Saturday, 20 December 2025
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बिन्दल मामले में सर्वोच्च न्यायालय के नोटिस से सरकार की नीयत और नीति सवालों में

हाईड्रो काॅजिल में 92 करोड़ की जगह 100 करोड़ क्यों दिया गया
स्कूल वर्दी मामले में ब्लैक लिस्ट हुई फर्म की रोकी गयी पेमैन्ट क्यों कर दी गयी
राजकुमार राजेन्द्र सिंह मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले पर अमल क्यों नहीं
मकलोड़गंज प्रकरण में दोषीयों को बचाने का प्रयास क्यों?


शिमला/शैल। जयराम सरकार ने राजीव बिन्दल के जिस मामले को अदालत से वापिस ले लिया था और प्रदेश उच्च न्यायालय ने भी उस पर कोई एतराज नहीं जताया था उसका आज सर्वोच्च न्यायालय में पहुंच जाना तथा सरकार सहित सभी को नोटिस जारी हो जाना भ्रष्टाचार को लेकर जयराम सरकार की नीयत और नीति दोनों पर गंभीर सवाल खड़े करता है। क्योंकि मामले की जिस स्टेज पर इसे वापिस लिया गया था इस पर यह न्याय संगत नहीं बनता था। सर्वोच्च न्यायालय ने इस सम्बन्ध में बड़ी स्पष्ट व्यवस्था दे रखी है। शैल ने उस समय भी इसका स्पष्ट उल्लेख किया था। स्वभाविक है कि जब कानून को सीधे नज़र अन्दाज करके कोई ऐसा कदम उठाया जाता है तो उसके पीछे राजनीतिक कारण ही प्रभावी रहते हैं। आज जब यह मामला एक अन्तराल के बाद सर्वोच्च न्यायालय में पहुंचा है तो उसके पीछे भी निश्चित रूप से राजनीतिक कारणों के होने को नकारा नहीं जा सकता।
इस मामले का राजनीतिक प्रतिफल क्या होगा इस पर चर्चा करने से पहले यह देखना आवश्यक हो जाता है कि भ्रष्टाचार पर जयराम सरकार का आचरण क्या रहा है इस सरकार ने 2017 दिसम्बर के अन्त में सत्ता संभाली थी। 2018 में हाईड्रो इंजिनियरिंग कालिज के निर्माण के कार्य के लिये ठेकेदारों से निविदायें मांगने का काम भारत सरकार के उपक्रम ने किया। इसमें जो निविदायें आयी उनमें न्यूनतम निविदा 92 करोड़ थी और अधिकतम 100 करोड़ थी। यह काम 92 करोड़ वाले को न देकर 100 करोड़ वाले को दिया गया क्योंकि उसने निविदा की प्रक्रिया पूरी होने से बहुत पहले ही काम शुरू कर दिया था। उसे शायद आश्वासन हासिल था कि काम उसे ही मिलेगा। इस पर कांग्रेस विधायक रामलाल ठाकुर ने एक पत्रकार वार्ता करके इसे उठाया भी था। विधानसभा में भी दो बार यह प्रश्न लगा लेकिन चर्चा तक नहीं आ पाया। यह सौ करोड़ हिमाचल सरकार का है। लेकिन सरकार ने एक बार भी यह जानने का प्रयास नहीं किया कि आठ करोड़ ज्यादा क्यों खर्च किया जा रहा है। यह निर्माण 2019 में ही पूरा होना था। परन्तु 2020 के अन्त तक भी पूरा नहीं हुआ है। निश्चित है कि यह राशी 100 करोड़ से भी बढ़ जायेगी। क्या इसे भ्रष्टचार को संरक्षण देना नहीं माना जाना चाहिये? कांग्रेस के शाासन काल में स्कूल यूनिर्फाम खरीद को लेकर विधानसभा तक में हंगाम हुआ था। बर्दीयों की गुणवत्ता पर आरोप लगा था और सप्लाई करने वाली फर्म को ब्लैक लिस्ट करने के साथ ही जुर्माने के तौर पर 10 करोड़ से अधिक की पैमेन्ट रोक दी गयी थी। इस खरीद पर हंगामा भी भाजपा ने ही किया था। लेकिन भाजपा की सरकार बनते ही बिना किसी जुर्माने के यह पेमैन्ट कर दी गयी। इससे भी भ्रष्टाचार के प्रति इस सरकार की गंभीरता का आकलन किया जा सकता है। खाद्य एवम आपूर्ति निगम में जिस अधिकारी ने यह पेमैन्ट करने में सहयोग किया है उसे सेवानिवृति के बाद पुनः नियुक्ति देकर नवाजा गया है। मकलोड़गंज प्रकरण में तो अदालत ने आधा दर्जन से अधिक विभागों की भूमिका पर गंभीर आक्षेप लगाये हैं। जयराम सरकार ने इस में नामित विभागों के अधिकारियों को संरक्षण देने के लिये अदालत की टिप्पणीयों तक का गंभीर संज्ञान नहीं लिया है। सर्वोच्च न्यायालय पूर्व में भी मकलोड़गंज प्रकरण में सरकार पर भारी जुर्माना लगा चुका है। अब भी जिस तरह का आचरण सरकार ने इस मामले में दिखाया है उससे अब भी शीर्ष अदालत में सरकार पर भारी जुर्माना लगना तय माना जा रहा है। यह सब शायद उस अधिकारी को बचाने के लिये किया जा रहा है मकलोड़गंज प्रकरण के समय परिवहन निगम का प्रबन्ध निदेशक था और आज भी सेवानिवृति के बाद ताजपोशी लेकर बैठा है। वैसे इस सरकार के कार्यकाल में सर्वोच्च न्यायालय कई मामलों में सरकार पर जुर्माने लगा चुका है। लेकिन सरकार एक भी मामले में संवद्ध अधिकारियों की जवाब तलबी तक नहीं कर सकी है।
