Saturday, 20 December 2025
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जब विधायक प्राथमिकताओं और इस आश्य की घोषणाओं में तालमेल ही नहीं तो फिर उनका औचित्य क्या है

शिमला/शैल। मुख्यमन्त्री जयराम ठाकुर ने चम्बा, सिरमौर और ऊना के विधायकों से उनकी वित्त वर्ष 2021-22 के लिये विधायक प्राथमिकता पर चर्चा करते हुए यह खुलासा किया कि अगले वित्तिय वर्ष के लिये राज्य की वार्षिक योजना 9405.41 करोड़ की रहेगी। पिछले 2020-21 में यह योजना 7900 करोड़ की थी। सामान्यतः वार्षिक योजनाओं में प्रतिवर्ष दस प्रतिशत की वृद्धि रहती है लेकिन इस वर्ष यह वृद्धि करीब 20% है। इस वृद्धि से यह सवाल उठना स्वभाविक है कि क्या अब भविष्य में यह वृद्धि प्रतिवर्ष इसी अनुपात में रहेगी या कोरोना के कारण इसी वर्ष के लिये यह हुआ है। वैसे इसकी वास्तविक तस्वीर पूरा बजट आने पर साफ होगी। मुख्यमन्त्री ने विधायकों से चर्चा के दौरान विधायक प्राथमिकताओं को लेकर कुछ आंकड़े भी सामने रखे हैं। उन्होंने बताया कि विधायक प्राथमिकताओं के लिये वर्ष 2020-21 में 926.24 करोड़ की 251 परियोजनाएं स्वीकृत की गयी हैं। उन्होंने यह भी बताया कि पूर्व सरकार के पहले तीन वर्षों में वार्षिक योजना का आकार 13,300 करोड़ रहा है जबकि उनकी सरकार के पहले तीन वर्षो में यह आकार 21,300 करोड़ हो गया है। उन्होंने यह भी बताया कि पूर्व सरकार के कार्यकाल के दौरान 2033 करोड़ की विधायक प्राथमिकता योजनाएं स्वीकृत की गई और इस सरकार के तीन वर्षों में 2382 करोड़ की योजनाएं स्वीकृत हुई। इन योजनाओं के कार्यान्वयन के लिये पूर्व सरकार ने 1276 करोड़ और इस सरकार ने 2221 करोड़ का प्रावधान किया है।
वर्ष 2020 -21 के लिये वार्षिक योजना 7900 करोड़ की थी। मुख्यमन्त्री ने अपने बजट भाषण में विधायक प्राथमिकताओं की प्रति विधानक्षेत्र 120 करोड़ की सीमा रखी थी। इसके अनुसार हर विधायक हर वर्ष 120 की योजनाएं अपनी प्राथमिकता के अनुसार दे सकता है। इसके अतिरिक्त क्षेत्र विकास निधि 1.75 करोड़ और विवेक अनुदान निधि दस लाख रखी गयी थी। इस तरह एक विधायक को एक वर्ष में मिलने वाली इन राशियों का यदि गणित लगाया जाये तो यह राशी 8285 करोड़ बनती है। इसलिये यह सवाल हमने उठाया था कि जब वार्षिक योजना ही 7900 करोड़ की है तो उसमें से विधायकों को ही 8285 कहां से दिये जा सकते हैं। अब मुख्यमन्त्री ने जो आंकड़े सामने रखे हैं उनके मुताबिक तीन वर्षों में केवल 2382 करोड़ की ही विधायक प्राथमिकता योजनाएं तीन वर्षों में स्वीकृत हुई हैं। जो प्रति वर्ष 794 करोड़ और प्रति विधायक करीब 12 करोड़ बैठती है। कार्यान्वयन के लिये किया गया प्रावधान स्वीकृति से भी कम है और वह प्रति दस करोड़ से भी कम बैठता है। इन आंकड़ों से स्पष्ट हो जाता है कि मुख्यमन्त्री की बजट घोषणाओं और उन्हीं के द्वारा विधायकों के सामने रखे गये आंकड़ों में कहीं कोई तालमेल नहीं बैठता है।
