शिमला/शैल। महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार योजना के तहत कोरोना काल में केवल 100 दिन का ही रोजगार गांव के लोगों को मिल पा रहा है। केन्द्र सरकार ने मनरेगा के तहत वर्ष 2019-2020 में 71000 करोड़ रूपये का प्रावधान किया था। लेकिन वर्ष 2020 -21 के बजट में इसे घटाकर 61000 करोड़ कर दिया था। परन्तु जब 24 मार्च को कोरोना के कारण लाकडाऊन लगाया गया था तब देशभर में प्रवासी मजदूरों की समस्या खड़ी हो गयी थी। करोड़ो लोगो का रोज़गार छीन गया था। यह लोग अपने-अपने पैतृक स्थान को वापिस आने के लिये बाध्य हो गये थे। प्रवासी मजदूरों को अपने घर गांव में ही रोज़गार देने के लिये जब 20 लाख करोड़ रूपये के राहत पैकेज की घोषणा की गई थी तब मनरेगा के लिये दस हजार करोड़ रूपये का और प्रावधान कर दिया गया था।
मनरेगा का प्रावधान बढ़ाने के साथ ही यह घोषणा की गयी थी कि प्रवासी मजदूरों को रोज़गार का संकट नही आने दिया जायेगा और उनको मनरेगा के तहत काम दिया जायेगा। लेकिन सरकार की इस घोषणा के बाद का व्यवहारिक सच यह है कि मनरेगा के तहत पहले 120 दिन का रोजगार मिलता था जो कि अब केवल 100 दिन का ही रहा गया है। इसमें दैनिक मजदूरी भी 198 रूपये ही मिल रही है। 100 दिन का यह रोजगार भी पूरे परिवार को मिल रहा है भले ही परिवार में काम की आवश्यकता चार लोगों को हो। इससे स्पष्ट हो जाता है कि मनरेगा में हर प्रभावित प्रवासी को रोजगार मिल जायेगा इस दावे की कथनी और करनी में दिन रात का अन्तर है। बल्कि इसका व्यवहारिक सच यह है कि जो रोजगार पहले एक आदमी को मिलता था अब वही काम चार आदमीयों में बांटकर हरेक के हिस्से में केवल 25-25 प्रतिशत ही रह गया है। इसी तरह रसोई गैस सिलैण्डर पर मिलने वाला अनुदान बंद होने से सभी लोग इससे प्रभावित हो गये हैं जबकि एक समय लोगों को मुफ्त रसोई गैस का सिलैण्डर और चूल्हा देकर इसके प्रति आकर्षित किया गया था। परन्तु अब सभी उपभोक्ता इससे प्रभावित हो रहे हैं।
शिमला/शैल। जब से पूर्व मन्त्री विजय सिंह मनकोटिया ने गृहमन्त्री से लेकर मुख्यमन्त्री तक को एक पत्र लिखकर कांग्रेस से जयराम के एक सहयोगी मन्त्री पर जमीने खरीदने के आरोप लगाये हैं तबसे प्रदेश भाजपा के भीतर ही में तूफान खड़ा हो गया है। मन्त्री पर जो आरोप लगाये गये हैं उन आरोपों पर जांच को लेकर अधिकारिक रूप से अभी तक सरकार की ओर से कुछ नही कहा गया है और न ही विजिलैन्स को कोई मामला भेजा गया है लेकिन इसके बावजूद इस मामले का संज्ञान हाईकमान ने ले लिया है क्योंकि मनकोटिया ने शिकायत पत्र प्रधानमन्त्री को न भेजकर गृहमन्त्री अमितशाह और भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा को भेजा है और यहीं से इसके पीछे की सारी राजनीतिक रणनीति स्पष्ट हो जाती है।
