स्वास्थ्य विभाग का सूरेत हाल
शिमला/शैल। जयराम सरकार का स्वास्थ्य विभाग एक लम्बे अरसे से चर्चाओं का केन्द्र चला रहा है। एक समय विभाग की कारगुजारीयों पर नजर रख रहे किसी व्यक्ति ने भाजपा के वरिष्ठ नेता एवम् पूर्व मुख्यमन्त्री शान्ता कुमार के नाम एक खुला पत्र लिखकर इस ओर ध्यान आकर्षित किया था। उस समय विभाग के मन्त्री विपिन परमार थे जो शान्ता के निकटस्थ माने जाते थे। शायद इस गुमनाम व्यक्ति ने यह खुला पत्र इसीलिये लिखा था जब उसे लगा कि विभाग में उसकी बात सुनने वाला कोई नही है। लेकिन इस पत्र का केवल यही असर हुआ कि सरकार ने इस पत्र के लेखक को खोजने की ओर सारी जांच मोड़ दी। परन्तु पत्र में उठाये गये मुद्दों की ओर कोई गंभीर ध्यान नही गया। पत्र के लेखक की खोज भी भाजपा के ही पूर्व मन्त्री रविन्द्र रवि के गिर्द घूमकर समाप्त हो गयी। इस संद्धर्भ में तब हुई एफआईआर का परिणाम क्या रहा है।
भ्रष्टाचार के प्रति जीरो टाॅलरैन्स का दावा करने वाली प्रदेश भाजपा सरकार उस पत्र से चलकर आज स्वास्थ्य विभाग के निदेशक की गिरफ्तारी तक पहुंच गयी है। निदेशक की गिरफ्तारी सोशल मीडिया में एक आडियो सामने आने से हुई है। जब यह आडियो सामने आया और विभाग के सचिव तक पहुंचा तब इस प्रकरण में विजिलैन्स को तुरन्त एफआईआर दर्ज करने के आदेश जारी कर दिये गये। इस बार आडियो बनाने वाले की तलाश को प्रमुखता नही दी गयी। विजिलैन्स ने भी सरकार से अनुमति और निर्देश मिलते ही एफआईआर दर्ज करके निदेशक की गिरफ्तारी तक कर दी है। जिस आडियो संवाद को आधार बनाकर गिरफ्तारी को अंजाम दिया गया है उस संवाद में शामिल दूसरा व्यक्ति कौन है उसकी पहचान उजागर नही की गयी और न ही उसकी गिरफ्तारी की गयी है। केवल इतना ही कहा गया है कि यह दूसरा व्यक्ति भाजपा के एक बड़े नेता का कोई करीबी है और उसके परिजनों के साथ कभी काम करता था जो छोड़कर चण्ड़ीगढ़ की किसी फर्म के साथ सप्लाई का काम कर रहा है। इस संवाद में डा. गुप्ता पैसे की मांग कर रहे हों यह सीधे नही है। यह दूसरा व्यक्ति ही पांच लाख का जिक्र कर रहा है। संवाद में एक बैंक आफ बडौदा का जिक्र भी है और इस बैंक से खाता बन्द करने की बात भी की जा रही है। लेकिन इस आडियो में आये संवाद के सारे बिन्दुओं पर जो विस्तृत जांच होनी चाहिये थी वह अभी तक सामने नही आयी है। विजिलैन्स को डाक्टर गुप्ता के घर से जो कुछ मिला है उसकी कोई अधिकारी जानकारी मीडिया को जारी नही की गयी है मीडिया में जो कुछ रिपोर्ट हुआ है उसकी प्रमाणिकता पर श्रीमति गुप्ता के ब्यान से प्रश्नचिन्ह लग जाते हैं। श्रीमति गुप्ता ने यह गंभीर आरोप लगाया है कि उसके पति को फंसाया जा रहा है। श्रीमति गुप्ता ने स्पष्ट कहा है कि विभाग में खरीद के लिये एक कमेटी बनी हुई है जिसमें अतिरिक्त मुख्य सचिव से लेकर नीचे तक अधिकारी शामिल हैं और हर खरीद के लिये यह सब लोग सामूहिक रूप से जिम्मेदार रहते हैं। ऐसे में श्रीमति गुप्ता का संकेत स्पष्ट है कि खरीद कमेटी के सारे सदस्यों से पूछताछ की जानी चाहिये। श्रीमति गुप्ता के ब्यान पर विभाग या विजिलैन्स की ओर से कोई प्रतिक्रिया नही आयी है। गुप्ता को लेकर दर्ज की गयी एफआईआर भी साईट पर अभी तक लोड़ नही की गयी है। अब डाॅ गुप्ता को आई जी एम सी से छूटी देकर कैथू जेल भेज दिया गया है। इसके बाद इन्हें अदालत में पेश किया जायेगा और तब संभव है इनकी कस्टडी की मांग की जाये। डा. गुप्ता को आई जी एम सी से छुटी देने को श्री मति गुप्ता के ब्यान की प्रतिक्रिया के रूप में देखा जा रहा है। इससें यह अभी से गंभीर आशंका बन गयी है कि शायद विजिलैन्स मामले के बड़े पात्रों तक न पहुंच पाये और अब ये मामला डा. गुप्ता के ही इर्दगिर्द घूमता रहे।