मुख्यमन्त्री की घोषणाओं और इन आंकड़ों के परिदृश्य में विधायकों को लेकर भी यह प्रश्न उठता है कि क्या हमारे विधायक इन घोषणाओं के अनुसार अपनी योजनाएं ही सरकार को नहीं दे पाते हैं या फिर वह मुख्यमन्त्री की घोषणाओं को गंभीरता से लेते ही नहीं है। जब घोषणाओं और उनके व्यवहारिक पक्ष में कोई तालमेल ही नहीं है। तब यह सवाल उठना स्वभाविक है कि क्या यह घोषणाएं केवल जनता में तालीयां बरोटने के लिये ही की जाती है। क्या इन आंकड़ों के सामने आने के बाद विधायकों से इस बारे में सवाल नहीं पूछे जाने चाहिये। इस समय प्रदेश लगातार कर्ज के दल दल में धंसता जा रहा है। सीएजी के मुताबिक सरकार जो कर्ज उठा रही है उसका 72% से अधिक तो लिये हुए मूल कर्ज की किश्तें चुकाने में और शेष उसका ब्याज अदा करने में निकल जाता है। जिस विकास के नाम पर कर्ज लिया जाता है उसमें निवेश करने के लिये कोई पैसा बचता ही नहीं है। सीएजी की रिपोर्ट बाकायदा सदन के पटल पर रखी जाती है और उस पर कभी सदन में चर्चा नहीं उठायी जाती है। इसी से स्पष्ट हो जाता है कि आज जो प्रदेश की वित्तय स्थिति गंभीर हो चुकी है उसके लिये सरकार और विपक्ष दोनों बराबर के दोषी हैं।

क्या ‘‘आप’’ प्रदेश में अपनी विश्वसनीयता बना पायेगी

शिमला/शैल। आमआदमी पार्टी की हिमाचल ईकाई के कार्यालय का फिर उद्घाटन हुआ है क्योंकि पहले वाला कार्यालय बन्द हो गया था। हिमाचल में आम आदमी पार्टी ने 2014 से अपनी गतिविधियों शुरू की थी। उस समय इसकी बागडोर कांगड़ा के तत्कालीन भाजपा सांसद राजन सुशांत ने संभाली थी और तब प्रदेश के चारों लोकसभा क्षेत्रों से चुनाव लड़ा था। उसके बाद हुए विधानसभा और फिर 2019 के लोकसभा चुनावों में कोई चुनाव नही लड़ा। यहां तक कि अब हुए स्थानीय निकायों और पंचायती राज संस्थाओं के चुनावों मेें भी अधिकारिक तौर पर भाग नही लिया। इस दौरान चार बार प्रदेश ईकाई का नेतृत्व बदला गया। सुशांत पार्टी से बाहर चले गये। महेन्द्र सोफत को भी जाना पड़ा। अब निक्का सिंह पटियाल को भी बदल दिया गया। जिन लोगों ने लोकसभा का चुनाव लड़ा था और उसके बाद भी पार्टी से जुड़े थे वह लोग अब पार्टी में दिखायी नही दे रहे हैं। पार्टी में बार-बार नेतृत्व क्यों बदला गया और किसी भी चुनाव में भाग क्यों नही लिया गया इसको लेकर प्रदेश की जनता के सामने आज तक कुछ नही आया है।
राजनीतिक दल कोई प्राईवेट संगठन नही होते बल्कि सार्वजनिक संस्था होते हैं। जिसने हर आदमी के लिये काम करना होता है और उससे वोट के रूप में समर्थन लेना होता है। इसी नाते राजनीतिक दलों की गतिविधियों पर हर आदमी की नजर रहती है। इस परिप्रेक्ष में यदि आम आदमी पार्टी का प्रदेश के संद्धर्भ में आकलन किया जाये तो यह सामने आता है कि इसमें शामिल होने वाले अधिकांश लोगो की निष्ठायें ‘‘आप’’ की बजाये भाजपा के प्रति थी और उन्होने इसका प्रयोग केवल कांग्रेस का विरोध करने के