Saturday, 20 December 2025
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अब विभाग में स्कैम होना होगा प्रशंसा का मानक

शिमला/शैल। मुख्यमन्त्री ने सत्ता के तीन वर्ष पूरे होने पर अपने ही अधिकारियों के काम काज का आकलन जिस तरह से प्रदेश की जनता के सामने रखा है उससे सरकार की नीति पर स्वतः ही सवाल उठने लग गये हैं क्योंकि इस अवसर पर मुख्यमन्त्री ने अपने ही कुछ अधिकारियों के काम काज पर यह कहा है कि अधिकारी काम नहीं कर रहे हैं और उनसे काम लेने के लिये आक्रामक रणनीति अपनाई जायेगी। संभव है कि मुख्यमन्त्री के इस अनुभव का अपना कोई ठोस आधार रहा हो। लेकिन इसी के साथ जब मुख्यमन्त्री ने स्वास्थ्य विभाग की प्रशंसा भी कर डाली तो उससे कुछ और ही सवाल उठने लग पड़े हैं। यह सही है कि महामारी के दौर में स्वास्थ्य विभाग की जिम्मेदारी दूसरों से ज्यादा रही है। लेकिन यह जिम्मेदारी निभाने के लिये उसके पास संसाधन भी ज्यादा रहे हैं। लेकिन इस बढ़ी हुई जिम्मेदारी में यह भी कड़वा सच रहा है कि विभाग पर इसी दौरान भ्रष्टाचार के आरोप भी लगे हैं। इन आरोपों पर सरकार को विजिलैन्स में मामला दर्ज करवाना पड़ा। यह मामला दर्ज होने पर विभाग के निदेशक तक की गिरफ्तारी हो गयी। इसी मामलें की आंच पार्टी अध्यक्ष तक जा पहुंची और उन्हें अपना पद छोड़ना पड़ा। यही नहीं यह मामला बनने से पहले विभाग पत्र बम का शिकार हुआ जिसकी आंच में पार्टी का पूर्व मन्त्री तक झुलस गया।
इसी तरह जब विभाग की कार्यप्रणाली को लेकर बहुत पहले से ही सवाल उठने शुरू हो गये थे तब इन सवालों के साये में चल रहे विभाग की कार्यप्रणाली की प्रशंसा किया जाना क्या सरकार की नीयत और नीति पर सवाल नहीं उठायेगा। क्या इसका यह अर्थ नहीं निकलेगा कि जिस विभाग में नियमों/कानूनों को नज़रअन्दाज कर काम किया जायेगा उसी को प्रशंसा का प्रमाण पत्र मिलेगा। जो अधिकारी नियमों के दायरे में रह कर काम करेंगे क्या वह काम न करने वालों की श्रेणी में आयेंगे क्योंकि मुख्यमन्त्री के अपने ही आकलन से यह सवाल उठने लगा है। इस तरह के आकलन से शीर्ष अफसरशाही में न चाहे ही एक शीत युद्ध छिड़ गया है। संयोगवश इस समय कुछ ऐसे अधिकारी महत्वपूर्ण पदों पर बैठ गये हैं जिनकी कार्य निष्ठा को लेकर कई सवाल खड़े हैं। शायद जिन अधिकारियों को नियमों के अनुसार ओडीआई सूची में होना चाहिये था वह इस समय नीति निरधारकों की सक्रिय भूमिका में हैं। अधिकारियों में चल रहे शीत युद्ध से पूरी सरकार की कार्यप्रणाली प्रभावित हो रही है। बल्कि इस शीत युद्ध का साया स्वयं मुख्यमन्त्री के अपने सचिवालय को भी प्रभावित कर रहा है। क्योंकि पिछले दिनों जिस ढंग से इस कार्यालय में अधिकारियों की तैनातियां सामने आयी हैं उनमें यहां तक टिप्पणीयां चर्चा में आ रही हैं कि अमुक अधिकारी संघ के निर्देश पर वहां तैनात हुआ है तो अमुक एक मन्त्री और सेवानिवृत नौकरशाह की सिफारिश पर यहां आया है। यह चर्चाएं इसलिये उठी हैं क्योंकि मुख्यमन्त्री के अपने सचिवालय में ही तीसरे वर्ष में इस तरह की रद्दोबदल हुई है।