भ्रष्टाचार को सरंक्षण देने के लिये जो सरकार सर्वोच्च न्यायालय के फैसले पर भी अमल करने को टालती रहे उसके बारे में क्या राय बनायी जानी चाहिये इसका फैसला पाठक स्वंय कर सकते हैं। स्मरणीय है कि प्रदेश सरकार ने 31 अक्तूबर 1997 को भ्रष्टाचार के लिखाफ खुली लड़ाई लड़ने के लिये एक रिवार्ड स्कीम अधिसूचित की थी। इसमें आयी शिकायत पर एक माह के भीतर प्रारम्भिक जांच पूरी करने का प्रावधान किया गया था। लेकिन आज तक किसी भी शिकायत पर ऐसा हो नहीं सका है। 1997 की अधिसूचित इस योजना के लिये नियम आज तक कोई सरकार नहीं बना पायी है। इस योजना के तहत एक शिकायत 21 नवम्बर 1997 को राज कुमार राजेन्द्र सिंह को लेकर दायर की गयी थी। उच्च न्यायालय ने भी इस शिकायत की जांच शीघ्र पूरा करने के निर्देश दिये थे। लेकिन यह जांच हो नहीं पायी। अन्ततः यही मामला एक अन्य संद्धर्भ में सर्वोच्च न्यायालय में इस शिकायत के काफी समय बाद पहुंच गया। इस पर सर्वोच्च न्यायालय ने सितम्बर 2018 में फैसला दिया और साफ कहा कि राजेन्द्र सिंह परिवार का आचरण इसमें पूरा फ्राड रहा है तथा इससे 12% ब्याज सहित सारे मिले लाभों की रिकवरी दो माह के भीतर की जाये। लेकिन अभी तक सरकार इस पर अमल नहीं कर पायी है। जबकि इसमें सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की कापी लगाकर मूल शिकायत कर्ता ने सचिव विजिलैन्स को ज्ञापन सौंप रखा है। लेकिन सरकार इस मामले को आज भी दबाने का प्रयास कर रही है जबकि कायदे से तो फ्राड के लिये अलग से आपराधिक मामला दर्ज किया जाना चाहिये था।
अभी पिछले दिनों जब पूर्व मन्त्री विजय सिंह मनकोटिया ने जयराम की मंत्री सरवीण चौधरी के परिजनों की जमीन खरीद मामलों पर सवाल उठाये तो यह प्रसंग मन्त्री मेहन्द्र सिंह तक भी जा पहुंचा। सरकार इस मामले में जांच करवाने को तैयार है इस आशय के सामचार तक छप गये। लेकिन इन्त में सरकार एक कदम भी आगे नहीं बढ़ पायी क्योंकि कई और नेता इस तरह के आरोपों में घिर जायेंगे ऐसी संभावनाएं उभर आयी थी। इस परिदृश्य में यह स्पष्ट हो जाता है कि यह सरकार भ्रष्टाचार के प्रति कतई गंभीर नही है। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठाने वालों की आवाज़ बन्द करने के लिये किसी भी हद तक जा सकती है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि राजीव बिन्दल का मामला सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचाने में राजनीतिक सक्रियता की भूमिका से इन्कार नहीं किया जा सकता। अब सर्वोच्च न्यायालय में इस मामले की पैरवी वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण कर रहे हैं इसलिये सबकी नज़रें इस पर लग गयी हैं और इसका असर भाजपा की अपनी राजनीति पर भी पड़ेगा यह तय है। क्योंकि इसी मामले के साथ भ्रष्टाचार के अन्य मामले और उनपर सरकार का आचरण स्वतः ही चर्चा का विषय बन जाता है। इसी के साथ यह सवाल भी उठ रहा है कि क्या प्रशासन ने इन मामलों की जानकारी मुख्यमन्त्री तक आने भी दी है या नहीं। क्योंकि यदि मुख्यमन्त्री के संज्ञान में होते हुए भी यह सब हो रहा है तो इससे पार्टी की पूरी सोच को लेकर ही सारा आकलन बदल जाता है। क्योंकि आने वाले दिनों में सरवीण चौधरी की तर्ज पर ही बिन्दल की परोक्ष/अपरोक्ष प्रतिक्रियाएं आयेंगी ही यह भी तय है।