लिये ही किया। भाजपा के प्रति खामोश रहे और अधिकांश तो भाजपा में वापिस भी चले गये। हिमाचल की ज़मीनी हकीकत यह है कि यहां पर किसी भी तीसरे दल को अपना स्थान बनाने के लिये भाजपा और कांग्रेस दोनों का एक साथ ईमानदारी से विरोध करना होगा। इस समय भाजपा सत्ता में है इसलिये पहला विरोध उसका होना चाहिये। लेकिन ‘‘आप’’ के जो भी प्रदेश में कार्यकर्ता या नेता होने का दावा करते हैं यदि उनकी सोशल मीडिया पर आने वाली पोस्टों का अध्ययन किया जाये तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि आज वह परोक्ष/ अपरोक्ष में कांग्रेस को ही अपना विरोधी मानते हैं। उनके इसी एक तरफा विरोध के कारण ‘‘आप’’ को भाजपा का ही दूसरा चेहरा कहा जाता है।
आज जब नये सिरे से ईकाई का गठन और प्रदेश कार्यालय की स्थापना हुई है तब इस मौके पर भी ‘‘आप ’’ का नेतृत्व बहुत सारे प्रश्नों पर खामोश रहा है। प्रदेश की भाजपा सरकार के खिलाफ कुछ भी कहने से बचता रहा है। आज स्थानीय निकाय और पंचायती राज संस्थाओं के लिये हुए चुनावों में भाजपा का प्रदर्शन उतना नही रहा है जितने का दावा किया जा रहा है। निर्दलीयों को सत्ता के सहारे प्रभावित करके इन संस्थाओं पर कब्जा किया जा रहा है। इस परिदृश्य में आप का यह दावा करना कि उसके चालीस पार्षद जीत कर आये हैं और फिर उनकी सूची जारी न कर पाना तथा बाद में यह कहना कि यह चालीस लोग उनके संपर्क में हैं यह प्रमाणित करता है कि प्रदेश के कार्यकर्ताओं द्वारा अभी भी केन्द्रिय नेतृत्व के सामने सही स्थिति नही रखी जा रही है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार अच्छा काम कर रही है इसमें कोई दो राय नही है। लेकिन सरकार होने के बावजूद वहां की नगर निगमों पर भाजपा का कब्जा है। दिल्ली एक ऐसा राज्य है जहां पर सरकार से ज्यादा काम नगर निगमों पर है। फिर जितना कर राजस्व दिल्ली की सरकार को मिलता है उतना बहुत सारे राज्यों के पास नही है। इसी राजस्व के सहारे दिल्ली सरकार बहुत सारी सेवाएं अपने लोगों को मुफ्त में दे रही है। अन्य प्रदेशों में ऐसा कर पाना संभव नही है। शायद इसी कारण से दिल्ली से बाहर अन्य राज्यों में आप की प्रभावी इकाईयां नही बन पायी हैं। इसीलिये हिमाचल में दिल्ली जैसी सुविधाओं का दावा करके एक प्रभावी ईकाई का गठन कर पाना संभव नही होगा। हिमाचल में अपना स्थान बनाने के लिये आप जब तक यह स्पष्ट नही हो जाती है कि उसका पहला विरोध सत्तारूढ़ दल से है तब तक प्रदेश में उसकी विश्वसनीयता बनना संभव नही है।

कांग्रेस में गद्दार कौन है वीरभद्र के ब्यान से छिड़ी चर्चा

