Sunday, 21 December 2025
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आप को स्पष्ट करना होगा कि उसका पहला प्रतिद्धन्दी कौन है कांग्रेस या भाजपा

शिमला/शैल। हिमाचल में आम आदमी पार्टी ने 2014 के लोकसभा चुनावों से ही प्रदेश मेे विकल्प बनने के प्रयास शुरू कर दिये थे। उस समय प्रदेश की चारों लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ा था। लेकिन उसके बाद आये विधानसभा चुनाव, पंचायत चुनाव और फिर 2019 के लोकसभा चुनावों तक कदम रखने का साहस नहीं किया। 2014 से लेकर आज 2020 के अन्त तक शायद चौथी बार अपने संयोजक बदल चुकी है। जो लोग 2014 में पार्टी के साथ जुड़े थे उनमें से शायद ही अब एक प्रतिशत भी इसमें रहे होंगे। आम आदमी पार्टी को लेकर यह चर्चा इसलिये आवश्यक है क्योंकि आप की दिल्ली में तीसरी बार सरकार बन गयी है। पड़ोसी राज्य पंजाब में भी उसकी महत्वपूर्ण उपस्थिति है और वह राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस और भाजपा का विकल्प बनने की ईच्छा रखती है। इसी ईच्छा के प्रचार प्रभाव से अन्य प्रदेशों में भी लगता है कि वहां पर आप अपना आधार स्थापित कर सकती है। लेकिन व्यवहारिक पक्ष यह है कि दिल्ली में सरकार में बराबर बने रहने के बाद पंजाब को छोड़कर किसी भी अन्य राज्य में अपनी प्रभावी ईकाईयां तक स्थापित नहीं कर पायी हैं। ऐसा क्यों है जब तक आप का नेतृत्व इस सवाल पर ईमानदारी से चिन्तन नहीं कर लेता है तब तक उसके प्रयास सफल नहीं होंगे।
इस सवाल पर चिन्तन करते हुए सबसे पहले यह तथ्य सामने आता है कि 2014 में मोदी का प्रधानमन्त्री बनना और राष्ट्रीय राजधानी में आपका सरकार बनाना अन्ना आन्दोलन के प्रतिफल हैं। क्योंकि उस समय आन्दोलन के मंच पर प्रभावी रूप से दिखने वाला सारा प्रमुख नेतृत्व आम आदमी पार्टी के वर्तमान नेता ही थे। उस समय के कुछ नेता भाजपा में भी चले गये हैं। अन्ना आन्दोलन का सारा प्रभावी नेतृत्व आज या तो आप में हैं या भाजपा में। लेकिन कांग्रेस या अन्य किसी दल में शायद कोई भी नहीं है। अन्ना आन्दोलन संघ का सुनियोजित प्रायोजित कार्यक्रम था यह प्रमाणित हो चुका है। भ्रष्टाचार के जिन मुद्दों को उस आन्दोलन में प्रमुखता से उठाया था उनमें से एक भी मुद्दा मोदी के छः वर्ष के शासन में प्रमाणित नहीं हो पाया है। 1,76,000 करोड़ के टूजी स्कैम पर तो मोदी सरकार अदालत में यह कह चुकी है कि यह स्कैम घटा ही नहीं है। इसमें आकलन में गलती हो गयी थी। इससे स्पष्ट हो जाता है कि उस आन्दोलन के निहित उद्देश्य क्या थे। आज जिस संकट में देश चल रहा है उसके बीज अन्ना आन्दोलन में बोये गये थे जिनकी फसल आज काटनी पड़ रही है।
इस परिदृश्य में यह समझना और भी आवश्यक हो जाता है कि आप किसका विकल्प बनना चाहती है भाजपा या कांग्रेस का। केन्द्र शासित राज्य दिल्ली में आप की सरकार का बने रहना भाजपा को लाभ देता है क्योंकि वहां पर कांग्रेस का विरोध करने के लिये आप से ज्यादा कारगर हथियार और कोई नहीं हो सकता है। यही स्थिति पंजाब में है क्योंकि वहां अकाली भाजपा का सीधा मुकाबला कांग्रेस से है। हिमाचल में भी भाजपा और कांग्रेस में सीधी टक्कर होती है। इसलिये आप जब तक यह तय नहीं कर लेती है कि उसे कांग्रेस को हराना है या भाजपा को तब तक उसका प्रदेश में आकार ले पाना