देवाशीष भट्टाचार्य ने मुख्यमंत्री और मुख्यसचिव को भेजी ई-मेल
शिमला/शैल। प्रदेश उच्च न्यायालय में 2017 के विधानसभा चुनावों से बहुत पहले एक याचिका दायर हुई थी। इस याचिका में प्रदेश लोक सेवा आयोग में नियुक्त सदस्य श्रीमति मीरा वालिया की नियुक्ति को चुनौती दी गयी थी। आरोप लगाया गया था कि उनकी नियुक्ति नियमों के विरूद्ध है और उनके खिलाफ एक आपराधिक मामला भी लंबित है। विधानसभा चुनावों के दौरान प्रदेश भाजपा ने ‘‘हिमाचल मांगे हिसाब’’ के नाम से एक बड़ा पत्र जनता में जारी किया था। इस पत्र में मीरा वालिया की नियुक्ति पर सवाल उठाया गया था। लेकिन चुनावों के बाद जब जयराम नेतृत्व में भाजपा की सरकार बन गयी तब नियमों में संशोधन किये बिना ही लोक सेवा आयोग में सदस्यों के दो पद सृजित करके एक को उसी दिन भर भी दिया गया। इस पद पर उस समय दैनिक जागरण में कार्यरत पत्रकार रचना गुप्ता की नियुक्ति हो गयी। लेकिन दूसरे पद को नही भरा गया। इस एक नियुक्ति पर यह सवाल उठना स्वभाविक था कि यदि मीरा वालिया की नियुक्ति नियमों के विरूद्ध थी तो फिर रचना गुप्ता की नियुक्ति नियमों में कैसे क्योंकि नियम तो अब भी पुराने ही चल रहे थे। बल्कि इसी बीच एक देवाशीष भट्टाचार्य ने 2016 में जोगिन्दर नगर की जे एम आई सी की अदालत में रचना गुप्ता के खिलाफ एक आपराधिक मामला लंबित होने का खुलासा करते हुए महामहिम राज्यपाल को एक पत्र भी भेज दिया। यह सब चर्चा में आने पर प्रदेश के हर आदमी की निगाहें इस मामले पर लग गयी। क्योंकि 2018 के अपने बजट सत्र में मुख्यमन्त्री जयराम ठाकुर ने प्रदेश लोक सेवा आयोग की कार्यशैली पर काफी गंभीर टिप्पणीयां की हुई थी।
प्रदेश लोक सेवा आयोग एक ऐसी संस्था है जो राज्य की शीर्ष सेवाओं के लिये चयन का काम करती है। लोक सेवा आयोग के सदस्य अपना काम पूरी निष्पक्षता और निर्भिकता से निभा सके इसके लिये यह व्यवस्था की गयी है कि इन सदस्यों की नियुक्ति एक चयन मण्डल की सिफारिश पर राज्यपाल करता है। लेकिन राज्यपाल और इस चयन मण्डल को इन्हे हटाने का अधिकार नही है। हटाने का अधिकार केवल राष्ट्रपति को है और वह भी सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जांच किये जाने के बाद। निष्पक्षता के लिये ही यह प्रावधान भी किया गया है कि यह सदस्य सेवा निवृति के बाद राज्य या केन्द्र सरकार में कोई पद स्वीकार नही कर सकते। लेकिन लोक सेवा आयोग की निष्पक्षता पर अक्सर सवाल भी उठते रहे हंै। हिमाचल में ही तीन बार गंभीर सवाल उठ चुके हैं। आयोग के सदस्यों/अध्यक्ष की नियुक्तियों को लेकर न तो कोई ठोस नियम है और न ही कोई प्रक्रिया। इस संद्धर्भ में एक मामला पंजाब-हरियाणा उच्च न्यायालय से अपील में सर्वोच्च न्यायालय में पहंुचा था। इस पर फरवरी 2013 में आये फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने राज्यों को इन नियुक्तियों को लेकर नियम बनाने और प्रक्रिया तय करने के निर्देश दिये थे। हिमाचल उच्च न्यायालय में भी मीरा वालिया की नियुक्ति को चुनौती देने वाली याचिका का भी फैसला आ गया है। इस फैसले में भी उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को निर्देश दिये हैं कि सरकार इन नियुक्तियों के लिये नियम और प्रक्रिया शीघ्र बनाये।The court said that it hopes that the State of H.P must step in and take urgent steps to frame memorandum of Procedure, administrative guidelines and parameters for the selection and appointment of the Chairperson and Members of the Commission, so that the possibility appointments is eliminated.