शिमला/शैल। हिमाचल प्रदेश कांग्रेस के वरिष्ठतम नेता और छः बार प्रदेश के मुख्यमन्त्री रहे और वर्तमान में अर्की विधानसभा क्षेत्र के विधायक वीरभद्र सिंह ने अपने चुनाव क्षेत्र के नव निर्वाचित कांग्रेस समर्थक सदस्यों को संबोधित करते हुए यह कहा कि वह अब चुनाव नहीं लड़ेंगे। इसी अवसर पर उन्होंने कांग्रेस जनो से भी यह आह्वान किया कि वह पार्टी के भीतर बैठे गद्दारों को बाहर करने के लिये आगे आयें। यहां पर उन्होंने यह भी स्पष्ट कहा कि वह कांग्रेसी थे-है और मरते दम तक रहेंगे। अर्की के इस संबोधन के बाद जब उनसे पुनः यह पूछा गया कि क्या वह सही में ही अगला चुनाव नहीं लड़ेंगे तब कहा कि यह परिस्थितियों पर निर्भर करता है। वीरभद्र छः बार मुख्यमन्त्री रह चुके हैं इस नाते प्रदेश के हर कोने में उनके समर्थक मिल जायेंगे यह स्वभाविक है। इस समय भी यदि यह सवाल आयेगा कि कांग्रेस का अगले चुनावों मे नेता कौन होगा तो उन्हीं का नाम सामने आयेगा। ऐसे में जब तक वीरभद्र यह पक्के तौर पर स्पष्ट नहीं कर देते हैं कि वह चुनाव लड़ेंगे या नहीं तब तक कांग्रेस में असमंजस की स्थिति बनी रहेगी और पार्टी को उसका नुकसान होगा।
वीरभद्र के इस दोहरे कथन के साथ ही उनका यह आह्वान और भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि पार्टी के भीतर बैठे गद्दारों को बाहर निकाला जाये। स्वभाविक है कि उनकी नज़र में पार्टी के भीतर कुछ गद्दार हैं और उनको निकालने के लिये वीरभद्र ने एक तरह से लड़ाई का ऐलान कर दिया है। वीरभद्र जिसको एक बार अपना विरोधी मान लेते हैं तो उसे हराने के लिये वह किसी भी हद तक जा सकते हैं। 1980 में प्रदेश के वन माफिया के खिलाफ सांसदो/विधायकों के नाम खुला पत्र लिखने से शुरू करके, 1993 में आधे विधायकों के चण्डीगढ़ में बैठे रहने के बावजूद उनका मुख्यमन्त्री पद की शपथ लेना फिर कौल सिंह ठाकुर और सुक्खविन्द्र सुक्खु को अध्यक्ष पद से हटवाने तथा उनके समर्थकों द्वारा एक समय वीरभद्र ब्रिगेड तक का गठन कर लेना ऐसे उदाहरण हैं जो उनकी लड़ाई के स्पष्ट प्रमाण है। इस सबसे वीरभद्र कांग्रेस के ऐसे वटवृक्ष बन गये कि उनके साये तले कोई दूसरा नेता उभर ही नहीं पाया। इसका पार्टी को यह नुकसान हुआ कि आज ‘‘वीरभद्र के बाद कौन’’ यह पार्टी के लिये पक्ष प्रश्न बन कर खड़ा है। क्योंकि कौल सिंह, जी एस बाली और सुधीर शर्मा जैसे नेताओं की पिछले चुनावों में हार से यह सवाल और गहरा गया है। इस समय मुकेश अग्निहोत्री, आशा कुमारी, हर्षवर्धन और सुक्खु से पहले वरीयता में आनन्द शर्मा का नाम आता है।
इस परिदृश्य में पार्टी के गद्दारों को लेकर वीरभद्र के ब्यान के राजनीतिक मायने बहुत महत्वपूर्ण हो जाते हैं। क्योंकि इस समय पार्टी के बड़े चेहरे यही छः सात नेता हैं और कांग्रेस के प्रति इनकी निष्ठा को लेकर कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता है। ऐसे में यह जानना रोचक हो जाता है कि वीरभद्र की नज़र में पार्टी के गद्दार कौन हैं और उनको बाहर करने के लिये वह किस तरह की लड़ाई छेड़ सकते हैं। पिछले दिनों जब कांग्रेस के बडे़ नेताओं द्वारा सोनिया गांधी को पत्र लिखा गया और उसमें आनन्द शर्मा का नाम सामने आया था तब उस पर प्रदेश के भीतर तीव्र