Saturday, 20 December 2025
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नगर निगम शिमला के मनोनीत पार्षद संजीव सूद गलत शपथ पत्र के दोषी करार -निदेशक ने अयोग्य ठहराया

सचिव शहरी विकास के पास पांच माह से आगामी कारवाई के लिये मामला लंबित
कांग्रेस ने उठाये सवाल


शिमला/शैल। नगर निगम शिमला के मनोनीत पार्षद संजीव सूद को निदेशक शहरी विभाग हिमाचल प्रदेश ने झूठा शपथ पत्र दायर करने का दोशी पाते हुए उन्हें पार्षद बनने के लिये अयोग्य पाते हुए उन्हें निलंबित करने का आदेश पारित किया है। निदेशक शहरी विकास ने 3-11-2020 को इस आशय का आदेश पारित करते हुए इस मामले की फाईल अगले आदेशों के लिये प्रदेश सरकार के सचिव शहरी विकास विभाग को भेज दी थी। लेकिन 3-11-2020 को हुए इस आदेश पर पांच माह में अगली कारवाई नहीं हो पायी है। शिमला शहरी कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष पूर्व पार्षद जितेन्द्र चौधरी ने इस विषय पर सरकार के आचरण को लेकर गंभीर सवाल उठाये हैं। जितेन्द्र चौधरी ने इस संद्धर्भ में आयोजित पत्रकार वार्ता में स्थानीय विधायक एंवम मन्त्री शहरी विकास विभाग और मुख्यमन्त्री जयराम ठाकुर पर इस मामले में पक्षपात करने के आरोप लगाये हैं। संजीव सूद ने इस मामले में यह कहा है कि उनके ऊपर लगे अवैध कब्जे के आरोप में दो बार डिमार्केशन हुई है और इसमें अवैधता नहीं पायी गयी है।
स्मरणीय है कि जब संजीव सूद को नगर निगम शिमला के लिये पार्षद मनोनीत किया गया था तब एक रोकश कुमार ने 28-2-2020 और फिर 20-3-2020 को मुख्यमन्त्री, सचिव शहरी विकास और आयुक्त नगर निगम शिमला को शिकायत भेजी थी कि संजीव सूद ने पार्षद के लिये गलत शपथ पत्र दायर किया है। जबकि उसके खिलाफ अधिनियम की धारा 253 और 254 (1) के तहत मामला दर्ज था और लंबित चल रहा था। यह दोनो शिकायतें सरकार ने निदेशक शहरी विकास को 29-5-2020 को यह जांचने के लिये भेज दी कि इनके परिदृश्य मेे संजीव सूद पार्षद मनोनीत होने के लिये पात्र हैं या नहीं। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि निदेशक शहरी विकास को इस सबकी सूचना राकेश कुमार ने 26-5-2020 को दे दी थी। लेकिन निदेशक के यहां से कोई कारवाई न होने पर राकेश कुमार ने सीआरपीसी की धारा 156(3) के तहत अदालत में मामला दर्ज करवा दिया। इस पर अदालत ने एफआईआर दर्ज करने के आदेश कर दिये और अन्ततः यह एफआईआर दर्ज भी हो गयी।
संजीव सूद के खिलाफ दो आरोप लगे है। एक है कि उसने सरकारी जमीन पर अतिक्रमण किया है। इसको लेकर एसडीएम शहरी के पास अभी तक मामला लंबित चल रहा है और इसको लेकर निदेशक ने कोई आदेश पारित नहीं किये हैं। दूसरा आरोप लगा था कि उसने 5.25 वर्ग मीटर का एक अवैध निर्माण कर रखा है। इस अवैध निर्माण को लेकर आयुक्त नगर निगम के पास मामला चला। वहां पर संजीव सूद ने यह ब्यान दे दिया कि उसने निर्माण को हटा दिया है और इस आशय का आयुक्त के पास शपथ पत्र भी दायर कर दिया। इस शपथ पत्र पर