मुख्यमन्त्री सचिवालय में तीसरे वर्ष में आकर रद्दोबदल होने को लेकर सवाल और चर्चाएं उठना स्वभाविक है। क्योंकि यही कार्यालय सबसे ज्यादा संवेदनशील होता है। इसी की वर्किंग से सरकार को लेकर जनता में सन्देश जाता है। सामान्यतः ऐसे स्थलों पर कार्य कर रहे अधिकारियों का कार्यकाल तो मुख्यमन्त्री के अपने कार्यकाल के समान्तर ही रहता आया है परन्तु इस बार इसमें अपवाद घटा है और इसी कारण चर्चाओं का विषय भी बन गया है। अब यहां तक कहा जाने लग पड़ा है कि जब अधिकारी के अपने कार्यकाल की ही कोई निश्चितता नहीं रह जायेगी तो उनका कार्य निष्पादन भी कितना प्रभावी रह पायेगा। माना जा रहा है कि आने वाले दिनों में अधिकारियों की कार्यप्रणाली को लेकर कई रोचक किस्से सामने आयेंगे क्योंकि जब सरकार कुछ के मामलों में अदालत के निर्देशों तक का संज्ञान नहीं लेगी तो ऐसे लोगों पर सरकार के ‘‘अति विश्वास’’ के चर्चे तो उठेंगे ही।

सुशासन के लिये नियमों को अंगूठा

शिमला/शैल। जयराम सरकार ने तीन वर्ष पूरे कर लिये हैं। यह तीन वर्ष पूरा होने पर आयोजित कार्यक्रम में इस अवधि को ‘‘सुशासन के तीन साल’’ कहा गया है और इसके लिये प्रदेश की जनता का भी आभार व्यक्त किया गया है। यह आभार व्यक्त करने और सुशासन का संदेश देने के लिये सरकार के सूचना एवम् जन संपर्क विभाग की ओर से मुख्यमन्त्री के चित्र के साथ एक बड़ा होर्डिंग भी माल रोड़ जैसे प्रदेश के प्रमुख स्थलों पर लगाया गया है।लेकिन मुख्यमन्त्री के अतिरिक्त पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष शिमला के सांसद सुरेश कश्यप के चित्र वाला होर्डिंग भी शिमला की माल रोड़ की दीवार पर लगाया गया है। इसमें भी सुशासन के तीन साल का सन्देश प्रदेश की जनता को दिया गया है। परन्तु पार्टी अध्यक्ष के चित्र वाला यह होर्डिंग सार्वजनिक स्थल पर किसकी ओर से लगाया गया है इसका कोई जिक्र होर्डिंग पर बिना किसी जारी कर्ता के उल्लेख से सार्वजनिक स्थल पर लग जाना अपने में ही सुशासन के दावे पर एक सवाल खड़ा कर देता है क्योंकि प्रचार की कोई भी सामग्री प्रकाशक और मुद्रक के नाम-पत्ते के बिना नहीं छापी जा सकती है यह एक स्थायी नियम है। इसी तरह कोई भी होर्ड़िंग किसी भी सार्वजनिक स्थल पर जारीकर्ता के जिक्र के बिना टांगा नहीं जा सकता है। फिर सार्वजनिक स्थल पर ऐसा होर्डिंग टांगने के लिये संबंधित प्रशासन से लिखित में अनुमति लेनी होती है और उसके लिये कुछ शुल्क भी अदा करना पड़ता है।

