Saturday, 20 December 2025
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क्या प्रदेश में महिला मुख्यमन्त्री लाने के प्रयास हो रहे हैं

शिमला/शैल। इस समय भाजपा शासित किसी भी राज्य में महिला मुख्यमन्त्री नहीं है। केन्द्रिय मन्त्रीमण्डल के फेरबदल मे इस बार महिलाओं को अधिमान दिया गया है। लेकिन कोई भी महिला मुख्यमन्त्री न होना भाजपा हाई कमान में सूत्रों के मुताबिक चिन्ता और चिन्तन का विषय बना हुआ है। प्रदेश भाजपा कोर कमेटी की जब शिमला और धर्मशाला में मन्थन बैठक हुई थी और उसमें सरकार तथा संगठन के काम काज का आकलन हुआ था। तब उसी दौरान दिल्ली में भाजपा अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा तथा प्रदेश से राज्य सभा सांसद महिला मोर्चा की राष्ट्रीय महामन्त्री इन्दु गोस्वामी में भी एक बैठक हुई थी। प्रदेश कोर कमेटी की बैठक के बाद तैयार हुई रिपोर्ट कार्ड में बड़े पैमाने पर नान परफारमैन्स का जिक्र हुआ है यह बाहर आ चुका है। इसी के साथ जलशक्ति मन्त्री महेन्द्र सिंह के कुछ ब्यानों ने भी विवाद की स्थिति पैदा कर दी है। सरकार की वर्किंग को लेकर भी सवाल उठने शुरू हो गये हैं। प्रदेश के 47 कॉलिजों में नियमित प्रिंसिपल नहीं है। एचपीएमसी के परवाणु प्लांट से 60 लाख के जूस के गायब पाये जाने पर अभी कोई कारवाई सामने नहीं आयी है। परिवहन निगम द्वारा दो सौ बसें खरीदने का प्रयास किया जाना जबकि फील्ड से इस तरह की कोई मांग न आयी हो। बल्कि पहले से खरीदी हुई कई बसें अभी तक ऑपरेशन में ही नहीं आ पायी हैं। निगम में ड्राईवरों और परिचालकों के कई पर रिक्त हैं। सेवनिवृत कर्मीयों को पैन्शन आदि का नियमित भुगतान न हो पाने पर यही कर्मी पत्रकार वार्ताओं के माध्यम से अपनी समस्या सरकार और निगम प्रबन्धन के सामने रख चुके हैं। ऐसे हालात में भी नयी बसें खरीदने की कवायद करना सरकार की नियत और नीति पर सवाल उठायेगा ही। ऐसी वस्तुस्थिति जब हाई कमान के संज्ञान में आयेगी तो निश्चित रूप से इसका कड़ा संज्ञान लिया ही जायेगा।
सूत्रों की माने तो हाई कमान के सामने यह सारे मुद्दे आ चुके हैं। कोर कमेटी की बैठक के बाद जब प्रवक्ता ने नेतृत्व के प्रश्न पर जवाब दिया था उस जवाब पर भी शायद बीएल सन्तोष ने अप्रसन्नता व्यक्त की थी। प्रदेश की इन परिस्थितियों के परिदृश्य में अब जब मुख्यमन्त्री दिल्ली गये थे तब यह चर्चा फैल गयी थी कि शायद हाई कमान प्रदेश में महिला मुख्यमन्त्री लाने का प्रयोग करने जा रहा है। इस प्रयोग में इन्दु गोस्वामी का नाम सामने आया था। कांगड़ा में तो यह चर्चा बहुत जोरों पर थी बल्कि सचिवालय तक भी आ पहुंची थी। सूत्रों के मुताबिक इन्दु गोस्वामी के संज्ञान में भी यह सब रहा है और उन्होंने ऐसी चर्चाओं का कोई खण्डन भी नहीं किया है। माना जा रहा है कि भाजपा हाईकमान महिला मुख्यमन्त्री लाने का गंभीरता से विचार कर रहा है। यह प्रयोग हिमाचल में किया जाता है या किसी अन्य प्रदेश में इस पर सबकी निगाहें लगी हुई हैं। ऐसे में यदि मुख्यमन्त्री जयराम ठाकुर अपनी टीम में नॉन परफार्मरज़ के खिलाफ कोई कदम नही उठा पाते हैं तो आने वाले दिनों में कुछ कठिनाईयां बढ़ना तय है। वैसे इस नॉन परफार्मिंग का पता इन आने वाले उपचुनावों में लग जायेगा।