मनकोटिया के आरोपों का इंगित सरवीण चौधरी है और सरवीण ने भी इस इंगित को यह कहकर स्वीकार कर लिया है कि मेरी जमीने तो सबको नजर आ रही है लेकिन वह चेहरे नजर नही आ रहे हैं जिन्होंने एक मंजिला भवन को चार मंजिला कर लिया है। सरवीण ने शिमला में मुख्यमन्त्री सहित कई नेताओं से इन आरोपों को लेकर अपना पक्ष रखने का प्रयास किया लेकिन जब इस पर कोई ज्यादा बात नही बनी तब यह दिल्ली चली गयी। दिल्ली में सरवीण ने भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा से मुलाकात करके अपने पक्ष को रखा और यह भी बताया कि चार मंजिला भवन वाला नेता कौन है। दिल्ली में सरवीण के इस खुलासे के बाद जो खेल शुरू हुआ उसके बाद प्रदेश के सबसे ताकतवर मन्त्री ठाकुर महेन्द्र सिंह को तलब कर लिया गया। महेन्द्र सिंह जिला शिमला के अपने सारे कार्यक्रम रद्द करके दिल्ली चले गये और उनके जाने से अखबारों का बाज़ार और गर्म हो गया।
सरवीण चौधरी प्रदेश की शहरी विकास मन्त्री रही है। इस नाते प्रदेश के किस नगर क्षेत्र मे किस राजनेता या अधिकारी का कोई होटल या अन्य भवन बना है इसकी जानकारी स्वभाविक रूप से उन्हें होगी ही। फिर बहुत सारे मामले तो प्रदेश उच्च न्यायालय, एनजीटी से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक जा चुके हैं। इन्ही मामलों में महेन्द्र सिंह के होटल का मामला भी शामिल है जो की एनजीटी से होकर अब सर्वोच्च न्यायालय में लंबित चल रहा है।
महेन्द्र सिंह जयराम मन्त्री मण्डल में सबसे वरिष्ठ और अनुभवी मन्त्री हैं। इसी अनुभव के कारण वह जयराम के सबसे ज्यादा भरोसेमन्द भी माने जाते हैं। जयराम का भरोसेमन्द होने के कारण वह विरोधीयों के निशाने पर भी सबसे पहले आ गये हैं। 2018 से ही उनके ऊपर नजर रखी जा रही है। इन्हीं नजरों का परिणाम था कि मण्डी जिला परिषद के सदस्य भूपेन्द्र सिंह ने 5 फरवरी 2018 से 19 जुलाई 2019 तक के उनके कार्यकाल को लेकर आरटीआई के माध्यम से यह सूचना सार्वजनिक की। उन्होने इस दौरान 340 दिन क्षेत्र का भ्रमण किया और इस भ्रमण के दौरान 1800 रूपये प्रतिदिन के हिसाब से खाने का खर्च 6 लाख 23 हज़ार रूपये सरकार से वसूल किया फील्ड में उनको खाने का प्रबन्ध जनता या अधिकारी कर रहे थे। इसी भ्रमण का 11.53 लाख यात्रा भत्ते के रूप में वसूल किये। इसी दौरान उनकी 26 जनवरी से 31 जनवरी के बीच हुई ईज़रायल यात्रा के 3.45 लाख के खर्च पर भी सवाल उठाया गया है। इसी दौरान उनके कुछ नियुक्तियों को लेकर जारी किये गये सियासी पत्र भी मुद्दा बनाये गये थे। महेन्द्र अब राजनीति में अपने बेटे और बेटी को भी स्थापित करने के जुगाड़ में लग गये हैं यह आरोप भी क्षेत्र में उन लोगों द्वारा लगाया जा रहा है जिनकी निष्ठाएं संघ के साथ हैं। इससे स्पष्ट हो जाता है कि पार्टी के भीतर ही एक बड़ा वर्ग उनके खिलाफ सुनियोजित ढंग से काम कर रहा है।
