Friday, 19 September 2025
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प्रशासन का चेहरा उजागर करता गरीब सूरत राम का पत्र

शिमला/शैल। जिले के चौपाल क्षेत्र के गांव मडावग के निवासी सूरत राम की शिकायत है कि उसे कुछ लोग जान से मार देने का प्रयास कर रहे हैं। इस प्रयास में इन लोगों ने उसके परिवार को भी धमका रखा है कि यदि वह लोग सूरत राम का साथ देंगे तो उन्हे भी मार दिया जायेगा। जब किसी व्यक्ति के साथ इस तरह का व्यवहार होगा तो वह प्रशासन से उसकी शिकायत करेगा। सूरत राम काफी अरसे इस बारे में प्रशासन से शिकायतें करता आ रहा है। उसने 1-6-2020 को मुख्यमन्त्री को भी रजिस्टर्ड पत्र से शिकायत भेजी जिस पर कोई कारवाई नही हुई। सूरत राम का कहना है कि इन लोगों के डर से वह रात को अपने घर नही रह सकता। उसे रातें जंगल और खेतों में गुजारनी पड़ रही है। उसके अपने बेटे तक उसको इस डर के कारण घर नही रख पा रहे हैं जबकि प्रदेश सरकार ने माता-पिता के भरण-पोषण का विधयेक पारित कर रखा है। इस विधेयक की अनुपालना में माता-पिता की देखभाल करना बच्चों की वैधानिक जिम्मेदारी है। यह सब कुछ होते हुए भी प्रशासन सूरत राम की सहायता नही कर रहा है।
इसी के चलते अब उसने 10-6-2020 को जिलाधीश से भी शिकायत की है जिलाधीश ने यह शिकायत एसडीएम चौपाल को मार्क कर दी। सूरत राम ने इसे एसडीएम चौपाल के पास भी पहुंचा दिया। लेकिन कोई कारवाई नही हुई है। सूरत राम को हार कर अपनी शिकायत जनता के सामने रखने पर विवश होना पड़ा है।
