अपनी ही शर्तों पर राज किया है राजा ने

कुछ संस्मरण
वीरभद्र सिंह प्रदेश की राजनीति का वह अध्याय रहे हैं जिसे पढ़े बिना प्रदेश का कोई भी आकलन संभव नहीं होगा। क्योंकि जिस व्यक्ति को 1962 में स्व. पंडित जवाहर लाल नेहरू लाये हों और 2021 तक लगातार सक्रिय राजनीति में रहा हो तथा इसी बीच केन्द्र में मन्त्री होने के अतिरिक्त छः बार मुख्यमन्त्री बना हो वह स्वतः ही अपने में एक पूरी किताब बन जाता है। राजनीति में इतना लम्बा सफर और वह भी एक ही पार्टी में रहकर जिसने तय किया हो उसे शब्दों में आंकना संभव नहीं होगा। इतने लम्बे सफर में स्वभाविक है कि सैंकड़ों उनके संपर्क में आये होंगे और हरेक के पास कहने -सुनाने के लिये अलग -अलग कथा होगी। इसीलिये तो प्रदेश के हर कोने में हर आंख उनके लिये नम है।
वीरभद्र सिंह वह राजनेता रहे हैं जिन्होंने अपनी ही शर्तो पर राजनीति की है। कोई व्यक्ति ऐसा तब कर पाता है जब उसने अपने लिये अपनी ही संहिता उकेर रखी हो। 1962 से 1977 तक वह लगातार सांसद रहे। 1977 के चुनावों से पहले केन्द्र में उपमन्त्री बने। लेकिन 1977 का लोकसभा चुनाव जनता पार्टी की लहर में मण्डी से गंगा सिंह ठाकुर से हार गये। केन्द्र से लेकर राज्यों तक सभी जगह जनता पार्टी की सरकारें बन गयी। 1980 में जनता पार्टी टूट गयी और उसी के साथ जनता पार्टी की सरकारें भी टूट गयीं। लोकसभा के लिये फिर चुनाव हुए और वीरभद्र फिर सांसद बन गये। हिमाचल में लगभग पूरी जनता पार्टी कांग्रेस में शामिल हो गयी और स्व. रामलाल ठाकुर मुख्यमन्त्री बन गये। केन्द्र में हिमाचल से विक्रम महाजन राज्य मन्त्री बन गये। वीरभद्र का चुनाव परिणाम आने से पहले ही विक्रम महाजन मन्त्री बन गये थे। हिमाचल में दलबदल से सरकार बनी थी। वीरभद्र सिंह सहित कांग्रेस जन इसका विरोध कर रहे थे। इस विरोध के लिये एक हस्ताक्षर अभियान चला जो नाहन से प्रैस में लीक हो गया। इस हस्ताक्षर अभियान के असफल होने पर वीरभद्र सिंह ने अकेले ही मोर्चा संभाला। वन माफिया के खिलाफ आवाज़ उठाई और एक लम्बा चौड़ा पत्र इस पर दाग दिया। यह पत्रा जब सार्वजनिक हुआ तो शिमला से लेकर दिल्ली तक हलचल हुई। इसी दौरान केन्द्र में स्व. हेमवती नन्दन बहुगुणा बगावत पर उतर चुके थे। वीरभद्र और बहुगुणा में एक-दो मुलाकाते भी रिपोर्ट हो गयी थी। कांग्रेस में टूटने के आसार बन रहे थे। इसी दौरान प्रदेश युवा कांग्रेस के कुछ कार्यकताओं का एक प्रतिनिधि मण्डल स्व. इन्दिरा गांधी जी से मिला। इस प्रतिनिधिमण्डल में मेरे साथ महेन्द्र प्रताप राणा, प्रदीप चन्देल और कांगड़ा से सुमन शर्मा शामिल थे। इस प्रतिनिधि मण्डल से प्रदेश का फीडबैक लिया गया। नेतृत्व परिवर्तन की स्थिति मे नये नेता का नाम मांगा गया जिसमें सबने वीरभद्र का नाम सुझाया और कुछ समय बाद वीरभद्र प्रदेश के मुख्यमन्त्री बन गये तथा रामलाल ठाकुर को राज्यपाल बनाकर भेज दिया। वीरभद्र सिंह की यह पहली लड़ाई थी जिसमें वह जीते।
