शिमला/शैल। सुक्खु सरकार ने 16 अगस्त को लिये एक फैसले के पत्रकारों के लिए सरकारी आवास आबंटन नियमों में संशोधन करके उनके किराये में पांच गुणा वृद्धि कर दी है। इसी के साथ प्रस्थापित पत्रकारों की शैक्षणिक योग्यता और आयु प्रमाण पत्र भी मांग लिये हैं। चर्चा है कि 65 वर्ष से अधिक की आयु वालों से आवास खालीकरवा लिये जायेंगे। वैसे जब पत्रकारों को आवास आबंटित होते हैं तब उन्हें ऐसी आयु सीमा की कोई बंदिश नहीं बतायी जाती। क्योंकि पत्रकार कोई सरकारी कर्मचारी तो होता नहीं है। वैसे पत्रकारों को सरकार कोई सुविधा प्रदान करेगी ही ऐसा भी कोई नियम नहीं है। पत्रकार और पत्रकारिता की लोकतांत्रिक व्यवस्था में क्या अहमियत होती है इसका अन्दाजा इसी से लग जाता है की पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा पिल्लर की संज्ञा हासिल है। सरकार की नीतियों की प्रासंगिकता और व्यवहारिकता पर तीखे सवाल पूछना यह पत्रकार का धर्म और कर्म माना जाता है। समाज के हर उत्पीड़ित की आवाज सार्वजनिक रूप से सरकार के सामने रखना पत्रकार से ही अपेक्षित रहता है। भ्रष्टाचार के खिलाफ बेबाकी से आवाज उठाना पत्रकार से ही उम्मीद की जाती है। इसीलिये किसी समय यह कहा गया था की ‘‘गर तोप मुक़ाबिल हो तो अख़बार निकालो’’ पत्रकार सरकार का प्रचारक नहीं होता है। परन्तु आज की सरकारों को तो शायद गोदी मीडिया पसन्द है और उनकी आवश्यकता है। इसलिये सुक्खु सरकार ने भी मीडिया को गोदी बनाने की दिशा में यह कदम उठाया है। यह अलग बात है कि कांग्रेस पार्टी ने राष्ट्रीय स्तर पर कुछ गोदी मीडिया कर्मियों को चिन्हित करके उनके बहिष्कार का फैसला लिया है। परन्तु सुक्खु तो व्यवस्था बदलने चले हैं और इसकी शुरुआत पत्रकारों से ही की जा रही है ताकि सरकार में फैली अराजकता और भ्रष्टाचार को दिये जा रहे संरक्षण पर कोई आवाज न उठ सके। इसलिये सुक्खु सरकार का कोई मंत्री या कांग्रेस संगठन का कोई भी पदाधिकारी इस पर कुछ नहीं बोल रहा है।
16 अगस्त को जो नीति संशोधन किया गया है उसमें साप्ताहिक समाचार पत्रों का कोई जिक्र ही नहीं किया गया है। क्योंकि इस सरकार ने सबसे पहले साप्ताहिक समाचार पत्रों के विज्ञापन ही बन्द कर दिये। इस सरकार के सलाहकारों और निति नियन्ताओं को यह नहीं पता की साप्ताहिक समाचार पत्रों के लिये भारत सरकार ने अलग से नीति बना रखी है। प्रचार-प्रसार के लिये साप्ताहिक पत्रों की वेबसाइट बनाने की सुविधा दे रखी है। साप्ताहिक पत्रों का भी डीएवीपी विज्ञापनों के लिये पंजीकरण और दर निर्धारण करता है। क्योंकि साप्ताहिक पत्रों का विषय विश्लेषण रहता है न की सूचना देना। यह साप्ताहिक पत्र ही थे जिन्होंने पिछली सरकारों का विश्लेषण करते हुये उनकी हार की गणना की थी। लेकिन सुक्खु सरकार साप्ताहिक समाचार पत्रों का गला घोंटकर उनको बन्द करवाना चाहती है।
पत्रकारिता एक ऐसा क्षेत्र है जहां व्यक्ति अंतिम क्षण तक सक्रिय रहता है क्योंकि उसके अनुभव और लेखन में तथ्यपरक वृद्धि होती रहती है। लेकिन सुक्खु सरकार मीडिया को गोदी बनाने के लिये उससे सुविधायें छीनने पर आ गयी है। जबकि विज्ञापनों को लेकर प्रेस परिषद और सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता। क्योंकि विज्ञापनों पर होने वाला खर्च किसी राजनीतिक दल या नेता का व्यक्तिगत पैसा नहीं होता है। उसके आबंटन और खर्च में पारदर्शिता रहना आवश्यक है। लेकिन सुक्खु सरकार तीखे सवाल पूछने वालों का गला घोंटना चाहती है। जबकि यही सरकार अपना साप्ताहिक पत्र प्रकाशित कर रही है। गोदी में बैठने की भूमिका निभाने वालों को एक-एक अंक में लाखों के विज्ञापन दे रही है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि सरकार तीखे सवाल पूछने वालों को सबक सिखाने की नीयत से यह संशोधन लेकर आयी है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि क्या इसे बैक डेट से लागू किया जा सकता है? क्या पत्रकार सरकार के नौकर है या अपने संस्थान के। क्या संस्थाओं को सरकार इस तरह से नियंत्रित कर सकती है। जो प्रश्न पत्रकारों से जानकारी के नाम पर पूछे जा रहे हैं क्या वह उनके संस्थाओं से नहीं पूछे जाने चाहिए? क्या सरकार संस्थान के बिना किसी पत्रकार को मान्यता देती है? क्या कोई भी नियम 65 वर्ष से ऊपर के व्यक्ति को सक्रिय पत्रकारिता से रोक सकता है? जब संस्थान के बिना पत्रकार को मानता नहीं दी जा सकती तब क्या हक संस्थान का नहीं होना चाहिए कि वह अपने किस व्यक्ति को सरकारी सुविधा देना चाहता है? सुक्खु सरकार ने जिस तरह से पत्रकारों का गला दबाने की चाल चली है क्या वह कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय नीति है यह सवाल भी आने वाले समय में पूछा जायेगा।