा सकता है। इसका असर सरकार के पक्ष में उतना नहीं हो पा रहा है। यही स्थिति 680 करोड़ के स्टार्टअप फण्ड की है। सरकार प्रदेश के युवाओं के लिए सोलर पावर प्लांट लगाने की योजना प्रदेश के युवाओं के लिये अधिसूचित की थी। शुरू में इस योजना का संचालन श्रम विभाग को दिया गया था। फिर हिम ऊर्जा को बीच में लाया गया। हिम ऊर्जा से यह योजना बिजली बोर्ड पहुंची परन्तु व्यवहार में शायद एक भी युवा इस योजना के तहत कोई सोलर प्लांट नहीं लगा पाया है। इसी तरह दूध का समर्थन मूल्य तो कागजों में तय हो गया परन्तु व्यवहारिक रूप से यह सुनिश्चित नहीं किया गया कि गांव में लोगों के पास दुधारू पशु भी पर्याप्त मात्रा में हैं या नहीं। यह योजना शायद जायका के माध्यम से कांगड़ा में लगाये जा रहे मिल्क प्लांट को सपोर्ट देने के लिये लायी गयी थी। परंतु अभी कांगड़ा का यह प्रस्तावित प्लांट व्यवहारिक शक्ल लेने में वक्त लगा देगा। हालांकि पूर्व मुख्य सचिव रामसुभग सिंह इस पर काम कर रहे हैं।
सरकार ने पांच लाख युवाओं को रोजगार उपलब्ध करवाने की गारंटी दी थी। प्रदेश में सरकार ही रोजगार का सबसे बड़ा साधन है। सरकार ने आते ही मंत्री स्तर की एक कमेटी बनाकर सरकार में खाली पदों की जानकारी दी थी। इस कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक सरकार में 70,000 पद खाली है। सरकार 20,000 से अधिक पद भरने का दावा कर रही है। लेकिन विधानसभा में इस आश्य के आये हर प्रश्न का जवाब सूचना एकत्रित की जा रही है देने से सरकार की कथनी और करनी का अन्तर सामने आ गया है। अब बिजली बोर्ड में आउटसोर्स पर रखे 81 ड्राइवरों को बाहर का रास्ता दिखा दिया जाने से सरकार की नीयत पर शक होना स्वभाविक हो जाता है। क्योंकि एक ओर सरकार आउटसोर्स कर्मचारीयों को बाहर निकाल रही है और दूसरी ओर आउटसोर्स भर्ती के लिए कंपनियों से आवेदन मांग रही है। इस परिदृश्य में यदि प्रधानमंत्री सरकार की कार्यशाली को चुनावी मुद्दा बना कर उछाले तो उस पर सवाल उठाना कठिन होगा। क्योंकि मुख्यमंत्री ने स्वयं दावा किया है कि सरकार ने 2200 करोड़ का अतिरिक्त राजस्व जुटाया है। यह अतिरिक्त राजस्व लोगों पर परोक्ष/अपरोक्ष में करांे का बोझ बढ़ाकर ही अर्जित किया गया है। इसका लोगों पर नकारात्मक असर पड़ रहा है जो आने वाले दिनों में सरकार और कार्यकर्ताओं की परेशानी बढ़ायेगा।
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