इसके बाद 1993 में फिर वीरभद्र सिंह को मुख्यमन्त्री बनने के लिये लड़ना पड़ा। पंडित सुखराम दूसरे दावेदार थे। केन्द्र का समर्थन भी पंडित सुखराम के साथ था। वीरभद्र सिंह को दिल्ली बुलाया गया लेकिन वह अपने समर्थकों के साथ परवाणु से आगे नहीं गये। केन्द्र ने सुशील कुमार शिंदे को पर्यवेक्षक भेजा। विधानसभा परिसर में बैठक रखी गयी। इस बैठक में पंडित सुखराम और उनके समर्थक नहीं आये और चण्डीगढ़ बैठे रहे। यहां पर वीरभद्र समर्थकों ने विधानसभा परिसर का घेराव कर दिया। वीरभद्र सिंह को नेता घोषित करने की मांग उठ गयी। पूरी स्थिति तनावपूर्ण हो गयी थी। शिन्दे ने सी आई डी आफिस से फोन करके दिल्ली को सारी स्थिति से अवगत करवाया और अन्ततः वीरभद्र सिंह को नेता घोषित कर दिया गया। राज्यपाल के यहां अकेले वीरभद्र सिंह की शपथ हुई और इस तरह दूसरी बार मुख्यमन्त्री की लड़ाई जितने में सफल हुए।
जिस भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर वीरभद्र पहली बार मुख्यमन्त्री बने थे उस भ्रष्टाचार के खिलाफ 31 अक्तूबर 1997 को एक रिवार्ड स्कीम अधिसूचित की गयी। इस स्कीम में यह कहा गया कि इसमें आयी हर शिकायत की एक माह के भीतर प्रारम्भिक जांच की जायेगी। इस स्कीम के तहत मैंने ही 21 नवम्बर 1997 को कुछ शिकायतें दायर कर दी जिनमें एक शिकायत राज कुमार राजेन्द्र सिंह जो वीरभद्र के भाई थे उनके खिलाफ थी। इस पर किसी ने जांच का साहस नहीं किया। 1998 में सरकार बदल गयी परन्तु धूमल सरकार ने भी कुछ नहीं किया। अन्ततः मुझे उच्च न्यायालय में जाना पड़ा। इसी दौरान सागर कत्था मामला सामने आया। यह मामला भी शैल में छपा। कुछ समय बाद वीरभद्र सिंह ने मेरे खिलाफ मानहानि का मामला दायर कर दिया। दो वर्ष बाद स्वतः इस मामले को वापिस भी ले लिया। लेकिन यह सब होने के बावजूद एक समय वीरभद्र सिंह ने मुझे अपने आवास होली लॉज बुलाकर कांग्रेस पार्टी का प्रवक्ता बनने का आग्रह किया। इस आग्रह के विक्रमादित्य और कुछ दूसरे लोग गवाह हैं। जिस विषय पर मैंने रिवार्ड स्कीम में शिकायत की थी और प्रदेश उच्च न्यायालय में स्वयं इस मामले की पैरवी की थी उस पर सितम्बर 2018 में सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आ चुका है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी मेरी बात को स्वीकार किया है। इस फैसले पर जयराम सरकार अमल नहीं कर रही है।
इस प्रसंग से पाठक यह स्वीकारेंगे कि वीरभद्र कितने बड़े थे। वह अपनी गलती को स्वीकारने का साहस रखते थे। वह योग्यता के पारखी थे और उसे अपने साथ रखने का प्रयास करते थे। आज पूरा हिमाचल इसीलिये शोक में है क्योंकि वह लोगों के दिलों पर राज करते थे। वह सही मायनों मे राजा थे। इन्ही यादों के साथ उन्हें शत् शत् नमन।