निगम के अधिकारी ने मौके का निरीक्षण किया तो पाया कि अवैध निर्माण को हटाने की बजाये 206.42 वर्ग मीटर का अवैध निर्माण कर रखा है जिसको लेकर निगम आयुक्त के पास अभी भी मामला लंबित चल रहा है। इस तरह निगम आयुक्त के पास अवैध निर्माण को लेकर गलत शपथ पत्र दायर करने का दोषी पाये जाने पर निदेशक शहरी विकास ने मामले का जांच अधिकारी होने के नाते संजीव सूद को पार्षद होने के लिये आयोग्य करार दिया है।
सचिव शहरी के पास निदेशक का यह फैसला पांच माह से आगामी कारवाई के लिये लंबित पड़ा हुआ है। इस समय चार नगर निगमों के लिये चुनाव चल रहे हैं। ऐसे में इस समय कांग्रेस को यह मामला सरकार पर हमला करने के लिये एक सशक्त हथियार मिल गया है।

क्या निगम चुनावों में जीत की शुरूआत कर पायेगी कांग्रेस

शिमला/शैल। क्या कांग्रेस इन नगर निगमों के चुनावों में जीत की शुरूआत कर पायेगी? यह सवाल प्रदेश कांग्रेस के वर्तमान नेतृत्व और आगे आने वाले उपचुनावों से लेकर अगले वर्ष होने वाले विधानसभा चुनावों के परिदृश्य में बहुत महत्वपूर्ण हो गया है। क्योंकि 2014 के लोकसभा चुनावों से 2019 के चुनावों और उसके बाद हुए उपचुनावों तक में कोई बड़ी जीत हासिल नहीं कर पायी है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कुलदीप राठौर को संगठन के मामलों में एक तरह से खुला हाथ मिला है। अब तक ऐसा कोई बड़ा मामला सामने नहीं आया है जहां किसी बड़े नेता की ओर से ऐसा आरोप लगा हो कि उसके समर्थकों को संगठन में नज़र अन्दाज किया जा रहा है। कुल मिलाकर संगठन के हर बड़े नेता की ओर से राठौर को पूरा सहयोग मिला है। पिछले दिनों जब विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष सहित कांग्रेस के पांच विधायकों को सदन से निलंबित कर दिया गया था। उस मुद्दे पर प्रदेश अध्यक्ष की सक्रियता उस स्तर की नहीं रह पायी है जो होनी चाहिये थी। उस समय कुछ कोनो से अध्यक्ष को बदलने की मांग उठी थी जिसे वीरभद्र सिंह ने एक ही ब्यान से खारिज कर दिया था। बल्कि जब आनन्द शर्मा को लेकर पार्टी उपाध्यक्ष केहर सिंह खाची ने ब्यान दागा था तब भी राठौर को लेकर या सवाल नहीं उठा था कि वह आनन्द शर्मा की पसन्द हैं।
ऐसे में अब जब निगम चुनावों में पालमपुर में दो और धर्मशाला में एक उम्मीदवार का नामांकन रद्द होने की स्थिति बन गयी तो उससे संगठन की कमजोरी सामने आती है। क्योंकि पार्टी के उम्मीदवार का नामांकन रद्द होना एक बड़ी बात होती है। उससे चुनाव की रणनीति पर असर पड़ता है फिर जब हर वार्ड के लिये कई-कई लोगों की जिम्मेदारी लगी हो तब ऐसा हो जाना सवाल खड़े करता है। निगम चुनावों में कांग्रेस के अन्दर बगावत भाजपा की अपेक्षा बहुत कम सामने आयी है। केवल चार लोग ही ऐसे निकले हैं जो अधिकृत उम्मीदवारों के खिलाफ चुनाव लड़ रहे हैं और जिन्हें निकाल दिया गया है। इस परिदृश्य में कांग्रेस का पलड़ा भाजपा से भारी है। अब यह देखना रोचक होगा कि कांग्रेस जयराम सरकार और भाजपा के