निदेशक की इस गिरफ्तारी से पहले ही सचिवालय में सैनेटाईज़र की खरीद को लेकर एक मामला दर्ज है। पीपी किट्स और अन्य सामान की खरीद को लेकर भी विजिलैन्स में शिकायत जा चुकी है। यह भी चर्चा है कि कुछ टैण्डरों में सारी प्रक्रिया पूरी हो जाने के बाद भी न्यूनतम निविदा वाले को आर्डर जारी नही किये गये है। एन आर एच एम को लेकर कुछ आरटीआई फाईल की गयी थी जिसमें कुछ नियुक्तियों को लेकर सवाल उठाये गये थे। लेकिन यह जानकारीयां उपलब्ध नहीं करवायी गयी हैं। चर्चा है कि आरटीआई के आवेदकों को ही मैनेज कर लिया गया है। विभाग की खरीदारीयों को लेकर तो कैग रिपोर्ट में ही गंभीर सवाल खड़े किये गये है। बल्कि कैग की टिप्पणीयों को लेकर तो विजिलैन्स में मामला दर्ज हो जाना चाहिये था। परन्तु ऐसा किया नही गया है। इससे भी भ्रष्टाचार के प्रति सरकार की गंभीरता और ईमानदारी का पता चल जाता है। वैसे तो प्रदेश के स्वास्थ्य विभाग में तो लम्बे अरसे से घोटलों के आरोप लगते आये हैं। जब जगत प्रकाश नड्डा प्रदेश के स्वास्थ्य मन्त्री थे तब भी निदेशक की गिरफ्तारी हुई थी। उसके बाद कौल सिंह ठाकुर, राजीव बिन्दल और विपिन परमार जब स्वास्थ्य मन्त्री रहे तब भी विभाग पर गंभीर आरोप लगते रहे हैं लेकिन आज तक किसी भी आरोप का कोई ठोस परिणाम सामने नही आया है।
अब भी इस आडियो प्रकरण में विजिलैन्स ने जिस तरह से कारवाई को अंजाम दिया है उससे भी स्पष्ट हो जाता है कि आडियो के सामने आते ही मामलों को दबाने के ज्यादा प्रयास किये गये हैं। क्योंकि 2018 में केन्द्र ने भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम में संशोधन कर दिया था। यह मामला भी संशोधन अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार ही दर्ज किया जाना चाहिये था परन्तु ऐसा नही हुआ है। वैसे भी पहले जनरल डायरी में दर्ज करके अलग-अलग टीमे बनाकर डा. गुप्ता और संवाद में जुड़े दूसरे व्यक्ति के यहां एक साथ दबिश देकर तथ्य जुटाने चाहिये थें और फिर एफआईआर दर्ज की जानी चाहिये थी। बल्कि जब यह मामला खरीद से जुड़ा था तब खरीद कमेटी के सदस्यों से भी साथ ही पूछताछ हो जानी चाहिये थी। इस मामले में तय प्रक्रिया की अनदेखी करके जिस तरह से डा. गुप्ता पर नजला गिरा दिया गया है उसे आम आदमी को तो यह संदेश देने का प्रयास किया गया है कि सरकार इसमें बहुत गंभीर है। परन्तु प्रक्रिया की जानकारी रखने वाले जानते हैं कि इसका अन्तिम परिणाम डा. गुप्ता के नुकसान के अतिरिक्त और कुछ होने वाला नही है। संशोधन अधिनियम के तहत यदि कोई रिश्वत मांगी गयी है तो उसकी शिकायत सात दिन के भीतर आ जानी चाहिये थी। लेकिन इसमें यह दूसरा व्यक्ति तो शिकायतकर्ता है नही। अतिरिक्त मुख्य सचिव की शिकायत पर सारे संवद्ध पक्षों के यहां एक दबिश दी जानी चाहिये थी और वह भी नही हुआ है। इस सबके अभाव में मामले को ठोस परिणाम तक ले जाने के लिये साक्ष्य कैसे जुटाये जा सकेंगे और इसके अभाव में यह मामला भी अखबारों की खबरें बनने तक ही सीमित रह जायेगा।