संभव नहीं होगा। यही स्थिति प्रदेश में बने अन्य दलों की भी है। आप को लेकर यह सवाल और भी ज्यादा प्रसांगिक इसलिये हो जाता है कि जहां आप प्रमुख अरविन्द केजरीवाल ने विवादित कृषि कानूनों की प्रतियां दिल्ली विधानसभा के पटल पर फाड़ी वहीं पर दूसरा सच यह भी है कि केजरीवाल सरकार ने ही इन कानूनों को अपने राज्य दिल्ली में अधिसूचित भी कर रखा है। यह सवाल अब आप नेतृत्व से पूछा भी जाने लगा है। क्योंकि इससे या तो उसकी वैचारिक अस्पष्टता झलकती है या फिर वह ऐसे समय में भी दोहरे चरित्र को लेकर चल रही है।
हिमाचल में 2014 से अब तक सभी चुनाव कांग्रेस हारती आयी है यह एक कड़वा सच है। इस हार के कारणों पर ईमानदारी से कोई चिन्तन नहीं हो पाया है। आज भी कांग्रेस जयराम सरकार के खिलाफ एक स्वर से हमलावर नहीं हो पा रही है। बल्कि कुछ बड़े नेताओं के खिलाफ तो यह चर्चित होने लग पड़ा है कि वह जयराम के सबसे बड़े सलाहकार बने हुए हैं पार्टी का सारा शीर्ष नेतृत्व एक जुट नहीं है। ऐसे में कांग्रेस भाजपा से कितना मुकाबला कर पायेगी यह अभी स्पष्ट नहीं है। इस परिदृश्य में जब आप भी कांग्रेस को पहला प्रतिद्वन्दी मानकर उस पर हमलावर होगी तो इससे भाजपा को और ताकत मिल जायेगी। इसलिये प्रदेश के नये संयोजक को यह स्पष्ट करना होगा कि उसका पहला प्रतिद्वन्दी कौन है कांग्रेस या भाजपा।

प्राईवेट स्कूलों के लिये लूट का लाईसैंस बन सकता है उच्च न्यायालय का फैसला

शिमला/शैल। प्रदेश के सरकारी और गैर सरकारी सारे शैक्षणिक संस्थान 14 मार्च से कोरोना के कारण बन्द चल रहे हैं। इनके बन्द होने से स्कूलों में बच्चों की पढ़ाई बन्द हो गई राष्ट्रीय स्तर पर यह हुआ। कोरोना के कारण लाॅकडाऊन से सारी गतिविधियां बन्द हो गयी थीं। सरकारी कर्मचारियों और बड़े उद्योग घ्रानों को छोड़ कर शेष सब लोगों की आय के साधनों पर इस स्थिति का प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। इस प्रभाव के कारण प्राइवेट स्कूलों के संद्धर्भ में 27 मार्च को प्रदेश सरकार ने यह आदेश जारी किया कि यह स्कूल छात्रों से स्कूल फीस लेने की समय सीमा 30 मार्च से 30 अप्रैल तक बढ़ायेंगे और इसके लिये कोई लेट फीस नहीं ली जायेगी। इन निर्देशों को 2 अप्रैल और 25 अप्रैल को दोहराया भी गया। लेकिन इनमें फीस के साथ जाने वाले शुल्कों का जिक्र नहीं किया गया। इसके बाद 26 मई को राज्यपाल ने इस संद्धर्भ में कुछ प्रोपोजल अनुमोदित किये और निदेशक उच्च शिक्षा की ओर से 27 मई को इस आश्य की अधिसूचना जारी कर दी गयी। आठ बिन्दुओं की इस अधिसूचना में टयूशन फीस मासिक आधार पर लेने के निर्देश जारी किये गये। यह भी कहा गया कि टयूशन फीस भी उन्हीं क्लासों से ली जायेगी जिन्हें आनलाईन पढ़ाया जा रहा है। टयूशन फीस के अतिरिक्त लिये जाने वाले अन्य शुल्कों को स्थगित रखने के लिये कहा गया। इसी में यह भी कहा गया कि यह प्राईवेट स्कूल अपने अध्यापकों या गैर अध्यापकों के वेतन भत्तों में किसी तरह की कोई कटौती नहीं करेंगे। इसमें अगर उन्हें धन की कोई कमी आती है तो वह इसे स्कूल चलाने वाली सोसायटी /ट्रस्ट से पूरा करेंगे। सरकार के यह आदेश/निर्देश प्रदेश में कार्यरत सभी प्राईवेट स्कूलों पर एक बराबर लागू थे चाहे वह किसी भी बोर्ड से संवद्ध थे।