अवैध निर्माणों के आरोपों में घिरा नगर निगम शिमला

शिमला/शैल।  पिछले कुछ अरसे से नगर निगम शिमला अवैध निर्माणों को लेकर समाचारों और चर्चाओं का केन्द्र बना हुआ है। अवैध निर्माण के यह आरोप स्वयं नगर निगम के अपने कर्मचारियों पर लगे हैं। यहां तक आरोप है कि निगम की जमीन पर ही अवैध कब्जा करके अवैध निर्माणों को अंजाम दे दिया गया है। यह चर्चाएं बाहर आते ही नगर निगम ने दो सफाई कर्मचारियों को निलंबित कर दिया है और अतिरिक्त आयुक्त विधि की अध्यक्षता में सारे मामलों की जांच करने के लिये कमेटी का गठन कर दिया है। इस कमेटी की रिपोर्ट अभी तक आयी नही है। लेकिन जब निगम ने ही अपने दो कर्मचारियों को निलंबित कर दिया है तो यह स्वतः ही सिद्ध हो जाता है कि आरोप निराधार नही हैं। लेकिन इन आरोपों से कुछ बुनियादी सवाल नये सिरे से खड़े हो गये हैं जो महत्वपूर्ण हैं।
नगर निगम क्षेत्र में कोई भी निर्माण निगम द्वारा नक्शा पास किये बिना नही बन सकता यह नियम है। लेकिन इसी नगर निगम के क्षेत्र में अवैध निर्माणों को नियमित करने के लिये नौ बार रिटैन्शन पाॅलिसियां लायी गयी हैं यह एक कड़वा सच है। हर बार पाॅलिसी लाते हुए उसमें यह दर्ज रहा है कि इसके बाद किसी भी अवैध निर्माण को नियमित नही किया जायेगा। लेकिन नौ बार ऐसा हो गया। कांग्रेस और भाजपा दोनों की ही सरकारों में ऐसा हुआ है। निगम पर भी कांग्रेस-भाजपा दोनों का कब्जा रहा है। बल्कि एक बार सीधे चुनाव में महापौर और उपमहापौर के दोनों पद सी पी एम के कब्जे में भी रहें हैं। लेकिन कोई भी शासन अवैधताओं के खिलाफ कोई ठोस कारवाई नही कर पाया है। मन्त्रीयों, विधायकों और पाषर्दों तक अधिकांश पर स्वयं अवैध निर्माण करने या करवाने के आरोप लगे हैं। यदि कोई निष्पक्ष उच्च स्तरीय जांच कमेटी बने तो यह सारा सामने आ जायेगा। विधानसभा के सदन तक ऐसे निर्माणों की सूचियां पहुंची हुई हैं। शहर के नालों तक पर पार्षदों का कब्जा है और ऐसे मामलों के अदालत में पहुंचने के बाद भी उन पर दशकों तक फैसला नही आया है। निगम का विधि विभाग भी ऐसे मामलों पर कुछ नही कर पाया है। शहर के मध्यम में स्कूल के नाम पर होटलनुमा सरायं खड़ी हो गयी लेकिन किसी की हिम्मत नही हुई उस ओर आंख उठाकर देखने की जबकि एक पूर्व पाषर्द ने ही आरटीआई के माध्यम से इस मामले को उजागर किया।
एनजीटी ने ऐसे मामलों का कड़ा संज्ञान लेते हुए शहर में अढ़ाई मंजिल से अधिक के निर्माणों पर रोक लगा रखी है। लेकिन इस फैसले के बाद कितने निर्माणों में इस फैसले की अवेहलना की गयी है। इसका सही पता तो निष्पक्ष सर्वे में ही सामने आयेगा। परन्तु इसी दौरान नगर निगम शिमला के रिड़का गांव क्षेत्रा में जो ग्याहर मंजिल होटल का निर्माण सामने आया है उसके लिये किसको जिम्मेदार ठहराया जायेगा यह सवाल अभी तक अनुतरित है। इस होटल के निर्माण का मुद्दा रेरा तक पहुंचा था। लेकिन रेरा ने इस पक्ष को छुआ ही नही कि एनजीटी के फैसले के बावजूद इतना बड़ा निर्माण हो कैसे रहा है। रेरा द्वारा नजर अन्दाज होने के बाद इस निर्माण का मुद्दा डा. बन्टा ने एनजीटी में उठाया। इस पर एनजीटी ने नगर निगम शिमला, प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड और अन्य संवद्ध पर अपनी नाराजगी जताते हुए इसे तुरन्त प्रभाव से रोकने के आदेश दिये। इन आदेशों के बाद प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड ने इसकी बिजली आदि काटने के आदेश दिये। यहां यह स्वाल उठता है कि क्या इस निर्माण के लिये संवद्ध विभागों के खिलाफ कारवाई नही बनती है?
 शहर की सबसे बड़ी समस्या पार्किंग है। करीब 75% निर्माणों के पास पार्किंग नही है क्योंकि शुरू से ही इस बारे में कोई चिन्ता और चिन्तन नही किया गया। आज भी यदि प्रदेश उच्च न्यायालय के साथ जिस तर्ज पर महाधिक्ता कार्यालय का निर्माण हुआ है और पार्किंग का प्रावधान किया गया है। उसी तर्ज पर जहां-जहां संभव हो वहां-वहां ऐसे निर्माणों की अनुमति देकर शहर की एक बड़ी समस्या का हल निकाला जा सकता है। इसी के साथ आवश्यकता इसकी है कि जहां भी अवैध निर्माण सामने आते हैं वहां उस क्षेत्र के पार्षद से लेकर नगरनिगम के संवद्ध प्रशासन के खिलाफ पहले कारवाई की जाये तब ऐसी अवैधताओं पर रोक लग पायेगी अन्यथा नही। नगर निगम के सफाई कर्मचारियों का निलंबन इसका कोई हल नही है। क्योंकि जिस जमाने में निगम की कालोनियों का निर्माण हुआ है उस दौरान हर आवास में अनिवार्य शौचालय का प्रावधान नही था। इस समय इन काॅलोनियों में जो अवैध निर्माण हुए हैं हो सकता है कि उनमें अधिकांश ऐसी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये किये गये हों।
जवाब मांगते कुछ निर्माण

