Friday, 19 September 2025
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लोक सेवा आयोग में सरकार से राजभवन तक नहीं हो पाया अदालत के फैसलों का सम्मान

कांग्रेस के सवालों का नहीं आया जवाब

शिमला/शैल। इस समय हर बढ़ते पल के साथ प्रदेश की राजनीतिक गतिविधियां भी बढ़ती जा रही है क्योंकि निकट भविष्य में विधानसभा के लिये चुनाव होने है। सरकार सत्तारूढ़ दल और विपक्ष का हर छोटा बड़ा फैसला राजनीति के आइने में देखा जा रहा है। ऐसा होना स्वभाविक भी है क्योंकि यही सब कुछ तो राजनीति है और इसी से एक दूसरे को घेरा जायेगा। इसी परिप्रेक्ष में जब सरकार ने लोक सेवा आयोग के लिये अध्यक्ष और तीन सदस्यों की नियुक्ति की अधिसूचना जारी की तथा दूसरे दिन सुबह 8.30 बजे राजभवन में इस आश्य का शपथ ग्रहण समारोह रख दिया गया तब इस पर इतनी खबरें नहीं छपी जितनी इस समारोह के रद्द होने पर छप गयी। मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने समारोह स्थगित होने पर सरकार पर एक लम्बी प्रश्नावली दाग दी। इसका जवाब अभी तक नहीं आया है। स्वभाविक है कि चुनावों में भी यह सवाल पूछा जायेगा। उस समय यह सामने आया कि तब नियुक्त हुई अध्यक्ष डॉ.रचना गुप्ता ने किन्ही व्यक्तिगत कारणों से यह पद लेने से इन्कार कर दिया। तब यह भी सामने आया कि यह अधिसूचना जारी होने के बाद शपथ ग्रहण समारोह के तय समय से पहले ही हिमाचल उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और प्रदेश के राज्यपाल के संज्ञान में 2013 का सुप्रीम कोर्ट तथा पर फरवरी 2020 का प्रदेश उच्च न्यायालय के फैसले ला दिये गये थे जिनमें इन नियुक्तियों के लिये प्रक्रिया तय करने तथा नियम बनाने के निर्देश दिये गये थे। तब लगा था कि अदालत के फैसले संज्ञान में आने के बाद सरकार से लेकर राजभवन तक अब इनकी अनुपालन सुनिश्चित करवायेगा।
लेकिन इसके करीब एक सप्ताह बाद जब फिर से अध्यक्ष और तीन सदस्यों की नियुक्तियों की नयी अधिसूचना जारी हुई तब उनको पढ़ने से यह तो स्पष्ट हो गया कि पहले की अधिसूचना को रद्द करके नये सिरे से यह नियुक्तियां की गयी हैैं। परन्तु पहली नियुक्ति रद्द होने की अधिसूचना मीडिया तक उपलब्ध नहीं करवाई गयी। न ही नयी अधिसूचना से यह सामने आया कि अब कोई प्रक्रिया और नियम अपनाये गये हैं। केवल इतना स्पष्ट होता है कि पहला फैसला लेने के तुरन्त बाद किसी स्तर किसी को यह लगा कि राजनीतिक तौर पर यह फैसला नुकसान देह होगा। इसलिये इसे वापस लिया जाये। परन्तु फैसला वापिस लेने की राय देने वाले यह भूल गये कि जो सवाल उछल चुके हैं वह बिना जवाब के शान्त नहीं होंगे। क्योंकि यह अपने में ही गले नहीं उतरता कि एक व्यक्ति के पास सदस्य के रूप में काम करने के लिये समय है और अध्यक्ष के लिये समय नहीं हो। यह कोई मानने को तैयार नहीं होगा कि इस नियुक्ति के लिये पूर्व सहमति नहीं रही होगी। यदि सरकार के सलाहकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले को समझकर सरकार को राय देते तो सारी फजीयत से बचा जा सकता था। क्योंकि अदालत ने जब तक सरकार नियम प्रक्रिया नहीं बना लेती तब तक स्वयं एक प्रक्रिया सुझाई है जिसमें मुख्यमन्त्री विधानसभा स्पीकर और नेता प्रतिपक्ष सर्च कमेटी की जिम्मेदारी निभायेंगे। सलाहकारों की भूमिका से स्पष्ट हो जाता है कि ऐसे हाथों में सत्ता ज्यादा देर तक सुरक्षित नहीं है। बल्कि जो हुआ है वह जानबूझकर एक व्यक्ति को नीचा दिखाने वाला बन जाता है।
ऐसे में यह सवाल अहम हो जाता है कि जब प्रशासन के पास नियुक्तियों को अदालती फैसले के परिदृश्य में लाकर सारी फजीयत से बचने का अवसर था तो ऐसा क्यों नहीं किया गया? अदालती फैसलों का भी सम्मान न करने का आरोप क्यों आने दिया गया? क्या इससे न चाहते हुए भी आम आदमी सरकार से परिवार तक हरेक पर क्यास लगाने के लिये बाध्य नहीं हो जाता है?

