सीपीएस अधिनियम की वैधता का मामला उच्च न्यायालय मे लंबित है
प्रदेश उच्च न्यायालय एक बार ऐसी नियुक्तियों को अवैध करार दे चुका है
देश के आठ उच्च न्यायालय ऐसे प्रयासों को असंवैधानिक करार दे चुके हैं
जुलाई 2017 में सर्वाेच्च न्यायालय असम के मामले में ऐसे अधिनियम को असंवैधानिक कह चुका है
पिछली सरकार में नहीं हुई थी ऐसी नियुक्तियां
शिमला/शैल। मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने अपने मन्त्रीमण्डल के विस्तार से पहले छः मुख्य संसदीय सचिवों की नियुक्तियां करके प्रदेश में एक वैधानिक बहस छेड़ दी है। क्योंकि पूर्व में भी एक समय स्व. वीरभद्र सिंह ने अपनी सरकार में मुख्य संसदीय सचिवों की नियुक्तियां की थी। इन नियुक्तियों को संसद द्वारा संविधान के 91वें संशोधन के तहत लाये गये प्रावधानों के उल्लंघना करार देते हुए प्रदेश उच्च न्यायालय में सिटीजन प्रोटेक्शन फॉर्म ने चुनौती दी थी। उच्च न्यायालय ने इन नियुक्तियों को असंवैधानिक करार देते हुये तुरन्त प्रभाव से इन सचिवों को अपने पदों से हटा दिया था। इसके बाद राज्य सरकार ने फिर इस आश्य का अधिनियम पारित करके ऐसी नियुक्तियों के लिए पुनः ही मार्ग प्रशस्त कर दिया। लेकिन इसी बीच देश के कई अन्य राज्यों में ऐसी नियुक्तियां की गयी। इन राज्यों में भी ऐसी नियुक्तियों को अदालतों में चुनौतियां दी गयी। देश के आठ उच्च न्यायालय अपने-अपने राज्य में ऐसी नियुक्तियों को रद्द कर चुके हैं। असम राज्य का मामला तो सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया था और सर्वाेच्च न्यायालय ने 26 जुलाई 2017 को असम के अधिनियम को असंवैधानिक करार देते हुए स्पष्ट कहा है कि राज्य विधायिका को ऐसा अधिनियम पारित करने का अधिकार ही नहीं है। इसी परिदृश्य में हिमाचल के अधिनियम को भी एक अधिवक्ता मनिकताला ने प्रदेश उच्च न्यायालय में चुनौती दे रखी है। जो अब तक लंबित है। इसी कारण से पिछली सरकार में ऐसी नियुक्तियां नही की गयी थी। अब सुक्खू सरकार द्वारा यह नियुक्तियां करने से ‘‘एक कारण’’ पैदा हो गया है। इस पर उच्च न्यायालय में लंबित मामले पर तत्काल प्रभाव से सुनवाई की मांग आयेगी और मामला सर्वाेच्च तक भी जा सकता है। ऐसे में यह सवाल उठ रहा है कि यदि इस वस्तुस्थिति की पूरी जानकारी मुख्यमंत्री को नहीं थी तो क्या प्रशासन भी इस बारे में बेखबर था। या मुख्यमंत्री ने प्रशासन की राय को अनसुना कर दिया है। चर्चा है कि विधि सचिव ने मुख्यमंत्री को तथ्यों से अवगत करवा दिया था। माना जा रहा है कि पार्टी के भीतर और बाहर यह एक बड़ी बहस का मुद्दा बनेगा। क्योंकि तीन गैर विधायकों को सरकार कैबिनेट रैंक में नियुक्तियां दे चुकी हैं। अगले मन्त्रीमण्डल के विस्तार के समय यह वैधानिक प्रश्न अवश्य उठेगा। ऐसा माना जा रहा है मुख्यमंत्री को निष्पक्ष राय नहीं मिल रही है।