क्या वीरभद्र की राजनीतिक विरासत को भुना पायेगी कांग्रेस-राठौर और मुकेश के लिये चुनौति

क्या अनिल शर्मा भाजपा और विधायकी से त्यागपत्र देंगे
शिमला/शैल। वीरभद्र प्रदेश भर में कितने लोकप्रिय थे इसका अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उनकी अन्तिम यात्रा में शिमला से रामपुर तक कैसे हजा़रों लोग सड़कों के किनारे खड़े होकर उसमें अपने को शामिल कर रहे थे और शमशान घाट पर भी हज़ारों की उपस्थिति इसका प्रमाण है। यही नहीं प्रदेश के हर कोने में बाज़ार बन्द करके और उनके चित्र पर फूल मालायें चढ़ा कर हज़ारों ने उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की है। किसी नेता के प्रति जनता की इतनी श्रद्बा और आस्था निश्चित रूप से उस पार्टी के लिये एक बहुत बड़ी विरासत बन जाती है। आज वीरभद्र सिंह अपने जाने के बाद पार्टी के लिये कितना बड़ा आधार छोड़ गये हैं इस अपार भीड़ से उसका प्रमाण मिल जाता है। अब यह पीछे बचे नेताओं की जिम्मेदारी होगी कि वह इस जनाधार को कैसे आगे बढ़ाते हैं और अपने साथ रखते हैं।
आज प्रदेश में चार उपचुनाव होने जा रहे हैं और यह उपचुनाव अगले वर्ष होने वाले विधानसभा चुनावों के लिये एक बड़े संकेत की भूमिका अदा करेंगे यह तय है। इस समयबंगाल चुनावों के बाद प्रधानमन्त्री और भाजपा दोनों का ग्राफ लगातार गिर रहा है। यह इन परिणामों के बाद घटी सारी राजनीतिक घटनाओं से प्रमाणित हो जाता है। इसी गिरावट का परिणाम है कि अब संघ प्रमुख डा. मोहन भागवत को यह कहना पड़ा है कि इस देश में रहने वाले सारे हिन्दुओं और मुस्लमानों का डीएनए एक है तथा लिंचिंग करने वाले हिन्दू नही हो सकते। तय है कि इस गिरावट का असर हर प्रदेश पर पड़ेगा और उसमें हिमाचल भी अछूता नहीं रहेगा। वीरभद्र सिंह अपने पीछे किसी एक नेता को पार्टी का नेता नहीं घोषित कर गये हैं। ऐसे में हर नेता अपनी अपनी परफारमैन्स के आधार पर आने वाले समय में अपना स्थान प्राप्त कर लेगा।
इस समय दो विधानसभा क्षेत्रों जुब्बल-कोटखाई और फतेहपुर में उम्मीदवारों के चयन में कोई बड़ी बाधा नहीं आयेगी। क्योंकि जुब्बल -कोटखाई में रोहित ठाकुर की उम्मीदवारी को कोई चुनौती नहीं हो सकती। 2017 के चुनावों में भी यदि प्रेम कुमार धूमल को नेता घोषित न किया जाता और यह संदेश न जाता कि नरेन्द्र बरागटा मन्त्री बनेंगे तो शायद उस समय भी परिणाम कुछ और होते। फतेहपुर में पठानिया के बेटे के बाद दूसरे दावेदार इतने बड़े आधार वाले नहीं हैं। बल्कि वहां पर भाजपा और कांग्रेस दोनों में बराबर की कलह है और उसे प्रायोजित भी कहा जा रहा है। क्योंकि धर्मशाला बैठक के बाद जिस तरह से बड़े नेताओं ने बाली और सुधीर खेमों का संकेत दिया है उससे फतेहपुर का झगड़ा स्वतः ही स्पष्ट