राजभवन को गुमराह करने का लग रहा सरकार पर आरोप

लोक सेवा आयोग प्रकरण
शपथ ग्रहण समारोह स्थगित होने के बाद डॉ. रचना गुप्ता के पत्र क्यो?
2013 के सर्वाेच्च न्यायालय के फैसले के नाम पर 2017 में भाजपा ने मीरा वालिया की नियुक्ति पर उठाये थे सवाल
फरवरी 2020 में प्रदेश उच्च न्यायालय ने प्रक्रिया और नियम बनाने के दिए थे निर्देश
सरकार अदालती निर्देशों को राज्यपाल के संज्ञान में क्यों नहीं लायी?
आयोग में 2019 में खाली हुए पदों को क्यों नहीं भरा गया?
क्या पीएमओ के दखल से रद्द हुआ शपथ समारोह
राजनीतिक दलों का रुख क्या होगा अदालती निर्देशों पर

शिमला/शैल। जयराम सरकार ने अभी 17 अगस्त को प्रदेश लोकसेवा आयोग के अध्यक्ष और तीन सदस्यों को नियुक्त किये जाने की अधिसूचना जारी की थी। यह अधिसूचना जारी होने के बाद 18 अगस्त को सुबह 8.30 बजे राजभवन में इस संबंध में शपथ ग्रहण समारोह तय किया गया था। क्योंकि जब तक राज्यपाल पद की शपथ नहीं दिला देते तब तक अधिसूचना का कोई अर्थ नहीं होता है। लेकिन यह शपथ ग्रहण समारोह हो नहीं पाया। राजभवन की ओर से शपथ ग्रहण समय से पहले ही सभी आमन्त्रितों को समारोह के स्थगित होने की सूचना दे दी गयी। 17 अगस्त को शाम पांच बजे के बाद नियुक्ति की अधिसूचनाएं जारी हुई और 18 अगस्त को सुबह 8.30 बजे रखे गये शपथ समय से पहले ही समारोह रद्द हो गया। ऐसा शायद पहली बार हुआ है कि इस तरह से शपथ समारोह टला हो। इस समय लोक सेवा आयोग में अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति के लिये कोई ठोस प्रक्रिया है या मानक नहीं है। संविधान में यह सब सरकार के विवेक और इच्छा पर छोड़ दिया गया है। लेकिन जब सरकारों ने अपने विवेक और इच्छा का न्यायिक उपयोग नहीं किया तब कुछ लोग जनहित में सर्वाेच्च न्यायालय तक पहुंचे और अदालत में ऐसी नियुक्तियों को रद्द करते हुए सरकारों को इस संबंध में प्रक्रिया और निश्चित नियम बनाने के निर्देश दिये हैं। बल्कि जब तक सरकार और विधायिका ऐसा नहीं कर पाये तब तक अदालत ने इस संबंध में प्रक्रिया तय की है। सर्वाेच्च न्यायालय ने 2013 में हिमाचल उच्च न्यायालय ने फरवरी 2020 में इस आशय के निर्देश जारी किये हुए हैं जिन पर राज्य सरकार आज तक अमल नहीं कर पायी है और यह अमल न हो पाना ही सरकार की नीयत और नीति पर सन्देह करने का पर्याप्त आधार बन जाता है।
स्मरणीय है कि 2017 के विधानसभा चुनाव प्रचार अभियान के दौरान भाजपा ने वीरभद्र सरकार द्वारा लोक सेवा आयोग में कालिज की प्राचार्य रही मीरा वालिया की बतौर सदस्य हुई नियुक्ति को नियमों के विरुद्ध करार दिया था। क्योंकि तब तक सुप्रीम कोर्ट का फैसला आ चुका था जिस पर अमल नहीं हुआ था। बल्कि इसी आधार पर मीरा वालिया की नियुक्ति को प्रदेश उच्च न्यायालय में चुनौति भी दे दी गयी। लेकिन जनवरी 2018 को ही जयराम सरकार ने आयोग में सदस्यों के दो पद सृजित कर दिये और एक पद पर डॉ.रचना गुप्ता ने 16.01.2018 को ही पद भार ग्रहण कर लिया लेकिन दूसरा सृजित पद आज तक नहीं भरा गया। बल्कि इस समय लोक सेवा आयोग में अध्यक्ष सहित छः पद सृजित होने के बावजूद डॉ. रचना गुप्ता ही एकमात्र सदस्य रह गयी हैं। क्योंकि जय प्रकाश काल्टा भी 9-5-2022 को सेवानिवृत्त हो गये और 13-5-2019 को मोहन चौहान और 17-10-2019 को डॉ. मान सिंह के सेवानिवृत्त होने पर यह पद भरे ही नहीं गये। इस तरह 17-10-2019 से आज तक डॉ. रचना गुप्ता ही आयोग में सीनियर मैम्बर रह गयी और आयोग के काम का अधिकांश भार उन्हीं पर आ गया। ऐसे में यह सवाल आज तक रहस्य बना हुआ है कि 2019 में खाली हुए सदस्यों के दो पदों को भरा क्यों नहीं गया? क्या इसके लिये सरकार पर कोई दबाव था या इसकी आवश्यकता ही नहीं थी। यह भी सरकार की मंशा पर सवाल उठाने वाला एक बड़ा आधार बनता है। क्योंकि इससे पूरे आयोग के व्यवहारिक रूप से एक ही व्यक्ति पर केंद्रित होने की परिस्थितियां निर्मित हो गयी।