माल रोड़ पर टंगे इस होर्डिंग पर जब किसी जारी कर्ता का नाम ही नहीं है तो स्वभाविक है कि प्रशासन से इसकी अनुमति भी नहीं ली गयी होगी। फिर जब इस होर्डिंग पर सत्तारूढ़ पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष का चित्र है तो स्वभाविक है कि प्रशासन की ओर से भी इस पर चुप रहने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं रह गया होगा। माल रोड़ प्रदेश का प्रमुख स्थल है जहां पर प्रशासन का हर छोटा बड़ा शिमला स्थित अधिकारी, और हर राजनीतिक दल का पदाधिकारी तथा मीडिया कर्मी प्रायः चक्कर काटता है लेकिन किसी ने भी इस पर कुछ कहने की जरूरत नहीं समझी है। भारत सरकार की आईवी के लोग भी रोज़ माल रोड़ पर होते हैं। इस होर्डिंग से किसी को कोई नुकसान नही पहुंच रहा है। लेकिन सवाल नियमों की अनुपालना का है और नियमों की निश्चित रूप से अवहेलना हुई है जिसकी सामान्यतः कोई आवश्यकता नहीं थी। लेकिन क्या ऐसा ही कोई दूसरा होर्डिंग बिना किसी जारी कर्ता के नाम से ऐसे किसी भी सार्वजनिक स्थल पर टंग जाये तो क्या प्रशासन उसका भी कोई संज्ञान नहीं लेगा? किसी के खिलाफ कोई मामला नहीं बनाया जायेगा? क्या यह छोटी से कोताही पूरे प्रशासन को कटघरे में खड़ा नहीं कर देती है? वैसे माल रोड़ पर लगे इस होर्डिंग के राजनीतिक मायने ही निकाले जाने लगे हैं क्योंकि ऐसा पहली बार हुआ है कि ऐसे अवसर पर मुख्यमन्त्री के बराबर पार्टी अध्यक्ष का होर्डिंग लगा हो। इस होर्डिंग को अध्यक्ष का राजनीतिक कद बढ़ाने की कवायद के रूप में भी देखा जा रहा है। लेकिन यह होर्डिंग लगाने में जिस तरह से नियमों /कानूनों को अंगूठा दिखाया गया है वह देर सवेर मुद्दा अवश्यक बनेगा क्योंकि यह होर्डिंग पंचायत और निकाय चुनावों के लिये लगाई गयी आचार संहिता का भी खुला उल्लघंन है क्योंकि आचार संहिता तीन वर्षीय आयोजन से पहले ही लग चुकी थी। ऐसे में सुशासन का संदेश देने वाली होर्ड़िंग का अपने में ही नियमों/ कानूनों का उल्लंघन होना कई सवाल खड़े कर जाता है।

क्या तीन वर्ष की असफलताओं के लिये केवल नौकरशाही ही जिम्मेदार है

शिमला/शैल। मुख्यमन्त्री जयराम ठाकुर को प्रदेश की सत्ता संभाले हुए तीन वर्ष हो गये हैं और इतना कार्यकाल सरकार का आकलन करने के लिये बहुत काफी होता है। सरकार हर बार एक वर्ष पूरा होने पर अपनी उपलब्धियां जनता के सामने रखने के साथ ही परोक्ष/अपरोक्ष में स्वयं अपना आकलन भी करती आयी है। हर वर्ष पूरा होने पर उपलब्धियों का विज्ञापन जारी होता रहा है। लेकिन इस बार तीन वर्ष पूरे होने पर आयोजित पत्रकार वार्ता में मुख्यमन्त्री ने स्वयं यह कहकर कि अफसरशाही काम नही करती है और उससे आगे दो वर्षो में काम लेने के लिये आक्रमक रणनीति अपनाई जायेगी। अपने समर्थकों और विरोधीयों दोनांे को ही एक चर्चा और चिन्तन का मुद्दा दे दिया है। हर कोई यह सवाल कर रहा है कि क्या सही में ही अफसरशाही को समझने में तीन वर्ष लग गये हैं या अब अफसरों ने भी नियमों/कानूनों से बाहर जाने के लिये हाथ खड़े कर दिये हैं। क्योंकि तीन वर्षों का यह कड़वा सच है कि इस दौरान प्रदेश सरकार कर्ज की सारी सीमाएं लांघ गयी है। शायद इसी कारण से उपलब्धियों का कोई विधिवत विज्ञापन भी जारी नही हो सका है।