शिमला/शैल। जयराम सरकार की चुनावी हार क्यों हुई इस पर भाजपा की ओर से अभी तक कोई औपचारिक आकलन सामने नहीं आया है और शायद आये भी नही। क्योंकि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा स्वयं हिमाचल से ताल्लुक रखते हैं। इसी कारण से जब भी प्रदेश में नेतृत्व परिवर्तन की चर्चाएं उठी या कुछ मंत्रियों को हटाने या उनके विभाग बदलने की चर्चाएं उठी तो यह नड्डा ही थे जिन्होंने इस पर अमल नहीं होने दिया। हिमाचल भाजपा धूमल और नड्डा जयराम खेमों में बंटी रही है। नड्डा जयराम खेमे ने धूमल और उनके समर्थकों को ठिकाने लगाने का एक सूत्री कार्यक्रम चला रखा था यह सब जानते हैं। इस खेमेंबाजी के कारण ही भाजपा की हार हुई। इसके लिये केवल यही लोग जिम्मेदार रहे हैं। यह बिलासपुर और मण्डी के चुनाव परिणामों से भी स्पष्ट हो जाता है। शायद इसीलिये हार का औपचारिक आकलन टाला जा रहा है।
लेकिन इसी बीच कार्यकर्ताओं के अपने स्तर पर भी इस हार पर सवाल आने शुरू हो गये। हमीरपुर के नादौन चुनाव क्षेत्र के कार्यकर्ताओं का एक पत्र इस चर्चा का विषय बना हुआ है क्योंकि वहां पर इस हार के लिये राज्यसभा सांसद डॉ. सिकन्दर और केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर को चिन्हित किया गया है। उसी तर्ज पर अब शिमला में कार्यकर्ताओं का एक वर्ग संघ प्रतिनिधि संगठन सचिव को जिम्मेदार ठहरा रहा है। क्योंकि संयोगवश यह संगठन सचिव हिमाचल के कांगड़ा से ताल्लुक रखता है। शायद पिछले दस-बारह वर्षों से हिमाचल में ही तैनात है। कांगड़ा के कुछ राजनेताओं से इनके मतभेद एक समय भाजपा विधायक दल की बैठक में भी चर्चा का मुद्दा बन चुके हैं। यह तर्क दिया जा रहा है कि संघ अपने प्रतिनिधि हर प्रदेश संगठन में भेजता है तथा यह लोग प्रायः प्रदेश से बाहर के होते हैं और इनका कार्यकाल भी तीन-चार वर्ष का ही रहता है। लेकिन वर्तमान संगठन सचिव के लिए इन नियमों को ताक पर रख दिया गया। इसलिए संगठन सचिव पार्टी में एकजुटता नहीं बना पाये और यही आगे चलकर पार्टी की हार का कारण बनी है। वैसे कुछ लोग इस तरह के प्रयास को इसी खेमेंबाजी का परिणाम मान रहे हैं।
कांग्रेस और भाजपा आये आमने-सामने
शीर्ष प्रशासन बना दर्शक
जयराम ठाकुर मुद्दे को भुनाकर बने नेता प्रतिपक्ष
नये संस्थानों से प्रदेश पर पड़ा तीन हजार करोड़ का अतिरिक्त भार
शिमला/शैल। निवर्तमान जयराम सरकार ने चुनावी वर्ष के अंतिम छः माह में प्रदेश में नौ सौ से ज्यादा विभिन्न संस्थान खोलने की घोषणाएं करके सरकारी खजाने पर तीन हजार करोड़ का अतिरिक्त भार डाला था। जयराम सरकार जब यह कर रही थी तो कांग्रेस सहित कुछ लोग सरकार के इन फैसलों पर नजर भी रख रहे थे। क्योंकि यह फैसले सरकार के कार्यकाल के अन्तिम छः माह में उस समय लिये जा रहे थे जब प्रदेश के पास कर्ज लेने के अतिरिक्त और कोई साधन इन्हें पूरा करने के लिये नहीं बचा था। जबकि प्रदेश का कर्ज भार पहले ही 75,000 करोड़ का आंकड़ा पार कर चुका था। यही नहीं केन्द्र सरकार इससे पहले ही राजस्व घाटा अनुदान और जीएसटी प्रतिपूर्ति बन्द कर चुकी थी। अटल ग्रामीण सड़क योजना बन्द हो चुकी है। इनसे ही प्रदेश को करीब तीन हजार करोड़ का नुकसान हो चुका है। इस परिदृश्य में प्रदेश पर और तीन हजार करोड़ का बोझ डालना हर समझदार के सामने एक बड़ा सवाल बनता जा रहा था। क्योंकि जो शीर्ष प्रशासन प्रदेश की वित्तीय स्थिति से अवगत था वह इस सब