इस परिदृश्य में अब हुई नियुक्तियां और शपथ ग्रहण समारोह का तय होने के बाद स्थगित हो जाना तथा स्थगन होने के बाद डॉ.रचना गुप्ता का राज्यपाल को पत्र लिखकर अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी लेने में असमर्थता दिखाना भाजपा के अन्दर की कहानी पर बहुत कुछ कह जाता है। क्योंकि जब यह नियुक्ति हुई तब इस बारे में डॉ. रचना गुप्ता से सहमति न ली गयी हो ऐसा कोई मानने को तैयार नहीं है। यह नियुक्तियां भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष की जानकारी और सहमति के बिना हुई हो ऐसा भी प्रदेश की राजनीति की जानकारी रखने वाले मानने को तैयार नहीं हैं। ऐसे में शपथ का स्थगित होना और डॉ. रचना गुप्ता का यह पत्र लिखने को बाध्य होना स्पष्ट संकेत हैं कि यह सब प्रधानमंत्री या गृह मन्त्री के दखल के बिना संभव नहीं हुआ है। चार माह बाद प्रदेश में चुनाव होने हैं और इस दौरान कई चुनाव पूर्व सर्वेक्षण चर्चा में आ चुके हैं। किसी भी सर्वेक्षण में भाजपा सत्ता में वापसी नहीं कर पायी है। जयराम सरकार का सारा शीर्ष प्रशासन किस तरह के विवादों में है यह दस्तावेजी प्रमाणों के साथ जनता के सामने आ चुका है। लोक सेवा आयोग के सदस्यों की सामाजिक सक्रियता भी औद्योगिक निवेश के लिये आयोजित इन्वैस्टर मीट में शिरकत करने तक पहुंचना भी सबके संज्ञान में है और इसको लेकर आने वाले समय में सवाल उठने स्वभाविक हैं। माना जा रहा है कि दिल्ली में इस नियुक्ति के बाद उभरने वाली राजनीति के परिणामों को सामने रखकर ही यह स्थगन हुआ है। संभव है कि इसके बाद कुछ और भी अप्रत्याशित देखने को मिल जाये।
लेकिन यह जो कुछ हुआ है इसके बाद राजभवन और राजनीतिक दल सभी एक साथ सवालों के घेरे में आ खड़े हुए हैं। क्योंकि सर्वाेच्च न्यायालय और प्रदेश उच्च न्यायालय लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्तियों को लेकर एक प्रक्रिया और नियम बनाने के निर्देश दे चुका है। राज्यपाल प्रदेश के संवैधानिक प्रमुख हैं और प्रदेश उच्च न्यायालय के फैसले की पालना सुनिश्चित करवाना उनका दायित्व है। जब इन नियुक्तियों की जानकारी राज्यपाल को दी गयी होगी तब यह सरकार और उसके शीर्ष प्रशासन की जिम्मेदारी थी कि वह अदालत के निर्देशों की जानकारी राजभवन को देता। लेकिन सरकार द्वारा यह सच छिपाकर रखना क्या राज भवन को गुमराह करने जैसा नहीं हो जाता? परन्तु अब जब इन नियुक्तियों की अधिसूचनाएं जारी हुई उसके बाद एक सामाजिक कार्यकर्ता देवाशीष भट्टाचार्य प्रदेश उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और प्रदेश के राज्यपाल के संज्ञान में अदालत के निर्देशों को ला चुका है अब यह देखना रोचक होगा कि राज्यपाल अदालत के निर्देशों की अनुपालना सुनिश्चित करवा पाते हैं या नहीं। इसी के साथ भाजपा सहित अन्य राजनीतिक दलों से भी यह सवाल रहेगा कि वह अदालत के निर्देशों के प्रति कोई सम्मान दिखाते हैं या नहीं। चुनावों के वक्त पर आये इस फैसले के परिणाम दूरगामी होंगे यह तय है।