प्रदेश उच्च न्यायालय के निर्देशों के बावजूद जयराम सरकार ने अभी तक इस दिशा में कोई कदम नही उठा रखे हैं। आने वाले दिनों में लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष का पद खाली होने वाला हैै। सदस्यों के पद इस समय भी खाली हैं। यह सब आगे भरे जाने हैं। यदि इन नियुक्तियों से पहले नये नियम नही बनाये जाते हैं तब पुराने ही नियमों के तहत सरकार अपनी सुविधा के अनुसार इन्हे भरेगी जो कि प्रदेश उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय की अवमानना होगी। देवाशीष भट्टाचार्य ने इस आश्य की एक ई मेल भी मुख्यमन्त्री और मुख्य सचिव को भेज दी है। मुख्य सचिव ने इसे आवश्यक कारवाई के लिये अतिरिक्त मुख्य सचिव कार्मिक प्रबोध सक्सेना को भेज दिया है। यह माना जा रहा है कि यदि नये नियम और प्रक्रिया तय किये बिना यह नियुक्तियां हो जाती है तो यह मामला अदालत तक अवश्य पहुंचेगा।
इस प्रकरण में
पहली बार सर्वोच्च न्यायालय ने एक करोड़ का जुर्माना लगाया
दूसरी बार चालीस लाख का जुर्माना लगा
तीसरी बार सात विभागों के खिलाफ कड़ी कारवाई की अनुशंसा हुई
वीरभद्र, धूमल और अब जयराम सरकार में भी कानून की अनदेखी चलती रही
शिमला/शैल। जिला एवम् सत्र न्यायधीश धर्मशाला द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों की अनुपालना में मकलोड़ गंज बस अड्डा निर्माण प्रकरण पर शीर्ष अदालत को भेजी गयी चैदह पन्नों की रिपोर्ट में सरकार के सात विभागों के खिलाफ कड़ी कारवाई किये जाने की अनुशंसा की गयी है। जज ने अपनी रिपोर्ट में कहा है किIn the light of my aforesaid submissions, I have no hesitation to concluded that the officials/ officers of all the departments were hand in gloves with the Ms Prashanti Surya Construction Company, in order to give undue advantage to M/s Prashanti Surya Construction company including the financial benefits. For the same these officers/officials are liable. It is a case of serious lapse and failure on the part of officers/officials of State Government who were duty bound to take prompt and immediate action to stop the un-authorised and illegal construction of the structure in dispute. So, it is my humble submission that concerned Disciplinary Authority/Authorities of the State Government be directed to take deterrent action against the defaulting officers/officials. it appears that the CEO and Board of Directors SDO more assumed the powers to change the conceptual plan and allowed the construction work of illegal structure on the spot by throwing into the air the statutory provisions of law. Moreover the structure of bus stand on the spot has not been properly erected. As submitted here in above, due to pillars, there was lack of sufficient space for turning the buses and at the same time there is no separate entry and exist point of the buses. The structure has not been properly maintained and seepage was found on the spot. There is no separate place for idle bus parking. So it