इन तीन वर्षो में चैथा मुख्यसचिव प्रदेश देख रहा है यह चर्चा भी चल पड़ी है कि पांचवा मुख्य सचिव लाया जा रहा है। इन तीन वर्षों में यदि सरकार ने कोई बड़ा काम किया है तो यह शायद प्रशासनिक तबादलों का ही रहा है। कई बार तो शायद ऐसा भी हुआ है कि कार्मिक विभाग से कोई तबदाला प्रस्ताव जाने से पहले ही उसके पास आदेश आ जाते रहे हैं बल्कि सरकार को तबादला सरकार की संज्ञा दी जाने लग पडी थी। अधिकारियों के तबादलों में किसका दखल ज्यादा रहा है इसकी चर्चा सचिवालय से स्कैण्डल तक कभी भी सुनी जा सकती है। इन्ही चर्चाओं के कारण इस सरकार को भ्रष्टाचार के खिलाफ कारवाई करने की बजाये उसे संरक्षण देना आवश्यकता बन गयी थी। भ्रष्टाचार के खिलाफ लिखने, बोलने वालों को सरकार का विरोधी माना जाता रहा है। ऐसे लोगों की आवाज दबाने के लिये हर संभव प्रयास किया गया है। इसके कई प्रमाण मौजूद है।
लेकिन यह सब करने के बावजूद इन तीन वर्षों की उपलब्धियों का आकलन मुख्यमन्त्री के इसी कथन से हो जाता है कि अफसरशाही काम नही करती है। अफसरशाही की चुन चुन कर नियुक्तियां किसके ईशारों पर होती रही है। क्या नियुक्तियां पाने के लिये कई अधिकारी ऐसे प्रभावी लोगों के चरण स्पर्श तक नही करते रहे हैं? हो सकता है कि मुख्यमन्त्री इन प्रभावी लोगों की सामर्थय और प्रशासन में इनकी भूमिका का सही आकलन न कर पाया हों। परन्तु यह सच है कि सरकार का अब तक का कार्याकाल कतई रचनात्कम नही रहा है। किसी भी मुद्दे पर सरकार को अपेक्षित सफलता नही मिल पायी है। औद्यौगिक निवेश के लिये किये गये सारे प्रयासों का परिणाम कोई सन्तोषजनक नही रहा है। कोरोना का फैलाव प्रदेश में रोकने के लिये सरकार के सारे फैसले अप्रसांगिक रहे है। ऐसे में इन सारे फैसलों के लिये अकेले नौकरशाही को जिम्मेदार ठहराना कतई सही नही होगा। बल्कि मुख्यमन्त्री को अपने में आत्म मंथन करने की आवश्यकता है।

तीन वर्षों में विकास का नया रिकार्ड स्थापित प्रतिव्यक्ति आय के मुकाबले चार गुणा बढ़ा प्रतिव्यक्ति कर्ज

सरकार के तीन वर्षों पर कुछ सवाल
प्रदेश का कर्जभार 60,000 करोड़ से पार क्यों
प्रदेश के वित्तिय संस्थानों का 21,75,623 लाख का आऊट सोर्स स्टैण्डिंग ऋण कितना सुरक्षित है?
प्रदेश के बैंको का सीडी अनुपात 44.33 पर क्यों आ गया है
2541 करोड़ का बांटा गया मुद्रा लोन कितना वापिस आया है?
प्रदेश में लकड़ी का 226 हजार घन मीटर से घटकर 187 हजार घन मीटर रह जाना क्या चिन्ता का विषय नही?