खिलाफ किस तरह की आक्रामकता दिखाती है। जबकि भाजपा सांसद किश्न कपूर ने धर्मशाला में एक पत्रकार वार्ता में कांग्रेस पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाये हैं। क्योंकि धर्मशाला नगर निगम पर कांग्रेस का कब्जा था। कपूर ने आरोप लगाया है धर्मशाला को विभिन्न योजनाओं में केन्द्र की ओर से 271 करोड़ रूपये दिये गये हैं जिसको खर्च करने में भ्रष्टाचार हुआ है। कांग्रेस की ओर से इस आरोप का अभी तक कोई जबाव नहीं दिया गया है। जबकि प्रेदश में तीन वर्षो से भाजपा की सरकार है और वह इस कथित भ्रष्टाचार की कोई जांच तक नहीं करवा पायी है। यदि कांग्रेस इन चुनावों में भाजपा के खिलाफ आक्रामक नहीं हो पायी तो सफलता मिलना आसान नहीं होगा।

कर्ज लेकर खैरात कब तक बांटी जायेगी

प्रदेश के हर आदमी पर है साढ़े आठ लाख का कर्ज
कर्ज के अनुपात में प्रतिव्यक्ति आय है 1,90,407
इस कर्ज के बावजूद आज कुल कर्मचारियों की संख्या है 1,91,278
2002 में कर्मचारियों की संख्या थी 2,27,879
क्या इस स्थिति के बाद भी शगुन आदि की रस्में निभाई जानी चाहिये?

शिमला/शैल। जयराम सरकार ने वित्तिय वर्ष 2021-22 के बजट में महिला कल्याण और सशक्तिकरण के तहत प्रदेश के बीपीएल परिवारों की बेटियों को शादी के वक्त पर 31 हजा़र का शगुन देने की योजना घोषित की है। इसी के साथ यह भी घोषित किया है कि बीपीएल परिवारों को दो लड़कियों तक अब 21 हज़ार रूपये की "Post Birth" ग्रांट फिक्सड डिपाजिट के रूप में दी जायेगी। इन योजनाओं से इन परिवारों की महिलाओं का कल्याण और सशक्तिकरण कैसे होगा यह तो आने वाले समय में ही पता चलेगा। लेकिन इन योजनाओं और ऐसी दर्जनों योजनाओं को जब प्रदेश के बजट के आईने में देखते हैं तब कुछ ऐसे सवाल आते हैं जिनका असर प्रदेश के हर व्यक्ति पर पड़ता है। इस समय प्रदेश की 70 लाख जन संख्या पर 60500 करोड़ से अधिक का कर्ज है जो प्रति व्यक्ति 8.50 लाख रूपये बैठता है। जिसका अर्थ है कि जिस बेटी को शादी के वक्त पर 31000 हज़ार का शगुन दिया जा रहा है उसके सिर पर सरकार की नीतियों के परिणामस्वरूप 8.50 लाख का कर्ज भी है। जिन दो लड़कियों की पैदाईश तक परिवार को 21000 फिक्सड डिपाजिट के रूपे में दिये जायेंगे उस परिवार के चार लोगों के नाम 34 लाख कर्ज आयेगा।
कर्ज की यह स्थिति तब है जब केन्द्र से राज्य का 90ः10 के अनुपात में ग्रांट मिलती है क्योंकि हिमाचल विशेष राज्य की श्रेणी में आता है। परन्तु केन्द्र के बजट की चर्चा के दौरान एक प्रश्न के उत्तर में बताया गया है कि अब विशेष राज्य का दर्जा दिये जाने का प्रावधान खत्म कर दिया गया है। प्रदेश में नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री ने राज्य सरकार से इस पर स्थिति स्पष्ट करने को कहा था। लेकिन राज्य सरकार ने इसका कोई जबाव नहीं दिया है। वित्त विभाग के सूत्रों के मुताबिक इस आश्य की सूचना राज्य सरकार तक पहुंच चुकी है। शायद इसी कारण से सरकार ने अभी बहुत सारी