appears that the bus stand Authority has got no control over the maintenance of the bus stand structure and it is not paying any heed in this regard. In view of my submissions, it is a case of open favoritism of M/s Prashanti Surya Construction Company. All the concerned Authorities were well aware of the legal requirements, but they preferred to continue with the illegal construction without following the legal requirements. It can not be believed that the construction work on the spot continued from mid 2005 to beginning of 2009 without connivance the aforesaid Government Agencies and these officials /officers.स्मरणीय है कि धर्मशाला में बीओटी के तहत बन रहे बस अड्डा और चार मंजिला होटल तथा पार्किंग कम्पलैक्स के निर्माण को एक अनुज भारद्वाज ने सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित सीईसी में चुनौती दी थी। इसमें आरोप लगाया गया था कि यह निर्माण वनभूमि पर हो रहा है और इसके लिये वन एवम् पर्यावरण अधिनियम के तहत वांच्छित अनुमति नही ली गयी है। इस मामले में सीईसी ने 18 सितम्बर 2008 को सर्वोच्च न्यायालय को अपनी रिपोर्ट सौंपी थी। इस रिपोर्ट में पूरे निर्माण पर कानूनी प्रावधानों की घोर उल्लघंना के गंभीर आरोप लगे थे और संबद्ध प्रशासन की पूरी मिली भगत होने के भी आरोप लगे थे। इस रिपोर्ट पर सर्वोच्च न्यायालय ने हिमाचल सरकार को एक करोड़ का जुर्माना लगाया और निर्माण कार्य कर रही कंपनी प्रशांती सूर्या को ब्लैक लिस्ट कर दिया।
सीईसी की इस रिपोर्ट को प्रशांती सूर्या ने सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दे दी जिसका फैसला मई 2016 में आया। इस फैसले में प्रशांती सूर्या कोे 15 लाख, बस अड्डा प्रबन्धन अथाॅरिटी को 10 लाख और पर्यटन विभाग को पांच लाख का जुर्माना लगा। जुर्माने के साथ इसमें बन रहे होटल और रेस्तरां को गिराने के आदेश भी किये गये और प्रदेश के मुख्य सचिव को पूरे प्रकरण की जांच करके बस अड्डा प्राधिकरण के संबधित अधिकारियों की व्यक्तिगत जिम्मेदारी तय करके उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कारवाई करने के निर्देश दिये। इस फैसले की बस अड्डा प्राधिकरण ने अपील कर दी। इस अपील पर सर्वोच्च न्यायालय ने अपने पहले फैसले को संशोधित करते हुए इसकी जांच मुख्य सचिव से लेकर जिला धर्मशाला को सौंप दी और चार माह में रिपोर्ट देने के निर्देश दिये। 2017 के इन निर्देशों पर गयी रिपोर्ट में जिला जज ने एचआरटीसी और बस अड्डा प्रबन्धन प्राधिकरण, टीसीपी, वन विभाग, नगर पालिका और नगर निगम धर्मशाला, राजस्व विभाग, विद्युत विभाग और पर्यटन सभी विभागों की अपनी-अपनी भूमिका की समीक्षा करते हुए सभी को अपनी-अपनी जिम्मेदारी न निभाने का दोषी पाते हुए सभी के खिलाफ कड़ी कारवाई किये जाने की अनुशंसा की है।