महाधिवक्ता भवन हिमाचल प्रदेश शिमला


















































निर्वाण वुडज़ होटल रिड़का, शिमला

दहशत का कारण हो रही है प्रशासन की यह कार्यशैली

शिमला/शैल। देश में पहली जून से आनलाॅक का पहला चरण शुरू हुआ है। लेकिन हिमाचल में अभी भी कफर्यू लागू है। अब यह केवल रात में ही प्रभावी है। कोरोना के मामले अब प्रदेश में हर रोज बढ़ते जा रहे हैं। प्रदेश के लगभग सभी जिले इससे प्रभावित हो गये हैं। लाहौल स्पिति में तो वहां के लोगों ने क्षेत्र के विधायक मन्त्री डा. रामलाल मार्कण्डेय को भी वहां नही आने दिया है। भले ही मन्त्री का रास्ता रोकने पर उन लोगों के खिलाफ अब एफआईआर दर्ज कर दिये गये है। इस घटना से यह पता चलता है कि लोगों में कोरोना को लेकर किस कदर आतंक का माहौल बना हुआ है।
लोगों में बना यह आतंक एक बहुत ही खतरनाक मानसिकता का परिचायक बनता जा रहा है। लेकिन इस आतंक से जब प्रशासन स्वयं ही प्रभावित हो जाये तो अन्दाजा लगाया जा सकता है कि सामान्य समाज की स्थिति क्या होगी। कोरोना के कारण शिमला के मालरोड़ पर कुछ दिनों के लिये शेरे पंजाब के पास के रेन शैल्टर से स्कैण्डल तक ट्रैफिक ‘‘वन वे’’ कर दिया गया था। फिर कुछ दिनों बाद यह ‘‘वन वे’’ व्यवस्था हटा दी गयी। लेकिन अब इसे फिर से लागू कर दिया गया है। अब जहां माल रोड़ के कुछ स्थलों पर लोग बैठकर थोड़ा विश्राम कर लेते थे वहां छोटा सा पोस्टर चिपका दिया गया है। इस पर लिखा है कि यहां बैठना मना है। यह पोस्टर किसके आदेशों से जारी किया गया है इसका कोई जिक्र इस पर नही है। वैसे शहर में कुछ अन्य स्थानों पर भी ‘‘रास्ता बन्द’’ है के पोस्टर चिपके हुए हैं जिन पर आदेशकर्ता का उल्लेख नही है। मालरोड़ प्रदेश का ऐसा स्थल है जिसमें एक ओर ही दुकानें हैं और पूरा रास्ता बहुत चैड़ा है। वहां पर आने जाने वालोें में स्वभाविक रूप से सामाजिक दूरी के निर्देश की अनुपालना हो जाती है। लेकिन जब ऐसे स्थान पर भी प्रशासन इस तरह से अपने फैसले बदलेगा तो निश्चित रूप से लोगों में और आतंक का वातावरण बनेगा।
जबकि इसी शहर में जब पहली जून को प्रदेश के नये डीजीपी ने कार्यभार संभाला तब एक व्यक्ति दिल्ली से उन्हे बधाई  देने  उनके कार्यालय पहुंच गया। बधाई देकर कुछ समय रूक कर यह व्यक्ति उसी दिन दिल्ली वापिस भी चला गया। लेकिन दिल्ली जाकर कुछ दिनों बाद इस व्यक्ति की मौत हो गयी और यह पता चला कि यह व्यक्ति तो कोरोना पाॅजिटिव था। यह सूचना मिलते ही हड़कंप मच गया। संजय कुण्डु होम संगरोध में चले गये पुलिस मुख्यालय को सील कर दिया गया। जितने लोगों को कुण्डु सहित यह व्यक्ति मिला था सबके सैंपल लिये गये। सुखद यह रहा कि सभी नैगेटिव निकले। कुछ लोगों ने इस पर सवाल भी उठाये है कि दिल्ली के व्यक्ति को शोघी बेरियर के पास अन्दर शिमला कैसे आने दिया जबकि नियमों के अनुसार उसे तो संस्थागत संगरोधन में भेजना चाहिये था। यह एक प्रशासनिक पक्ष है और देर सवेर प्रशासन को इसका जवाब देना भी होगा।
लेकिन इस सबमें सबसे सुखद और महत्वपूर्ण यह है कि इस व्यक्ति के संपर्क में आया कोई भी व्यक्ति संक्रमित नही निकला। अन्दाजा लगाया जा सकता है कि जिसकी कोरोना के कारण कुछ ही दिनों में मौत हो गयी हो उसके संपर्क में आया कोई भी व्यक्ति संक्रमित नही हुआ। क्या इससे यह निष्कर्ष नही निकलता कि कोरोना का संक्रमण इस तरह नही फैलता है इस समय प्रशासन के स्तर पर जब आतंक की यह हालत हो जाये कि उसे बार -बार अपने फैसले बदलने पड़े तो इसका आम आदमी पर कितना नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा इसका अन्दाजा लगाया जा सकता है। प्रशासन को अपनी मानसिकता और कार्यशैली दोनो ही बदलने की आवश्यकता है।