8. (1) Any person who gives or promises to give an undue advantage to another person or persons, with intention—
(i) to induce a public servant to perform improperly a public duty; or
(ii) to reward such public servant for the improper performance of public duty; shall be punishable with imprisonment for a term which may extend to seven years or with fine or with both:
Provided that the provisions of this section shall not apply where a person is compelled to give such undue advantage:
Provided further that the person so compelled shall report the matter to the law enforcement authority or investigating agency within a period of seven days from the date of giving such undue advantage:
Provided also that when the offence under this section has been committeed by commercial organisation, such commercial organisation shall be punishable with fine.
शिमला/शैल। नगर निगम शिमला के क्षेत्र में बन रहे ग्याहर मंजिले होटल निर्माण पर एनजीटी ने 12 मई को विडियो कान्फ्रैसिंग के माध्यम से सुनवाई करते हुए तुरन्त प्रभाव से रोक लगा दी है। शैल ने इसे 9 मार्च के अंक में प्रमुखता से उठाया था। एनजीटी ने न केवल इस निर्माण पर ही रोक लगायी है बल्कि निदेशक टीसीपी, कमिश्नर नगर निगम, राज्य पर्यावरण प्रभाव आकलन अथाॅरिटि और प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड को कड़ी हिदायत देते हुए यह सुनिश्चित करने को कहा है कि निर्माण आगे न बढ़़े। इस मामले को डाक्टर पवन बंटा एनजीटी में ले गये थे।
स्मरणीय है कि एनजीटी ने 16-11-2017 को योगेन्द्र मोहन सेन गुप्ता एवम् अन्य बनाम युनियन आफ इण्डिया एवम् अन्य मामले में ऐसे निर्माणों पर रोक लगा रखी है। “ Beyond the Core, Green/Forest area and the areas falling under the authorities of the Shimla Planning Area, the construction may be permitted strictly in accordance with the provisions of the TCP Act, Development Plan and the Municipal laws in force. Even in these areas, construction will not be permitted beyond two storeys plus attic floor. However, restricted to these areas, if any construction, particularly public utilities (the buildings like hospitals, schools and offices of essential services but would definitely not include commercial, private builders and any such allied buildings) are proposed to be constructed beyond two storeys plus attic floor then the plans for approval or obtaining NOC shall be submitted to the concerned authorities having jurisdiction over the area in question. It would be sanctioned only after the same have been approved and adequate precautionary and preventive measures have been provided by the special committee constituted under this judgement along with the Supervisory Committee.