यह है भट्टाचार्य की मेल





राज्यपाल का आमन्त्रण


डॉ. रचना गुप्ता का पत्र


सुप्रीम कोर्ट का निर्देश 

This Court has had the occasion to consider the qualities which a person should have for being appointed as Chairman and Member of Public Service Commission and has made observations after considering the nature of the functions entrusted to the Public Service Commissions under Article 320 of the Constitution. In Ashok Kumar Yadav & Ors. v. State of Haryana & Ors. (supra), a Constitution Bench of this Court speaking through P.N. Bhagwati, J, observed: “We would therefore like to strongly impress upon every State Government to take care to see that its Public Service Commission is manned by competent, honest and independent persons of outstanding ability and high reputation who command the confidence of the people and who would not allow themselves to be deflected by any extraneous considerations from discharging their duty of making selections strictly on merit.” In R/O Dr. Ram Ashray Yadav, Chairman, Bihar Public Service Commission (supra), Dr. A.S. Anand, C.J. speaking for a three Judge Bench, cautioned: “The credibility of the institution of a Public Service Commission is founded upon the faith of the common man in its proper functioning. The faith would be eroded and confidence destroyed if it appears that the Chairman or the members of the Commission act subjectively and not objectively or that their actions are suspect. Society expects honesty, integrity and complete objectivity from the Chairman and members of the Commission. The Commission must act fairly, without any pressure or influence from any quarter, unbiased and impartially, so that he society does not lose confidence in the Commission. The high constitutional trustees, like the Chairman and members of the Public Service Commission must forever remain vigilant and conscious of these necessary adjuncts.” 

 I, therefore, hold that even though Article 316 does not specify the aforesaid qualities of the Chairman of a Public Service Commission, these qualities are amongst the implied relevant factors which have to be taken into consideration by the Government while determining the competency of the person to be selected and appointed as Chairman of the Public Service Commission under Article 316 of the Constitution. Accordingly, if these relevant factors are not taken into consideration by the State Government while selecting and appointing the Chairman of the Public Service Commission, the Court can hold the selection and appointment as not in accordance with the Constitution. To quote De Smith’s Judicial Review, Sixth Edition: “If the exercise of a discretionary power has been influenced by considerations that cannot lawfully be taken into account, or by the disregard of relevant considerations required to be taken into account (expressly or impliedly), a court will normally hold that the power has not been validly exercised. (Page 280)

Conclusion:

The appointment of the Chairperson of the Punjab Public Service Commission is an appointment to a constitutional position and is not a “service matter”. A PIL challenging such an appointment is, therefore, maintainable both for the issuance of a writ of quo warranto and for a writ of declaration, as the case may be.

In a case for the issuance of a writ of declaration, C.A. No. 7640 of 2011 exercise of the power of judicial review is presently limited to examining the deliberative process for the appointment not meeting the constitutional, functional and institutional requirements of the institution whose integrity and commitment needs to be maintained or the appointment for these reasons not being in public interest.
The circumstances of this case leave no room for doubt that the notification dated 7th July 2011 appointing Mr. Harish Rai Dhanda was deservedly quashed by the High Court since there was no deliberative process worth the name in making the appointment and also since the constitutional, functional and institutional requirements of the Punjab Public Service Commission were not met.
In the view that I have taken, there is a need for a word of caution to the High Courts. There is a likelihood of comparable challenges being made by trigger-happy litigants to appointments made to constitutional positions where no eligibility criterion or procedure has been laid down. The High Courts will do well to be extremely circumspect in even entertaining such petitions. It is necessary to keep in mind that sufficient elbow room must be given to the Executive to make C.A. No. 7640 of 2011 constitutional appointments as long as the constitutional, functional and institutional requirements are met and the appointments are in conformity with the indicators given by this Court from time to time.
Given the experience in the making of such appointments, there is no doubt that until the State Legislature enacts an appropriate law, the State of Punjab must step in and take urgent steps to frame a memorandum of procedure and administrative guidelines for the selection and appointment of the Chairperson and members of the Punjab Public Service Commission, so that the possibility of arbitrary appointments is eliminated.
The Civil Appeals are disposed of as directed by Brother Patnaik.
……….. J.
(Madan B. Lokur)

हिमाचल उच्च न्यायालय का निर्देश

The Court said that it hopes that the State of H.P. must step in and take urgent steps to frame memorandum of Procedure,administrative guidelines and parameters for the selection and appointment of the Chairperson and Members of the Commission, so that the possibility of arbitrary appointments is eliminated.