मानवाधिकार आयोग के लिये हुए चयन पर मुकेश अग्निहोत्री के पत्र से उठे सवाल

शिमला/शैल।  प्रदेश का मानवाधिकार आयोग 2008 से खाली चला आ रहा है क्योंकि कांग्रेस और भाजपा दोनों की सरकारों ने इसमें अध्यक्ष तथा सदस्यों की नियुक्तियों को प्राथमिकता नही दी। दोनों ही दलों की सरकारों के कार्यकाल में यह सवैंधानिक संस्थान कार्यशील नही हो पाया। इससे यह अन्दाजा लगाया जा सकता है कि मानवाधिकारों को लेकर इनकी सोच क्या रही है। जहां सरकारों ने इस ओेर आंखे मुंदे रखी वहीं पर इन संगठनों के नेतृत्व ने भी इस बारे में अपनी जुबान नही खोली। आयेाग की इस व्यवहारिक स्थिति का संज्ञान लेते हुए पिछले दिनों प्रदेश उच्च न्यायालय ने अपना रोष प्रकट करते हुए इसमें शीघ्र नियुक्तियां करते हुए इसे कार्यशील बनाने के निर्देश दिये थे।
उच्च न्यायालय के इन निर्देशों की अनुपालना करते हुए जयराम सरकार ने 9 जून को इस संबंध में एक बैठक आयोजित की थी। नियमों के अनुसार मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति के लिये मुख्यमन्त्री, नेता प्रतिपक्ष और विधानसभा स्पीकर पर आधारित एक तीन सदस्यों की कमेटी अधिकृत है। ऐसी कमेटी की बैठक के लिये बैठक से पहले ही सदस्यों को इस आश्य का ऐजैण्डा प्रेषित किया जाता है ताकि सदस्य पूरी तैयारी के साथ आये। लेकिन 9 जून को हुई बैठक में नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री शामिल नही थे। नेता प्रतिपक्ष की गैर मौजूदगी में ही मुख्यमन्त्री और स्पीकर विधानसभा ने यह बैठक कर ली इस बैठक में अध्यक्ष के लिये उच्च न्यायालय के पूर्व जज जस्टिस पी एस राणा और प्रशासनिक सदस्य के लिये सेवानिवृत आईएएस अधिकारी अजय भण्डारी के नामों का चयन कर लिया। इसमें तीसरे सदस्य लीगल के लिये कोई नाम तय नही किया गया।
अब 13 जून को नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्राी ने राज्यपाल को पत्र लिखकर इस चयन प्रक्रिया पर एतराज जतातेे हुए इसे रद्द करके नये सिरे से चयन बैठक आयोजित करने का आग्रह किया है। मुकेश अग्निहोत्री ने कहा है कि वह अपरिहार्य कारणों से 9 जून की बैठक में नही आ सकते थे और इस बारे में उन्होने पूर्व सूचना दे रखी थी। अग्निहोत्री ने यह भी कहा है कि बैठक का ऐजैण्डा भी सूचित नही किया गया था। मुकेश अग्निहोत्री ने राज्यपाल के संज्ञान में यह भी लाया है कि पिछली सरकार के समय में भी जब इन नियुक्तियों के लिये चयन बैठक तय की गयी थी तब उस समय के नेता प्रतिपक्ष पे्रम कुमार धूमल इसमें शामिल नही हो पाये थे। धूमल के न आ पाने के कारण तीन बार बैठकें स्थगित की गयी थी और आयोग में यह नियुक्तियां नही हो पायी थी। नेता प्रतिपक्ष के बिना चयन नही किया गया था।
लेकिन अब जब पहली बैठक में नेता प्रतिपक्ष पर्वू सूचना देते हुए इसमें शामिल नही हो पाये तब भी यह चयन कर लिया गया। यह सही है कि यदि नेता प्रतिपक्ष इन नामों पर सहमत नही हो और मुख्यमन्त्री तथा स्पीकर की ही सहमति होती तो बहुमत के आधार पर यह नियुक्तियां हो ही जाती। क्योंकि यह प्रक्रिया संसद द्वारा अनुमोदित करना तय प्रक्रिया का सम्मान है। क्योंकि यह प्रक्रिया संसद द्वारा अनुमोदित हैं जिसे निरस्त नही किया जा सकता फिर जब इस बैठक में सदस्य लीगल का नाम तय नही किया गया उससे भी यह प्रमाणित होता है कि यदि इस बैठक को स्थगित कर दिया जाता तो कोई अनर्थ न हो जाता। लेकिन नेता प्रतिपक्ष के बिना हुआ यह चयन मुख्यमन्त्री की नियमों/कानूनों के प्रति निष्ठा पर ही एक बड़ा प्रश्नचिन्ह खड़ा कर देता है। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि राज्यपाल कैसे संवैधानिक प्रक्रिया की रक्षा कर पाते हैं क्योंकि यदि यह नियुक्तियां और एक माह तक लेट हो जाती तो इससे बड़ी क्षति न हो जाती।

