Saturday, 20 December 2025
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क्या ‘‘वन रैक वन पैन्शन’’ मुद्दे पर ब्रिगेडियर पूर्व सैनिकों का पक्ष लेंगें या सरकार का

क्या अब ब्रिगेडियर फोर लेन प्रभावितों का विरोध करेंगे?
मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में वन रैंक वन पैन्शन पर लिया यू टर्न
वन रैंक वन पैन्शन की मोदी सरकार द्वारा परिभाषा ही बदल देने पर पूर्व सैनिक अभी तक आन्दोलन पर है
सर्वोच्च न्यायालय में दिये शपथ पत्र में सरकार ने अपने फैसले पर पुनः विचार से किया इन्कार
नेता बने पूर्व सैनिक अधिकारियों पर पूर्व सैनिकों या सरकार का पक्ष लेने की चुनौती

शिमला/शैल। भाजपा ने मण्डी लोकसभा क्षेत्र के संसदीय उपचुनाव के लिये कारगिल युद्ध के हीरो रहे ब्रिगेडियर खुशाल सिंह ठाकुर को अपना प्रत्याशी बनाया है। मण्डी क्षेत्र में लम्बे समय से फोर लेन प्रभावितों का मुद्दा चला आ रहा है।ब्रिगेडियर  की छवी के आधार पर इन प्रभावितों ने अपने मुद्दे की कमान इन्हें सौप दी थी।ब्रिगेडियर साहब ने भी शिमला के प्रैस कल्ब में आयोजित एक पत्रकार वार्ता में अपनी टीम के साथ लम्बी लड़ाई का ऐलान कर दिया था। पिछले दिनों जब केन्द्रीय भूतल परिवहन मन्त्री नितिन गडकरी कुल्लु-मनाली की यात्रा पर आये थे और फोरलेन प्रभावितों ने उनसे मिलने का प्रयास किया था तब उन्हे मिलने से रोकने के प्रयासों में स्थिति मुख्यमन्त्री के सुरक्षा कर्मीयों और एस पी कुल्लु के बीच थप्पड़ काण्ड तक घट गया था। आज ब्रिगेडियर खुशाल फोरलेन के मुद्दे को बीच में ही छोड़कर भाजपा की ओर से उपचुनाव में उम्मीदवार हो गये हैं और न तो प्रभावितों को लेकर कुछ बोल पा रहे हैं न ही सरकार से कोई आशवासन ले पा रहे हैं।
इन फोरलेन प्रभावितों से भी ज्यादा प्रभावी ‘‘ वन रैंक वन पैन्शन’’ का मुद्दा जो राष्ट्रीय बन चुका है वह भी ब्रिगेडियर से यह सवाल पूछ रहा है कि इस मुद्दे पर वह पूर्व सैनिकों के साथ है या मोदी सरकार के साथ। क्योंकि पूर्व सैनिक इस मुद्दे को लेकर आज भी आन्दोलन रत हैं। दिल्ली के जन्तर- मन्तर पर इन पूर्व सैनिकों का क्रमिक धरना-प्रदर्शन जारी है। स्मरणीय है कि भूतपूर्व सैनिकों की वन रैंक वन पैन्शन मुद्दे पर डा. मनमोहन सिंह की सरकार 2011 में एक कोशियारी कमेटी का गठन कर दिया था। इस कमेटी ने दिसम्बर 2011 में ही अपनी सिफारशें सरकार को सांपी पूर्व सैनिक उनसे सहमत थे। लेकिन इसी दौरान भाजपा ने भी पूर्व सैनिकों की एक रैली का आयोजन 15 सितम्बर 2013 को रिवाड़ी में कर दिया। इस रैली में घोषणा की गयी यदि केन्द्र में भाजपा की सरकार बनती है तो वह इस पर अमल करेगी 17 फरवरी 2014 को वित्त मन्त्री ने बजट भाषण में यह आश्वासन दिया और 26 फरवरी को रक्षा मन्त्रालय ने भी इसका अनुमोदन कर दिया। लेकिन इसके बाद जब नयी सरकार आ गयी तब 9 जून 2014 को राष्ट्रपति के अभिभाषण में भी इसका अनुमोदन कर दिया गया। परन्तु इसके बाद 7 नवम्बर 2015 को रक्षा मन्त्रालय ने ‘‘ एक रैंक एक पैन्शन’’ का अर्थ ही बदल दिया यह कोशियारी कमेटी की सिफारशों के एकदम विपरीत था। पूर्व सैनिकों ने इसे मानने से इन्कार कर दिया। इस पर सरकार ने जस्टिस रैड्डी की अध्यक्षता में एक सदस्य कमेटी गठित कर दी। इस कमेटी ने 26 अक्तूबर 2016 को अपनी रिपोर्ट सौंप दी जिसे पूर्व सैनिकों को उपलब्ध नही करवाया गया। इस पर एक और कमेटी बनाई गयी और उसका परिणाम भी यही रहा।
सरकार ने राष्ट्रपति के अभिभाषण में 9 जून 2014 को दिये आश्वासन पर से भी यू टर्न ले लिया है। पूर्व सैनिक इस मुद्दे पर शीर्ष अदालत में जा चुके हैं। सरकार से अपने फैसले पर पुनः विचार करने का आग्रह किया गया है। लेकिन सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में दायर किये अपने जबाव में इस फैसले को बदलने से इन्कार कर दिया है। पूर्व सैनिकों में सरकार के जबाव से भारी रोष फैल गया है। हिमाचल में पूर्व सैनिकों का बड़ा प्रभाव है। स्मरणीय है कि जब मोदी सरकार ने पूर्व सैनिकों की पैन्शन में कुछ बदलाव करने की योजना बनाई थी तब उसके खिलाफ भी कांगड़ा के ही पूर्व सैनिक ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी और पैन्शन बदलाव के मुद्दे पर स्टे हासिल किया था। इस परिदृश्य में जब भाजपा एक पूर्व ब्रिगेडियर को उपचुनावों में प्रत्याशी बनायेगी तो सबसे पहले यह पूर्व सैनिक ही उनसे इस मुद्दे पर सवाल पूछेंगे। जब केन्द्र सरकार ‘‘ एक रैंक एक पैन्शन’’ पर सुप्रीम कोर्ट में यू टर्न ले चुकी है तो क्या ब्रिगेडियर पूर्व सैनिकों के पक्ष में सरकार के खिलाफ खड़े होने का साहस दिखायेंगे? क्या ऐसे में ब्रिगेडियर की उम्मीदवारी पूर्व सैनिकों के लिये अपने ही मुद्दे पर अपने ही पक्ष-विपक्ष में फैसला लेने का संकट नही खड़ा कर देगा?