निर्वाणा बुडज़ के नाम से हो रहे निर्माण के मालिकों में एक समय विवाद भी खड़ा हुआ था और यह मामला प्रदेश उच्च न्यायालय में पहुंचा था। उच्च न्यायालय ने 13.8.2019 को अपने फैसले में साफ कहा था Be that as it may, the rejection of the afore espousal of the plaintiff in COMS no. 23 of 2018, would not relive M/s Nirvana Woods and Hotels Pvt. Ltd. of the dire obligations, of its ensuring its raising constructions, upon, the suit land, upon its theirs holding a, valid sanction, from the authorities concerned vis-a vis, the proposed construction. In sequel the contesting defendants are permitted to raise construction, only upon, its holding a validly meted sanction by the authorities concerned, and also if construction is commenced by M/s Nirvana Woods and Hotels Pvt. Ltd., fling an affidavit with a clear disclosure therein, that, it would not claim any equities in the construction raised upon, the suit land. फिर यह मामला रेरा में भी पहुंचा और रेरा ने 3-1-2020 को दिये फैसले मेें अपने को केवल निर्माता के पंजीकरण तक ही सीमित रखा। जबकि रेरा के सामने भी वह सारे आरोप आ गये थे जिनका संज्ञान लेकर अब एनजीटी ने फैसला सुनाया है। इन दिनों जब प्रदेश में कोरोना के कारण कफ्र्यू लगा हुआ है और सारा कामकाज़ बन्द है तब रैरा के फैसले का कवर लेते हुए यह निर्माण चल रहा था और सारे संवद्ध विभाग आंखे बन्द करके बैठे हुए थे। ऐसे में एनजीटी का यह फैसला प्रदेश के प्रशासन पर एक गंभीर सवाल खड़ा करता है। एनजीटी ने साफ कहा है कि It is patent from the above that the project proponent does not have Environmental Clearance (EC) apart from other violations. There is nothing to show compliance of requirement of Air and Water Acts. In view of this position, the Director, Town and Country Planning, H.P, Commissioner, Municipal Corporation, Shimla, SEIAA, Himachal Pradesh and the State PCB may ensure that the project does not proceed further in violation of law. Action may also be taken for prosecution and assessment and recovery of environmental compensation, following due process of law. Further report in the matter be filed on or before on 31.08.2020 by email at This email address is being protected from spambots. You need JavaScript enabled to view it..
शिमला/शैल। जयराम सरकार ने कर्फ्यू को जारी रखने का फैसला लिया है। इसी फैसले के चलते सरकार ने प्रदेश में बस सेवा भी बहाल नही की है। सामान्त यातायात के लिये राज्य की सारी सीमाएं सील चल रही हैं। केन्द्र ने अन्र्तराज्य बस सेवाएं शुरू करने का फैसला राज्यों के मुख्यमन्त्रीयों पर छोड़ रखा है। हिमाचल की ही तरह पंजाब में भी कर्फ्यू था लेकिन अब चौथे लाॅकडाऊन के साथ ही पंजाब ने प्रदेश के भीतर बस सेवा शुरू कर दी है। हरियाणा ने भी प्रदेश के भीतर बस सेवा बहाल कर दी है। दिल्ली में भी यह बस सेवा शीघ्र ही शुरू होने की संभावना है। सभी राज्य अपनी-अपनी प्रशासनिक क्षमताओं और जन सामान्य की आवश्यकताओं के आधार पर फैसला ले रहे हैं। कोरोना की स्थिति के आकलन के परिदृश्य में हिमाचल इन पड़ोसी राज्यों की अपेक्षा बहुत बेहतर स्थिति में है। यह सही है कि प्रदेश में पिछले कुछ दिनों से हर रोज़ कोरोना के मामले सामने आ रहे हैं और संभव है कि आने वाले दिनों में यह मामले बढ़े भी। क्योंकि देश के अलग-अगल राज्यों में बैठे हिमाचली अपने घर वापिस आने के लिये छटपटा रहे हैं। अब तक शायद एक लाख लोग वापसी कर भी चुके हैं और 60,000 के आने के आवेदन लंबित हैं। अपने घर वापिस आना उनका अधिकार है इस नाते उन्हे रोकना उनके साथ ज्यादती होगी। मिाचल से भी एक लाख के करीब प्रवासी मजदूर वापिस जा चुके है।