हो जाता है। इन विधानसभा क्षेत्रों के बाद बड़ा सवाल मण्डी लोकसभा क्षेत्र का रह जाता है। यहां वीरभद्र परिवार, पंडित सुखराम परिवार और ठाकुर कौल सिंह का ही प्रभाव है। इस समय वीरभद्र सिंह के निधन के बाद अर्की विधानसभा भी खाली हो गयी है। यहां से यदि प्रतिभा सिंह चुनाव लड़ने का फैसला लेती है तो विश्लेषकों की राय में यह उनके लिये लाभदायक होगा। क्योंकि अगले वर्ष ही विधानसभा के चुनाव होने हैं और कांग्रेस की सरकार होने पर उनका मन्त्री बनना निश्चित हो जाता है जबकि लोकसभा मे जाकर इसकी संभावना नहीं रहती है। वीरभद्र के निधन से उपजी सहानुभूति को दोंनो जगह बराबर लाभ मिलेगा और इससे दोनों जगह जीत की संभावना बन जायेगी।
मण्डी में पिछली बार पंडित सुखराम के पौत्र आश्रय शर्मा को कांगेस ने उम्मीदवार बनाया था। लेकिन उस समय आश्रय के पिता अनिल शर्मा जयराम सरकार में ऊर्जा मन्त्री थे। तब वह न बेटे के लिये खुलकर काम कर पाये और न ही भाजपा के लिये। अनिल शर्मा आज भी भाजपा के विधायक हैं और यदि इस बार भी आश्रय कांग्रेस के उम्मीदवार होते हैं तो फिर वही दुविधा रहेगी। मण्डी नगर निगम के चुनावों मे भी यही दुविधा थी। ऐसे में यदि आश्रय को कांग्रेस फिर से उम्मीदवार बनाती है तो यह आवश्यक हो जायेगा कि अनिल शर्मा भाजपा और विधायकी दोनों से इन उपचुनावों से पहले त्यागपत्र दें या फिर आश्रय को उम्मीदवार न बनाया जाये। इनके बाद ठाकुर कौल सिंह का नाम आता है। यदि इस बार कौल सिंह ईमानदारी से यह चुनाव लड़ लेते हैं तो आने वाले समय में वह बड़े पद के भी दावेदार हो जाते हैं इस बार मण्डी उपचुनाव के लिये भाजपा को भी उम्मीदवार तय करना आसान नहीं होगा। क्योंकि इन दिनों जिस तरह से स्व. रामस्वरूप शर्मा के बेटे ने रामस्वरूप की हत्या होने की आशंका जताई है और पुलिस जांच पर सवाल उठाये हैं तथा केन्द्रिय मन्त्री नितिन गड़करी से मुलाकात की है उससे तय है कि इस उपचुनाव में यह मुद्दा उछलेगा और सरकार को जवाब देना कठिन हो जायेगा। फिर जल शक्ति मन्त्री महेन्द्र सिंह पहले ही अपने ब्यानों से विवादित हो चुके हैं। ऐसे में यदि इन उपचुनावों को कांग्रेस ‘‘वीरभद्र के हकदार’’ के सवाल पीछे रखकर चुनाव लड़ती है तो वर्तमान परिस्थितियों में उसकी जीत सुनिश्चित मानी जा रही है। इस परिदृश्य में यह उपचुनाव कांग्रेस के प्रभारीयों और प्रदेश के बड़े नेताओं के लिये एक कसौटी होंगे।

जल जीवन मिशन का 45% बजट सिराज और धर्मपुर में ही खर्च -अनिल शर्मा

पालमपुर में ट्रांसफर की धमकी का आडियो वायरल
शिमला/शैल। नगर निगमों के चुनावों में सत्तारूढ़ भाजपा और मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस दोनों की ही प्रतिष्ठा दांव पर लगी हुई है। क्योंकि भाजपा और मुख्यमन्त्री जयराम को यह प्रमाणित करना है कि प्रदेश की सत्ता के वह भी अधिकारी हैं और अगले चुनावों में भी सत्ता में वापसी करके दिखायेंगे। दूसरी ओर कांग्रेस को यह प्रमाणित करना है कि भाजपा सरकार हर मोर्चे पर बुरी तरह असफल हो चुकी है। जनता बेरोज़गारी और मंहगाई से ग्रस्त है और प्रदेश कांग्रेस इस तथ्य को घर घर तक पहुंचा चुकी है। इन चुनावों में कांग्रेस जीत की शुरूआत करेन जा रही है। कौन अपने दावों को कितना प्रमाणित कर पाता है इसका पता चुनाव परिणाम आने पर ही लगेगा।