सरकार और राजनैतिक दलों से ज्यादा जनता की समझ की परीक्षा होंगे उपचुनाव

उपचुनावों से उठते सवाल
उपचुनावों की घोषणा के बाद भी बढ़ानी पडी खाद्य तेलों की कीमतें
जब एक मंत्री की बेटी को ही धरने पर बैठना पड़ जाये तो आम आदमी की हालत क्या होगी

शिमला/शैल। प्रदेश के चुनावों की तारीखों के ऐलान के बाद राजनैतिक दलों द्वारा उम्मीदवारों के चयन की प्रक्रिया शुरू होने के साथ ही दोनां प्रमुख दलों भाजपा और कांग्रेस ने यह अंतिम फैसला अपने-अपने हाईकमान पर छोड़ दिया है। मुकाबला दो ही दलों भाजपा और कांग्रेस के बीच होना है। शेष दल इन उप चुनावों में अपने उम्मीदवार उतारेगें ऐसी संभावना फतेहपुर को छोड़कर और कहीं नहीं है। फतेहपुर में अपना हिमाचल अपनी पार्टी चुनाव लडेंगें ऐसा माना जा रहा है क्योंकि इस नवगठित पार्टी की सर्वेसर्वा पूर्व सांसद पूर्व मंत्री डा. राजन सुशांत का यह गृह क्षेत्र है इसलिए यह उपचुनाव लड़ना पार्टी बनाने की ईमानदारी को प्रमाणित करने का अवसर बन जाता है। यहां यह तय है कि इस उपचुनाव में डा. सुशांत की मौजूदगी इसके परिणाम को प्रभावित भी करेगी।
दोनों पार्टियों के उम्मीदवार दिल्ली से ही तय होने हैं इसलिए इन पर ज्यादा चर्चा करने की अभी आवश्यकता नहीं है। यह सही है कि उम्मीदवार के कारण भी करीब 5 प्रतिशत मतदाता प्रभावित होते हैं लेकिन सतारूढ़ भाजपा में उम्मीदवार से ज्यादा केंद्र और राज्य सरकार की अपनी कारगुजारियां अधिक प्रभावी रहेंगी। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि यह उपचुनाव राजनैतिक दलों और सरकार से ज्यादा मतदाताओं की समझ की परीक्षा होगें। वैसे भाजपा में जब मंडी लोकसभा के लिए अभिनेत्री कंगना रणौत के नाम की चर्चा बाहिर आयी और सोशल मीडिया में आश्य की पोस्टें सामने आयी तब इन पोस्टों पर जो प्रतिक्रियाएं उभरी उनमें 80 प्रतिशत ने इस नाम को सिरे से ही खारिज करते हुए यहां तक कह दिया कि मंडी की जनता इतनी मूर्ख नहीं हो सकती कि वह कंगना को वोट देगी। यह नाम क्यों और कैसे एकदम चर्चा में आया इसका खुलासा तो नहीं हो सका है। लेकिन मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने रणौत के नाम को नकारते हुए स्पष्ट कर दिया है कि मंडी से किसी कार्यकर्ता को ही टिकट दिया जायेगा। वैसे चर्चा यह भी है कि भाजपा हाईकमान ने अपने तौर पर भी प्रदेश का सर्वे करवाया है। इसलिए यदि प्रदेश की ओर से भेजे गये पैनल के नाम सर्वे से मेल नहीं खाये तो प्रदेश की सिफारिसों को नजरअंदाज किये जाने की पूरी संभावनाएं है।
ऐसे में बड़ा सवाल यह होगा कि यह उपचुनाव किन मुद्दों पर लड़ा जायेगा। सामान्य तौर पर हर सरकार चुनाव में अपने विकास कार्यों को आधार बनाती है। विकास के गणित पर यदि जयराम सरकार की बात की जाये तो इस सरकार ने 2018 में सता संभाली थी। 2018 में ही जंजैहेली प्रकरण का सामना करना पड़ा। इसी प्रकरण में जयराम और पूर्व मुंख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल के रिश्ते इस मोड तक आ पहुंचे कि धूमल को यह कहना पड़ा कि सरकार चाहे तो उनकी सी.आई.डी जांच करवा लें। 