सरकार की राजनीतिक सेहत पर भारी पड़ सकता है धारा 118 में किया गया संशोधन

उच्च न्यायालय से लेकर सर्वाेच्च न्यायालय तक दो वर्ष की समय सीमा को जायज ठहरा चुके हैं।
जब सरकार यह संशोधन ला रही थी तब उसके पास यह जानकारी कैसे नहीं थी कि कितने अधिकारियों ने 118 के तहत खरीद की अनुमति मांगी है।
ऐसे कितने और किस-किस के मामले हैं जो दो वर्षों में जमीन को उपयोग में नहीं ला पाये हैं।

शिमला/शैल। जयराम सरकार ने अपने कार्यकाल के विधानसभा के अंतिम सत्र के अंतिम दिन नौ विधेयक पारित किये हैं। यह विधेयक राज्यपाल की स्वीकृति के बाद अधिसूचित होकर कानून की शक्ल लेंगे और उसके बाद जनता के व्यवहार में आकर उसकी प्रतिक्रियाओं का आधार बनेंगे। यह सब इस सरकार के बचे हुए कार्यकाल में संभव नहीं होगा। स्वभाविक है कि यह विधेयक पारित करवाकर चुनावी लाभ लेना सरकार का सबसे बड़ा मकसद रहेगा। इन विधेयकों की यदि प्रदेश की जनता को आवश्यकता थी तो इन्हें विधानसभा के पहले सत्र में ही क्यों नहीं लाया गया? क्या इनकी जन उपादेयता समझने में ही सरकार को 5 वर्ष लग गये? यह सवाल आने वाले दिनों में चर्चा का विषय बनेंगे यह तय है। सदन में चर्चा के दौरान विपक्ष की ओर से भी कोई बड़े सवाल इस संद्धर्भ में सामने नहीं आये हैं। इन नौ विधेयकों में एक विधेयक के माध्यम से भू-अधिनियम की धारा 118 में भी संशोधन किया गया है। स्मरणीय है कि धारा 118 के उपयोग/दुरुपयोग को लेकर प्रदेश की सरकारों पर हिमाचल ऑन सेल के आरोप लगते आये हैं। इन आरोपों को लेकर कई जांच आयोग भी बैठ चुके हैं। अभी जब सरकार यह संशोधन ला रही थी तभी इसी सत्र में एक सवाल के माध्यम से सरकार से यह पूछा गया था कि उसने कितने आईएएस/ आईपीएस /एच ए एस अधिकारियों को सेब के बगीचे खरीदने की अनुमति दी है? सरकार ने इन्हें भू-राजस्व कानून की धारा 118 के प्रावधानों से छूट प्रदान की है। सरकार ने इन प्रश्नों के उत्तर में मुकेश अग्निहोत्री को बताया है कि अभी सूचना एकत्रित की जा रही है। जब सरकार धारा 118 में संशोधन प्रस्तावित कर रही थी तभी 118 से जुड़े प्रश्न पर सूचना एकत्रित किये जाने का उत्तर अपने में ही कई सवालों को जन्म दे जाता है। धारा 118 में प्रावधान है कि कोई भी गैर कृषक हिमाचल में सरकार से अनुमति लेकर गैर कृषि उद्देश्य के लिये जमीन खरीद सकता है। ऐसी अनुमति से खरीदी गयी जमीन को खरीद उद्देश्य के लिये दो वर्ष के भीतर उपयोग में लाना होगा। इस समय सीमा को सरकार की अनुमति से एक वर्ष और बढ़ाने का प्रावधान है। अब इसमें संशोधन करके तीन की बजाय पांच वर्ष तक कर दिया गया है। इसके लिये तर्क दिया गया है कि दो वर्ष के समय में प्राय व्यक्ति उस उद्देश्य की पूर्ति नहीं कर पाता है जिसके लिये उसने जमीन खरीदी होती है। हिमाचल पहाड़ी राज्य होने के कारण यहां के लोगों के पास काश्तकारी बड़ी छोटी छोटी है। जब 1953 में बड़ी जमींदारी खत्म किये जाने का अधिनियम आया था और बड़े जमींदार की परिभाषा में वही लोग आये थे जो सौ रूपये या उससे अधिक का लगान देते थे। उस समय बड़े जमीदारों राज परिवारों के अतिरिक्त कुछ अन्य परिवार आये थे। इस अधिनियम के बाद 1972 में लैण्ड सीलिंग