लेकिन इन चुनावों में सत्ता के दुरूपयोग का खेल जिस तरह से खेला जाने लगा है वह अपने में चिन्ताजनक है। पालमपुर में एक भाजपा नेता एक व्यक्ति को फोन पर यह धमकी दे रहा है कि भाजपा का विरोध करने के लिये उसकी पत्नी और मां को जो अध्यापक हैं ट्रांसफर करके दूर फेंक दिया जायेगा। नेता यह भी धमकी देता है कि स्पीकर साहिब सब नज़र रख रहे हैं। इस धमकी का आडियो सोशल मीडिया मंचो पर खूब वायरल हो रहा है। भाजपा की ओर से इसका कोई खण्डन नहीं आया है। चुनावों में मतदाताओं को इस तरह डराने का चलन शायद पहली बार इस शक्ल में सामने आया है। यदि नगर निगमों के चुनावों में ऐसी धमकीयां शुरू हो गयी हैं तो अगले चुनावों में यह कहां तक पहुंच जायेंगी इसका अन्दाजा लगाना कठिन नहीं होगा।
मण्डी में लोकसभा चुनावों के बाद से ही अनिल शर्मा और भाजपा में 36 का आंकड़ा चल रहा है क्योंकि अनिल के बेटे ने कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़ा था। यह चुनाव लड़ने पर अनिल शर्मा को जयराम के मन्त्रीमण्डल से अलग कर दिया गया था। परन्तु भाजपा अनिल को पार्टी से निकाल नहीं पायी थी और न ही अनिल ने भाजपा और विधायकी से त्यागपत्र दिया था। लेकिन इस राजनीतिक अन्तः विरोध का मण्डी की जनता को विकास से वंचित होने का दण्ड भोगना पड़ेगा यह शायद किसी ने नहीं सोचा था। इन निगम चुनावों में मुख्यमन्त्री से लेकर नीचे हर नेता तक ने सुखराम परिवार पर निशाना साधना नहीं छोड़ा। मण्डी के विकास में पंडित सुखराम के योगदान को पूरी तरह नजरअन्दाज कर दिया गया। लेकिन अन्त में अनिल शर्मा ने एक पत्रकार वार्ता में मुख्यमन्त्री और भाजपा के हमलों का तथ्यों के साथ जिस तरह जवाब दिया है उससे पूरी भाजपा बैकफुट पर आ गयी है। अनिल ने मुख्यमन्त्री पर झूठ बोलने का आरोप लगाते हुए उनसे जवाब मांगा है कि जल जीवन मिशन का 45% बजट मुख्यमन्त्री के चुनाव क्षेत्र सिराज और जल शक्ति मन्त्री महेन्द्र सिंह के क्षेत्र धर्मपुर में ही क्यों खर्च हो रहा है। अनिल ने आंकड़े रखते हुए कहा है कि सिराज में 270 करोड़ और धर्मपुर में 170 करोड़ खर्च किये जा रहे हैं और जिले के आठ अन्य क्षेत्रों को पूरी तरह नजरअन्दाज कर दिया गया है। अनिल के इस आरोप का कोई जवाब नहीं आ पाया है।
मण्डी जिले में ही अन्य चुनाव क्षेत्रों के साथ हो रहे भेदभाव के इन आरोपों का आगे चलकर क्या असर पड़ेगा यह तो आगे ही पता चलेगा। लेकिन इस तरह के भेदभाव के आरोप प्रदेश के और भी कई क्षेत्रों में लग रहे हैं और शायद ऐसे ही सवालों से बचने के लिये वित्त राज्य मन्त्री अनुराग ठाकुर और पालमपुर से ताल्लुक रखने वाली राज्यसभा सांसद इन्दु गोस्वामी ने इन चुनावों में समय देना उचित नहीं समझा।