2018 के अंत तक आते आते पत्र बम्बों की संस्कृति से पार्टी और सरकार को जूझना पड़ा। यह पत्र बम्ब एक तरह का स्थायी फीचर बन गया है। इन पत्र बम्बों के माध्यम से उठे मुद्दे परोक्ष /अपरोक्ष में अदालत तक पहुंच चुके हैं। इसी सबका असर है कि केन्द्र द्वारा घोषित और प्रचारित 69 राष्ट्रीय राजमार्ग अभी भी सैद्धान्तिकता से आगे कोई शक्ल नहीं ले पाये हैं। मुफ्त रसोई गैस का नाम लेने वाले 67 प्रतिशत लाभार्थी आज रिफील नहीं ले पा रहे हैं। यह सरकार की अपनी रिपोर्ट है। स्कूलों से लेकर कॉलेजां तक शिक्षकों के कितने पद खाली हैं यह उच्च न्यायालय में आयी याचिकाओं से सामने आ चुका है। कई स्कूलों में तो अभिभावकों ने स्ंवय ताले लगाये हैं। अस्पतालों में खाली स्थानों पर भी उच्च न्यायालय सरकार को कई बार लताड़ लगा चुका है। जब इन्हीं दो प्रमुख विभागों की स्थिति इस तरह की रही है तो अन्य विभागों का अंदाजा लगाया जा सकता है। सरकार की इस भीतरी स्थिति का ही परिणाम है कि अभी कुछ दिन पहले ही सरकार के कई विभागों में विकास कार्यों के लिए जारी किए गए हजारों करोड़ के टेण्डर रद्द करने पडें हैं। अब यह कार्य आचार संहिता के नाम पर लंबे समय के लिए टल गए हैं। यह विकास कार्य पैसे के अभाव के कारण रूके हैं या अन्य कारण से यह तो आने वाले समय में ही पता चलेगा। इसलिए विकास के नाम पर वोट मांग पाना बहुत आसान नहीं होगा।
अभी जब उपचुनावों की घोषणा हो गई थी उसके बाद भी जिस सरकार को खाद्य तेलों की कीमत बढ़ानी पड़ जाये उसकी अंदर की हालत का अंदाजा लगाया जा सकता है।  मुख्यमंत्री ने अपने गृह क्षेत्र में एक जनसभा को संबोधित करते हुए मंहगाई को जायज ठहराने का प्रयास किया है।  मुख्यमंत्री ने यहां तक कहा है कि कांग्रेस के समय में भी मंहगाई पर कंट्रोल नहीं किया जा सका था। मुख्यमंत्री को यह तर्क इसलिए देना पड़ा है क्योंकि वह जनता को यह कैसे बता सकते हैं कि केंद्र की नीतियों के कारण आज बैड बैंक बनाने की नौबत आ खडी हुई है और जब बैड बैंक बनाना पड जाये तो उसके बाद मंहगाई और बेरोजगारी तो हर रोज बढे़गी ही। यही कारण है कि केंद्र सरकार को भी उपचुनाव की घोषणा के बाद भी पैट्रोल और डीजल की कीमतें बढ़ानी पड़ी हैं। जनता मंहगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार के मानकां पर सरकार का आंकलन करके उसे अपना समर्थन देती है। मंहगाई और बेरोजगारी के प्रमाण जनता के सामने हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ सरकार कितनी प्रतिब( है इसका प्रमाण इसी से मिल जाता है कि कांग्रेस सरकार के खिलाफ सौंपी अपनी ही चार्जशीट पर अभी चार वर्षों में कोई कार्यवाही नहीं कर पायी है। अब चुनावी वर्ष में भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्यवाही का अर्थ केवल राजनीति और रस्म अदायगी ही रह जाता है। यह अब तक की सरकारें प्रमाणित कर चुकी हैं। जैसे भाजपा भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्यवाही के बजाये उसे संरक्षण देती है यह सर्टिफिकेट तो शांता कुमार ही अपनी आत्म कथा में दे चुके हैं।
प्रशासन पर सरकार की पकड़ कितनी मजबूत है और प्रशासन जनता की अपेक्षाओं पर कितना खरा उतर रहा है कि इसका प्रत्यक्ष प्रमाण जल शक्ति मंत्री महेन्द्र सिंह की बेटी के ही धरने पर बैठने से सामने आ जाता है। अंदाजा लगाया जा सकता है कि जिस ठेकेदार की 11 करोड़ से अधिक पेंमेंट विभाग ना कर रहा हो उसके परिवार के पास धरने पर बैठने के अतिरिक्त और क्या विकल्प रह जाता है। मुख्यमंत्री के विभाग से यह धरना ताल्लुक रखता है और जब मुख्यमंत्री यह कहें कि वह पता करेंगें कि मंत्री की बेटी धरने पर क्यों बैठी है तो इससे अधिक जनता को सरकार के बारे में राय बनाने के लिए शायद नहीं चाहिये।