जयराम सरकार की नज़र भी है आपकी खाली ज़मीनों पर

शिमला/शैल। मुख्यमन्त्री जयराम ठाकुर ने इस वित्तिय वर्ष 2020 -21 का बजट सदन के पटल पर रखते हुए अपने वक्तव्य में एक घोषणा की थी। वक्तव्य के 32वें बिन्दु में यह कहा था कि प्रदेश के बहुत से किसान परिवार निजी कारणों से गांव छोड़कर शहर में निवास कर रहे हैं या उनके बच्चे बाहर रहते हैं। परिणामस्वरूप उनकी कृषि भूमि खाली पड़ी रहती है। हमारी सरकार माननीय सदन के सभी दलों के सदस्यों की एक कमेटी बनाना प्रस्तावित करती है जो कि खाली पड़ी भूमि को किसी अन्य, सिर्फ हिमाचली कृषक, को खेतीबाड़ी हेतु देने की व्यवस्था बारे अध्ययन करके अपने सुझाव प्रस्तुत करेगी। इससे प्रदेश में कृषि उत्पादन को बल मिलेगा तथा किसानों की आर्थिकी भी सुधरेगी। इस घोषणा के अनुसार अभी तक ऐसी किसी कमेटी का कोई गठन नहीं हुआ है और न ही सरकार की ओर से कोई योजना आयी है कि कैसे हमारी खाली पड़ी हुई ज़मीनों को सरकार दूसरे लोगों को कृषि के लिये देगी। मुख्यमन्त्री ने यह योजना बजट में घोषित की थी। लेकिन बजट सत्र पूरा होने से पहले ही कोरोना के कारण लाकडाऊन लग गया था। मार्च में लाकडाऊन लगा और जून में मोदी सरकार कृषि ऊपज को लेकर तीन कानून ले आयी। यह कानून 2014 में शान्ता कुमार की अध्यक्षता में गठित एक उच्च स्तरीय कमेटी की सिफारिशों के आधार पर लाये गये हैं यह इस कमेटी की रिपोर्ट देखने के बाद स्पष्ट हो जाता है। शान्ता कमेटी की सिफारिशों और इन विवादित कानूनों को पढ़ने के बाद यह भी स्पष्ट हो जाता है कि मोदी सरकार कृषि क्षेत्र में प्राइवेट क्षेत्र को लाने के लिये एक बहुत ही सुनियोजित योजनाबद्ध तरीके से काम कर रही है। जयराम सरकार की घोषणा को यदि इस आईने से देखा जाये तो स्थिति और भी स्पष्ट हो जाती है। क्योंकि इस प्रदेश में ऐसा कोई नियम कानून का प्रावधान नहीं है जिसके तहत सरकार एक किसान की खाली पड़ी ज़मीन को दूसरे किसान को देने की बात कर सके। प्राईवेट ज़मीन पर सरकार का कोई दखल नहीं होता है लेकिन नये आये कानूनों के माध्यम से जिस तरह से कान्ट्रैक्ट फार्मिंग की बात की बात की गयी है और इसके लिये ऐसे लीज़ नियम बनाने की बात की जा रही है जो कान्ट्रैक्ट के हितों की रक्षा कर सकें। शान्ता कमेटी ने स्पष्ट सिफारिश की है कि प्रदेशों में इस आश्य के लैण्डलीज़ नियम बनाये जाये। जयराम की बजट घोषणा से यह भी संकेत उभरता है कि इसको अलग-अलग नामों से भी अंजाम देने की योजना हो सकती है। सरकार तरीका जो चाहे वह अपनाये लेकिन उसकी अन्तिम नजऱ किसान की ज़मीन तक पहुंचना है यह स्पष्ट हो जाता है। हैरानी इस बात की है कि इतनी बड़ी घोषणा पर अभी तक न तो राजनीतिक दलों/नेताओं और न ही मीडिया में कोई चर्चा उठ सकी है जबकि इन कानूनों के परिदृश्य में यह एक बड़ा सवाल हो जाता है। क्योंकि इस समय प्रधानमन्त्री से लेकर नीचे तक भाजपा का हर कार्यकर्ता और नेता इन कानूनों के लाभ गिनाने में लगा हुआ है।
इन कानूनों के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि इनके माध्यम से कृषि क्षेत्र में बड़े पैमाने पर प्राईवेट सैक्टर का दखल हो जायेगा। इस समय ही देश में वालमार्ट जैसे अन्तर्राष्ट्रीय प्लेयर आ चुके हैं। इसी को देखते हुए अंबानी और अदानी जैसे घराने कृषिक्षेत्र में आ रहे हैं। सरकार इन घरानों की मदद के लिये किस कदर प्रयासरत रही है इसका खुलासा हरियाणा सरकार के इस पत्र से हो जाता है। जब देश में लाकडाऊन चल रहा था तब 7 मई को हरियाणा सरकार अदानी ग्रुप को 90015.623 वर्ग मीटर जगह पानीपत में वेयर हाऊस की स्थापना के लिये दे रही थी। पंजाब हरियाणा सहित देशभर में अकेले अदानी के ही इतने वेयर हाऊस हैं जिनकी भण्डारण क्षमता पूरी एफसीआई की क्षमता से कई लाख टन अधिक है। सरकार ने अदानी को यह ज़मीन मई में दी और अपने कानून जून में लायी। क्या इससे यह स्पष्ट नहीं हो जाता है कि अदानी को सरकार की योजनाओं का पहले से ही ज्ञान था। बल्कि यह कहना ज्यादा संगत होगा कि अदानी के अनुसार ही सरकार नियम कानून बना रही थी। शान्ता कमेटी ने तो अपनी सिफारिशों में 2015 में ही यह कह दिया था HLC recommends that FCL should outsource its stocking operations to various agencies such as Central Warehousing Corporation, state Warehousing Corporation, Private Sector under Private Entrepreneur Guarantee (PEG) scheme, and even state governments that are building silos through private sector on state lands (as in Madhya Pradesh) it should be done on competitive bidding basis, inviting various stakeholders and creating competition to bring down costs of storage.

