Friday, 19 September 2025
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सरकारी ज़मीन कब्जाने को लेकर मनोनीत पार्षद संजीव सूद के खिलाफ दर्ज हुई एफआईआर

नगर निगम से लेकर सरकार तक सबकी कार्यप्रणाली सवालों में

शिमला/शैल। नगर निगम शिमला में यहां के भराड़ी एरिया से एक संजीव सूद को प्रदेश सरकार ने 2020 में पार्षद मनोनीत किया था। मनोनयन होने के बाद पद की शपथ लेने से पहले निदेशक शहरी विकास विभाग के पास अपनी पात्रता को लेकर वाकायदा एक शपथपत्र भी दायर किया। शपथ पत्र में दावा किया गया है कि उसके खिलाफ कहीं पर भी कोई आपराधिक मामला दर्ज नहीं है। जबकि दो बार 28.2.2020 और 30.3.2020 को सरकारी जमीन अवैध रूप से कब्जाने को लेकर शिकायतें संवद्ध अधिकारियों के पास गयी हुई थी और लंबित थी। शिकायतकर्ता राकेश कुमार ने 26-5-2020 को इसकी सूचना निदेशक शहरी विकास को भी दे दी और आरोप लगाया कि संजीव सूद ने जो शपथ पत्र उनके पास दायर कर रखा है वह गलत है।
नगर निगम शिमला के पार्षदों को पद और गोपनीयता की शपथ निदेशक शहरी विकास दिलाता है। इस नाते जब किसी भी पार्षद को लेकर ऐसी कोई शिकायत उनके पास आ जाती है तब उसकी जांच करवाने के लिये पार्षद के खिलाफ मामला दर्ज करवाना और अन्य कदम उठाना निदेशक की जिम्मेदारी हो जाती है ऐसा नियमों में प्रावधान हैं लेकिन निदेशक ने ऐसा नहीं किया। मुख्यमन्त्री कार्यालय तक भी शिकायतें गयी लेकिन कोई कारवाई नही हुई। अन्ततः राकेश कुमार ने सीआरपीसी की धारा 156(3) के तहत अदालत का दरवाज़ा खटखटाया और अदालत ने इसकी प्रारम्भिक जांच किये जाने के निर्देश दिये। इन निर्देशों के बाद यह जांच हुई और इसकी रिपोर्ट अदालत में गयी। अदालत ने इस रिपोर्ट को देखने के बाद एफआईआर दर्ज करने के निर्देश दिये और अब पुलिस चौकी लक्कड़ बाज़ार शिमला में आपराधिक मामला दर्ज हो गया है।
इस प्रकरण में यह सवाल उभरता है कि जब यह मनोनयन हुआ तब अवैध रूप से सरकारी जमीन कब्जाने का मामला नगर निगम शिमला के ही जेई की रिपोर्ट के माध्यम से नगर निगम शिमला के संज्ञान में था। बल्कि जेई की रिपोर्ट के आधार पर ही राकेश कुमार ने इस संबंध में शिकायत की है। इसलिये यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि यह मामला सबके संज्ञान में होने के बाद भी नगर निगम के लिये मनोनयन हो जाता है। मनोययन के बाद निदेशक शहरी विकास के पास शपथपत्र झूठा होने की शिकायत आ जाती है। यह शिकायत आने के बाद निदेशक की सीआरपीसी धारा 200 के तहत यह जिम्मेदारी हो जाती है कि वह इसमें मामला दर्ज करवाकर जांच करवाते। लेकिन निदेशक भी ऐसा नहीं करता है। स्वभाविक है कि सभी पर राजनीतिक दबाव रहा होेगा। इस तरह स्थितियां होने के बाद भी जब सरकार सुशासन होने का दावा करे तो यही मानना पड़ेगा कि अब भ्रष्टाचार की परिभाषा बदल गयी है।

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