सरकार की इस अधिसूचना के बाद जब आनलाईन शुरू हुआ तब इन स्कूलों ने बच्चों से फीस और अन्य शुल्क आदि की मांग शुरू कर दी। प्राईवेट स्कूलों के यह शुल्क आदि हजारों में हैं। जिन बच्चों के अभिभावकों की कोरोना लाकडाऊन के कारण आय बुरी तरह प्रभावित हुई थी उन्हें यह अदायगी करना समस्या बन गया। फिर आनलाईन पढ़ाई के लिये बच्चों को स्मार्ट फोन और उसका नेट का खर्चा उठाना भी एक तरह से फीस भरना ही हो गया था। इस वस्तुस्थिति में प्रभावित अभिभावक इक्कट्ठे होने लगे और छात्र अभिभावक मंच बन गया। इस मंच ने प्राईवेट स्कूलों की इस मांग के खिलाफ आन्दोलन का रास्ता अपना लिया क्योंकि सरकार इस संबंध में दोहरी नीति पर चलती रही। अभिभावकों और प्राईवेट स्कूलों दोनों के साथ खड़ा होने का प्रयास करती रही। इस प्रयास का परिणाम यह हुआ कि छात्र अभिभावक मंच को अपना आन्दोलन और तेज करने की बाध्यता हो गयी और दूसरी ओर प्रदेश के 45 प्राईवेट स्कूलों ने उच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटा दिया।
उच्च न्यायालय का फैसला प्राईवेट स्कूलों के हक में आया है। उच्च न्यायालय ने साफ कहा है कि सरकार ने अपनी अधिसूचनाओं में फीस वगैरा को केवल स्थगित किया था उन्हें माफ नहीं किया था। 1997 के एक्ट के मुताबिक प्राईवेट स्कूलों को रेगुलेट करने का अधिकार है लेकिन इसके तहत फीस या अन्य शुल्क और अध्यापकों की नियुक्ति आदि को रैगुलेट करने का अधिकार सरकार को नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी अपने कई फैसलों में यह स्पष्ट किया है कि फीस आदि के मामलों में सरकार कोई दखल नहीं दे सकती है। इसी के साथ उच्च न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया है कि

5(iii) While directing the private schools to neither stop payment of monthly salary nor reduce the existing total emoluments being paid to their teaching and non-teaching staff but at the same time permitting the schools to collect only the tuition fee, that too on monthly basis without authorizing them to compulsorily realize even this tuition fee is an unreasonable restriction. As in such situation incoming of funds have been made more or less voluntary, dependant on the goodwill of the parents whereas outgoing payments to be made by the schools are mandatory. Learned Additional Advocate General could not justify as to why even the tuition fee has not been permitted to be collected compulsorily by the private schools. This is rather an illogical and arbitrary condition. In case, the privately managed schools can not authoritatively charge even the ‘tuition fee’ then it is beyond comprehension as to how they will pay the monthly salary/emoluments to not only their teaching but non-teaching staff as well. It cannot be assumed that private schools have unending supply of reserve funds with them. Thus conditions No. 6,7 and 8 in the impugned communication dated 27.5.2020 run in contradiction to each others’ professed object. The object sought to be achieved in condition No. 8 will eventually be defeated by condition Nos. 6 and 7.