स्वास्थ्य सेवाओं के दाम बढ़ा दिये हैं। बिजली के दाम बढ़ाने के लिये रैगुलेटरी कमीशन में याचिका डाल दी गयी है और यह रेट बढ़ जाने की सूचना कभी भी जारी हो सकती है। विशेष राज्य का दर्जा समाप्त होने के बाद प्रदेश 90ः10 के अनुपात से 50ः50 के अनुपात पर आ जायेगा। जिसका अर्थ होगा कि राज्य पर कर्ज का बोझ और बढ़ेगा। इस बढ़ते कर्ज के कारण सरकार निवेश करने की स्थिति में नहीं होगी और जब निवेश नहीं होगा तो रोजगार के अवसर भी नहीं होंगे।
वर्ष 2009 -10 में प्रदेश का कर्जभार 23163.74 करोड़ था जो आज 60500 करोड़ से ऊपर जा चुका है। जबकि आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक वर्ष 2002 में सरकार में सभी वर्गों के कर्मचारियों की कुल संख्या 2,27,879 थी जो आज 2020 में 1,91,278 रह गयी है। सरकार के इन आंकड़ों से स्पष्ट हो जाता है कि जैसे जैसे सरकार का कर्जभार बढ़ता जाता है उसी अनुपात में सरकार में नियमित रोज़गार कम होता जाता है। इसी कर्ज के कारण मंहगाई होती है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि इस कर्ज पर कैसे नियन्त्रण किया जाये। इसके लिये सबसे पहले सरकार की प्रत्येक योजना का व्यवहारिक पक्ष देखना होगा। यह समझना होगा कि जब अमुक योजना नहीं थी तब उससे आम आदमी पर क्या प्रभाव पड़ रहा था और अब योजना आने के बाद क्या सकारात्मक प्रभाव पड़ा है। उदाहरण के लिये सरकार ने बेटियों की शादी पर बीपीएल परिवारों को 31000 का शगुन देने की घोषणा की है। क्या सरकार के पास ऐसी कोई रिपोर्ट थी जिसमें यह कहा गया हो कि इस शगुन के बिना इन बेटियों की शादी नहीं हो पा रही थी और उसके लिये यह सहायता देना आवश्यक था। क्या यह शगुन देकर इन बेटियों को स्वावलम्बी बनने में सहायता मिल पायेगी। यदि निष्पक्षता से इसका आकलन किया जाये तो इससे चुनावों में तो एक वोट बैंक बन जायेगा लेकिन इससे आम आदमी पर कर्ज भी जरूर बढ़ जायेगा।
शगुन देना, पोस्ट बर्थ ग्रांट देना, गैस रिफिल देना आदि वह योजनाएं हैं जिन्हें सरप्लस पैसे से पोषित किया जाना चाहिये। जब सरकार अपने खर्चे कर्ज लेकर चला रही है तब कर्ज लेकर खैरात बांटना कोई समझदारी नहीं कही जा सकती। सरकारें जब अपना वोट बैंक बनाने बढ़ाने के लिये आम आदमी पर कर्ज का बोझ बढ़ाने का काम करती है तो उससे सत्ता में वापसी सुनिश्चित नहीं हो जाती। क्योंकि ऐसे में आम आदमी की नजर सरकार की फिजूल खर्ची और भ्रष्टाचार पर गढ़ जाती है। संयोगवश इस समय में फिजूल खर्ची और भ्रष्टाचार दोनों खुले रूप से चल रहे हैं जिनके खुलासे आने वाले दिनों में सामने आयेंगे। कर्ज लेकर खैरात बांटने की बजाये संसाधन बढ़ाने पर विचार किया जाना चाहिये।

सरकार के लिये घातक होगा विधायकों का निलंबन और एफआईआर दर्ज करना