वैसे तो जयराम मन्त्रीमण्डल के कुछ अन्य मन्त्रीयों के खिलाफ समय समय पर पत्र बम वायरल होते रहे हैं। लेकिन इन सारी चीजों को अब तक नजरअन्दाज किया जाता रहा है। स्वास्थ्य विभाग की खरीददारीयों पर लगे आरोपों के कारण ही विपिन परमार को स्वास्थ्य मन्त्री से हटाकर विधानसभा अध्यक्ष बनाया गया और डा. राजीव बिन्दल को हटाया गया। लेकिन इस सबका परिणाम आज सरवीण चौधरी के तेवरों की तल्खी के रूप में सामने आने लग गया है। क्योंकि जमीन खरीद के जो आरोप लगाये गये हैं उनमें यह नही बताया गया है कि इसमें गैर कानूनी क्या है। क्योंकि जमीन खरीद के मामलों में सामान्यतः यही देखा जाता है कि बेचने वाला भूमिहीन तो नही हो रहा है। जमीन बेचने के बाद उसका आय का क्या साधन रह जाता है। क्या खरीदने वाले के पास वैध साधन थे या नहीं। लैण्डसिलिंग से ज्यादा जमीन तो नही हो रही है। सर्कल रेट की अनदेखी तो नही हुई है। ऐसा कोई आरोप लगाया नही गया है और न ही ऐसी कोई जांच आदेशित की गयी है। ऐसे में सरवीण चौधरी पर लगे उसी संज्ञान में आयेंगे जैसे पत्र बम्बों में लगे आरोप थे। बल्कि अदालत तक पहुंच चुके मामले इनसे ज्यादा गंभीर हो जाते हैं।
इस परिदृश्य में जयराम सरकार के लिये यह स्थिति एक गंभीर मुद्दा बन गयी है। क्योंकि यदि सरवीण के खिलाफ लगे आरोपों पर कोई कारवाई की जाती है तो उसी गणित से अन्यों पर लगे आरोपों में भी वही कारवाई करनी पड़ेगी। यदि इन आरोपों पर नजरअन्दाजी की रणनीति अपनाई जाती है तब सरकार पर भ्रष्टाचार से समझौता करने का आरोप लगेगा। विपक्ष निश्चित रूप से अब हमलावर रहेगा और विपक्ष के खिलाफ आक्रामकता अपनाना शायद अब जयराम सरकार के बस में नही रह गया है। फिर संगठन में भी जिस तरह से कुछ लोगों के खिलाफ गाज गिराई गयी और कुछेक ने स्वयं अपने पदों से त्यागपत्र दे दिया है उससे यही संदेश गया है कि भाजपा में सबकुछ अच्छा नही चल रहा है।
तीन बड़े अधिकारी प्रबोध सक्सेना, सुतनु बेहुरिया और देवेश कुमार भी है लाभार्थियों में शामिल
शिमला/शैल। कोई भी गैर कृषक गैर हिमाचली प्रदेश में सरकार की पूर्व अनुमति के बिना जमीन नही खरीद सकता है। प्रदेश के राजस्व और भू-सुधार अधिनियम की धारा 118 के तहत यह बंदिश लगाई गयी है। लेकिन जब से प्रदेश की उद्योग नीति में बदलाव करके औद्योगिक निवेश को आमंत्रित किया जाने लगा है तभी से धारा
118 के प्रावधानो की उल्लंघना के मामले चर्चित होने लगे हैं। इन्ही प्रावधानों के कारण बेनामी खरीद तक का सहारा लिया गया। इस तरह की खरीद 1990 के शान्ता शासन में होने के आरोप लगे और वीरभद्र ने इस पर एस एस सिद्धु की अध्यक्षता मे जांच बैठायी। इसके बाद भाजपा शासन में आर एस ठाकुर और फिर जस्टिस डी पी सूद की अध्यक्षता मे जांच बिठाई गयी। वीरभद्र के 2003 से 2007 के शासन के दौरान हुई खरीद पर यहां तक आरोप लगे कि चुनाव आचार सहिंता लगने के बाद भी धारा 118 की अनुमतियां दी गई और चुनाव परिणाम आने के बाद तक भी यह अनुमतियां दी गई जब सरकार हार गई हुई थी। इस राजनैतिक नैतिकता से हटकर इन अनुमतियों पर धारा 