प्रतिक्रिया सामने आयी थी। आनन्द शर्मा से सार्वजनिक रूप से क्षमा याचना करने की मांग की गयी थी। संयोगवश यह पत्र लिखने के बाद आनन्द शर्मा केन्द्र में पार्टी की बहुत सारी कमेटीयों से बाहर भी हो गये हैं। इसको यह माना जाने लगा था कि शायद आनन्द शर्मा को प्रदेश का नेतृत्व दिया जा रहा है। प्रदेश कांग्रेस के वर्तमान अध्यक्ष कुलदीप राठौर को बनवाने में सबसे अहम भूमिका आनन्द शर्मा की ही रही है यह सभी जानते हैं। ऐसे में वीरभद्र के ब्यान के बाद पार्टी के भीतर यह चर्चा उठना स्वभाविक है कि प्रदेश राजनीति के इस शेर का अगला शिकार कौन होने जा रहे हैं। इस समय केन्द्र से लेकर राज्यों तक जो राजनीतिक माहौल हर रोज़ बनता जा रहा है उसमें हर जगह कांग्रेस पर ही सबकी निगाहें लगी हुई हैं। विपक्ष के नाम पर कांग्रेस ही भाजपा का पहला निशाना है। ऐसे में जहां कांग्रेस को पूरी एकजुटता के साथ सरकार और भाजपा को मुकाबला करना हैं वहीं पर पार्टी के अन्दर इस तरह की लड़ाई का छिड़ना संगठन और प्रदेश के लिये नुकसानदेह होगा यह तय है।

पंचायत चुनाव परिणामों के परिदृश्य में आसान नहीं होगा 2022 में सत्ता बचाये रखना

शिमला/शैल। स्थानीय निकायों और पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव परिणाम आ चुके हैं। सत्तारूढ भाजपा और मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस दोनों ही इसमें अपनी अपनी जीत का दावा कर रहे हैं क्योंकि यह चुनाव पार्टीयों के अधिकारिक चुनाव चिन्हों पर नहीं लड़े गये हैं। इसलिये दोनों दल जीत का दावा कर पा रहे है। जहां पर किसी उम्मीदवार के साथ उसके पोस्टर पर क्या मन्त्री या पार्टी के अन्य बड़े नेता का फोटो सामने देखने को मिला हैं उन्हें इस पार्टी के साथ जोड़ना तो सही है अन्य को नहीं। ऐसे में जिन उम्मीदवारों ने अपनी पहचान को सार्वजनिक किया है उनकी हार जीत से पार्टीयों के दावे की पुष्टि की जा सकती है। इसके अतिरिक्त जहां पार्टीयों ने अधिकारिक तौर पर हार जीत के आंकड़े जारी किये हैं उनसे भी पार्टीयों की स्थिति का आकलन किया जा सकता है। वैसे इन चुनावों का पूर्व इतिहास यही रहा है कि सत्तारूढ दल ही ज्यादा जीत का दावा करता आया है। ऐसे दावों के बावजूद भी सत्तारूढ़ दल ही विधान सभा चुनाव हारता आया है।
पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव तीन चरणों में हुए हैं। हर चरण के परिणाम के बाद पार्टीयों ने आंकड़े जारी किये हैं। पहले चरण के परिणामों का असर दूसरे और तीसरे चरण पर पड़ना स्वभाविक है। भाजपा ने दूसरे चरण के परिणामों के आंकड़े जारी किये हैं। भाजपा ने अपनी सुविधा के लिये प्रदेश को संगठनात्मक जिलों में बांट रखा है। भाजपा द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार पार्टी के पंचायत चुनावों में नुरपूर 61%, देहरा 69%, पालमपुर 70%, कांगड़ा 70%, चम्बा 81%, मण्डी 57%, सुन्दरनगर 63%, बिलासपुर 