इस बस अड्डा का निर्माण 2005-06 में वीरभद्र शासन में शुरू हुआ था। उसके बाद 2007 में धूमल सत्ता में आये। धूमल के बाद 2012 में फिर वीरभद्र सरकार आयी और आज जयराम को भी सत्ता में आये तीन वर्ष हो गये हैं। हर सरकार ने अदालत के फैसले को टालने का प्रयास किया है। इस निर्माण पर करीब 12 करोड़ रूपये बैंक से ऋण लेकर खर्च किया गया है जो आम आदमी का ही पैसा है। लेकिन जिला जज की रिपोर्ट के मुताबिक इस निर्माण की देखभाल तक नही हो रही है। सरकार बड़े अधिकारियों को बचाने के प्रयासों मंे लगी है। जहां तीन मुख्यमन्त्रीयों के कार्यकाल पर यह रिपोर्ट गंभीर सवाल उठाती है वहीं पर सात विभागों को इसके लिये एक साथ दोषी ठहराये जाने से यह सवाल उठना स्वभाविक है कि यदि यह सुशासन है तो अराजकता क्या होगी।
एफ आई आर के मुताबिक शिकायत 21-8-2020 को गयी
नगर निगम ने 16-5-2020 को ही आर टी आई में शिकायत की कापी दे दी
प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और राज्यपाल को भेजी शिकायत में न तो कोई तारीख और न ही कोई फोन नम्बर
शिकायतकर्ता विजय कुमार के पत्ते पर कोई संदीप उपाध्याय रहता है
प्रदेश उच्च न्यायालय और दो बार नगर निगम की अदालत से जीतने के बाद विजिलैन्स में जमीन के मामले में एफ आई आर
शिमला/शैल। क्या किसी मामले में प्रदेश उच्च न्यायालय और उसके बाद दो बार नगर निगम शिमला की अदालत से जीतने के बाद फैसले पर अमल करने के आग्रह का परिणाम व्यक्ति के खिलाफ विजिलैन्स में आपराधिक मामला दर्ज किया जाना हो सकता है? यह कमाल मुख्यमन्त्री जयराम ठाकुर की विजिलैन्स ने किया है और वह भी उस समय जब मुख्यमन्त्री स्वयं पत्रकार अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी को लोकतन्त्र के लिये घातक और चैथे सतम्भ की आजा़दी पर सीधा प्रहार करार दे रहे हों। संपादक शैल के खिलाफ बनाया गया मामला भाजपा सरकार और संगठन के इसी चेहरे को उजागर करता है। यह मामला क्या है क्यों बनाया गया है और कैसे बनाया गया यह जानकारी पाठकों के सामने रखा जाना इसलिये आवश्यक हो जाता है ताकि आम आदमी को सरकार के चरित्र की जानकारी हो सके। यह पता चल सके कि प्रशासन किस तरह की राय सरकार को देता है या सत्ता के आगे कैसे घुटने टेक देता है।
शैल ने प्रकाशन के लिये अपनी प्रिन्टिंग प्रैस लगाने हेतु 1990 में हिमाचल सरकार और शिमला स्थित पंजाब वक्फ बोर्ड से ज़मीन मांगी थी। सरकार ने तो इस आग्रह का कोई जवाब नही दिया लेकिन वक्फ बोर्ड ने इसे स्वीकार करते हुए शिमला के लक्कड़ बाजा़र स्थित मुस्लिम कालोनी ईदगाह में करीब 70 वर्ग गज़ जगह लीज पर दे दी। जून 1990 में मिली इस ज़मीन पर निर्माण शुरू किया जो बरसात में नाला बन्द होने के कारण आये तेज पानी के कारण गिर गया। करीब दो लाख का नुकसान हो गया। निर्माण बन्द करना पड़ा। बरसात के बाद जब पुनः निर्माण शुरू करने की तैयारी की तो वहां पर सार्वजनिक शौचालय का निर्माण हो चुका था। शौचालय बन जाने के कारण वहां पर प्रैस लगाना संभव नही रह गया था। शौचालय बना दिये जाने की जानकारी वक्फ बोर्ड को दी गयी। वक्फ बोर्ड से जानकारी मिली की यह नगर निगम द्वारा बनाये गये हैं और उससे मामला उठाया जाये। शौचालय बन जाने के कारण वहां पर प्रैस लगाना संभव नही रह गया था और लीज़ को रिन्यू करवाकर खाली ज़मीन का किराया भरने का भी कोई औचित्य नही था। नगर निगम से शौचालय को लेकर पत्राचार चलता रहा। नगर निगम के कारण 70 वर्ग गज़ ज़मीन चली गयी और लाखों का नुकसान हो गया। 