Respected Governor Sahib,
 I’m writing to inform you that proceeding with the selection of the Chairperson and members of the Human Rights Commission on basis of the decision made on the 9th of June would constitute an affront on the statutory norm and the democratic values. Section 22 of the Protection of Human Rights Act, 1993 mandates the inclusion of Leader of Opposition in the appointment committee. I intimated the Government  about my unavailability on that specific day due to unavoidable circumstances. As per the precedent if a member cannot attend the meeting on a specific day, it has to be rescheduled. In the previous tenure, Shri Prem kumar Dhumal, the then Leader of Opposition, could not make it to the meetings on three occasions and the Government reorganized them each time. Importantly according to the Statute the Government could carry on with the selection only in case there was a vacancy in the office of Leader of Opposition, which is clearly not the case here. It is also pertinent to mention that no agenda was served. It is appalling that the Government chose to  proceed without abiding by the precedent and the statute in the very first meeting. It is a cause of grave concern as the independence of the Commission would be threatened by such appointments. It would also erode the public confidence in the pious Commission. Therefore I humbly request you to recall the appointment committee’s meeting so that the supremacy of democratic values and rule of law are upheld in the State of Himachal.
Regards.   
Sincerely,

मानवाधिकार आयोग के लिये हुए चयन पर मुकेश अग्निहोत्री के पत्र से उठे सवाल

शिमला/शैल। प्रदेश का मानवाधिकार आयोग 2008 से खाली चला आ रहा है क्योंकि कांग्रेस और भाजपा दोनांे की सरकारों ने इसमें अध्यक्ष तथा सदस्यों की नियुक्तियों को प्राथमिकता नही दी। दोनों ही दलों की सरकारों के कार्यकाल में यह सवैंधानिक संस्थान कार्यशील नही हो पाया। इससे यह अन्दाजा लगाया जा सकता है कि मानवाधिकारों को लेकर इनकी सोच क्या रही है। जहां सरकारों ने इस ओेर आखे मुंदें रखी वहीं पर इन संगठनों के नेतृत्व ने भी इस बारे में अपनी जुबान नही खोली। आयेाग की इस व्यवहारिक स्थिति का संज्ञान लेते हुए पिछले दिनों प्रदेश उच्च न्यायालय ने अपना रोष प्रकट करते हुए इसमें शीघ्र नियुक्तियां करते हुए इसे कार्यशील बनाने के निर्देश दिये थे।
उच्च न्यायालय के इन निर्देशों की अनुपालना करते हुए जयराम सरकार ने 9 जून को इस संबंध में एक बैठक आयोजित की थी। नियमों के अनुसार मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति के लिये मुख्यमन्त्री, नेता प्रतिपक्ष और विधानसभा स्पीकर पर आधारित एक तीन सदस्यों की कमेटी अधिकृत है। ऐसी कमेटी की बैठक के लिये बैठक से पहले ही सदस्यों को इस आश्य का ऐजैण्डा प्रेषित किया जाता है ताकि सदस्य पूरी तैयारी के साथ आये। लेकिन 9 जून को हुई बैठक में नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री शामिल नही थे। नेता प्रतिपक्ष की गैर मौजूदगी में ही मुख्यमन्त्री और स्पीकर विधानसभा ने यह बैठक कर ली इस बैठक में अध्यक्ष के लिये उच्च न्यायालय के पूर्व जज जस्टिस पी एस राणा और प्रशासनिक सदस्य के लिये सेवानिवृत आईएएस अधिकारी अजय भण्डारी के नामों का चयन कर लिया। इसमें तीसरे सदस्य लीगल के लिये कोई नाम तय नही किया गया।