We cannot loose sight of the fact that by and large wards of affluent/reasonably well off families study in the private schools. Private schools are sought after because of the status and reputation they enjoy. These schools may have been closed temporarily but are required to maintain their already created infrastructure and instructional facilities. Their recognition and affiliation also depends upon compliance of these aspects. These schools are not financially aided by the State government. Whether all this can be met from tuition fees alone is another question. Neither we have the facts nor the figures to deal with the income and expenditure of the schools nor we intend to go into the related factual muddle. But these aspects do need consideration by the State while imposing temporary restrictions upon the private schools.

उच्च न्यायालय की इन टिप्पणीयों से स्पष्ट हो जाता है कि सरकार की नीति इस बारे में साफ नहीं रही है क्योंकि सरकार ने जब अपने निर्देशों में यह कहा था कि धन की कमी स्कूल चलाने वाली सोसायटी/ट्रस्ट पूरा करेगा तब इस पर अमल क्यों सुनिश्चित नहीं किया गया? इसे उच्च न्यायालय में पूरे विस्तार के साथ क्यों नही उठाया गया? क्या जब कोई स्कूल खोलने के किसी का प्रस्ताव सरकार के पास राजस्व अधिनियम की धारा 118 आदि की अनुमतियों के लिये सरकार के पास आता है तो क्या इसे एक उ़द्योग या वाण्ज्यिक संस्थान के नाम पर अनुमतियां दी जाती है। क्या सरकार इन संस्थानों के लिये बिजली, पानी और सड़क जैसी आधारभूत सुविधाएं उपलब्ध नहीं करवाती है। आज जब आम आदमी संकट में चल रहा है तब भी ऐसी संस्थाओं का यह आचरण इस ओर ध्यान आकर्षित करता है कि हम कंही शिक्षा के बाजा़रीकरण की ओर तो नहीं बढ़ रहे हैं। उच्च न्यायालय के फैसले के परिदृश्य में इस ओर विचार करने की आवश्यकता है।

बसपा परियोजना और विवेकानन्द मैमोरियल ट्रस्ट में मिले अनुभव के बाद भी निजिक्षेत्र की वकालत क्यों

शान्ता ने दिया था बसपा जे पी उद्योग को
बसपा में डूबे हैं बोर्ड के 92 करोड़
विवेकानन्द मैमोरियल ट्रस्ट है शान्ता का ड्रीम प्रोजेक्ट
अब ट्रस्ट का प्रबन्धन 2010 से जे पी के पास है
ट्रस्ट के अस्पताल को जनता ने भी दिये हैं 23 करोड़
ट्रस्ट के लिये सरकार ने भी 1 रूपये पर दी है ज़मीन
अब मरीजों से कमरे का किराया ही 8000 प्रतिदिन लेने का है आरोप