India needs more bulk handling facilities than it currently has. Many of FCI’s old conventional storages that have existed for long number of years can be converted to silos with the help of private sector and other stocking agencies. Better mechanization is needed in all silos as well as conventional storages.

राजधानी में बिना अनुमतियों के ग्यारह मंजिला निर्माण

अदालत के आदेश के वाबजूद कोई कारवाई नही
सभी विभागों/अधिकारियों ने रखी आंखे बन्द
स्थानीय पार्षद तक भी रहे चुप
क्या यह सब किसी बड़े के आशीर्वाद के बिना संभव हो सकता है?


शिमला/शैल। क्या राजधानी नगर शिमला में भी बिना अनुमति के कोई ग्यारह मंजिला निर्माण बन सकता हैै। यह सवाल इसलिये उठता है कि शिमला में नगर निगम है और एनजीटी के 16-10-2017 के फैसले के अनुसार यहां पर अढ़ाई मंजिल से अधिक का कोई निर्माण हो ही नही सकता। ऐसे में जब कोई ऐसा निर्माण हो जाये और प्रदेश उच्च न्यायालय तथा एनजीटी में यह तथ्य सामने आये कि इस निर्माण के पास वांच्छित अनुमतियां नही हैं तो इसके लिये किसे दोष दिया जाये? क्या यह पूरी सरकार और उसके तन्त्र पर सवाल नही उठता कि आखिर सरकार चल कैसे रही है। कोरोना काल में हुए इस निर्माण को लेकर जब एक शिकायत एनजीटी में गयी तब एनजीटी ने अपने फैसले में साफ कहा है किIt is patent from the above that the project proponent does not have Environmental Clearance (EC) apart from other violations. There is nothing to show compliance of requirement of Air and Water Acts. In view of this position, the Director, Town and Country Planning, H.P, Commissioner, Municipal Corporation, Shimla, SEIAA, Himachal Pradesh and the State PCB may ensure that the  project does not proceed further in violation of law. Action may also be taken  for prosecution and assessment  and recovery of environmental compensation, following due process of law. Further report in the matter be filed on or before on 31.08.2020 by email at This email address is being protected from spambots. You need JavaScript enabled to view it..
लेकिन इन आदेशों पर आज तक अमल नही हो पाया है। प्रदेश उच्च न्यायालय में भी जब यह मामला आया था तब उच्च न्यायालय ने भी यह कहा है कि Be that as it may, the rejection of the afore espousal of the plaintiff in COMS no. 23 of 2018, would not relive M/s Nirvana Woods and Hotels Pvt. Ltd. of the dire obligations, of its ensuring its raising constructions, upon, the suit land, upon its theirs holding a, valid sanction, from the authorities concerned vis-a vis, the proposed construction. In sequel the contesting defendants are permitted to raise construction, only upon, its holding a validly meted sanction by the authorities concerned, and also if construction is commenced by M/s Nirvana Woods and Hotels Pvt. Ltd., fling an affidavit with a clear disclosure therein, that, it would not claim any equities in the construction raised upon, the suit land.