क्या जयराम सरकार औेर संघ में नीति विरोध है ऐमेजोन पर पांचजन्य की टिप्पणी से उठी चर्चा

शिमला/शैल। जयराम सरकार के कृषि एवम ग्र्रामीण विकास मंत्री विरेन्द्र कंवर ने एक ब्यान में कहा है कि प्रदेश सरकार अपने कृषि उत्पाद ऐमेजोन और फिल्पकार्ड जैसे ई-प्लेटफार्मो के माध्यम से बचेगी। जब विरेन्द्र कंवर यह घोषणा कर रहे थे तभी संघ का मुख पत्र पांचजन्य ऐमेजोन को दूसरी ईस्ट इंडिया कंपनी कह रहा था। पांचजन्य का आरोप है कि ऐमेजोन की कार्यशैली वैसी ही है जैसी की ईस्ट इंडिया कंपनी की थी जिसके माध्यम से अंग्रेजों ने भारत पर तीन सौ वर्ष राज किया है। ऐमेजोन ने पांचजन्य के इस आरोप को सिर से खारिज करते हुए दावा किया है कि 35 लाख उद्योग उसके साथ जुडे हैं और दो सौ देशों में वह अपना सामान बेच रहे हैं। संघ की ईकाई रहा स्वदेशी जागरण मंच ऐमेजोन जैसे ई-प्लेट फार्मो का वैचारिक धरातल पर ही विरोधी रहा है और आज किसान आंदोलन में भी यह ई-प्लेटफार्म एक बडा मुद्दा बने हुए हैं।
ऐसे में यह एक स्वभाविक सवाल बनता है कि सरकार का एक मंत्री ऐसा नीतिगत वक्तव्य तभी दे सकता है जब सरकार ने ऐसा कोई फैसला लिया हो। भाजपा की सारी नीतियां संघ से अनुमोदित होकर आती है यह सभी जानते हैं। इसलिये अब यह सवाल उठने लग पड़ा है कि क्या जयराम सरकार संघ की नीतियों का विरोध करने का साहस रखती है। वैसे जय राम सरकार के कई और फैसले भी पिछले दिनों ऐसे आये हैं जिनसे सरकार की कार्यप्रणाली को लेकर सवाल उठने लग पडे हैं। सरकार ने अपने कर्मचारियों को 6 प्रतिशत मंहगाई भत्ते की किश्त जारी करने का ऐलान किया और इस फैसले के बाद आई ए एस तथा आई पी एस अधिकारियों को यही मंहगाई भत्ता 11 प्रतिश्त देने की घोषणा कर दी। इससे सरकार का यह ज्ञान सामने आया कि कर्मचारियों की बजाये बड़े अधिकारी मंहगाई से ज्यादा पीडित है। इसलिये उन्हें दो गुणी राहत दी जानी चाहिये। लेकिन सरकार इस फैसले पर दो दिन भी नही टीक पायी और तीसरे दिन यह 11 प्रतिश्त भत्तों का फैसला वापिस ले लिया।
यही नही सरकार की और बड़ी उपलब्धि सामने आयी है। अब लोक निमार्ण, जलशक्ति, विद्युत और स्थानीय निकाये जैसे विभागों में सौ से अधिक टैण्डर रद्द हुए हैं। जिनके लिये धन का प्र्रावधान एशियन विकास बैंक जैसी संस्थाओं से लिये गये ऋण से किया गया है। चिन्तपुरनी मन्दिर में और इसके इर्द-गिर्द किये जा रह कार्यों के लिये धन का प्रावधान इसी बैंक के पैसे से है। अभी सरकार ने एक हजार करोड़ का ऋण पिछले दिनों ही लिया है। वैसे यह टैण्डर रद्द होने का कारण तकनीकी कहा गया है। सही स्थिति क्या है इस पर कोई भी अधिकारी कुछ भी कहने को तैयार नही है। वैसे लोकनिमार्ण विभाग को लेकर जो याचिका CWP 3356/21 प्रदेश उच्च न्यायालय में लंबित है उसमें विभाग की स्थिति को लेकर जो कुछ कहा गया है वह काफी चौकाने वाला है।