प्रदेश में 24 मार्च से कर्फ्यू चल रहा है। सारा कामकाज बन्द पड़ा है। सारे शैक्षणिक और धार्मिक तथा अन्य सार्वजनिक स्थल बन्द हैं। प्रदेश के भीतर आने वालों की सीमा पर जांच की जा रही है। जिसमें भी कोरोना के लक्षण पाये जा रहे हैं उसे संगरोध में रखा जा रहा है। संगरोध की संख्यागत और संगरोधन दोनों व्यवस्थाएं की गयी हैं। गंभीर मरीज़ों को इसके लिये चिन्हित नामज़द अस्तपालों में भर्ती करवाया जा रहा है। मुख्यमन्त्री प्रतिदिन कोरोना को लेकर प्रदेश की जनता को संबोधित कर रहे हैं और व्यवस्था संबंधी यह सारे दावे स्वयं जनता के समाने रख चुके है। इसलिये यह सवाल उठना स्वभाविक है कि यदि व्यवस्था संबंधी यह दावे सही हैं तो फिर प्रदेश में कर्फ्यू को चालू रखने और बस सेवा बहाल न करने का कोई औचित्य नही रह जाता है।
इस समय राज्य सचिवालय से लेकर नीचे ज़िला और ब्लाॅक स्तर तक हर सरकारी कार्यालयों में नही के बराबर काम हो रहा है। सचिवालय में ही सारे अधिकारी और मन्त्री तक अपने कार्यालयों में नियमित नहीं आ पा रहे हैं। पूरी सरकार पांच-छः बड़े बाबू चला रहे हैं। ज़िलों में सारी व्यवस्था डीसी और एसपी के हवाले है मन्त्रीयों और विधायकों की भूमिका भी बहुत सीमित रह गयी है। सरकार चला रहे बाबूओं का जनसंपर्क बहुत सीमित होता है। इनकी जनता के प्रति सीधी जवाब देही नही होती है। यह जवाब देही राजनीतिक कार्यकर्ता और राजनेता की होती है जिसने जनता से वोट मांगना और लेना होता है। इस समय कोरोना का आतंक एक ऐसे मुकाम पर पहुंच चुका है जहां कभी भी लावा फूट सकता है। आज के हालात 1975 के आपातकाल से भी बदत्तर हो चुके हैं। लेकिन इन बाबूओं को उनकी कोई व्यवहारिक जानकारी नही है क्योंकि प्रशासन के किसी भी स्तर पर आज बैठा हुआ कर्मचारी और अधिकारी 1975 में स्कूल का छात्रा था। आज भी इनका बहुत सारा ज्ञान कंप्यूटर पर आधारित ही है। ऐसे संकट के समय में जनता को आतंकित करने की बजाये उसे सरकारी प्रयासों के बारे में आश्वस्त करना होता है।
महामारी अधिनियम 1897 में बन गया था और तब से लेकर आज तक एक दर्जन के लगभग महामारीयां आ चुकी हैं। हर बार इसी स्तर के नुकससान हुए हैं। ताजा उदाहरण स्वाईनफ्लू का रहा है इसके केस तो इस साल फरवरी 2020 में शिमला, मण्डी और कांगड़ा में रहे हैं। इस फ्लू से आज से ज्यादा जान माला का नुकसान हुआ है। लेकिन तब कोई तालाबन्दी और कर्फ्यू नही लगाया गया था। बहुत सारों को तो शायद इस फ्लू की जानकारी भी नही रही है क्योंकि तब जनता को आतंकित नही किया गया था। यदि इन नीति निरधारक बाबूओं ने स्वाईन फ्लू का ही ईमानदारी से अध्ययन कर लिया होता तो शायद ऐसे कर्फ्यू और तालाबन्दी की कोई राय न देता प्रदेश पहले ही कर्ज के चक्रव्यहू में चल रहा है। अब कोरोना के कारण कर्ज की सीमा 2% और बढ़ा दी गयी है इससे यह बाबू और कर्ज लेकर काम चला देंगे। लेकिन इसका भविष्य पर क्या असर पड़ेगा इससे इनका कोई लेना देना नही है। क्या यदि वर्ष भर हर रोज़ कोरोना के केस आते रहे तो वर्षभर कर्फ्यू जारी रहेगा। सारा काम काज़ बन्द रहेगा। इन सवालों पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है।