शिमला/शैल। जयराम सरकार ने सत्ता में तीन वर्ष पूरे कर लिये हैं। यह तीन वर्ष पूरे होने पर मुख्यमन्त्री से लेकर नीचे तक सभी ने सरकार की उपलब्धियां गिनाने की रस्मअदायगी भी पूरी की है। इस अवसर पर जो मुख्य आयोजन रखा गया था उसके मुख्य वक्ता रक्षा मन्त्री राजनाथ सिंह थे। जयराम ने इस अवसर पर अपने पहली बार विधायक बनने से लेकर पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष और अब मुख्यमन्त्री बनने तक में राजनाथ सिंह के सहयोग और आशीर्वाद पर उनका विशेष आभार जताया है। लेकिन इस अवसर पर राजनाथ सिंह के संबोधन को पार्टी के ही लोगों ने कितनी गंभीरता और ईमानदारी से सुना है इसका प्रमाण सोलन कार्यालय में इस संबोधन के दौरान चल रहे नाच का विडियो वायरल होने से सामने आ गया है। इसी आधार पर इस सारे आयोजन को एक रस्मअदायी से ज्यादा महत्व देना अर्थहीन हो जाता है। क्योंकि सभी मन्त्रीयों और अन्य बड़े नेताओं को ऐसे अवसरों पर कुछ तो बोलना ही होता है और वह सरकार तथा नेता की प्रशंसा के अतिरिक्त कुछ बोल भी नहीं सकते। लाभार्थीयों की इससे अधिक आवश्यकता भी नहीं होती है। इस नाते मुख्यमन्त्री से लेकर नीचे अंध भगत कार्यकर्ता तक यही एक बड़ी उपलब्धि है कि इस सरकार के भी सत्ता में तीन साल पूरे हो गये हैं। क्योंकि जिन्हें किसी भी कारण से ताजपोशी मिल गयी है उनके लिये इससे अच्छी सरकार और कोई हो ही नहीं सकती है। फिर 2019 का लोकसभा और उसके बाद विधानसभा के उपचुनाव इसी नेतृत्व के तहत जीते हैं।
लेकिन सत्ता में बने रहने से हटकर एक दूसरा पक्ष भी होता है और वह है आम आदमी। इस आम आदमी को इन तीन वर्षों में क्या मिला। इस मिलने का सबसे बड़ा आधार साधन वित्त होता है। परिवार से लेकर देश तक सभी को धन उपलब्धता के माध्यम से ही मिलता है और यह धन या तो कमाने से या फिर संपति बेचकर या कर्ज उठाकर मिलता है। इस दृष्टि से केन्द्र से लेकर प्रदेश सरकार तक ने संपत्तियां बेचने और कर्ज उठाने के आसान रास्ते को ही अपनाया है। सरकार संपत्ति बेचने के लिये पीपीपी और वीओटी का रूट अपनाती है। जब सार्वजनिक संसाधनों का दोहन प्राइवेट सैक्टर को दिया जाता है तो उसके लिये यही रास्ता चुना जाता है। प्रदेश में सीमेन्ट और बिजली का उत्पादन इसी माध्यम से प्राइवेट सैक्टर के पास है। इस माध्यम से सरकारी खजाने को क्या हासिल हुआ है इसका प्रमाण वाईल्ड फलावर हाल, मकलोड़गंज बसपा परियोजना और आईएसबीटी शिमला जैसे दर्जनों मामलें हैं जिनका उल्लेख कैग रिपोर्टों में मिलता है। जयराम सरकार भी इसी संस्कार और संस्कृति को बढ़ाने में ईमानदारी से लगी हुई है। सरकारी नौकरियों में आऊट सोर्स भी इसी विधा का अंग है। आज शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे अहम विभागों में भी आऊट सोर्स के माध्यम से नौकरियां दी जा रही है। जिस क्षेत्र से मुख्यमन्त्री होगा उसी से