मण्डी में शिवधाम का काम 18 करोड़ से 36 का कैसे हो गया? क्या यह भ्रष्टाचार नहीं है

शिमला/शैल। मुख्यमन्त्री जयराम ठाकुर के गृह जिला मण्डी में कांगनी धार को पर्यटन विकास और अन्य गतिविधियों के लिये विकसित किया जा रहा है। यह काम पर्यटन निगम के माध्यम से किया जा रहा है। निगम ने इसके लिये एक कन्सलटैन्ट की सेवाएं ले रखीं हैं जिसने इसका ग्राफिक्ल विडियो भी तैयार किया है। जिलाधीश मण्डी ने यह विडियो रिलीज़ किया है। मण्डी को छोटी काशी भी कहा जाता है क्योंकि यहां पर भगवान शिव के भूतनाथ और पंचवक्र महादेव जैसे मन्दिर स्थित हैं। संभवतः शिव नगरी के कारण ही कांगनी धार प्रौजैक्ट को शिव धाम का नाम दिया गया है। यह कार्य दो चरणों में पूरा होगा फेज -1 को अन्तिम रूप दे दिया गया है। इसकी अनुमानित लागत 40 करोड़ आंकी गयी है और यह चालीस करोड़ इसके लिये जारी भी कर दिये गये हैं।
इस कार्य के लिये निविदायें 20-11-2020 से 25-11- 2020 के बीच आमन्त्रित की गयी थी। इन निविदाओं में इस कार्य की लागत 18 करोड़ रखी गयी थी। इसमें चार कंपनीयों ने टैण्डर में भाग लिया था। 25-2-2021 को यह कार्य मुंबई की एक कंपनी को 36 करोड़ में आंबटित कर दिया गया है। यह कार्य 18 करोड़ से 36 करोड़ का कैसे हो गया इसका कोई खुलासा नहीं किया गया है। सरकार की ओर से इसका कोई स्पष्टीकरण जारी नहीं हुआ है जबकि इन निगम चुनावों में धर्मशाला में पूर्व मन्त्री सुधीर शर्मा ने इस पर सवाल भी उठाया है।
इसमें यह सवाल उठता है कि शिवधाम के नाम से क्या यह कार्य अपरोक्ष में धार्मिक भावनाओं का प्रतीक नहीं बन जायेगा। अभी तक संविधान में सरकार धर्म निरपेक्ष ही है। ऐसे में यदि पुराने शिव मन्दिरों का ही जीर्णोद्धार कर दिया जाता तो कोई प्रश्न उठने का स्कोप ही नहीं रह जाता। लेकिन जब सरकार अपने स्तर पर शिव धाम स्थापित करने जा रही है तो निश्चित रूप से धर्म निरपेक्षता पर सवाल उठेगा ही। पहले फेज के काम को 18 माह में सितम्बर 2022 तक पूरा करने का लक्ष्य रखा गया है। लेकिन टैण्डर आमन्त्रण और उसको अन्तिम रूप देने से पहले ही इसकी लागत दो गुणा कैसे बढ़ गयी इसको लेकर कई तरह की चर्चाओं का बाज़ार गर्म है। पर्यटन विभाग मुख्यमन्त्री के अपने पास है लेकिन यह लागत इस बढ़ा दिये जाने की जानकारी मुख्यमन्त्री को है या नहीं इस पर विभाग कुछ भी कहने को तैयार नहीं है। वैसे सरकार में न्यूनतम निविदा को नज़रअन्दाज करके अधिकतम को काम देने का चलन शुरू हो चुका है। बिलासपुर के बन्दला में बन रहे हाइड्रोकालिज में भी न्यूनतम निविदा 92 करोड़ थी लेकिन बिना कोई कारण बताये यह काम भी 100 करोड़ में दे दिया गया है। इस पर उठे सवालों का जवाब भी सरकार ने नहीं दिया है।

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