तकनीकी विश्वविद्यालय का कारनामा
शिमला/शैल। हिमाचल प्रदेश का हमीरपुर स्थित तकनीकी विश्वविद्यालय अपने कार्यालय के लिये 1.14 करोड़ का फर्नीचर खरीदने जा रहा है। इस खरीद के लिये 5 मई को आनलाईन टैण्डर किये गये। यह विश्वविद्यालय हिमाचल सरकार का संस्थान है और प्रशासनिक स्तर पर तकनीकी शिक्षा विभाग के तहत आता है। इसलिये इसका हर कार्य राज्य सरकार के संज्ञान में रहता है क्योंकि ऐसे बड़े खर्चोें को लेकर प्रशासनिक और वित्तिय अनुमतियां सरकार के ही संवद्ध विभागों से जाती हैं। यह स्वभाविक सामान्य प्रक्रिया रहती है। लेकिन इस फर्नीचर खरीद का कार्य केन्द्र के सीपीडब्लूडी विभाग को सौंपा गया। इसके लिये सीपीडब्लू डी की ओर से टैण्डर जारी किया गया उसमें यह कह दिया गया कि खरीदा जाने वाला फर्नीचर गोदरेज स्ट्रीलकेस हैवर्य या इनके समकक्ष कंपनी का ही होना चाहिये। इसी के साथ वांच्छित फर्नीचर का विवरण जारी करने के साथ ही उसकी अनुमानित कीमत का ब्यौरा भी टैण्डर दस्तावेज में जारी कर दिया गया।
इस तरह जो विवरण सामने आया उसके मुताबिक वाईसचांसलर के कार्यालय के लिये एक 12ग4 फीट का आफिस टेबल लिया जाना है जिसकी अनुमानित कीमत 3.12 लाख होगी। इसी तरह कुछ कुर्सीयां ली जा रही हैं जिनकी कीमत 65000/- , 45000/- और 32000/- प्रति कुर्सी होगी। एक सोफा की कीमत 1,35097/- होगी। इस तरह फर्नीचर के नाम पर जो कुछ भी खरीदा जा रहा है उसकी कीमतें इतनी ज्यादा है कि शायद ही सरकार का कोई भी विभाग इतना मंहगा सामान कार्यालय के लिये खरीदने को समझदारी कहेगा फिर खरीद उस समय की जा रही है जब देश की ही अर्थव्यस्था एक गंभीर संकट के दौर से गुजर रही है। इसमें केन्द्र से लेकर राज्य सरकारों तक ने अपने खर्चों में कटौती करने के फैसले लिये हैं। सूत्रों के मुताबिक इस टैण्डर में दिल्ली की तीन पार्टीयां योगेश सिक्का, आर.के.फर्नीचर और सीएमसी इन्टिरियर ने हिस्सा लिया था। सारी औपचारिकताएं पूरी की थी। लेकिन एक पार्टी सीएमसी का तो शायद टैण्डर खोला तक नही गया और इस तरह के संकेत सामने आये हैं कि केवल गोदरेज का ही सामान लेना है।
इस टैण्डर में किस कंपनी का सामान लिया जाता है और किसका टैण्डर अप्रूव होता है इससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह हो गया है कि जब प्रदेश वित्तिय संकट से गुजर रहा है और सरकार को वित्तिय वर्ष के पहले दिन से ही कर्ज लेने की बाध्यता खडी हो गयी हो तब भी यदि सरकार का कोई संस्थान इतना मंहगा फर्नीचर खरीदने का साहस करे तो उससे सरकार की कार्यप्रणाली पर कई सवाल खड़े हो जाते हैं। क्योंकि शायद तीन लाख का आफिस टेबल तो मुख्यमन्त्राी, मुख्य सचिव, और सचिव तकनीकी शिक्षा के कार्यालयों में भी न हो। फिर यह भी सवाल उठता है कि जो सरकार इस संकट के दौरान भी तीन लाख का आफिस टेबल खरीद सकती है उसे कर्मचारियों और पैन्शनरों का मंहगाई भत्ता रोकने का कोई नैकित साहस नही रह जाता है। ऐसी सरकार को महामारी के नाम पर जनता से धन सहयोग मांगने का भी अधिकार नही रह जाता है। वैसे तो सरकार के तकनीकी शिक्षा विभाग में फजूल खर्ची और भष्ट्राचार का यह पहला मामला नही है। तकनीकी शिक्षा विभाग द्वारा बिलासपुर में बनवाये जा रहे हाईड्रो इन्जिनियरिंग कालिज में भी ऐसा ही कुछ घट चुका है। वहां पर इसके निर्माण का कार्य भारत सरकार के एक उपक्रम को दिया गया है। इसके लिये भारत सरकार की ओर से प्रदेश को सौ करोड़ रूपया दिया गया है। यह पैसा प्रदेश सरकार द्वारा खर्च किया जाना है इसकी पूरी जिम्मेदारी प्रदेश सरकार की है काम चाहे जो मर्जी एैजेन्सी करे। इस कालिज के निर्माण के लिये जब भारत सरकार के उपक्रम ने ठेकेदारों से निविदाएं आमन्त्रिात की तब उनमें एक कंपनी ने यह काम 92 करोड़ रूपये में करने की निविदा दी। लेकिन भारत सरकार के इस उपक्रम ने 92 करोड़ की आॅफर को छोड़कर यह काम 100 करोड़ के रेट देने वाले को दे दिया। प्रदेश विधानसभा मे विधायक रामलाल ठाकुर ने इस बारे में दो बार सवाल भी पूछा जिसका केवल लिखित में ही जवाब आया है उसमें भी यह नही बताया गया है कि इसमें आठ करोड़ का प्रदेश का नुकसान क्यों किया गया है। यह निर्माण एक वर्ष पहले ही पूरा हो जाना चाहिये था लेकिन ऐसा हुआ नही है और न ही आज तक विभाग की ओर से इसमें कोई जांच आदेशित की गयी है। वैसे मुख्यमन्त्री के प्रधान सचिव संजय कुंडु एक समय इस केन्द्रिय उपक्रम के प्रमुख रह चुके हैं और आज ऐसे कार्यो की जांच पड़ताल करना उन्ही की जिम्मेदारी है परन्तु वह भी शायद राजनीतिक कारणों से ऐसा नही कर पा रहे हैं। वैसे तो कोरोना संकट के चलते सरकार ने नयी भर्तियों पर रोक लगा दी है। सारे गैर जरूरी खर्चेे कम करने का सुझाव भी पार्टी ने सरकार को दिया है। बल्कि पिछले दिनों केन्द्र की ओर से जो करीब 140 करोड़ रूपया कोविड के लिये आया है उसके तहत कुछ सामान मास्क आदि की आपूर्ति के लिये टैण्डर किया गया था। टैण्डर की सारी प्रक्रियाएं पूरी करके कम दर वाले सपलाई आर्डर अभी तक नहीे दिया गया है। क्योंकि अब शायद सरकार कुछ लोगों को नकद सहायता देने पर विचार कर रही है।
शिमला/शैल। जयराम सरकार ने कर्फ्यू में दो घण्टे की और ढील देने के साथ ही एक और बड़ा फैसला लिया है। इस फैसले के अनुसार अब शिमला के आई जी एम सी अस्पताल की बजाये शहर के दीनदयाल उपाध्याय अस्पताल को कोविड-19 अस्पताल जामजद किया है। इसके लिये यह तर्क दिया गया है कि आई जी एम सी के कोविड अस्पताल होने से वहां पर अन्य मरीजों के ईलाज में कठिनाई आ रही थी। क्योंकि आई जी एम सी में प्रदेश भर से मरीज रैफर होकर आते हैं। ऐसे में यह आवश्यक हो गया था कि दूसरे मरीजों के ईलाज के लिये तुरन्त प्रभाव से प्रबन्ध किया जाता।
लेकिन सरकार के इस फैसले में व्यवहारिक समझदारी से काम नही लिया गया। क्योंकि रिपन शिमला का जिला अस्पताल होने के साथ ही शहर के केन्द्र में स्थित है। सबसे बड़ी आनाज़ मण्डी के साथ यह लगता है। इसके कोविड नामजद हो जाने से इसका असर शहर के पूरे बाजार पर पडेगा। इसके आसपास रिहाईशी आवास भी बहुत है। यहां कोविड केंद्र होने से पूरे क्षेत्र पर बहुत ज्यादा असर पडेगा। इससे कर्फ्यू में मिली ढील का भी कोई अर्थ नही रह जायेगा। इसको लेकर पूरे शहर में रोष व्यापत है और लोग यहां के स्थानीय विधायक शिक्षा मंत्री सुरेश भारद्वाज तक अपना रोष पहुंचा चुके हैं।
शिमला में कोविड के उपचार की व्यवस्था होना भी आवश्यक है। इसके लिये बेरियर स्थित अस्पताल भी एक अच्छा विकल्प हो सकता है। इसी के साथ इन्डस अस्पताल दूसरा विकल्प है। यह प्राईवेट अस्पताल शहर के ऐसे स्थान पर स्थित है जहां पर स्थानीय आबादी नही के बराबर है। फिर महामारी अधिनियम 2005 में यह प्रावधान मौजूद है कि सरकार संकट के समय किसी भी प्राईवेट संसाधन को अपने अधीन ले सकती है। यदि इसके लिये इन्डस को मुआवजा भी देना पडे तो दिया जा सकता है क्योंकि भारत सरकार से प्रदेश को करीब 140 करोड़ रूपया कोविड के लिये ही मिला है।