एक्ट आ गया था। इसमें काश्त की अधिकतम सीमा 161 बीघे कर दी गयी। फिर 1974 में भू-राजस्व अधिनियम आ गया इसमें गैर कृषकों के लिये भूमि खरीद पर यह बन्दिश लगा दी गयी कि वह सरकार की पूर्व अनुमति के बिना ऐसा नहीं कर सकते। इसमें दो वर्ष की सीमा लगायी गयी थी। इस प्रावधान को 1975 में ही चुनौती दे दी गयी थी। बल्कि कई बार ऐसा हुआ है लेकिन उच्च न्यायालय से लेकर सर्वाेच्च न्यायालय तक ने इस प्रावधान और दो-वर्ष की समय सीमा को जायज ठहराया है। 1995 से लेकर 2010 तक आश्य की आयी छः याचिकाओं पर 1 अक्तूबर 2013 को प्रदेश उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ए एम खानविलकर और न्यायमूर्ति कुलदीप सिंह की खण्डपीठ ने विस्तृत फैसला देते हुए दो वर्ष की मूल समय सीमा और उसके बाद एक वर्ष के विस्तार को पूरी तरह जायज ठहराते हुये सभी छः याचिकाओं को खारिज कर दिया था। उच्च न्यायालय ने साफ कहा है कि The act is of agrarian and reform and purpose of the act is to check  accumulation of property in the hands of few moneyed people. The provision has been made in the act for transfer of land in favour of genuine non- agriculturists with the  permission of the State Government who want to use the land of specific purpose. one of the test of genuineness of transfer in favour of non-agriculturist with the permission of the state government is that the land is used by the non-agriculturist/purchaser immediately after its purchase for the purpose it has been purchased by him. Such purchaser before purchase of land with the permission of Government is expected to plan his project knowing fully time within which land is to be put to use for which it has been purchase. The initial period fixed for using the land in extendable as provided in the act. In the   circumstances, the stipulation of two years initially with extension of one year to use the land after purchase by non-agriculturist for the purpose for which it has been purchased cannot be said to be arbitrary. Similarly the non-agriculturist after purchase cannot be allowed to divert the purpose for which he has purchased the land without the permission of the State Government. These conditions are necessary to achieve the object of the act. On the basis of individual difficulty in a given case it cannot be said that third proviso to sub-section 2 of section 118 is arbitrary.  आज जयराम सरकार को अदालत के फैसले को पलटने की आवश्यकता क्यों पड़ी और ऐसे कितने मामले सरकार के पास लंबित है जो तीन वर्षों में भी खरीदी जमीन को उपयोग में नहीं ला पाये हैं। ऐसे कितने लोगों के खिलाफ इसी अधिनियम के प्रावधान के तहत कारवाई की अनुशंसा प्रस्तावित थी। अब इन सारे सवालों पर चर्चायें उठेगी ऐसा माना जा रहा है। धारा 118 में किया गया संशोधन सरकार की राजनीतिक सेहत पर कहीं भारी न पड़ जाये यह आशंका बराबर बनी हुई है।