अब 13 जून को नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री ने राज्यपाल को पत्र लिखकर इस चयन प्रक्रिया पर एतराज जतातेे हुए इसे रद्द करके नये सिरे से चयन बैठक आयोजित करने का आग्रह किया है। मुकेश अग्निहोत्री ने कहा है कि वह अपरिहार्य कारणों से 9जून की बैठक में नही आ सकते थे और इस बारे में उन्होने पूर्व सूचना दे रखी थी। अग्निहोत्री ने यह भी कहा है कि बैठक का ऐजैण्डा भी सूचित नही किया गया था। मुकेश अग्निहोत्री ने राज्यपाल के संज्ञान में यह भी लाया है कि पिछली सरकार के समय में भी जब इन नियुक्तियों के लिये चयन बैठक तय की गयी थी तब उस समय के नेता प्रतिपक्ष पे्रम कुमार धूमल इसमें शामिल नही हो पाये थे। धूमल के न आ पाने के कारण तीन बार बैठकें स्थगित की गयी थी और आयोग में यह नियुक्तियां नही हो पायी थी। नेता प्रतिपक्ष के बिना चयन नही किया गया था।
लेकिन अब जब पहली बैठक में नेता प्रतिपक्ष पर्वू सूचना देते हुए इसमें शामिल नही हो पाये तब भी यह चयन कर लिया गया। यह सही है कि यदि नेता प्रतिपक्ष इन नामों पर सहमत नही हो और मुख्यमन्त्री तथा स्पीकर की ही सहमति होती तो बहुमत के आधार पर यह नियुक्तियां हो ही जाती। क्योंकि यह प्रक्रिया संसद द्वारा अनुमोदित करना तय प्रक्रिया का सम्मान है। क्योंकि यह प्रक्रिया संसद द्वारा अनुमोदित हैं जिसे निरस्त नही किया जा सकता फिर जब इस बैठक में सदस्य लीगल का नाम तय नही किया गया उससे भी यह प्रमाणित होता है कि यदि इस बैठक को स्थगित कर दिया जाता तो कोई अनर्थ न हो जाता। लेकिन नेता प्रतिपक्ष के बिना हुआ यह चयन मुख्यमन्त्री की नियमों/कानूनों के प्रति निष्ठा पर ही एक बड़ा प्रश्नचिन्ह खड़ा कर देता है। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि राज्यपाल कैसे संवैधानिक प्रक्रिया की रक्षा कर पाते हैं क्योंकि यदि यह नियुक्तियां और एक माह तक लेट हो जाती तो इससे बड़ी क्षति न हो जाती।

Respected Governor Sahib,

I’m writing to inform you that proceeding with the selection of the Chairperson and members of the Human Rights Commission on basis of the decision made on the 9th of June would constitute an affront on the statutory norm and the democratic values. Section 22 of the Protection of Human Rights Act, 1993 mandates the inclusion of Leader of Opposition in the appointment committee. I intimated the Government about my unavailability on that specific day due to unavoidable circumstances. As per the precedent if a member cannot attend the meeting on a specific day, it has to be rescheduled. In the previous tenure, Shri Prem kumar Dhumal, the then Leader of Opposition, could not make it to the meetings on three occasions and the Government reorganized them each time. Importantly according to the Statute the Government could carry on with the selection only in case there was a vacancy in the office of Leader of Opposition, which is clearly not the case here. It is also pertinent to mention that no agenda was served. It is appalling that the Government chose to proceed without abiding by the precedent and the statute in the very first meeting. It is a cause of grave concern as the independence of the Commission would be threatened by such appointments. It would also erode the public confidence in the pious Commission. Therefore I humbly request you to recall the appointment committee’s meeting so that the supremacy of democratic values and rule of law are upheld in the State of Himachal.
Regards.
Sincerely,


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