कोरोना के नाम पर चुनाव टाल कर अब उसी की तीसरी लहर में करवाने की बनी विवशता

 

शिमला/शैल। प्रदेश में चार उपचुनाव होने है। तीन विधानसभा के लिये और एक लोकसभा के लिये। इन्हें टाला नही जा सकता है क्योंकि जनप्रतिनिधित्व कानून में ऐसा कोई प्रावधान नही है कि उपचुनावों को एक वर्ष से भी अधिक समय के लिये टाला जा सके । विधान सभा के लिये जब पहला स्थान रिक्त हुआ था तब विधान सभा का कार्यकाल करीब दो वर्ष का शेष था। जब तीसरा स्थान खाली हुआ तब कार्यकाल करीब डेढ़ वर्ष का शेष बचा था। लोक सभा की सीट खाली होने पर तो लोकसभा का कार्यकाल करीब तीन वर्ष बाकी था। इसी कानूनी परिदृश्य में यह चुनाव टालने का एक ही रास्ता शेष रह जाता है कि फरवरी में विधानसभा भंग करके इसके लिये आम चुनाव करवाने की घोषणा कर दी जाये। उस स्थिति में भी लोकसभा के लिये तो विधान सभा के साथ ही उपचुनाव करवाना ही पडे़गा। कानून की इस स्थिति की जानकारी प्रशासन के शीर्ष स्थानों पर बैठे अधिकारियों को होना अनिवार्य है। मुख्यमन्त्री और कानून मन्त्री को भी यह ज्ञान होना ही चाहिये। कानून की इस जानकारी के परिदृश्य में राजनीतिक समझ की यह मांग हो जाती है कि उपचुनाव जल्द से जल्द करवा लिये जायें। क्योंकि पहले दो नगर निगम और फिर विश्वविद्यालय मे चुनाव हार जाने से यह संकेत स्पष्ट हो जाता है कि सरकार की लोकप्रियता का ग्राफ लगातार गिरता जा रहा है।