जब अंतिम सत्र में भी सूचना एकत्रित करने का ही जवाब आये तो सत्ता में वापसी का दावा....?

पांच वर्ष में लोकायुक्त न लगा पाना भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेन्स है क्या?

शिमला/शैल। जयराम सरकार के कार्यकाल का अंतिम विधानसभा सत्र समाप्त हो गया है। इस सत्र की समाप्ति पर मीडिया को संबोधित करते हुये मुख्यमंत्री ने दावा किया है कि प्रदेश की जनता इस बार ‘‘एक बार भाजपा और एक बार कांग्रेस’’ के चलन को समाप्त कर भाजपा को पुनः सत्ता में लायेगी। एक राजनेता और वर्तमान मुख्यमन्त्री होने के नाते ऐसा दावा करना उनका न केवल अधिकार ही है बल्कि कर्तव्य भी है। क्योंकि यदि एक वर्तमान मुख्यमंत्री ही ऐसा दावा नहीं करेगा तो फिर पार्टी किस मनोबल के साथ चुनाव में जायेगी। क्योंकि इस बार जनता पार्टी के वायदों पर नहीं बल्कि पांच वर्षों की कारगुजारी पर वोट देगी। सरकार की कारगुजारी का प्रमाण पत्र जितना जनता होती है उतना ही बड़ा प्रमाण पत्र विधानसभा में विधायकों द्वारा सरकार से पूछे गये सवाल पर सरकार द्वारा सदन में दिये गये जवाब होते हैं। इस परिपेक्ष में विधानसभा का अंतिम सत्र बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि इसी सत्र में विधायकों का तीखापन और उसी अनुपात में सरकार की तैयारी उसके जवाबों से सामने आती है। जब सरकार सदन में किसी सवाल का जवाब यह कहकर टाल जाती है कि अभी सूचना एकत्रित की जा रही है तो उससे पता चलता है कि पूछे गये सवाल के जवाब में कुछ ठोस कहने लायक सरकार के पास नहीं है। बल्कि कई बार ऐसे जवाब आगे चलकर विजिलैन्स जांच तक का विषय बन जाते हैं। इस परिदृश्य में यदि इस सत्र में आयें ऐसे सवालों पर नजर डाली जाये जिनके जवाब में ‘‘सूचना एकत्रित की जा रही है’’ कहा गया है क्योंकि ऐसे सवाल अंतिम सत्र के साथ ही समाप्त हो जाते हैं। पिछले कई सत्रों से सरकार से यह पूछा जा रहा था कि उसने अपने प्रचार प्रसार पर कितना खर्च किस माध्यम से किया है। उसने कितने और कौन-कौन से समाचार पत्रों को विज्ञापन जारी किये हैं। सरकार ने हर सत्र में ‘‘सूचना एकत्रित की जा रही है’’ का ही जवाब दिया है इस अंतिम सत्र में भी यही जवाब दिया है कि अभी भी सूचना एकत्रित की जा रही है। स्मरणीय है कि पिछले दिनों कांग्रेस विधायक रामलाल ठाकुर ने एक पत्रकार वार्ता में सरकार की प्रचार प्रसार नीति पर ऐसे गंभीर सवाल उठाये हैं जो निश्चित रूप से विजिलैन्स जांच का विषय बनते हैं। यह एक सामान्य नियम है कि सरकार जो भी किसी भी माध्यम से विज्ञापित करती है उस पर प्रिंट लाइन का होना कानूनी आवश्यकता है। जो बड़े-बड़े होर्डिंग लगाये जाते हैं उन पर प्रिंट लाइन के साथ ही उन्हें किसी सार्वजनिक स्थल पर लगाने के लिए प्रशासन से भी अनुमति लेनी पड़ती है। कई बार ऐसे होर्डिंग सार्वजनिक स्थलों पर लगे देखने को मिले हैं। जिन पर प्रिंट लाइन नहीं थी। माल रोड पर भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा के बिना प्रिंटलाइन के होर्डिंग लग चुके हैं। जब शैल ने यह विषय उठाया था तब तुरन्त उन्हें हटा लिया गया था। प्रचार प्रसार के संद्धर्भ में पूछे गए सवाल का जवाब इसलिये नहीं दिया गया क्योंकि इसमें सरकार से तीखा सवाल पूछने वाले समाचार पत्रों को विज्ञापनों से वंचित रखा गया है। लेकिन सरकार तो इस सवाल का जवाब भी नहीं दे पायी है कि सरकार के कितने विभागों/निगमों में कितने पद सृजित है, स्वीकृत हैं- कितने पद रिक्त हैं- कितनों को रोजगार दिया गया है। यह सवाल भी पूछा गया था कि प्रदेश में विभिन्न स्तर के कितने अस्पताल-औषधालय हैं। इनमें डॉक्टरों के कितने पद सृजित और रिक्त हैं। इस पर भी सूचना एकत्रित की जा रही है का ही जवाब दिया गया है। ऐसे और भी कई सवाल हैं जिन में सूचना एकत्रित किये जाने का ही जवाब दिया गया है। रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य ऐसे विषय हैं जो प्रदेश के हर व्यक्ति को सीधे प्रभावित करते हैं। इनमें सरकार अपनी उपलब्धियों के ढोल पीटती रही है। लेकिन जहां जिस मंच पर इन से जुड़े तथ्य रखे जाने थे वहां जब सरकार के पास कार्यकाल के अन्त में भी सूचना एकत्रित की जा रही है कहकर जवाब से टलना पड़े तो स्पष्ट हो जाता है कि सरकार की करनी और कथनी में दिन रात का अन्तर है। शायद इसी व्यवहारिक जमीनी हकीकत के कारण अब तक हुये सभी चुनावी सर्वेक्षणों में सरकार सत्ता में वापसी नहीं कर पायी है। वैसे भी जो सरकार पांच वर्ष में लोकायुक्त का पद न भर पायी हो उसके भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेन्स के दावों पर कोई कैसे विश्वास कर पायेगा। आरटीआई के माध्यम से कोई सूचना न मांग ले इसलिये सूचना आयुक्त के पद को खाली रखने में ही भलाई मानी जा रही है। ऐसे में यह सवाल तो उठेगा ही कि जो सरकार संवैधानिक पदों को भरने में विश्वास न रखती हो और विधानसभा के अन्तिम सत्र में भी जनहित के तीखे सवालों पर अभी सूचना ही एकत्रित कर रही हो वह सत्ता में वापसी की हकदार कितनी और कैसे हो सकती है।

हर वर्ग सरकार से नाराज फिर भी सता में वापसी करने का दावा

पैन्शनर्ज  को चार साल में कुछ नहीं मिला
युवा बेरोजगार यात्रा निकालने को हुये मजबूर
किसानों बाागवानों को निकालनी पड़ी आक्रोश रैली
लोकसेवा आयोग में रह गया एक ही सदस्य
अधीनस्थ सेवा चयन बोर्ड को उच्च न्यायालय ने लगाया दस लाख का जुर्माना