1999 में नगर निगम ने माना कि शौचालय मेरे प्लाट की 13 वर्ग गज़ जगह पर बने हैं। इसके बदले में लक्कड़ बाज़ार बस स्टैण्ड पर स्थित रेनशैलटर के नीचे की 13 वर्ग गज़ लीज़ पर दे दी जिसे शैल ने अपने खर्चे पर बनाना था और यह खर्च एडवांस किराया के रूप में एडजैस्ट किया जाना था। दिसम्बर 1999 में नगर निगम के साथ लीज हुई और 2000 में यहां पर निर्माण शुरू किया। जब निर्माण शुरू किया तो एक अरूण कुमार ने इस पर एतराज उठाया और प्रदेश उच्च न्यायालय से स्टे करवा दिया। नोटिस होने पर जब उच्च न्यायालय में पक्ष रखा तब स्टे हटा दिया गया और 2006 में हमारे हक में फैसला भी आ गया। लेकिन इसी बीच 2003 में सरकार बदल गयी। वीरभद्र सरकार में नगर निगम ने हमारे खिलाफ वहां से हटाये जाने के लिये अपनी अदालत में मामला दायर कर दिया। इसका फैसला 2007 में हमारे हक में हुआ। इस फैसले की 2009 में मण्डलायुक्त के पास निगम ने अपील दायर कर दी। 2010 में मण्डलायुक्त ने यह मामला नये सिरे से सुनवाई करने के लिये नगर निगम को भेज दिया। 2016 में इसका फैसला फिर हमारे पक्ष में आया। अब जब इस फैसले पर अमल करने के लिये नगर निगम से आग्रह किया गया तब यह आपराधिक मामला खड़ा कर दिया गया। वैसे सर्वोच्च न्यायालय ने यह व्यवस्था दे रखी है कि ऐसे राजस्व से जुड़े विषयों पर आपराधिक मामले न बनाये जायें।
यह मामला बनाये जाने के लिये एक शिकायतकर्ता विजय कुमार प्रधानमन्त्री, मुख्यमन्त्री और राज्यपाल को शिकायत भेजता है कि वक्फ बोर्ड की जिस ज़मीन के बदले में नगर निगम ने हमे रेनशैलटर के नीचे ज़मीन दी है उसे वक्फ बोर्ड और नगर निगम की जानकारी के बिना हमने चार आदमीयों को बेच दिया है तथा इस तरह से गलत ब्यानी करके निगम से जगह ले ली। वर्ष 2000 से यह मामला लगातार अदालतों में चल रहा है और नगर निगम ही हमारे खिलाफ अदालत में गया है। जब नगर निगम अदालत के फैसले को लागू न करे तो उससे निगम की नीयत कोई भी समझ सकता है। लेकिन जो आरोप विजय कुमार ने लगाया है यह आरोप कभी किसी अदालत में बीस वर्षो में नही लगा है। यदि सही में ऐसा होता तो यह आरोप कभी का अदालत के रिकार्ड पर लाकर हमें बाहर कर दिया जाता। 2003 में जब नगर निगम हमारे खिलाफ अदालत में गया तब एक समय पीठासीन अधिकारी की गैर हाजिरी में रीडर ही हमारे खिलाफ मामले की सुनवाई कर रहा था और जब लिखित में मौके पर प्रोटैस्ट किया तब सुनवाई रूकी। यह सब रिकार्ड पर उपलब्ध है।
अब विजय कुमार की शिकायत पर कोई तारीख नही है लेकिन विजिलैन्स ने एफ आई आर में शिकायत की तारीख 21.08.2020 कही है। लेकिन नगर निगम से एक डाॅ. बन्टा ने आर टी आई में शिकायत की कापी 16.05.2020 को प्राप्त कर रखी है। एफ आई आर में विजय कुमार का नाम नही दिखाया गया है। शिकायत में विजय कुमार ने जो पता दिखाया है वहां पर कोई संदीप उपाध्याय रहता है। शिकायत पर कोई तारीख और फोन नम्बर का न होना शिकायत और शिकायतकर्ता दोनों की प्रमाणिकता पर प्रश्न चिन्ह लगाता है। लेकिन विजिलैन्स ने इस शिकायत को सही मानते हुये एफ आई आर दर्ज कर ली है। एफ आई आर में ही 30-11-95 को इस जमीन की वक्फ बोर्ड द्वारा डिमारकेशन किये जाने का जिक्र है। क्या इस डिमारकेशन से वक्फबोर्ड को जमीन का सही संज्ञान नही हो गया? फिर 25-4-99 को इस जमीन का निरीक्षण नगर निगम की टीम करती है और इसकी रिपोर्ट भी एफ आई आर के मुताबिक रिकार्ड पर लगी है। इन दोनों रिपोर्टों में हम शामिल नही हैं। हमें तो निगम ने दिसम्बर 1999 में जगह दी। तब सब कुछ निगम के संज्ञान में था। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक हैै कि विजिलैन्स ने कैसे अपराधिक माामला दर्ज कर लिया। इस परिदृश्य में यह स्पष्ट हो जाता है कि शैल की आवाज़ दबाने के लिये जबरदस्ती यह मामला खड़ा किया गया है। शैल के किस लिखने से सरकार को परेशानी हुई है इसका खुलासा अगले अकों में किया जायेगा।
अदालतों के फैसले
नगर निगम की कारवाई
शिमला/शैल। इस समय प्रदेश में कोरोना संक्रमितों का आंकड़ा 25000 से पार जा चुका है। आने वाले सर्दियों के दिनों में यह आंकड़ा और बढ़ेगा यह तय है। इससे निपटने के लिये सरकार की तैयारियां सारे दावों के बावजूद इतनी नहीं है कि वह हर जिले में इससे एक साथ निपट सके। क्योंकि जितने वैन्टीलेटर सरकार के पास उपलब्ध है शायद उन्हें आप्रेट करने के लिये उतने प्रशिक्षित कर्मचारी नहीं है। यह सारे आंकड़े एक याचिका में प्रदेश उच्च न्यायालय के सामने भी आ चुके हंै। इसके टैस्ट बढ़ाने के लिये भी पैरा मैडिकल स्टाॅफ और नर्सिंग स्टाॅफ को अब प्रशिक्षण देने की तैयारी हो रही है। दवाई आने में कितना समय और लगेगा यह कहना भी अभी कठिन है। आयूष का काढ़ा भी हर स्थान पर सुगमता से उपलब्ध नहीं है क्योंकि इस ओर कोई अलग से प्रयास किये ही नहीं गये हैं। प्रदेश की आयूष फारमैसियों के पास जितना भी काढ़ा उपलब्ध था उसे शुरू मे ही विभाग ने लेकर मन्त्रिायों, अधिकारियों तथा कोरोना उपचार में तैनात स्टाॅफ को बांट दिया था। अब भी विभाग जो काढ़ा मंगवा पाता है उसे इसी तरह कुछ विशेष लोगों को बांट दिया जाता है। आम आदमी के हिस्से में अब भी कुछ नहीं आ पाता है। आज कोरोना के लिये न तो कोई दवाई और न ही यह काढ़ा तक उपलब्ध है केवल बचाव का उपाय ही एक मात्रा विकल्प बचा है। इस बचाव में व्यवहारिक रूप से देह दूरी और मास्क पहनना ही प्रमुख रूप से आता है।
इस परिदृश्य में स्कूल खोलना और बच्चों को स्कूल भेजने के लिये अभिभावकों की लिखित अनुमति अनिवार्य करने का अर्थ है कि सरकार अपने ऊपर कोई जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं है। ऐसी वस्तुस्थिति में सरकार के इस फैसले पर सवाल उठना स्वभाविक है। जब से स्कूल खोलने और बच्चों का स्कूल आना शुरू हुआ है तब से अध्यापकों और छात्रों में कोरोना संक्रमण का आंकड़ा प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। प्रदेश का हर जिला इससे प्रभावित हो रहा है और यह बढ़ेगा ही यह भी तय है। इसलिये यह सवाल और भी प्रसांगिक हो जाता है कि सरकार ने स्कूल खोलने का फैसला क्यांे लिया। क्या सरकार का कोरोना को लेकर आकलन सही नहीं रहा है? क्या प्रशासन ने वस्तुस्थिति को गंभीरता से नहीं लिया है। जब सरकार ने बहुत अरसे से आॅनलाईन पढ़ाई शुरू कर रखी है और पाठ्यक्रम में भी कमी कर रखी है तब स्कूल खोलने की आवश्यकता और औचित्य क्या रह जाता है। मार्च से नवम्बर तक स्कूल बन्द रहे हैं। आठ माह स्कूल बन्द रखने के बाद अब सर्दीयों के मौसम में जब वैसे ही सर्दी, जुकाम का प्रकोप रहता है तब सरकार के इस फैसले को व्यवहारिक कैसे कहा जा सकता है।