आऊट सोर्स के ठेकेदार होंगे इस रस्म को भी ईमानदारी से निभाया जा रहा है। सरकारी नौकरियों में आऊट सोर्स लाने के लिये ही तो लाइने दी गयी थी कि सरकारी कर्मचारी काम नहीं करता है। इसी के लिये तो ‘‘जो काम न करे उसे वेत्तन क्यों ’’ के नाम से एक वक्तव्य प्रकाशित किया गया था। इसलिये आऊट सोर्स के माध्यम से नौकरी देने को सरकार की उपलब्धि या सरकारी धन के हथियाने का जायज साधन तैयार करना माना जाये इसका फैसला पाठक स्वयं करें। क्योंकि यह सरकार भी करोड़ों का कमीशन आऊट सोर्स के नाम पर दे रही है। मण्डी जिला में ही करीब एक दर्जन ऐसे ठेकेदार कार्यरत हैं।
लेकिन इस सबके बावजूद जिस तरह से यह सरकार प्रदेश को कर्ज के चक्रव्यूह में उलझाती जा रही है हर नागरिक के लिये ये चिन्ता का विषय बनता जा रहा है। क्योंकि इस समय प्रदेश का कर्जभार 60,000 करोड़ से ऊपर जा चुका है। आज प्रति व्यक्ति यह कर्ज शायद आठ लाख से भी उपर जा चुका है। कैग रिपोर्टों के मुताबिक विकास के नाम पर लिया जा रहा सारा कर्ज ब्याज चुकाने में ही लग रहा है। विकास के लिये इसमें से कुछ नहीं बच रहा है। सरकार इस ओर कतई भी चिन्तित नहीं है। जब सारा कर्ज गैर उत्पादक कार्यों पर ही खर्च हो जायेगा तो स्वभाविक है कि अन्य खर्च चलाने के लिये हर उत्पाद और सेवा के दाम बढ़ाने पड़ रहे है। पैट्रोल, डीजल, रसोई गैस और खाद्यान सभी के दाम बढ़ने का मुख्य कारण यही है। इसी कर्ज के कारण बिजली, पानी, परिवहन और स्कूलों में बच्चों की फीस तक बढ़ रही है। इस समय सरकार का वित्तिय प्रबन्धन पूरी तरह बिगड़ चुका है और इसके कारण विकास कार्य बुरी तरह प्रभावित हो रहे हैं। सरकार इसके लिये अब अफसरशाही को कोसने लग पड़ी है। जब कोई मुख्यमन्त्री अपने कार्यकाल के तीसरे वर्ष की समाप्ति पर अपनी असफलताओं के लिये नौकरशाही पर दोष डालने लग पड़े तो इससे साफ हो जाता है कि अब अफसरशाही के भी हाथ खड़े होने लग पड़े हैं।
यदि इन तीन वर्षों की वित्तिय स्थिति पर नज़र डाली जाये तो जो तथ्य सामने आते हैं उनमें सबसे पहले आता है मुद्रा ऋण के नाम पर 2541.43 करोड़ का कर्ज 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले बांटा गया। इसमें कितना अब तक वापिस आ पाया है इसका कोई रिकार्ड सरकार के पास उपलब्ध नहीं है। विधानसभा में आयी जानकारी के मुताबिक प्रदेश के सहकारी बैंकों का एनपीए ही 900 करोड़ से ऊपर जा चुका है। एनपीए की यह स्थिति 2018 में थी। लेकिन इसके बाद भी कृषि सहकारी सभाओं को 80685 लाख, गैर कृषि सहकारी सभाओं को 38703.88 लाख, अर्बन बैंकों को 75590.24 लाख और प्राइमरी भूसुधार बैक, राज्य एवम् केन्द्रिय बैंकों ने प्रदेश में 7,71039.79 लाख के ऋण एडवांस किये। यह कर्ज 2018-19 में दिये गये हैं। इनमें यदि इसी वर्ष 2018 -19 में ही आऊट स्टैण्डिंग हो चुके ऋणों का आंकड़ा भी सामने रखा जाये तो कृषि सहकारी