एनजीटी और प्रदेश उच्च न्यायालय की इन टिप्पणीयों से स्पष्ट हो जाता है कि इस निर्माण में लगी निर्वाणा वुडज़ एण्ड होटल प्रा.लि. के पास निर्माण की आवश्यक अनुमतियां नही हैं। प्रदेश उच्च न्यायालय के बाद यह मामला रेरा में भी गया था। रेरा ने इस पर 3-1-2020 को फैसला दिया और केवल निर्माता के पंजीकरण तक ही अपने को सीमित रखा। In view of the foregoing submissions, and after perusal of the case file & after hearing the disputing parties along with the counsel present, official record along with the directions passes by the Hon’ble High Court of Himachal Pradesh vide its order dated 13-08-2019, the real estate project of  M/s Nirvana Woods and Hotels Pvt. Ltd is fit for registration under the provisions of the Real Estate (Regulation and    Development ) Act, 2016. The real estate project may be registered strictly in  consonance with the provisions of the Real      Estate( Regulation and  Development Rules, 2017 subject to the further orders of the Hon’ble High Court of Himachal Pradesh in this matter.  
इस परिदृश्य में यदि पूरे मामले पर नजर डाली जाये तो सामने आता है कि निर्वाणा वुडज़ एण्ड होटल प्रा.लि. ने टीसीपी से आवासीय कालोनी के निर्माण के लिये अनुमति ली थी। यह निर्माण नगर निगम शिमला के टूटी कण्डी वार्ड के रिड़का में प्रस्तावित था। इसके लिये ज़मीन खरीद की अनुमति सरकार से 26-4-2017 को दी गयी थी। यह निर्माण नगर निगम शिमला के क्षेत्र में होना था और हुआ भी है। इस नाते इसका नक्शा नगर निगम द्वारा पारित किया जाना था। लेकिन यह नक्शा नगर निगम की बजाये साडा शोघी द्वारा 18-1-2017 को पारित किया गया। नगर निगम क्षेत्र में साडा शोघी का अधिकार क्षेत्र कैसे बन गया इस सवाल का जवाब आज तक नही आया है। टीसीपी से आवासीय कालोनी के निर्माण की अनुमति ली गयी थी और अब इसमें होटल के संचालक की अनुमति पर्यटन विभाग से मांगी जा रही है। निदेशक पर्यटन के 4-6-2020 के पत्र के अनुसार यह पर्यटन के नियमों/मानकों के तहत उल्लघंना का मामला बनता है।
पर्यटन विभाग एक ओर इसे नियमांे /मानकों की उल्लघंना का मामला मान रहा है तो दूसरी ओर होटल निरीक्षक से इसका निरीक्षण भी करवा रहा है। निरीक्षण रिपोर्ट के मुताबिक निर्माण की स्थिति यह है
निरीक्षण रिपोर्ट से स्पष्ट हो जाता है कि यहां पर बड़ा निवेश किया गया है। रिकार्ड से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि यह सारा निर्माण एनजीटी के 16-11-2017 के फैसले के बाद हुआ है क्योंकि ज़मीन खरीद की ही अनुमति 2017 में मिली है। एनजीटी के फैसले के बाद नगर निगम क्षे़त्र में ग्यारह मंजिले निर्माण की अनुमति मिलना संभव नही था इसलिये साडा का रास्ता अपनाया गया। रेरा में जब मामला गया तब भी यह अनुमतियां न होने का तथ्य उसके सामने था। लेकिन रेरा ने अपने को केवल पंजीकरण तक ही सीमित रखा और 28-1-2020 को रेरा के तहत यह पंजीकरण हुआ। टूटी कण्डी वार्ड में यह निर्माण हुआ है लेकिन यह रहस्य बना हुआ है कि वहां के पार्षद ने भी इसका कोई संज्ञान नही लिया और नगर निगम के संज्ञान में इसे लाया। इस तरह हर संवद्ध अधिकारी/विभाग ने बिना अनुमतियों के हो रहे इस निर्माण पर अपनी आखें बन्द रखी। यहां तक की अदालत के आदेशों के वाबजूद किसी के खिलाफ कोई कारवाई नही हुई। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि क्या यह सब कुछ किसी बड़े के आशीर्वाद के बिना संभव है जो पूरे तन्त्र पर भारी पड़ा है।