शिमला/शैल। विवादित कृषि कानूनों का प्रमुख आधार शान्ता कमेटी की सिफारिशें रही है यह स्पष्ट हो चुका है। यह चर्चा बाहर आने के बाद शान्ता कुमार इन कानूनों के समर्थन में पूरी तरह खुलकर सामने आ गये हैं। इन कानूनों को कृषि सुधारों का नाम देते हुए शान्ता ने स्पष्ट कहा है कि सरकार इन्हें वापिस नहीं लेगी। शान्ता ने एक ब्यान जारी करके कहा है कि शरद पवार और कपिल सिब्बल इन सुधारों का समर्थन कर चुके हैं और उनके विडियोज़ इसके गवाह हैं जो मुकर नहीं सकते। लेकिन यहां पर शान्ता यह स्पष्ट करना भूल गये कि कांग्रेस के समय में राजनाथ सिंह, सुषमा स्वराज और अरूण जेटली इनका विरोध क्यों कर रहे थे। इनके विरोध के विडियोज़ आज बाहर आ चुके हैं। इनसे यह सवाल उठ रहा है कि क्या आज किसान हितों की परिभाषा बदल गयी है।
शान्ता कुमार ने कृषि कानूनों का समर्थन करते हुए अपने 1990 के मुख्यमन्त्री काल में प्रदेश के बिजली क्षेत्र में निजिक्षेत्र को लाने के लिये एक लम्बा चौड़ा वक्तव्य ‘‘निजिकरण क्यों’’ के शीर्षक से जारी किया था। इसमें आंकड़े जारी करते हुए कहा गया कि निजिकरण क्यों आवश्यक है। यह आरोप भी लगाया गया था कि सरकारी कर्मचारी ईमानदारी से काम नहीं करता है और भ्रष्टाचार का कारण बनता है। उस समय प्रदेश बिजली बोर्ड प्रबन्धन के साथ निजिकरण की नीति को लेकर मतभेद भी हुए थे। बोर्ड के तत्कालीन अध्यक्ष कैलाश महाजन को उनके पद से हटा दिया गया था। बोर्ड कर्मचारियों ने एक बहुत बड़ा आन्दोलन किया था। शान्ता कुमार की सरकार संकट में आ गयी थी। बड़े प्रयासों से इस आन्दोलन को शान्त किया गया था। उस समय निजिकरण के नाम पर बसपा परियोजना को बिजली बोर्ड से छीन कर जे पी उद्योग को दिया गया था। बिजली बोर्ड इस परियोजना पर काफी निवेश कर चुका था इसलिये जेपी उद्योग और बिजली बोर्ड के बीच यह समझौता हुआ था कि जे पी उद्योग बिजली बोर्ड के निवेश को 16% ब्याज सहित वापिस करेगा। लेकिन जेपी उद्योग ने यह पैसा बिजली बोर्ड को वापिस नहीं किया। यहां तक कहा गया कि जब वसपा उत्पादन में आ जायेगा तब यह पैसा वापिस कर देगा। परन्तु 2003 में उत्पादन में आने के बाद भी यह पैसा वापिस नहीं हुआ। जब यह रकम ब्याज सहित 92 करोड़ हो गयी तब इसे यह कह कर बट्टे खाते में डाल दिया गया कि यदि यह पैसा वसूला जाता है तो जेपी उद्योग इसे उपभोक्ताओं पर डाल देगा इसलिये यह वापिस न लिया जाये। सरकार के इस तर्क पर कैग ने कड़ी आपत्ति दर्ज की है लेकिन कैग की आपत्तियों को नजरअन्दाज करके जेपी को यह 92 करोड की राहत प्रदान कर दी गयी। यहीं नहीं जब जेपी ने सारे नियमों को ताक पर रख कर बघेरी में थर्मल प्लांट लगाने का प्रयास किया था तब यह मामला प्रदेश उच्च न्यायालय में पहुंच गया था। उच्च न्यायालय ने इसका कड़ा संज्ञान लेकर जेपी को जुर्माना लगाने के साथ इसकी जांच के लिये एक कमेटी का गठन किया था। प्रशासन और उद्योग का इसे एक नापाक गठजोड़ करार देते हुए संवद्ध अधिकारियों के खिलाफ कड़ी कारवाई करने के निर्देश दिये थे। इस जांच कमेटी का मुखिया केसी सडयाल को बनाया गया था और उनकी सेवानिवृति के बाद भी उच्च न्यायालय ने उन्ही को इसका अध्यक्ष रखा था। इस कमेटी की रिपोर्ट और उस पर हुई कारवाई की जानकारी आज तक सामने नहीं आ पायी है।