लेकिन इस व्यवहारिक स्थिति के बावजूद सरकार ने यह उपचुनाव टालने का आग्रह केन्द्रीय चुनाव आयोग का भेजा गया। इस आग्रह पर चुनाव टाल भी दिये गये। इसके लिये वाकायदा प्रदेश के मुख्यसचिव, स्वास्थ्य सचिव, डी जी पी और मुख्यनिर्वाचन अधिकारी से राय ली गई। कोरोना ,त्योहार और मौसम का आधार बनाकर उपचुनाव टालने की पुख्ता जमीन तैयार का दी गई। चुनाव आयोग ने इन अधिकारियों से उक्त फीडबैक मिलने का जिक्र करते हुये राज्य सरकार की सिफारिश मान कर उपचुनाव टालने का आदेश जारी कर दिया लेकिन जब कुछ समाचार पत्रों में कानून की स्थिति का खुलासा सामने आया तब केन्द्र से लेकर राज्य तक हड़कंप मच गया। सुत्रों के अनुसार राष्ट्रीय अध्यक्ष तक ने इस पर अपनी नाराजगी जाहिर की है। बल्कि सूत्रों का तो यह भी दावा है कि कानून मन्त्री सुरेश भारद्वाज केन्द्र की नाराजगी को ही शान्त करने दिल्ली प्रवास पर हैं। अब चार अक्तूबर को चुनाव आयोग की बैठक में इन चुनावो के लिये तारीखो की घोषणा होने की संभावना जताई जा रही हैं यदि उप चुनाव करवाने का फैसला लिया जाता है तो 15 नवम्बर तक यह चुनाव होने की संभावना है।
इस संभावित फैसले से यह सवाल जबाव मांगेंगे कि जिस कोरोना के कारण चुनाव टालने का फैसला लिया था उसी कोरोना की अक्तूबर- नवम्बर में तीसरी लहर आने की चेतावनी दी गई है। यह कहा गया है कि इससे 60000 लोग प्रभावित होंगे। इसी के साथ यह भी सामने आया है कि मुख्यमन्त्री के अपने गृह जिला मण्डी में स्कूली छात्रों और अध्यापकों में यह संक्रमण बढ़ गया है। स्वस्थ्य मन्त्री के अपने चुनाव क्षेत्र में भी बच्चो के संक्रमित होने के समाचार आ चुके हैं। इस तरह के समाचार आने के बाद भी सरकार ने स्कूल खोलने का फैसला लिया हैं। इस परिदृश्य मे अभिभावक बच्चो ं को स्कूल भेजने का जोखिम उठाने को तैयार हो जायेगे। क्या जनता मे इस फैसले से कोरोना को लेकर और भ्रम की स्थिति नही बनेगी? कोरोना के अतिरिक्त चुनाव टालने का दूसरा आधार त्योहारी सीजन को बनाया गया था। यह त्योहारी सीजन तो अब भी वैसा ही बना हुआ है। यदि त्योहारी सीजन में उपचुनावों की तारीखें आती है तो चुनाव प्रचार के दौरान चुनावी रैलियां कैसे हो पायेंगी? यह दूसरा बड़ा सवाल होगा यदि पिछली बार चुनाव टालने का फैसला न लिया जाता तो यह चुनाव इसी माह संपन्न हो जाते और सरकार सारे सवालों से बच जाती। कानूनी प्रावधानों की परवाह न करने का परिणाम यह है कि आज सरकार चुनावों को लेकर सौ कोडे़ भी और सौ प्याज भी खाने के मुकाम पर पहुंच चुकी है। क्योंकि कर्माचारियों को छः प्रतिश्त मंहगाई भत्ता देने का फैसला लेने के बाद बड़े अधिकारियो को ग्यारह प्रतिशत देने का फैसला लेना भी सरकार की कार्यशैली पर गंभीर सवाल उठाने वाला सिद्ध हुआ हैं। कर्मचारियों में इस पर रोष पनपने के बाद इस फैसले को भी वापिस लेना पडा हैं। जो सरकार इस तरह के फैसले लेगी उसे जनता कितना समर्थन देने को तैयार होगी इसका अन्दाजा लगाया जा सकता है। ऐसे में यह देखना रोचक होगा कि सरकार कोरोना को नकार कर उपचुनाव करवाने का फैसला लेती है या जनता की सुरक्षा के मद्देनजर फरवरी में आम चुनाव करवाने का फैसला करती है। इसमें सरकार सत्ता छोड़ कर चुनावों मे जाने का जोखिम नही लेना चाहती है।

 

उपचुनावों के गिर्द केन्द्रित हुई प्रदेश की राजनीति-करवाना टालना बनी समस्या

टर्म पूरी करने के लिये उपचुनाव अनिवार्य
उपचुनावों की एक भी हार कुर्सी के लिये होगी घातक
उपचुनावों से बचने के लिये फरवरी में आम चुनाव करवाना होगी मजबूरी