सभाओं में 1,30,745.34 लाख, गैर कृषि सहकारी सभाओं में 35142.18 लाख, अर्बन बैंकों में 14538.12 लाख प्राईमरी लैण्ड मार्टगेज बैंक और राज्य एवम् केन्द्रिय बैंकों में 1895197.36 लाख के ऋण आऊट स्टैण्डिंग हो चुके हैं। इन ऋणों का परिणाम है कि सी डी अनुपात जो 30-9-2018 को 47.46 था वह 30-9-2019 को 44.33 पर आ गया है। बैंको का 30-8-2018 को प्रदेश सरकार में जो निवेश 263.69 करोड़ था वह 30-9-2018 को घटकर 233.09 करोड़ रह गया है। यह आंकड़े सरकार के 2019-20 के विधानसभा मे रखे आर्थिक सर्वेक्षण में दर्ज है। इन आंकडों से प्रदेश की वास्तविक वित्तिय स्थिति का पता चलता है। इन आंकड़ों के मुताबिक प्रदेश के सारे वित्तिय संस्थानों द्वारा जो 21,75,623.50 लाख का दिया गया ऋण है वह ऋण वापसी की समय सीमा पार कर चुका है। इसमें से कितना ऋण एनपीए हो जायेगा यह तो आने वाला समय ही बतायेगा लेकिन प्रदेश के सहकारी बैंकों के 980 करोड़ के एनपीए से ही पाठक अनुमान लगा सकते है।
प्रदेश और सरकार के वित्त की समझ रखने वाले यह मानेंगे की यदि सरकार इस जमीनी हकीकत को समझ कर नहीं चलेगी तो आने वाला समय बहुत ही कठिन हो जायेगा क्योंकि जब इन्हीं आंकड़ो के अनुपात में इसी सर्वेक्षण में इसी अवधि में हुए विकास के कुछ आंकड़ो पर भी नजर डाली जाये तो इस भयानकता को समझना आसान हो जायेगा। क्योंकि इस अवधि में फोरलेन सड़क 6 किमी, डबल लेन 3 किमी और सिंगल लेन 496 किमी सड़क निर्माण हुआ। 2017-18 में प्रदेश 226.5 हजार घन मीटर लक्कड़ थी जो 2018-19 में घटकर 187.6 हजार घन मीटर रह गयी है। प्राकृतिक संसाधन क्यों कम हो रहे हैं यह सवाल अहम है। आज सरकार के तीन वर्ष पूरे होने पर मुख्यमन्त्री से यह अपेक्षा की जानी चाहिये कि वह स्थिति की इस गंभीरता को सामने रखते हुए यह जानने का प्रयास करें कि ऐसा क्यों हुआ है। क्या इसके लिये अकेले नौकरशाही को ही जिम्मेदार ठहराना सही होगा।

मनोनीत पार्षद को लेकर आयी शिकायत से नगर निगम से लेकर निदेशालय तक की कार्य प्रणाली सवालों में

शिमला/शैल। नगर निगम शिमला के लिये कुछ पार्षद सरकार द्वारा मनोनीत किये जाते हैं इस प्रावधान के तहत नगर निगम शिमला के लिये भराड़ी क्षेत्र के संजीव सूद को इस वर्ष मार्च माह में मनोनीत किया गया था। संजीव सूद इस मनोनयन के लिये पूरी तरह पात्र थे और इनके खिलाफ कहीं भी कोई मामला लंबित नहीं था। इस आशय का एक शपथपत्र भी उन्होने निदेशक शहरी विकास विभाग के पास 26-3-2020 को दायर किया था। इस समय पत्र को भराड़ी के ही एक राकेश कुमार ने चुनौती दे रखी है। निदेशक शहरी विकास को 26-5-2020 को लिखे पत्रा में राकेश कुमार ने कहा है कि उन्होंने 28-2-2020 और 30-3-2020 को दी शिकायतों में यह तथ्य सामने रखा है कि संजीव सूद ने भराड़ी में ही सरकारी जमीन के खसरा न. 227 पर अवैध कब्जा कर रखा है। इस अवैध कब्जे की रिपोर्ट