इसी दौरान 2010 में शान्ता के ड्रीम प्रौजैक्ट विवेकानन्द मैमोरियल ट्रस्ट के अस्पताल का संचलान और प्रबन्धन इसी जेपी उद्योग को सौंप दिया गया है। इस ट्रस्ट के लिये सरकार ने एक रूपये की लीज पर कई एकड़ जमीन दे रखी है। बल्कि अब इसी जमीन में से ट्रस्ट ने 50 कनाल जमीन कायाकल्प को दी है। इस अस्पताल के निर्माण के लिये जनता ने भी करीब 23 करोड़ का योगदान दिया हुआ है। इस अस्पताल को मिनी पीजी आई बनाने का वायदा किया गया था और इसी उद्देश्य के लिये इसमें जेपी उद्योग को लाया गया था लेकिन जेपी उ़द्योग दस वर्षों में इसमें कोई विस्तार नहीं कर पाया है बल्कि अभी कुछ दिन पहले यहां आये एक मरीज और उसके परिजनों के साथ हुए व्यवहार का एक विडियो नीलम सूद के नाम से वायरल हुआ है। इसमें प्रबन्धन के व्यवहार को लेकर बहुत शर्मनाक आरोप लगाये गये हैं। जिनकी शांता के संस्थान में कल्पना करना भी अजीब लगता है। इसी विडियो में यह भी खुलासा किया गया है कि मरीजों से कमरे का किराया आठ हजार लिया जा रहा है। इस विडियो का कोई खण्डन नहीं किया गया है और न ही इस पर शांता से लेकर जयराम सरकार तक कोई कारवाई की है।
शांता दो बार प्रदेश के मुख्यमन्त्री और फिर केन्द्र में मन्त्री रह चुके हैं सीमेन्ट उद्योग को भी सरकारी नियन्त्रण से बाहर लाने में राज्य से लेकर केन्द्र तक उनका योगदान रहा है। उक्त प्रसंगों से स्पष्ट हो जाता है कि वह निजिक्षेत्र के कितने बड़े पक्षधर रहे हैं और आज भी हैं। हिमाचल में निजिकरण के इन प्रयोगों से प्रदेश की जनता और सरकार को कितना लाभ हुआ है यह सब जानते हैं। आज प्रदेश का कर्ज भार साठ हजार करोड़ से उपर जा चुका है। इसमें सबसे बड़ा योगदान इस निजिकरण की नीति का है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक और आवश्यक है कि क्या इन प्रत्यक्ष अनुभवों के बाद भी निजिक्षेत्र की वकालत की जानी चाहिये।

किसान सभा के डा. तनवर का शान्ता के नाम खुला पत्र

आदरणीय श्री शांता कुमार जी ,
हिमाचल एक बहुत छोटा राज्य है। संसद में इसकी ताकत भी बहुत कम है। परंतु छोटा राज्य होने के बावजूद हिमाचल प्रदेश को केंद्रीय मंत्रिमंडल में भाजपा और कांग्रेस दोनों दलों की सरकारों में महत्वपूर्ण मंत्रालयों का
संचालन करने का मौका मिला है। विशेष तौर पर आप खाद्य आपूर्ति एवं उपभोक्ता मामलों के मंत्री रहे हैं। प्रदेश का नेतृत्व भी किया। आप जिस संसदीय क्षेत्र का नेतृत्व करते रहे हैं उन क्षेत्रों में अगर कोई नकदी फसल है तो वह मक्की है। जिसके कुल उत्पादन का 3-4 लाख मीट्रिक टन उत्पादन ( Marketable Surplus )किसानों की आमदनी का मुख्य स्रोत है ।