68%, हमीरपुर 71%, ऊना 76%, सोलन 72%, सिरमौर 65% महासू 55%, शिमला 46% और किन्नौर 61% सफलता मिलने का दावा किया गया हैं इन सोलह जिलों में से केवल पांच में 70% से अधिक सफलता मिली हैं इसमें कुल्लु, मण्डी, शिमला और महासू का प्रदर्शन बहुत कमजोर रहा है। इन्हीं आंकड़ों का आकलन यह प्रमाणित कर देता है कि लोकसभा और विधानसभा उपचुनावों के बाद जनता भाजपा से दूर जाने लग पड़ी है। हर जिले में जिला परिषदों के लिये वह उम्मीदवार हार गये हैं जिन्हें वहां के मन्त्रीयों ने खुला समर्थन दिया था और उम्मीदवारों के साथ अपने फोटो लगवाये थे।
इन चुनावो में पहली बार यह देखने को मिला है कि महेन्द्र सिंह जैसे मन्त्री के अपने क्षेत्र में ‘‘गौ बैंक’’ के नारे लगे। भले ही इन नारों के बावजूद महेन्द्र सिंह की बेटी चुनाव जीत गयी है। भाजपा संसद रामस्वरूप के भाई का अपने वार्ड में चुनाव हारना और मुख्यमन्त्री के अपने जिला परिषद वार्ड से भाजपा उम्मीदवार का हारना भी इस चुनाव की महत्वपूर्ण राजनीतिक घटनायें हैं जिनका असर आने वाले दिनों में देखने को मिलेगा। इन चुनावों में कांग्रेस ने भाजपा पर जनमत का अपमान करने और विजयी उम्मीदवारों को अगवा करने और उनके घरों में छापामारी तक करने के आरोप लगाये हैं। ऐसा करने के बाद भी भाजपा के अपने आंकड़ोे के अनुसार ही पार्टी को 60% से कम सफलता मिली है। अभी लोकसभा चुनावों को हुए एक वर्ष समय हुआ है। इसी समय में पार्टी के आधार का इतना टूटना भविष्य को लेकर एक बहुत बड़ा संकेत हो जाता है। इस चुनाव में अधिकांश मन्त्रीयों को उनके अपने ही बीडीसी और जिला परिषद बार्डों में हार का सामना करना पड़ा है। जबकि इन चुनावों में राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय मुद्दों पर कहीं कोई चर्चाएं नहीं उठी हैं। स्थानीय मुद्दों और आपसी रिश्तों के आधार पर लड़े गये इन चुनावों में भी उम्मीदवारों ने लाखों के हिसाब खर्च किया है। मन्त्रीयों द्वारा भी अपने समर्थकों की जीत सुनिश्चित करने के लिये लाखों खर्च किये जाने की चर्चाएं हैं इस सबके बावजूद पार्टी की परफारमैन्स मेें लोकसभा के मुकाबले में कमी आना यह स्पष्ट करता है कि 2022 में सत्ता में वापसी कर पाना सरकार के लिये आसान नहीं होगा।

डीसी आफिस परिसर में बिना टैण्डर के ही ठेकेदार को मिल गया लाखों का काम

शिमला/शैल। इन दिनों जिलाधीश शिमला के परिसर में स्थित एसडीएम शहरी के कार्यालय में बना बाथरूम और कार्यालय में हुई पैनलिंग को लेकर चर्चाओं का बाज़ार गर्म है। यह चर्चाएं इसलिये हैं क्योंकि इस कार्य के लिये कोई निविदायें आदि मांगने की औपचारिकता तक नहीं की गयी है। यहां तक चर्चा है कि इस काम पर कितना खर्च होगा इसका भी कोई ऐस्टीमेट काम शुरू करने से पहले तैयार नहीं किया गया। चर्चा है कि इस कार्य को करने वाले ठेकेदार की पहुंच के आगे संबधित प्रशासन को यह औपचारिकताएं कार्य शुरू होने से पहले पूरी करवाने का समय ही नहीं मिल पाया। शायद प्रशासन पर ठेकेदार को तुरन्त प्रभाव से कोई काम देने का दबाव था। क्योंकि ठेकेदार नगर निगम शिमला का सरकार द्वारा मनोनित एक पार्षद था। स्वभाविक है कि ऐसा मनोनयन उसी को मिलेगा जिसका ऊपर तक अच्छा रसूख होगा।