118 के प्रावधानों की गंभीर उल्लंघना के आरोप लगे हैं। यहां तक की तीन वरिष्ठ आई ए एस अधिकारी प्रबोध सक्सेना, सुतनु बेहुरिया और देवेश कुमार के खिलाफ भी आरोप लगे। ऐसे कई मामले विधान सभा पटल पर उल्लंघनाओं के ब्योरे सहित रखे गये थे। लेकिन किसी भी मामले में केवल प्रियंका गांधी वाड्रा को छोड कर कोई कारवाई नही हुई है। अब जब जयराम सरकार 92 हजार करोड़ के निवेश को अमली शक्ल देने का प्रयास करेगी तब उस पर ऐसे आरोप लगेंगे यह तय है। ऐसे में सरकार को इस संबंध में विपक्ष के साथ बैठ कर एक स्थायी नीति बनानी चाहिये ताकि भविष्य मे ऐसे मामलों पर विराम लग सके। क्योंकि आज स्थिति यह है कि भू- सुधार अधिनियम की धारा 118 की उल्लघंना दण्डनीय अपराध है। और विधान सभा पटल पर सारा खुलासा आने से बड़ा कोई साक्ष्य नही हो सकता। इस परिदृश्य में यह 97 मामले सरकार के लिये एक कड़ी परीक्षा सिद्ध होंगे यह तय है।
शिमला/शैल। क्या तीसरे राजनीतिक दल प्रदेश में अपने लिये कोई स्थान बना पायेंगे यह सवाल इन दिनों फिर उठने लगा है क्योंकि आम आदमी पार्टी, हिमाचल स्वाभिमान पार्टी, हिमाचल जन क्रांति पार्टी और एक समय आम आदमी पार्टी की हिमाचल ईकाई के अध्यक्ष रह चुके पूर्व सांसद डा. राजन सुशांत ने भी घोषणा की है कि वह आने वाले नवरात्रों में एक राजनीतिक दल का गठन करेंगे। इस परिप्रेक्ष में यह आकलन करना महत्वपूर्ण हो जाता है कि यह वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में क्या भाजपा और कांग्रेस से सत्ता छीनने में सफल हो पायेंगे? क्या सत्ता में अपनी भागीदारी सुनिश्चित कर पायेंगे? या फिर कांग्रेस या भाजपा में से किसी एक दल को सत्ता से बाहर रखने में अपनी कारगर भूमिका निभायेंगे? इनमें से यदि किसी एक मकसद में भी यह लोग सफल हो जाते हैं तो इनके गठन को सार्थक माना जायेगा अन्यथा नहीं। प्रदेश के गठन से लेकर अब तक राज्य की सत्ता पर कांग्रेस या भाजपा का ही कब्जा रहा है। यही नहीं है कि इससे पहले कांग्रेस और भाजपा का विकल्प बनने के प्रयास न किये गये हों। यह भी नही है कि कांग्रेस या भाजपा के शासन में प्रदेश समस्याओं से मुक्त हो गया हो। लोकराज पार्टी से लेकर हिलोपा तक राजनीतिक विकल्प बनने के बहुत प्रयास हुए हैं। इन प्रयासों में मेजर विजय सिंह मनकोटिया, प.सुखराम और महेश्वर सिंह जैसे नाम विशेष उल्लेखनीय रहे हैं। लेकिन अन्त में आज सब शून्य होकर खड़े हैं। शून्य होने के सबके अपने -अपने कारण रहे हैं लेकिन ऐसा भी नहीं रहा है कि प्रदेश की जनता ने इनके प्रयासों को पहले दिन ही नकार दिया हो। सबको विधानसभा के पटल तक पहुंचाया लेकिन वहां पहुंचने के बाद यह लोग जनता में अपने को प्रमाणित नही कर पाये। इसलिये आज जब कोई कांग्रेस या भाजपा का विकल्प होने का प्रयास करेगा तो उसे प्रदेश के पूर्व राजनीतिक इतिहास का ज्ञान रखना आवश्यक हो जाता है क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस का विकल्प 1977 में जनता पार्टी तब बन पायी थी जब जनसंघ सहित वाम दलों को छोड़ अन्य सभी दलों ने अपने को जनता पार्टी में विलय कर दिया था। 