मक्की का न्यूनतम समर्थन मूल्य 1850 रुपये प्रति क्विंटल तय है परंतु किसानों को अधिकतम कीमत 800-1100 रुपये ही मिल पाती है। हिमाचल प्रदेश का एकमात्र कृषि विश्वविद्यालय आपके गृह क्षेत्र पालमपुर में ही स्थित है। जिसमें शोध किया गया है कि मक्की से 34 किस्म के उत्पाद तैयार किये जा सकते हैं। अगर इसके लिए उस तरह के उद्योग या प्रसंस्करण केंद्र स्थापित किये जाएं। हिमाचल प्रदेश का किसान बहुत छोटा है। उसके थोड़े से अतिरिक्त उत्पाद में अगर मूल्य संवर्धन हो सके तो उसकी आजीविका में बेहतरी आ सकती है। आय भी दुगनी हो सकती है। मगर किसी भी प्रदेश सरकार में किसी के भी नेतृत्व में और हिमाचल प्रदेश से केन्द्र में प्रतिनिधित्व करने वाले किसी भी हिमाचली प्रतिनिधि ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। हिमाचल प्रदेश छोटा राज्य है लेकिन इसकी जलवायु और इसकी जैव विविधता इसकी बहुत बड़ी ताकत है पर कभी न उसका सही आकलन किया गया और न ही उसके वैज्ञानिक अधिकतम दोहन के लिए कोई योजना बनाई गई। बल्कि राज्य सरकारें केन्द्र से अपना उचित हक या हिस्सा लेने में भी सफल नहीं हो पाई। आज अगर कोई भी तबका अपने हक की मांग उठाता है तो वह या तो  "अर्बन नक्सल " हो जाता है या माओवादी, नक्सलवादी करार दिया जाता है। किसी भी आंदोलन में चीन और पाकिस्तान की साजिश बता दी जाती है। देशद्रोही ठहराया जाता है। असल मुद्दे को क्षेत्र, धर्म, जाति, राजनैतिक विचारधाराओं के खांचे में फिट करने की कोशिश की जाती है। खेद तब अधिक होता है जब आप जैसे दूरदृष्टा और वरिष्ठ राजनीतिज्ञ की ओर से ऐसे बयान सामने आते हैं। इस समय जब किसान आंदोलन में है,  बेहतर होता कि " किसान मोर्चा "और "भारतीय किसान संघ " जैसे संगठन भी किसानों के पक्ष में आकर खड़े होते और उनकी मांगों की पैरवी करते। केंद्रीय मांगों के साथ हिमाचल के किसानों की
मांगें भी उठाते। लेकिन प्रदेश के मुख्यमंत्री और भाजपा और संघ से जुड़े किसान संगठनों का आंदोलन के खिलाफ बोलना और लाखों आंदोलनकारी किसानों को यह कहकर नासमझ बताना कि उन्हें राजनैतिक दल गुमराह कर रहे हैं, अन्नदाता का निरादर है। उचित यही होगा कि प्रदेश के सभी किसान संगठन केंद्र सरकार से हिमाचल के
किसानों के हित में केरल की तर्ज़ पर सब्ज़ियों, फलों और मसालों में न्यूनतम समर्थन मूल्य की मांग करें। मक्की, धान और गेहूं के अतिरिक्त उत्पादन की खरीद के लिए प्रदेश में कलेक्शन सेंटर खुलवाने की मांग करें और फल, सब्ज़ियों, मक्की के लिए प्रसंस्करण उद्योग स्थापित करने की मांग करें। उचित दाम न मिल पाने की स्थिति में अपने उत्पाद के सुरक्षित भंडारण के लिए सी.ए. स्टोर, कोल्ड स्टोर, कूलिंग चेम्बर बनवाने की मांग करें। ये अपील प्रदेश के करीब 10 लाख किसान परिवारों की ओर से आपसे भी है औरसभी किसान संगठनों, राजनैतिक दलों और सरकार से भी है।
Dr. Kuldip Singh Tanwar
किसान सभा  ( HKS ). 13:12:2020


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