शिमला/शैल। कई प्रदेशों में उपचुनाव टालने, गुजरात में भाजपा द्वारा अचानक मुख्यमंत्री बदलने और नये मुख्यमंत्री द्वारा पुराने मन्त्री मण्डल के एक भी मन्त्री को अपनी टीम में जगह न देने तथा अब पंजाब में कांग्रेस द्वारा दलित को मुख्यमन्त्री बनाये जाना ऐसे राजनितिक घटनाक्रम हैं जिनसे केन्द्र से लेकर हर राज्य की राजनीति प्रभावित हुई है। उप चुनाव छः माह के भीतर होने अनिवार्य है यदि स्थान खाली होने के समय आम चुनाव के लिये कुल समय ही एक वर्ष से कम बचा हो तो ऐसी स्थिति में चुनाव आयोग केन्द्र सरकार से चर्चाकर के ऐसे चुनावों को छः माह से अधिक समय के लिये टाल सकता है। लेकिन वर्तमान में लोकसभा के किसी भी रिक्त स्थान के लिये उपचुनाव टालना असंभव है। यही स्थिति उन राज्यों की है जिनमें 2022 के दिसम्बर में आम चुनाव होने है। इसलिये जब ऐसे राज्यों में उपचुनाव टाले गये हैं तो स्वभाविक है कि इन राज्यों के आम चुनाव 2022 के शुरू में ही उतर प्रदेश और पंजाब के साथ ही फरवरी-मार्च में ही करवाकर संवैधानिक संकट से बचा जा सकता है। अन्यथा इन राज्यों के उपचुनाव अभी अक्तूबर में ही हो जाने चाहिये थे जो नही हुए। इसलिये यह तय है कि हिमाचल और गुजरात में समय पूर्व ही आम चुनाव करवा लिये जायेंगे। अभी चार अक्तूबर को चुनाव आयोग फिर से बैठक करने जा रहा है। इस बैठक में उपचुनावों पर फिर से फैसला लिये जाने की चर्चा है। माना जा रहा है कि दिल्ली दरबार ने प्रदेश सरकार के उपचुनाव टालने के फैसलें पर खासी नाराजगी जाहिर की है। अब यदि उपचुनाव करवाने का फैसला लिया जाता है तो प्रशासन को कहना पडेगा कि उसका पिछला फैसला सही नहीं था। यह कहना पडेगा कि कोरोना की स्थिति में सुधार हुआ है। जबकि मंडी में ही इसका आंकड़ा बड़ गया है। अध्यापक और बच्चे बड़ी संख्या में संक्रमित पाये गये हैं। ऐसे में यह उपचुनाव गले की फांस बन गये हैं। एक भी उपचुनाव में हार कुर्सी के लिए खतरा बन सकती है।
गुजरात में मुख्यमन्त्री का बदलना और नयी टीम में पुराने एक भी मन्त्री को नही लिया जाना भाजपा का आज की राजनीति का स्पष्ट संकेत है। क्योंकि गुजरात वह प्रदेश है जिससे प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी और गृह मन्त्री अमित शाह ताल्लुक रखते हैं और उन्ही के नाम पर वहां वोट पड़ते हैं। ऐसे में गुजरात में हुए इस परिवर्तन का भाजपा शासित अन्य राज्यों के मुख्यमन्त्रीयों को भी सीधा संकेत है कि यदि उनकी चुनावी क्षमताओं पर दिल्ली दरबार को जरा सा भी शक हुआ तो वहां भी नेतृत्व परिवर्तन किया जा सकता है। इसी कारण से हिमाचल में भी नेतृत्व परिवर्तन को लेकर चर्चाएं उठनी शुरू हो गयी हैं। हिमाचल में इस सरकार द्वारा लिया गया कर्ज चुनावों में एक बड़ा मुद्दा बनेगा यह तय है। क्योंकि जब मुख्यमन्त्री जयराम ठाकुर ने मार्च 2018 को अपना पहला बजट भाषण सदन में रखा था तो उसमें पूर्व की वीरभद्र सरकार पर अपने कार्यकाल में अठारह हजार करोड़ से अधिक का कर्ज लेकर प्रदेश को कर्ज के चक्रव्यूह में घकेलने का आरोप लगाया था। दिसम्बर 2017 में सरकार का कर्ज 46000 करोड हो जाने को बहुत बड़ा मुद्दा बताया था। परन्तु आज यही कर्ज अब ही 70,000 करोड़ तक पहुंच चुका है। जबकि अभी एक बजट इस कार्यकाल का आना बाकि है। इसलिए आने वाले समय में यह सवाल पूछा जायेगा कि इस कर्ज