कोरोना काल में जब आॅनलाईन पढ़ाई शुरू की तब बच्चों और अभिभावकों को स्मार्ट फोन लेना अनिवार्य हो गया था। इसके लिये नेटवर्क आवश्यक हुआ और यह बीएसएनएल की जगह जियो से लेना पड़ा। जियो ने नेटवर्क का शुल्क भी बढ़ा दिया। लेकिन इस व्यवस्था में स्कूल अध्यापक और बच्चे के बीच तीसरा कोई नहीं था। लेकिन अब जब इस व्यवस्था में सरकार ने बाकायदा एक एमओयू साईन करके जियो को बीच में लाकर खड़ा कर दिया है तब स्थिति बदल जाती है। जियो नेटवर्क सर्विस प्रदाता है और सामान्यतः उसकी भूमिका इससे अधिक हो ही नहीं सकती है तब क्या जियो को नेटवर्क प्रदान करने के लिये भी सरकार पैसा देगी? छात्रा जितना नेटवर्क प्रयोग करेंगे उसकी कीमत तो वह स्वयं देंगे फिर सरकार जियो को किस बात के लिये पैसा देगी। यह सवाल अभी तक अनुतरित है ऐसे में सवाल उठना स्वभाविक है कि जब तक नियमित रूप से स्कूल नही खुलेंगे और छात्रा नहीं आयेंगे तब तक जियो को भुगतान करना आसान नहीं होगा। जियो के कारण ही छात्रों की फीस आदि में बढ़ौत्तरी की गयी है। इस फीस बढ़ौत्तरी को लेकर रोष चल रहा है क्योंकि इसी के कारण प्राईवेट स्कूलों को भी पूरी फीस वसूल करने का मौका मिल गया है। इस फीस बढ़ौत्तरी के अतिरिक्त बिजली, पानी और बस किराया तक कोरोना काल में बढ़ा दिया गया है। वाहनों का पंजीकरण दस प्रतिशत कर दिया गया है। इस तरह हर ओर से आम आदमी में रोष व्याप्त हो रहा है। ऐसे में जब बच्चों में संक्रमण के बढ़ने के आंकड़े सामने आते जायेंगे तब उसी अनुपात में जनता में रोष बढ़ता जायेगा और यह रोष कोई भी शक्ल ले लेगा।
ऐसे परिदृश्य में व्यवहारिक यही होगा कि स्कूल खोलने का फैसला छोड़कर इस सत्रा में बच्चों को वैसे ही प्रोमोट कर दिया जाना चाहिये। क्योंकि जब तक कोरोना को लेकर आम आदमी में बैठा डर दूर नही होगा तब तब अभिभावक बच्चों को स्कूल भेजने के लिये तैयार नही हो पायेंगे।
शिमला/शैल। पूर्व मन्त्री एवम् सासंद डा. राजन सुशान्त ने राजनीतिक विकल्प के नाम पर प्रदेश में ‘‘अपनी पार्टी-हिमाचल पार्टी’’ के नाम से एक राजनीतिक दल का गठन किया है। इस दल की औपचारिक घोषणा करते हुए सुशान्त ने स्वयं इसे एक राजनीतिक प्रयोग कहा है। राजनीतिक प्रयोग कहकर आने वाले समय में यदि यह प्रयोग अफसल भी हो जाता है या कोई और आकार ले लेता है तो वह इसकी असफलता के दोष से बच जाते हैं। प्रयोग शब्द का चयन ही अपने में महत्वपूर्ण है। सुशान्त आरएसएस के तृतीय वर्ष प्रशिक्षित कार्यकर्ता हैं और प्रदेश में भाजपा के संस्थापकों में से एक हैं। सुशान्त प्रदेश की राजनीति में आन्दोलन से आये हैं। उन्हें यह राजनीति विरासत मे नही मिली है। इसलिये आन्दोलनों की पृष्ठिभूमि से राजनीति में आया व्यक्ति जब इस तरह के प्रयोग करने पर आ जाता है तब सब कुछ का नये सिरे से आकलन करना आवश्यक हो जाता है। क्योंकि राजनीतिक दल का गठन और उसकी गतिविधियां एक व्यक्ति या एक परिवार तक ही सीमित नही रहती हैं बल्कि पूरे समाज को प्रभावित करती हैं।