शिमला/शैल। प्रदेश विधानसभा के बजट सत्र के पहले दिन राज्यपाल के अभिभाषण पर उभरे विवाद के परिणाम स्वरूप नेता प्रतिपक्ष सहित कांग्रेस के पांच विधायकों को सदन की शेष अवधि के लिये निलंबित करने के साथ ही उनके खिलाफ एफआईआर भी दर्ज कर दी गयी है। इस कारवाई के बाद स्वभाविक है कि कांग्रेस सदन में हर दिन मुद्दा उठायेगी और हर दिन सदन से वाकआऊट करेगी। यह निलम्बन कितने दिन चलता है और सरकार कितने दिन विपक्ष के बिना ही काम चलाती है। यह देखना रोचक होगा और इसका पता आने वाले दिनों में ही चलेगा। विधायकों के खिलाफ दर्ज हुई एफआईआर पर पुलिस कब और क्या जांच करती है और कांग्रेस की मांग पर उपाध्यक्ष के खिलाफ भी एफआईआर दर्ज होती है या नहीं यह देखना भी दिलचस्प होगा। क्योंकि जिस हाथापाई को एफआईआर का आधार बनाया गया है उसके जो विडियो सामने आये हैं उनके अनुसार सत्तापक्ष भी इसके लिये उतना ही जिम्मेदार है जितना विपक्ष है।
राज्यपाल हर वर्ष सत्र के पहले दिन सदन को संबोधित करते हैं। इस संबोधन का भाषण सरकार द्वारा तैयार किया जाता है और इसमें सरकार की वर्ष भर की कारगुजारी दर्ज रहती है। भाषण के बाद इस पर चर्चा होती है और इसके लिये सरकार भाषण देने के लिये राज्यपाल के धन्यवाद का प्रस्ताव लाती है। राज्यपाल यह अभिभाषण पूरा पढ़ें या नहीं इसके लिये कोई तय नियम नही हैं। लेकिन पूर्व में जो प्रथा रही है उसके अनुसार पूरा भाषण पढ़ा जाता रहा है। प्रदेश के इसी सदन को जब कल्याण सिंह ने संबोधित किया था तब वह स्वास्थ्य कारणों से पूरा भाषण नहीं पढ़ पाये थे और इसके लिये उन्होंने सदन से एक प्रकार से अनुमति लेकर पूरा भाषण पढ़ने में असमर्थता जताई थी और शेष दस्तावेज को पढ़ा हुआ समझा जाये। इस बार शायद ऐसा नहीं हुआ और पूरा भाषण पढ़ने की मांग की। जब यह मांग नहीं मानी गयी तब कांग्रेस ने इसे झूठ का पुलिन्दा कहा और आरोप लगाया कि इसमें पैट्रोल और गैस की बढ़ती कीमतों जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों का जिक्र तक नहीं है। इस समय बहुत सारे राज्यों में राज्यपालों की भूमिका को लेकर सवाल उठने शुरू हो गये हैं और संयोगवश ऐसा उन राज्यों में हुआ है जहां पर भाजपा सत्ता में नहीं है। महाराष्ट्र में तो राज्यपाल के खिलाफ अदालत में जाने तक की चर्चाएं उठ चुकी हैं। राज्यपाल यदि बिना किसी ठोस कारण के सदन में अपना पूरा भाषण न पढ़े तो क्या उसे सदन को हल्का आंकना करार दिया जाना चाहिये या नहीं। राज्यपाल और सदन के संबंधो और अधिकारों को लेकर सवाल उठने शुरू हुए हैं उससे इन सम्बन्धों पर नये सिरे से विचार करने की आवश्यकता आ खड़ी हुइ है।
कांग्रेस विधायकों के निलंबन और उनके खिलाफ हुई एफआईआर को असहमति की आवाज़ दबाने का प्रयास करार दिया जा सकता है। क्योंकि सदन में हर रोज मामला उठेगा, वाकआऊट होगा और सरकार तीखे सवालों से बच जायेगी कुछ लोगों की नज़र में मुख्यमन्त्री का यह कदम राजनीति का मास्टर स्ट्रोक है। यहां तक चर्चाएं उठ चुकी हैं कि सरकार नेता प्रतिपक्ष का पद भी कांग्रेस से वापिस लेना चाहती है। यदि यह चर्चाएं सही हैं तो इसका सीधा अर्थ है कि सत्तापक्ष नेता प्रतिपक्ष से घबराकर इस तरह का कदम उठा रही है। वैसे