प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड फिर सवालों में

बाॅस फार्मा, वर्धमान और विनसम उद्योगों सेे उठी चर्चा

शिमला/शैल। पर्यावरण की सुरक्षा और प्रदूषण पर नियन्त्रण रखने की जिम्मेदारीयों के लिये ही केन्द्र से लेकर राज्यों तक प्रदूषण नियन्त्रण बोर्डों का गठन किया गया है। किसी भी उद्योग को उसकी स्थापना और आप्रेशन शुरू करने से पहले उद्योग तथा प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड से आवश्यक अनुमति लेनी अनिवार्य होती है। यही नहीं आप्रेशन शुरू होने के बाद भी उद्योगों का समय -समय पर निरीक्षण करके यह सुनिश्चित करना की कहीं पर्यावरण और प्रदूषण के मानकों का उल्लघंन तो नहीं हो रहा है यह जिम्मेदारी भी प्रदूषण बोर्ड की ही है। मानकों की उल्लघंना पर संबंधित उद्योग को बन्द करने तक का फरमान प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड जारी कर सकता है। प्रदूषण बोर्ड के इन अधिकारों का क्या संबंधित अधिकारी ईमानदारी से प्रयोग कर रहे हैं या यह अधिकार उत्पीड़न का माध्यम बनते जा रहे हैं इसको लेकर अब कई तरह की चर्चाएं उठनी शुरू हो गयी हैं।
चर्चाएं बद्दी, नालागढ़ क्षेत्र में बाॅस फार्मा उद्योग, वर्धमान और विनसम उद्योगों को लेकर सामने आयी हैं। बाॅस फार्मा उद्योग में बोर्ड ने अपने ही पूर्व के फैसलों को मानने से इन्कार कर दिया। इस इन्कार पर उद्योग को प्रदेश उच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाना पड़ा है। वर्धमान और विनसम उद्योगों पर प्रदूषण के मानकों की अनुपालना न करने का आरोप है। इस आरोप पर इन उद्योगों के खिलाफ कड़ी कारवाई करने की बात आयी। यहां तक प्रस्ताव आया कि इनकी बिजली-पानी काटकर इनमें उत्पादन बन्द करवा दिया। यह प्रस्ताव उच्च स्तर तक गया लेकिन इसी बीच किसी कोने से दबाव आ गया और उच्च स्तर पर जाकर भी यह प्रस्ताव अमली शक्ल नहीं ले पाया। स्वभाविक है कि जब इस स्तर पर जाकर इस तरह की स्थिति होगी तो उस पर चर्चाएं तो उठेंगी ही।
स्मरणीय है कि जब होटलों और अन्य अवैध निर्माणों को लेकर उच्च न्यायालय में याचिकाएं आयी थी तब अदालत ने पर्यटन, टीसीपी, लोक निर्माण के साथ-साथ प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड से भी जवाब तलबी की थी। इसी जवाब तलबी की प्रक्रिया के परिणाम स्वरूप कसौली कांड घटा था। एनजीटी ने प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड और टीसीपी के कुछ अधिकारियों को वाकायदा नामजद करते हुए उनके खिलाफ कारवाई करने के आदेश दिये थे। लेकिन इन आदेशों पर आज तक कोई अमल नही हुआ है। स्वभाविक है कि इसके लिये बड़े स्तर का दबाव रहा होगा।
इसके बाद एनजीटी के पास कांगड़ा के मंड क्षेत्र में हो रहे अवैध खनन का एक मामला आया था। मंड पर्यावरण संरक्षण परिषद ने यह मामला उठाया था। इस पर जिलाधीश कांगड़ा और प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड से 21-12-2018 को जबाव मांगा गया था। बोर्ड ने 6-3-2019 को इस पर अपनी रिपोर्ट सौंपी थी। शपथ पत्र के साथ सौंपी गयी इस रिपोर्ट में बोर्ड ने इस मामले को सीधे अवैध खनिज का मामला करार देते कह दिया कि यह उनके अधिकार क्षेत्र में आता ही नहीं है। इसे उद्योग विभाग के जियोलोजिकल प्रभाग का मामला बताते हुए यह कह दिया कि यह 1957 के खनिज अधिनियम के तहत संचालित और नियन्त्रित होता है।
प्रदूषण बोर्ड के इस जबाव का कड़ा संज्ञान लेते हुए यह कहा कि बोर्ड के सदस्य सचिव को पर्यावरण के नियमों का ही पूरा ज्ञान नहीं है। पर्यावरण को लेकर प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है। एनजीटी ने अपने आदेश में प्रदेश के मुख्य सचिव को भी निर्देश दिये हैं कि वह बोर्ड के सदस्य सचिव को पर्यावरण के नियमों का पूरा ज्ञान अर्जित करने की व्यवस्था करें। 26 मार्च 2019 को आये इस आदेश पर सरकार में आज तक कोई अमल नहीं हुआ है। प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड में सदस्य सचिव और चेयरमैन की शैक्षणिक योग्यता को लेकर बहुत पहले ही मामला अदालत तक जा चुका है। अदालत ने साफ निर्देश दिये हैं कि इन पदों पर उन्ही लोगों को नियुक्त किया जाये जो पर्यावरण के नियमों का पूरा ज्ञान रखते हों। अदालत के इन निर्देशों की अनुपालना सुनिश्चित करने के ज्यादा प्रयास नही हुए हैं। कसौली कांड़ में तो बोर्ड के अधिकारियों ने ही अदालत को नियमों की अलग-अलग जानकारी और व्याख्या दे दी थी। अदालत को ही यह कह दिया था कि उसके नियमों में ऐसा कोई प्रावधान ही नहीं है। इस पर सदस्य सचिव ने सही स्थिति अदालत के सामने रखी थी। अदालत ने अधिकारी की गलत ब्यानी का कडा संज्ञान लेते हुए इस अधिकारी के खिलाफ कारवाई करने के निर्देश दिये थे जिन पर आज तक अमल नहीं हुआ है। इसी सब का परिणाम है कि आज प्रदूषण बोर्ड बाॅस फार्मा, वर्धमान और विनसम उद्योगों के संद्धर्भ में फिर चर्चाओं का केन्द्र बन गया है।