शिमला/शैल। जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आते जा रहे हैं उसी अनुपात में राजनीतिक गतिविधियां भी तेजी पकड़ती जा रही हैं। मुख्यमंत्री हर चुनाव क्षेत्र का दौरा कर रहे हैं। हर जगह करोड़ों की घोषणा हो रही हैं। इन घोषणाओं को पूरा करने के लिये अभी सरकार को पन्द्रह सौ करोड़ का कर्ज लेना पड़ा है। कांग्रेस नेता रामलाल ठाकुर ने इस पर सवाल उठाते हुये आरोप लगाया है कि सरकारी खर्च पर पार्टी का प्रचार प्रसार किया जा रहा है। रामलाल केे सवाल का जवाब भी उन्हीं के प्रतिबंधी रणधीर शर्मा ने दिया है। रणधीर शर्मा ने रामलाल द्वारा दिये गये कर्ज के आंकड़ों को झूठ का पुलिंदा बताया है। दोनों नेताओं में हुये इस वाकयुद्ध से यह प्रमाणित हो जाता है कि एक भी नेता को सही स्थिति का ज्ञान नहीं है। किसी ने भी 31 मार्च 2020 तक की आयी कैग रिपोर्ट का अध्ययन नहीं किया है। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि शायद किसी भी राजनेता ने इस रिपोर्ट का अध्ययन नहीं किया है। क्योंकि इस रिपोर्ट में दर्ज तथ्य किसी के भी होश उड़ा देंगे। मुख्यमंत्री और उनके प्रशासन के पास इन तथ्यों का कोई जवाब नहीं है। शैल अगले अंक में यह खुलासा अपने पाठकों के सामने रखेगा।
लेकिन अभी जो रिपोर्ट फील्ड से आ रही है उसके मुताबिक मुख्यमंत्री की घोषणाओं का एक चौथाई भी व्यवहारिक शक्ल नहीं ले पाया है। पांवटा से मिली रिपोर्ट के मुताबिक मुख्यमंत्री द्वारा घोषित शैक्षणिक संस्थानों में से आधे से ज्यादा फंक्शनल नहीं हो पाये हैं और यही स्थिति अन्य जगह भी है। अभी पैन्शनर्ज संघों ने शिमला में एक पत्रकार वार्ता करके आरोप लगाया है कि जयराम सरकार अपने साढ़े चार साल के कार्यकाल में उनकी एक भी मांग पूरी नहीं कर पायी है। 65, 70 और 75 वर्ष की आयु पर मिलने वाले 5,10 व 15 प्रतिशत पैन्शन भत्ता की अदायगी संशोधित पैन्शन पर नहीं कर पायी है। वृद्ध पैन्शनरों को जो 1500 रूपये बढ़ा हुआ चिकित्सा भत्ता नहीं मिल पाया है। पैन्शनर्ज सरकार से बुरी तरह खफा हैं यह स्पष्ट हो चुका है। बेरोजगार युवा रोजगार के लिये कांग्रेस के बैनर तले बेरोजगार यात्रा निकाल रहे हैं। अभी प्रदेश के किसान और बागवान हजारों की संख्या में आक्रोश रैली निकालकर सचिवालय का घेराव कर चुके हैं। क्योंकि 28 जुलाई को मुख्यमंत्री ने इनके 20 सूत्रीय मांग पत्र को स्वीकार कर लिया था। लेकिन इस पर व्यवहारिक रूप से कोई भी कदम नहीं उठाया गया है और शायद इसीलिये आक्रोश रैली से निपटने के लिये मुख्य सचिव को आगे कर दिया। अब सरकार ने इनसे दस दिन का समय मांगा है। क्या दस दिन में इनकी मांगों को सरकार स्वीकार कर पायेगी? प्रदेश की वित्तीय स्थिति की जानकारी रखने वालों के अनुसार सरकार किसी भी वर्ग की कोई भी मांग पूरी करने की स्थिति में नहीं है। सरकारी संस्थानों की कार्यप्रणाली कैसे चल रही है इसका खुलासा अधीनस्थ सेवा चयन बोर्ड को प्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा लगाये गये दस लाख के जुर्माने से सामने आ गया है। क्या इस जुर्माने के लिये बोर्ड प्रशासन के खिलाफ कारवाई की जायेगी? यही नहीं आज प्रदेश लोक सेवा आयोग में भी यह स्थिति आ गयी है कि वहां पर अध्यक्ष समेत छः पद सृजित होने के बावजूद केवल एक ही सदस्य रह गया है। इससे सरकार की गंभीरता का पता चलता है। ऐसे में यह सवाल उठना शुरू हो गया है कि इस तरह की कार्यप्रणाली के साथ सरकार की सत्ता में वापसी के दावे कितने विश्वसनीय हो सकते हैं।


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