संबंधित जेई ने स्थल का निरिक्षण करके दी है और इसी रिपोर्ट के आधार पर अवैध कब्जे की कारवाई उपमण्डलाधिकारी नागरिक शिमला की अदालत में लबिंत है। लेकिन संजीव सूद ने अपने 26 -3-2020 के शपथ पत्र में इसका कोई जिक्र नहीं किया है और इसी कारण से उसका शपथ पत्र झूठा हो जाता है तथा पार्षद होने के लिये आयोग्य हो जाता है। संजीव के खिलाफ यह सारी शिकायतें उसके शपथ पत्र देने से पहले ही निदेशक के पास दायर हो जाती हैं। ऐसे में यह निदेशक शहरी विकास विभाग की जिम्मेदारी हो जाती है कि वह इस संद्धर्भ में सीआरपीसी की धारा 200 के तहत सक्ष्य अधिकारी के पास इस आशय का मामला दायर करे। क्योंकि निदेशक शहरी विकास ही पाषर्दों को पद और गोपनीयता की शपथ दिलाता है। निदेशक ने सीआरपीसी की धारा 200 के तहत कोई कारवाई नहीं की है यह उसके पार्ट पर एक गंभीर कमी रही है।
संजीव सूद के खिलाफ राकेश कुमार ने सीआरपीसी की धारा 156(3) के तहत ज्यूडिशियल मैजिस्ट्रेट की अदालत में भी मामला किया था और अब इसमें भी पुलिस को मामला दर्ज करके जांच करने के निर्देश जारी हो चुके हैं। राकेश कुमार की शिकायतों की जांच का अन्तिम परिणाम क्या निकलता है यह तो जांच रिपोर्ट आने के बाद ही पता चलेगा। संजीव सूद के खिलाफ अभी तक अवैध कब्जा प्रमाणित नहीं हुआ है। जब तक अदालत संजीव को देाषी करार नहीं दे देती है तब तक उसे कानूनन दोषी नहीं कहा जा सकता। लेकिन इसमें महत्वपूर्ण यह हो जाता है कि निदेशक ने शिकायतें आने के बाद भी इसमें वांच्छित कारवाई किसके दबाव में नहीं की। इसी के साथ दूसरा सवाल यह आता है कि जब नगर निगम के जेई की मौके की रिपोर्ट के आधार पर निगम ने सूद के खिलाफ अवैध कब्जे की कारवाई निगम के आयुक्त की ही अदालत में शुरू की तो उनका निपटारा शीघ्र क्यों नहीं किया गया। शिकायकर्ता को 156(3) सीआरपीसी के तहत अदालत का दरवाजा क्यों खटखटाना पड़ा। इस समय निगम के दर्जनों मामले अदालतों में वर्षों से ऐसे पड़े हैं जिनमें पेशी पर अगली तारीख लगने से ज्यादा कोई कारवाई नहीं हुई है। अम्बो देवी बनाम नगर निगम एक ऐसा ही मामला है जो शायद एक दशक से भी ज्यादा समय से लंबित चला आ रहा है। निगम की ही अदालत से जीते हुए मामलों पर निगम जब वर्षो तक अमल न करे और अमल के लिये आग्रह करने पर फर्जी मामला खड़ा है तो यह ही मानना पड़ेगा कि अब यहां कानून के शासन के लिये कोई स्थान नहीं रह जाता है
संजीव सूद के मामले में रिकार्ड से स्पष्ट हो जाता है कि जब इसकोे बतौर पार्षद मनोनयन का प्रस्ताव रखा गया था तब सभी संवद्ध लोगों के संज्ञान में अवैध कब्जे की जानकारी थी। यदि इस सम्बन्ध में उन चर्चाओं को अधिमान दिया जाये तो यह अवैध कब्जा ही मनोनयन का बड़ा आधार बचा है।























 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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