प्रदेश में तीन वर्षों में हुई 1,34,430 मौतों का जबाव क्या है

कोरोना के संद्धर्भ में उठते सवाल
तब कोई लाॅकडाऊन क्यों नही हुआ था
क्या शासन-प्रशासन तब गैर जिम्मेदार था
जब शून्य आंकड़ों पर लाॅकडाऊन था तो अब चालीस हज़ार पर क्यों नही?
जब राजनीतिक गतिविधियां चल रही हैं तो अन्य पर पाबन्दी क्यों?

शिमला/शैल। प्रदेश में कोरोना के आंकड़े हर रोज़ जिस तेजी से बढ़ रहे हैं और सरकार के प्रबन्ध उसी अनुपात में नाकाफी सिद्ध हो रहे हैं उससे कोरोना को लेकर अपनाई जा रही नीति के साथ नीयत पर भी सवाल उठने शुरू हो गये हैं। केन्द्र से लेकर राज्य तक दोनों पर एक साथ सवाल उठ रहे हैं। क्योंकि जब लाॅकडाऊन लगाकर इसे फैलाने से रोकने का दावा किया गया था तब देशभर में इसके केवल पांच सौ मामले थे और प्रदेश में यह आंकड़ा शून्य था। लाॅकडाऊन लगाने कीे देश की जनता को कोई पूर्व सूचना नही दी गयी थी। जब महामारी अधिनियम के अनुसार एक सप्ताह का समय दिया जाना चाहिये था। यदि यह एक सप्ताह का समय दे दिया जाता तो शायद प्रवासी मज़दूरों की समस्या का आकार भी इतना न बढ़ता। यह पहली नीति संबंधी बड़ी गलती थी। यहीं पर एक और गलती हो गयी और वह यह भी कि जब पूर्व में महामारीयां आती रही हैं तब किस तरह के कदम उठाकर उनका सामना किया जाता रहा है। पिछले सौ वर्षों का इतिहास बताता है कि हर दस पन्द्रह वर्ष के अन्तराल के बाद कोई न कोई महामारी विश्व के किसी न किसी हिस्से में आती रही है और पूरा विश्व उससे प्रभावित होता रहा है। यह सारा रिकार्ड उपलब्ध है इसे देखने समझने का प्रयास न राजनीतिक नेतृत्व ने किया और न ही प्रशासनिक नेतृत्व ने। 

स्वाईन फ्लू इसका सबसे ताजा उदाहरण है। अमेरिका से शुरू हुई इस महामारी ने भारत को 2015 से 2017 तक ज्यादा प्रभावित किया। हिमाचल में तो फरवरी 2020 तक इसके केस रहे। आईजीएमसी, धर्मशाला और मण्डी में इसके ग्याहर मामले थे। 2019 में मुख्यमन्त्री जयराम ठाकुर ने ही एक पत्रकार वार्ता करके इसके लिये अलग से आईसीयू बैड की व्यवस्था करने के निर्देश दिये हुए हैं। हर जन्म और मृत्यु का पंजीकरण होता है यह नियम है। अस्पताल में जिस मरीज की मृत्यु हो जाती है उसकी मृत्यु पर अस्पताल सर्टीफिकेट जारी करता है। 2015 में देशभर में अस्पतालों के बाहर जो मौतें हुई हैं उनका आंकड़ा था 62,67,685, 2016 में 63,49,259, 2017 में 6463779 और 2018 में 6950607. हिमाचल प्रदेश में अस्पतालों से बाहर हुई मौतों का आंकड़ा 2015 में 41462, 2016 में 35819, 2017 में 39114 और 2018 में 41833. प्रदेश के अस्तपालों में मरने वालों का आकड़ा 2015 में 5152, 2016 में 5685, 2017 में 5690 और 2018 में 6289. यह आंकड़े केन्द्र सरकार के गृह मन्त्रालय द्वारा तैयार की गयी और गृह मन्त्री द्वारा संसद में रखी गयी रिपोर्ट में दर्ज हैं।