सुशान्त ने दल की घोषणा करते हुए प्रदेश की समस्याओं का जिक्र करते हुए यह आरोप लगाया है कि भाजपा या कांग्रेस की सरकारों के हाथों प्रदेश समस्याओं से नही निकल पायेगा। क्योंकि इन दलों का प्रदेश नेतृत्व दिल्ली के नेतृत्व की सूबेदारी से ज्यादा अहमियत ही नही रखता है। इसके उदाहरण के लिये उन्होने पंजाब पुनर्गठन में प्रदेश को मिले 7.19% हिस्से को व्यवहारिक रूप में ले पाने में कांग्रेस और भाजपा सरकारों का असफल रहना कहा है। क्योंकि जिन प्रभावित प्रदेशों से हिस्सा मिलना है उनके संसद में 48 सांसद है और जिन्होने हिस्सा लेना है उनके केवल चार सांसद हैं। मुख्यमन्त्री जयराम ठाकुर ने भी चण्डीगढ़ में एक पत्रकार वार्ता आयोजित करके दावा किया था कि यह हिस्सा लेना उनकी प्राथमिकता होगा। लेकिन अब तक यह दावा पत्रकार वार्ता से आगे नहीं बढ़ पाया है यह व्यवहारिक स्थिति है। यह बात सही है कि बहुत सारे मुद्दों पर हिमाचल का नेतृत्व केन्द्र में अपना पक्ष प्रभावी तरीके से नही रख पा रहा है। लेकिन ऐसा शायद इसलिये होता रहा है कि बजट की दृष्टि से हिमाचल की केन्द्र पर निर्भरता 67 से 70% रहती आयी है। प्रदेश की आत्मनिर्भरता के लिये जिन संसाधनों की बात सुशान्त ने कही है उन पर आज तक उन्होने भी सत्ता पक्ष में रहते हुए कभी बात नही की है। क्योंकि जब भी हिमाचल पानी और बर्फ की बात करेगा तो बदले में जवाब मिलेगा कि पानी का बहाव और बर्फ के पिघलने को रोक ले जो कि संभव नही है। इसके दोहन के लिये साधन नही हैं। ऐसे में प्रदेश के अपने संसाधनों पर निर्भरता के लिये बहुत कुछ चाहिये और उस सबकी चर्चा से सुशान्त दूर रहे हैं। इसलिये जिन मुद्दों पर सुशान्त ने शुरूआत करने की बात की है वह है पुरानी पैन्शन योजना की बहाली। इस समय देशभर का कर्मचारी इस योजना की बात कर रहा है। यह मुद्दा कर्मचारी राजनीति के लिये तो महत्वपूर्ण हो सकता है लेकिन यही मुद्दा प्रदेश के आम आदमी का मुद्दा नही बन जाता है।
इस समय देश और प्रदेश अभूतपूर्व आर्थिक संकट से गुजर रहा है। यह संकट देश में नोटबन्दी से शुरू हो गया था। आज कोरोना काल में आये लाकडाऊन के कारण इस संकट पर सार्वजनिक बसह नही चल पायी है। मोदी सरकार के आने के बाद बैंकों का एनपीए कितना बढा है? इस दौरान कितने लाख करोड़ का ऋण राईटआफ कर दिया गया। कितने लाख करोड़ के बैंक फ्राड हुए हैं। इन सबके कारण देश आर्थिक संकट में आया है कोरोना तो इसमें एक बड़ा छोटा सा फैक्टर रहा है लेकिन सुशान्त ने इस आर्थिक संकट को लेकर एक शब्द भी नही कहा है। इसी के साथ कृषि उपज विधेयकों को लेकर देशभर का किसान आज आन्दोलन में है। श्रम कानूनों के संशोधन से श्रमिकों के हितों को कुचल कर रख दिया गया है। लेकिन सुशान्त इन सारे ज्लवन्त मुद्दों पर एकदम खामोश रहे हैं। क्योंकि इस सबके पीछे संघ की सोच प्रभावी है। हिन्दु ऐजैण्डा संघ का मूल मुद्दा है। मोदी सरकार को तो उसे लागू करने की जिम्मेदारी दी गयी है। आज वैचारिक स्तर पर देश संघ की विचारधारा के साथ टकराव में चल रहा है। ऐसे में जो भी राजनेता देश स्तर पर या प्रदेश के स्तर पर किसी राजनीतिक दल के गठन की बात करेगा उसे इन मुद्दों पर स्पष्ट होना होगा। सुशान्त ने शायद संघ की पृष्ठभूमि के कारण इन मुद्दों से बचने का प्रयास किया है। इस समय पूरे देश की राजनीतिक केन्द्र से प्रभावित हो रही है। क्योंकि जो परिस्थितियां इस समय बनती जा रही है वह आज से पहले नही रही हैं। इसलिये जो भी नेता इन परिस्थितियों पर स्पष्ट पक्ष लेने से बचेगा जनता में उसकी स्वीकार्यता बनना संभव नही होगा ।