का निवेश कहां हुआ। आज बेरोजगारी से तंग आकर प्रशिक्षित ए एन एम संघ हड़ताल पर है। करूणामूलक आघार पर नौकरी मांगने वाले 70 दिन से हड़ताल पर है। पूर्व सांसद और मंत्री राजन सुशांत की पार्टी पेंशन योजनाओें को लेकर लंबे समय से हड़ताल पर है। मुख्यमंत्री वही दो बार जा आये हैं। परंतु सुशांत और उनके हड़ताल पर बैठे उनके कार्यकताओं की बात सुनने तक उनके पास नहीं गये हैं। डॉ. सुशांत मुख्यमंत्री पर असंवेदनशील और अनुभवहीन होने का आरोप लगा चुके हैं। चुनावों की पूर्व संध्या पर किसी भी सरकार के लिए इस तरह आंदोलन कोई शुभ संकेत नहीं माने जा सकते।
ऐसे परिदृश्य में पडोसी राज्य पंजाब में दलित मुख्यमन्त्री का आ जाना भी राजनीतिक परिदृश्य को प्रभावित करेगा। क्योंकि 2014 से लेकर आज 2012 तक हुई भीड़ हिंसा की घटनाओं में सबसे ज्यादा प्रभावित वर्ग दलित और मुस्लिम समुदाय ही रहा है। हिमाचल के हर जिले मे दलितों के साथ ज्यादतीयां होने के किस्से सामने आये हैं। कुल्लु में दलित दंपति के साथ हुई मारपीट पर कोई कारवाई न होने को कांग्रेस मुद्दा बना चुकी है। दलित मुद्दों की आवाज उठाने वाले दलित एक्टिविस्ट कर्मचन्द भाटिया पर देशद्रोह का मुकद्दमा बना दिया जाना ऐसे सवाल होंगे जो आगे पूछे ही जायेंगे। हिमाचल में दलितों की आबादी 28% है। यहां के दलित मन्त्री को मुख्यमन्त्री के गृह जिला में ही मन्दिर में प्रवेश नही करने दिया गया था। क्या दलित समाज अपने साथ हुई ज्यादतीयों पर सवाल नही उठायेगा? क्योंकि अभी तक दलित उत्पीड़न के एक भी मामले में सिरमौर से लेकर चम्बा तक किसी दोषी को सजा नही मिली है क्योंकि सरकार इन मामलों पर कभी गंभीर नही रही है।
आज भाजपा शासित किसी भी राज्य में न तो दलित और न ही कोई महिला मुख्यमन्त्री है। हिमाचल में महिलाएं 52% है यह प्रधानमन्त्री ने ही पिछले दिनां एक बातचीत में स्वीकारा है। दलित 28% हैं और आज इस 80% का प्रदेश नेतृत्व कितना प्रभावी है यह सभी के सामने है। कांग्रेस ने पंजाब में दलित मुख्यमन्त्री बनाकर पूरे देश को संदेश दिया हैं। कांग्रेस अध्यक्ष स्वंय महिला हैं। ऐसे में राजनीतिक हल्कों में यह चर्चाएं बल पकड़ती जा रही है कि क्या भाजपा कांग्रेस के दलित कार्ड का जबाव राज्यों में महिला मुख्यमन्त्री लाकर देगी और इसकी शुरूआत हिमाचल से ही हो सकती है। हिमाचल में 1977 के बाद कभी कोई सरकार 1985 को छोड़कर पुनः सत्ता में वापसी नही कर पाई है। लेकिन भाजपा ने 2014 और फिर 2019 में प्रदेश की सारी लोकसभा सीटों पर कब्जा करके एक अलग इतिहास रचा है। शायद इसी का परिणाम है कि आज भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा हिमाचल से ताल्लुक रखने वाला है। इस समय मूख्यमन्त्री जयराम ठाकुर को सबसे ज्यादा संरक्षण नड्डा का ही हासिल है। यह प्रदेश का हर आदमी जानता है। इसलिये यदि इस बार जयराम सरकार सत्ता में वापसी नही कर पाती है तो इसके लिये सबसे ज्यादा दोष नड्डा के सिर पर ही आयेगा। इस समय जिस तरह की परिस्थितियां प्रदेश में घटती जा रही हैं उनके परिदृश्य में आने वाला समय बहुत कुछ अप्रत्याशित सामने ला सकता है ऐसा माना जा रहा है। आने वाले दिनों में भ्रष्टाचार के मामलों पर पड़े हुए परदे जब उठने लगेंगे तो उससे बहुत कुछ प्रभावित होगा।

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