1977 में देश की जनता ने यह इतिहास रचा था जिसे 1980 में ही राजनीतिक नेतृत्व ने तोड़ कर रख दिया था। क्योंकि जनता पार्टी के प्रमुख घटक जनसंघ ने अपनी त्ैै की सदस्यता जारी रखी और इसी दोहरी सदस्यता के नाम पर जनता पार्टी की सरकार टूट गयी। जनसंघ का नया नाम भारतीय जनता पार्टी हो गया। 1980 के बाद 1989 में फिर प्रयास हुआ। भाजपा से अलग दलों ने जनता दल का गठन किया और एक बार फिर भाजपा जनता दल की सरकारें बन गयी लेकिन तब फिर आर एस एस का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद आरक्षण के विरूद्ध आन्दोलन के रूप में सामने आया जो अन्त में राम मन्दिर आन्दोलन बना और इसमें चार राज्यों की सरकारें बलि चढ़ गयी। इस तरह जब-जब कांग्रेस का विकल्प खड़ा करने के प्रयास हुए और उन प्रयासों का नेतृत्व अकेले भाजपा के हाथ नहीं आया तब-तब उन प्रयासों को विफल करने में भाजपा की भूमिका महत्वपूर्ण रही है क्योंकि इसका नियन्त्रण त्ैै के पास रहा। आज पहली बार है कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और भ्रष्टाचार को लेकर समय-समय पर उछाले गये नोरों के परिणामस्वरूप भाजपा केन्द्र की सत्ता पर काबिज हुई है कि उसे अब किसी भी अन्य दल के सहारे की आवश्यकता नही रही है। जो भी व्यक्ति संघ का स्वयं सेवक रह चुका है वह भले ही किसी भी अन्य दल में क्यों न हो इसकी पहली निष्ठा संघ के प्रति ही रहती है। इस परिदृश्य में आज जब केन्द्र की सत्ता पर भाजपा का कब्जा चल रहा है तो इसी कब्जे को राज्यों तक ले जाने की दिशा में राज्यों में सरकारें गिराने की रणनीति पर अमल किया जा रहा है। इस समय जिस तरह का आर्थिक परिदृश्य देश में निर्मित हो गया है उससे राज्यों की केन्द्र पर निर्भरता एक अनिवार्यता बनती जा रही है। क्योंकि हर राज्य पर कर्ज का बोझ उसके संसाधनों से कहीं अधिक बढ़ चुका है और दुर्भाग्य से केन्द्र भी इसी स्थिति में पहुंच चुका है। आने वाले समय में कर्जदारों के निर्देशों की अनुपालना करने के अतिरिक्त राज्यों से लेकर केन्द्र तक के पास और कोई विकल्प नहीं रह जायेगा। आज हिमाचल का ही कर्ज साठ हजार करोड़ का आंकड़ा पार कर चुका है जोकि शायद राज्य के जीडीपी के 50% से अधिक है। इस बढ़ते कर्ज को कैसे रोका जाये और कर्ज के बिना राज्य की आवश्यकताओं को कैसे पूरा किया जाये यह आने वाले दिनों के केन्द्रीय मुद्दे होने जा रहे हैं। लेकिन आज राजनीतिक और प्रशासनिक दोनों नेतृत्व इस सवाल पर आंखें बन्द करके बैठे हैं। ऐसे में जब भी कोई व्यक्ति राजनीतिक विकल्प के मकसद से राजनीतिक संगठन खड़ा करने का प्रयास करेगा उसे इस सवालों पर पूरी ईमानदारी से चिन्तन करके इस संबंध में एक समझ बनाकर उसे सार्वजनिक बहस का