पर मौन चल रहा था। सरकार की इन गतिविधियों से यह लगातार स्पष्ट होता जा रहा था कि जो सरकार अन्तिम छः माह में यह सब कुछ कर रही है उसने इससे पहले कुछ नहीं किया और अब चुनाव जीतने के लिये एक हथियार के रूप में घोषणाओं का इस्तेमाल किया जा रहा है। यदि चुनावी परिणाम न भी मिले तो आने वाली कांग्रेस के लिये यह सब एक बड़ा फन्दा साबित होंगे। दूसरी ओर जब कांग्रेस इस सब पर नजर रख रही थी तब उसने चुनाव प्रचार के दौरान ही यह ऐलान कर दिया था कि वह इन फैसलों की समीक्षा करके इन्हें डिनोटिफाई करेगी। सरकार बनने के बाद कांग्रेस ने अपने वायदे पर अमल करते हुये फैसलों की समीक्षा करके इन्हें डिनोटिफाई करना शुरू कर दिया है। संयोगवश इसी दौरान भाजपा की यह चर्चाएं सामने आना शुरू हो गयी कि नेता प्रतिपक्ष के लिए जयराम की जगह सतपाल सत्ती और विपिन परमार के नाम चलने शुरू हो गये हैं। जयराम ठाकुर ने इस स्थिति का संज्ञान लेते हुये सुक्खू सरकार के खिलाफ फैसले पर मोर्चा खोल दिया है। पूरे प्रदेश में प्रदर्शनों का दौर शुरू हो गया जो जसवां प्रागपुर में शालीनता और सभ्यता की सारी सीमायें लांघ गया। जयराम ने सुक्खू सरकार के फैसलों को उच्च न्यायालय तक में चुनौती देने की घोषणा तक कर दी। जयराम अदालत जाते हैं या नहीं यह तो आने वाला वक्त ही बतायेगा। लेकिन यह सब करने से जयराम नेता प्रतिपक्ष अवश्य चुन लिये गये। अब इन फैसलों को लेकर किसका पक्ष कितना सही है यह तो आने वाला समय ही बतायेगा कि वित्तीय और प्रशासनिक अनुमतियां कितने फैसलों में रही हैं। लेकिन प्रशासनिक सूत्रों के मुताबिक 25% फैसलों में सारी आवश्यक औपचारिकताएं पूरी हैं। प्रशासन के इसी फीडबैक के सहारे जयराम ने सुक्खू को चुनौती देने का साहस किया है। क्योंकि जिस प्रशासन के सहयोग से जयराम ने यह फैसले लिये थे उसकी रिपोर्ट पर ही सुक्खू उन्हें डिनोटिफाई करने के फैसले ले रहे हैं।
इन फैसलों के संद्धर्भ में शीर्ष प्रशासन से यह सवाल बनता है कि जब इन घोषणाओं के लिये बजट का प्रावधान ही नहीं था तो इन घोषणाओं को फील्ड में घोषित करने के लिये जो आयोजन किये गये उनके लिये धन का प्रावधान कहां से किया गया। क्योंकि इन आयोजनों पर ही कई करोड़ों का खर्च हुआ है। धन के इस प्रबन्धन की जानकारी प्रदेश के वित्त विभाग से आनी चाहिये थी। इसके लिये प्रदेश के मुख्य सचिव और वित्त सचिव को पत्रकार वार्ता के माध्यम से स्थिति स्पष्ट करनी चाहिये थी। लेकिन इसका जवाब कांग्रेस विधायकों सर्वश्री हर्षवर्धन चौहान, रोहित ठाकुर और अनिरुद्ध सिंह की ओर से दिया गया। शायद इसीलिये यह सवाल भी उछला कि जब संस्थान खोलने का फैसला पूरे मंत्रिमंडल द्वारा लिया गया है तो इन्हें डिनोटिफाई करने के लिये पूरे मंत्रिमंडल की आवश्यकता क्यों नहीं? यदि मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री ही मंत्रिमंडल बन जाते हैं तो फिर दूसरों के फैसलों में देरी क्यों की जा रही है। विश्लेषकों का मानना है कि पूर्व मुख्यमंत्री प्रशासन के माध्यम से सुक्खू सरकार को उलझाने का प्रयास कर रहे हैं।
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