जब इतनी मौतें हो रही थी तब आज की तरह लाॅकडाऊन आदि के कदम क्यों नही उठाये गये थे? क्या यह सवाल नहीं पूछा जाना चाहिये? तब भी यही प्रशासन और राजनीतिक नेतृत्व था। हिमाचल में ही इन तीन वर्षों में 1,32,922 मौतें हुई हैं। क्या उस दौरान प्रदेश में किसी ने भी इसका संज्ञान लेकर कोई हाय तोबा मचाई शायद नही? क्या उस समय का शासन प्रशासन गैर जिम्मेदार था। डाक्टरों के मुताबिक स्वाईन फ्लू कोरोना से गंभीर था। उसका संक्रमण ज्यादा भयानक था। आज कोरोना को लेकर बचाव के जो उपाय सुझाये जा रहे हैं वह एक सामान्य फ्लू वाले ही हैं। किन्ही भी दो विशेषज्ञों की राय एक नही है। क्योंकि किसी भी बिमारी में उसका ईलाज खोजने के लिये उससे हुई मौतों का पोस्टमार्टम करके पूरी जांच की जाती है। लेकिन कोरोना के मृतकों का कोई पोस्टमार्टम नही किया गया। जब इटली ने इसमें पोस्टमार्टम की शुरूआत की तब हमारे यहां पोस्टमार्टम शुरू हुए हैं जिनकी रिपोर्ट अभी तक नही आयी है। इटली की रिपोर्ट जो सोशल मीडिया के मंच से बाहर आयी है उसे फैक्ट चेक में फेक नही कहा गया है केवल उसके दावों को गलत कहकर डब्ल्यूएचओ के पक्ष को सही ठहराने का प्रयास किया जा रहा है। आज कोरोना को लेकर जिस तरह के डर का माहौल खड़ा हो गया है उस डर से बाहर निकलने के सारे रास्ते बन्द कर दिये गये है क्योंकि यह डर किसी व्यक्ति द्वारा नही बल्कि स्वयं सरकार द्वारा फैलाया गया है और सरकार इसे अपनी नीतिगत गलती मानने को तैयार नही हैं।
इस परिदृश्य में यदि प्रदेश का आकलन किया जाये तो इस समय कोरोना के संक्रमितों का आंकड़ा चालीस हज़ार पार कर चुका है। यह आंकड़ा कंहा जाकर रूकेगा यह कहना कठिन हैं इन बढ़ते आंकड़ों के परिणाम स्वरूप प्रदेश के शैक्षणिक संस्थान 31 दिसम्बर तक बन्द है। सरकारी कार्यालयों में 31 दिसम्बर तक हर शनिवार घर से ही काम करने का फैसला लिया गया है। समारोहों में अधिकतम संख्या 50 कर दी गयी है और प्रशासन यह सुनिश्चित कर रहा है कि मास्क न पहनने पर जुर्माने के साथ जेल का भी प्रावधान जोड़ दिया गया है। अब तक करीब दो करोड़ का जुर्माना वसूला जा चुका है। उच्च न्यायालय सरकार से प्रबन्धों पर लगातार रिपोर्ट तलब कर रहा है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी केन्द्र से लेकर राज्यों तक से प्रबन्धों पर शपथपत्र दायर करने को कहा है। इस तरह बढ़ते आंकड़ों के परिदृश्य में जो भी कदम उठाये गये हैं उनसे महामारी की गंभीरता और उसी अनुपात में आम आदमी के मन में इसके प्रति बढ़ता डर दोनांे एक साथ सामने आ जाते हैं। यहीं से यह सवाल भी स्वभाविक रूप से उठता है कि जब आंकड़ों की संख्या देश में पांच सौ और प्रदेश में शून्य थी तब तो लाॅकडाऊन कर दिया गया तो अब क्यों नही? क्या इस दौरान बिमारी से निपटने के लिये सक्षम साधन जुटा लिये गये हैं? व्यवहार में तो साधनों पर लगातार सवाल उठ रहे हैं।
इसी के साथ एक बड़ा सवाल यह खड़ा हो रहा है कि इन बढ़ते आंकड़ो के बावजूद राजनीतिक गतिविधियों पर कहीं कोई विराम नही लग रहा है। इसमें भी सत्तापक्ष का शीर्ष नेतृत्व केन्द्र से लेकर राज्यों तक राजनीतिक गतिविधियों में ईमानदारी से लगा हुआ है। नेताओं की रैलीयों में सारे निर्देशों की खुलकर अवहेलना हो रही है क्योंकि इन रैलीयों में इनकी अनुपालना संभव ही नही है। पंचायत से लेकर विधानसभा तक चुनाव हो रहे हंै और उनमें चुनाव प्रचार भी हो रहा है। अब प्रदेश विधानसभा का शीतकालीन सत्र होने जा रहा है। इसके बाद सरकार के तीन वर्ष पूरे होने का जश्न मनाया जायेगा। इन गतिविधियों में कोरोना कहीं आड़े नही आ रहा है। इस तरह का आचरण जब आदमी के सामने आ रहा है तब उसके मन में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि कोरोना के भय का शिकार उसे ही क्यों बनाया जा रहा है।





























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