ही नेता प्रतिपक्ष का निलंबन और फिर एफआईआर इसी डर के संकेत हैं। इस निलंबन और एफआईआर दर्ज करने से पूरे प्रदेश में कांग्रेस को मुद्दा मिल गया है। आज पूरे देश में भाजपा के खिलाफ सबसे बड़ा आरोप ही यह लग रहा है कि असहमति के स्वरों को दबाने के लिये किसी भी हद तक जा सकती है इसी के साथ भ्रष्टाचार को संरक्षण देने का आरोप भी सरकार पर लग रहा है। अभी कुछ दिन पहले एक पत्र चर्चा में आया है। इस पत्र में एक अधिकारी पर भ्रष्टाचार में लिप्त होने के आरोप लगाये गये हैं इन आरोपों के साथ गंभीर आरोप यह है कि मुख्यमन्त्री कुछ निहित कारणों से इस अधिकारी को संरक्षण दे रहे हैं। यह पत्र प्रधानमन्त्री से लेकर प्रदेश के पूर्व मुख्यमन्त्रीयों और नेता प्रतिपक्ष सहित करीब एक दर्जन लोगों को भेजा गया है। संयोगवश इस पत्र के चर्चा में आने के बाद ही धूमल खेमे में गतिविधियां तेज हो गयी है। धूमल स्वयं बहुत सक्रिय हो गये हैं। उनको लेकर अटकलों का एक नया बाजा़र गर्म हो गया है। इसी बीच पूर्व मुख्यमन्त्री एवम् पूर्व केन्द्रिय मन्त्री वरिष्ठ भाजपा नेता शान्ता कुमार की आत्मकथा बाज़ार में आ गयी है। इसमें शान्ता कुमार ने आरोप लगाया है कि जब केन्द्र में मन्त्री थे तब उन्होंने ग्रामीण विकास विभाग में 300 करोड़ का घपला पकड़ा था। जिसे पूरे दस्तावेजी प्रमाणों के साथ तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी के सामने रखा था। लेकिन इस पर प्रधानमन्त्री से लेकर संघ तक किसी ने उनका साथ नहीं दिया था। बल्कि मन्त्री पद से हटाकर इसकी सज़ा दी गयी थी।
शान्ता कुमार का यह खुलासा ऐसे वक्त पर सामने आया है जब भाजपा दूसरे दलों के भ्रष्ट नेताओं को अपने घर में शरण दे रही है। शान्ता के इस खुलासे से पूरी भाजपा केन्द्र से लेकर प्रदेशों तक कठघरे में आ जाती है। जयराम की सरकार पर भी भ्रष्टाचार को संरक्षण देने के कई गंभीर आरोप हैं। ऐसे वक्त में विपक्ष के खिलाफ निलंबन और एफआईआर दर्ज करने की कारवाई कहीं अपने पैर पर स्वयं कुल्हाड़ी मारना न बन जाये। क्योंकि विपक्ष को सरकार पर हमला करने के लिये एक कारगर और प्रमाणिक हथियार मिल गया है। जिसे चलाने में विपक्ष पीछे नहीं हटेगा।

क्या भ्रष्टाचार को संरक्षण देना जयराम सरकार की नीयत है या नीति

वन विभाग के पत्र से उठी चर्चा
वन मन्त्री की अनुशंसा के बाद भी कारवाई न होना सवालों में
शिमला/शैल। हिमाचल प्रदेश के भूसुधार अधिनियम 1972 के अनुसार प्रदेश में कोई भी गैर कृषक सरकार की पूर्व अनुमति के बिना ज़मीन नहीं खरीद सकता है। अनुमति के लिये इस अधिनियम की धारा 118 के तहत प्रावधान किया गया है। धारा 118 की उपधारा 2 (एच) के अनुसार ज़मीन खरीद की अनुमति लेने वाला कोई भी गैर कृषक इस अनुमति पर कृषक नहीं बन जाता है। जब व्यक्ति कृषक नहीं होगा तो उसे टीडी का अधिकार भी हासिल नहीं होगा यह एक स्थापित नियम है। लेकिन जब इस स्थापित नियम की अवहेलना सरकार के बड़े नौकरशाह करने लग जाये और वन विभाग तथा वन मन्त्री की स्पष्ट अनुशंसा के बाद भी सरकार ऐसे अधिकारियों के खिलाफ कोई कारवाई करने को तैयार न हो तो यही सवाल सरकार से पूछना पड़ेगा कि भ्रष्टाचार को संरक्षण देना सरकार की नीयत और नीति कब से हो गया है।