विषय बनाना होगा। राज्य के संसाधनों का पूरा विश्लेषण अपने पास रखना होगा और उन संसाधनों को कैसे आगे बढ़ाया जाये इसकी एक पूरी कार्य योजना तैयार रखनी होगी। राज्य की वर्तमान समस्याओं की जानकारी के साथ उनके लिये जिम्मेदार राजनीतिक नेतृत्व को पूरे प्रमाणिक साक्ष्यों के साथ चिन्हित करके पूरी बेबाकी से जनता के सामने रखना होगा। जब तक कोई ऐसा नही करेगा तब तक जनता उसे कतई गंभीरता से नही लेगी क्योंकि आज 1989 जैसे ही प्रयास करने की आवश्यकता होगी। क्योंकि आज जो राजनीतिक वातावरण बना हुआ है उसे भेदने के लिये 1977 और 1989 जैसे ही प्रयास करने की आवश्यकता होगी। क्योंकि आज जो सत्तापक्ष है उसके हर राजनीतिक कार्य के पीछे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की ऐसी विचार शक्ति क्रियाशील है कि उससे सारे आर्थिक सवाल गौण होकर रह गये हैं जबकि हर आदमी पर इनका सीधा प्रभाव पड़ रहा है। इसलिये आज स्थिति यह चयन करने पर पहुंच गयी है कि प्राथमिकता आर्थिक सवालों को दी जाये या संास्कृतिक राष्ट्रवाद को। प्रदेश में दस्तक देने को तैयार हो रहे इन तीसरे राजनीतिक दलों को स्थान बनाने के लिये इस चयन के टैस्ट से गुजरना होगा। लेकिन इसमें व्यवहारिक स्थिति यह है कि इस समय आम आदमी पार्टी की प्रदेश ईकाई की कमान एक ऐसे व्यक्ति के पास है जो अपनी व्यवसायिक व्यस्तताओं के कारण ज्यादा समय प्रदेश से बाहर रहता है। इस बाहर रहने के कारण प्रदेश ईकाई के अन्य सदस्यों में आपसी तालमेल की स्थिति यह है कि अभी से उनके संबंधों के आॅडियो वायरल होने लग पडे हैं। अभी तक प्रदेश ईकाई जनता को यह नही बता पायी है कि उसका विरोध विपक्ष में बैठी कांग्रेस से है या सत्ता पक्ष में बैठी भाजपा से है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार के सहारे राज्यों में ईकाईयों का गठन करके उसे राजनीतिक विकल्प के स्तर तक ले जाना ईकाई के वर्तमान नेतृत्व के तहत संभव नही है। फिर दिल्ली की जो राजनीतिक और आर्थिक स्थितियां है वैसी देश के अन्य राज्यों की नही है। प्रदेश की आम आदमी पार्टी से जुड़े अधिकांश लोगों की निष्ठायें पहले संघ भाजपा के साथ हैं उसके बाद आम आदमी पार्टी के साथ। इसी तरह की स्थिति स्वाभिमान पार्टी और जनक्रान्ति पार्टी की है यह लोग अभी तक स्पष्ट नही हो पाये हैं कि उनका पहला विरोध संघ/भाजपा से है या कांग्रेस से। डा. सुशान्त तो भाजपा से प्रदेश में मन्त्री और केन्द्र में सांसद रह चुके हैं। संघ से प्रशिक्षित भी हैं ऐसे में उन्हे भी कांग्रेस को कोसना आसान है भाजपा संघ को नहीं। इसलिये उन्होने कर्मचारियों के उस पैन्शन को उठाया जो उनके सांसद रहते घटा और तब वह उस पर चुप रहे। आज भी उन्होंने यह नही बताया कि इसके लिये वह केन्द्र को कितना दोषी मानते हैं। ऐसे में जब तक यह लोग अपनी सोच में स्पष्ट नही हो जाते हैं तब तक इनके राजनीतिक प्रयासों का कोई लाभ नही होगा।