इस रसूख के कारण प्रशासन को काम देना पड़ा। इस कार्य में वही कहावत चरितार्थ हुई कि ‘‘आप मुझे बैठने मात्र की जगह दो और उसे सोने तक मैं स्वयं बना लूगां’’। साहब को बाथरूम मेें कुछ रिपेयर करने का काम दिया गया और जनाब ने उसी को बढ़ाकर एसडीएम का कमरा भी उसी में शामिल कर लिया। फिर जब बिना औपचारिकताओं के काम मिल गया हो तो उसका बिल भी अपनी ईच्छानुसार ही बनाया जायेगा। साहब ने इसी नियम पर चलते हुए नौ लाख से भी अधिक का बिल प्रशासन को थमा दिया। प्रशासन के पास शायद इस काम के लिये इतना बजट प्रावधान ही नहीं था। पैमेन्ट न होने पर एफसी रैवन्यू तक मामला जा पहुंचा। एफसी ने मामला डीसी शिमला को भेज दिया। डीसी ने भी जैसे मामला एफसी से आया वैसे ही उसे एसडीएम को भेज दिया। एस डी एम शायद साढ़े तीन लाख की ही पैमैन्ट कर पायी है चर्चा तो यहां तक है कि इसी मामले के कारण एसडीएम का यहां से तबदला हुआ है।
यह सब शिमला में घटा है। सरकार में कोई भी खरीद की जानी हो या किसी भी तरह का निर्माण/रिपेयर आदि का काम किया जाना हो तो उसका बजट में वाकायदा प्रावधान किया जाता है। बजट की उपलब्धता के बाद खर्च का अनुमान तैयार किया जाता है। इसके बाद टैण्डर/ कोटेशन आमन्त्रित किये जाते हैं और न्यूनतम आफर देने वाले को काम आवंटित किया जाता है। जहां यह सारी औपचारिकताएं पूरी नहीं की जाती है उसे भ्रष्टाचार की संज्ञा दी जाती है। ऐसे भ्रष्टाचार के लिये संवद्ध लोगों के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज करके कारवाई की जाती है। इस मामले में संवद्ध प्रशासन ने यह पुष्टि की है कि इसमें यह औपचारिकताएं पूरी नहीं की गयी है। यह मामला डीसी और एफसी दोनों के संज्ञान में रहा है। लेकिन किसी भी अधिकारी ने यह जानने का प्रयास नहीं किया कि इस कार्य के लिये बजट प्रावधान था या नहीं। क्योंकि बजट प्रावधान होने की स्थिति में मामला एफसी तक जाने की कोई आवश्यकता ही नहीं थी। यह भी जानने का प्रयास नहीं किया गया कि यह काम करवाना एसडीएम के अधिकार क्षेत्र का था भी या नहीं। स्वभाविक है कि सभी ने ‘‘पार्षद के ठेकेदार होने’’ के प्रभाव में ही इन सारे पक्षों की ओर ध्यान नहीं दिया है।
यहां पर यह महत्वपूर्ण है कि यदि राजधानी में ही इस तरह से काम हो रहे हैं तो फिर फील्ड में क्या कुछ हो रहा होगा। सरकार भ्रष्टाचार पर जीरो टालरैन्स के दावे करती है। ऐसे में यह देखना रोचक होगा कि इस मामले में कोई जांच करवाई की जाती है या नहीं। यह काम एसडीएम कार्यालय में नीरजा चांदला के कार्यकाल में हुआ है।

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