स्मरणीय है कि वर्ष 2001 में प्रदेश सरकार में अतिरिक्त मुख्य सचिव रह चुके दो अधिकारियों अभय शुक्ला और दीपक सानन ने मशोबरा के मूल कोटी में धारा 118 के तहत सरकार से अनुमति लेकर ज़मीन खरीदी। इसके बाद 2004 में दोनो ने टीडी के तहत भवन निर्माण के लिये लकड़ी लेने के लिये सरकार मेें आवेदन कर दिया। इस आवेदन को छानबीन के लिये राजस्व विभाग को भेज दिया गया। राजस्व विभाग ने हलका पटवारी से लेकर ऊपर तक कहीं भी यह नहीं कहा कि धारा 118 के तहत अनुमति लेने के बाद भी यह लोग गैर कृषक ही रहते हैं और इसलिये टीडी के पात्र नहीं बन जाते। जब राजस्व विभाग ने ही अपनी रिपोर्ट में यह उल्लेख नहीं किया और रिपोर्ट वन विभाग को भेज दी। वन विभाग ने भी राजस्व रिपोर्ट के आधार पर टीडी की अनुमति दे दी। अनुमति मिलने के बाद देवदार के पेड़ काट लिये गये। निर्माण होने के बाद शायद पर्यटन विभाग ने यहां पर होम स्टे आप्रेट करने की अनुमति भी प्रदान कर दी। ऐसा होने के बाद स्थानीय स्तर पर चर्चाएं उठीं और टीडी दिये जाने पर भी सवाल खड़े हुए। शैल ने उस समय भी यह मामला अपने पाठकों के सामने रखा था। वन विभाग ने इस पर जांच करवाकर स्पष्ट कहा है कि राजस्व विभाग ने अपनी रिपोर्ट में सही तथ्य नहीं रखे थे। अब विभाग ने यह माना है कि यह अधिकारी 118 की अनुमति के बाद भी गैर कृषक ही रहते हैं और इस नाते टीडी के पात्र नहीं बन जाते।
वन विभाग की रिपोर्ट जून में सरकार के पास आ गयी थी। वन मन्त्री ने इस रिपोर्ट के बाद इस संबंध में धारा 420 के तहत मामला दर्ज करके कारवाई करने की अनुशंसा की है। लेकिन जून से लेकर अब फरवरी तक इसमें अगली कारवाई नहीं हो पायी है। शायद फाईल वनमन्त्री की अनुशंसा के बाद भी मुख्यमन्त्री के कार्यालय से अभी तक बाहर नहीं आ पायी है। क्या मुख्यमन्त्री कार्यालय के अधिकारियों की कृपा से यह फाईल दबी पड़ी है या मुख्यमन्त्री ही नहीं चाहते कि दोषीयों के खिलाफ कोई कारवाई हो यह सवाल अभी संशय ही बना हुआ है। वैसे धारा 118 के तहत जमीन खरीद के मामलों में इस समय कार्यरत दो अधिकारियों प्रबोध सक्सेना और देवेश कुमार को मिली अनुमति पर भी एक समय सवाल उठ चुके हैं। धूमल शासन में विधानसभा में आये एक प्रश्न के उत्तर में सदन में रखी गयी सूची में इन अधिकारियों का नाम भी प्रमुखता से आया है। लेकिन कारवाई कोई नहीं हुई है। मुख्यमन्त्री के प्रधान सचिव के खिलाफ विशेष जज वन द्वारा आदेशित जांच पर उच्च न्यायालय का स्टे आ चुका है लेकिन इस स्टे से हटकर भी मुख्यमन्त्री से यह अपेक्षा थी कि वह इस संबंध में अपने स्तर पर कोई निर्देश देते क्योंकि सरकार की निष्पक्षता इसमें कसौटी पर है।


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