शिमला/शैल। शिमला में गाड़ी पार्क करना एक बड़ी समस्या है। शायद 25% घरों के पास ही अपनी पार्किंग की सुविधा है जबकि गाड़ी लगभग हर घर के पास है। शहर की व्यवस्था नगर निगम के पास है इसलिये शहर में बनने वाले हर मकान का नक्शा नगर निगम से पास करवाया जाता है। नक्शा पास करने की फीस ली जाती है। यह इसीलिये किये जाता है ताकि उस घर को मिलने वाली सारी सार्वजनिक सेवाएं उसे आसानी से उपलब्ध हो सकें। नक्शा पास करने का जो शुल्क लिया जाता है वह यही सेवाएं उपलब्ध करवाने के नाम पर लिया जाता है। मकान बन जाने के बाद फिर संपति कर लेना शुरू हो जाता है। सारे शुल्क सेवाएं उपलब्ध करवाने के नाम पर लिये जाते हैं लेकिन क्या यह संवायें हर घर को आसानी से उपलब्ध हो पा रही हैं शायद नहीं। आज भी ऐम्बुलैन्स और अन्गिशमन की गाड़ी हर घर के पास नही पहुंच पाती है। यह सब योजना की कमीयां हैं। आज भी नक्शा पास करते हुए पार्किंग का प्रावधान अनिवार्य नही किया गया है। जबकि जो भी मकान सड़क के साथ लगता हो उसे उस लेबल पर पार्किंग का प्रावधान करना अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए। इस समय सड़कों पर येलो लाईन लगाकर पार्किंग का प्रावधान किया जा रहा है। लेकिन इस प्रावधान के नाम पर इन सड़कों को एक मुश्त नीलाम करके इकट्ठा शुल्क ले लिया जा रहा है। इस नीलामी के नाम पर शहर के दुकानदारों का इन सड़कों पर एकाधिकार का रास्ता खोल दिया गया है। इससे जो दूसरे लोग लोअर बाजा़र, मालरोड़ नगर के दूसरे हिस्सों से सामान खरीदने या थोड़ी देर के लिये घूमने आते हैं उन्हे अब गाड़ी पार्क करने की सुविधा नही मिल पा रही है। जबकि पहले यूएस क्लब से लिफ्रट तक आने वाली सड़क पर सबको गाड़ी पार्क करने की सुविधा मिल जाती थी। नगर निगम ठेकेदारों को यह काम सौंप देती थी और वह उतने समय की फीस ले लेता था जितनी देर गाड़ी पार्क रहती थी। लेकिन अब सडक पर गाड़ियों के नम्बर लिख दिये गये हैं और वह उनकी स्थायी पार्किंग बन गयी है। इसमें यह भी देखने को मिल रहा है कि सड़क का नम्बर किसी और गाड़ी का लिखा है और पार्क उसी की दूसरे नम्बर की गाड़ी हो रही है। इस तरह गाड़ी को नहीं व्यक्ति को स्थायी रूप से स्थान दे दिया गया है। ऐसा शहर की कई सकड़ों पर किया गया है जबकि रोड़ टैक्स तो हर गाड़ी से लिया जाता है ऐसे में जिस भी गाड़ी के पास इन सड़कों पर आने का परमिट है उन्हें अब यहां पार्किंग नही मिल रही है जबकि रोड़ टैक्स तो सब गाड़ीयों से एक बराबर लिया जाता है। फिर सबसे रोड़ टैक्स लेने के बाद कुछ एक को नीलामी के नाम पर स्थायी सुविधा कैसे दी जा सकती है। चर्चा है कि नगर निगम ने व्यापार मण्डल के दबाव में आकर यह सब किया है और राजनीतिक तथा प्रशासनिक नेतृत्व ने इस पर आखें बन्द कर ली हैं। शहर की सार्वजनिक सड़कों को नीलामी के नाम पर कुछ अमीर लोगों को सौंप देना बड़ी चर्चा का विषय बना हुआ है।