Sunday, 21 December 2025
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कांग्रेस ने टिकट आवंटन में समय लगाकर नियोजित विद्रोह को आकार लेने से पहले ही दफन कर दिया

भाजपा में उभरी बगावत कांग्रेस का हाथियार बनी

शिमला/शैल। कांग्रेस ने हमीरपुर से पूर्व मंत्री रणजीत सिंह वर्मा के बेटे डॉक्टर पुष्पेन्द्र वर्मा को उम्मीदवार बनाने का फैसला लेकर सभी 68 विधानसभा क्षेत्रों से अपने उम्मीदवारों की अंतिम सूची जारी कर दी है। कांग्रेस में भी टिकट आवंटन को लेकर कुछ स्थानों पर रोष और विद्रोह उभरा है इसमें कोई दो राय नहीं है। लेकिन भाजपा के मुकाबले यह नगण्य है। कांग्रेस में टिकटों को लेकर सबसे ज्यादा सुखविंदर सिंह का मिजाज बहुत कड़ा रहा है। क्योंकि संयोगवश सुखविंदर सुक्खु ही इस समय कांग्रेस में ऐसे नेता हैं जो छः वर्ष तक पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष रहे हैं और इस नाते व्यवहारिक रूप से कार्यकर्ताओं और नेताओं को लेकर ज्यादा जानकारी रखते हैं। इसी कारण से उन्हें प्रचार कमेटी का अध्यक्ष भी बनाया गया है। कुछ लोग अभी से उन्हें मुख्यमंत्री के संभावित चेहरे के रूप में भी चर्चित करने लग पड़े हैं। जबकि मुख्यमंत्री का प्रश्न चुनाव परिणाम आने के बाद विधायकों की सर्व राय से हल होगा यह तय है। इस समय प्रतिभा वीरभद्र सिंह पार्टी की प्रदेश अध्यक्ष हैं और पार्टी उम्मीदवार तय करने में उनकी सबसे बड़ी भूमिका रही है। स्व.वीरभद्र सिंह की राजनीतिक विरासत वह तभी संभाल रही हैं जब प्रदेश की राजनीति का सबसे अधिक व्यवहारिक ज्ञान उनके पास है। लेकिन बीते पांच वर्षों में पार्टी को सदन के भीतर जिस तरह से प्रभावी बनाये रखा है उसमें मुकेश अग्निहोत्री का योगदान सबसे अधिक रहा है। मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के साथ कितनी बार किस तरह के सीधे टकराव में आ चुके हैं यह पूरा प्रदेश जानता है। इस तरह कांग्रेस के मुख्यमंत्री बनने की क्षमता रखने वाले नेताओं की एक लंबी सूची है।
2014 से आज 2022 तक कांग्रेस जिस दौर से गुजरी है उसमें ईडी, आयकर और सीबीआई के डर से सैकड़ों नेता पार्टी छोड़ भाजपा में शामिल हो चुके हैं। आज चुनाव घोषित होने के बाद भी दो विधायक पार्टी छोड़ भाजपा में चले गये। हर्ष महाजन और मनकोटिया जैसे लोग भाजपा में चले गये हैं। इन लोगों का कांग्रेस पर सबसे बड़ा आरोप परिवारवाद का होता था लेकिन अब जब हिमाचल में ही भाजपा ने परिवारवाद की नयी इबारत लिख दी है तो स्पष्ट हो जाता है कि कांग्रेस छोड़ने के पीछे कोई वैचारिक कारण नहीं बल्कि कुछ व्यक्तिगत स्वार्थ और डर प्रभावी रहे हैं। मनकोटिया ने जिस भ्रष्टाचार के खिलाफ बाकायदा पत्रकार वार्ता करके हमला बोला था भाजपा ने उसी को दोबारा उम्मीदवार बनाकर मनकोटिया को अपरोक्ष में जवाब दे दिया है। लेकिन इस पीढ़ी के नेता अपने वैचारिक धरातल शायद अब भी तर्क की कसौटी पर परखने का प्रयास तक करने के लिए तैयार नहीं हैं। जो छद्म ताना-बाना 2014 में गुंधा गया था अब 2022 तक उसको परोस्ते परोस्ते उबकाई जैसी हालत हो गयी है। लगातार कमजोर होती अर्थव्यवस्था ने महंगाई और बेरोजगारी के जो जख्म आम आदमी को दिये हैं उससे अब हर आदमी ड्रोन से आलू धोने का ज्ञान परोसा जाना अपने को मूर्ख बनाने का प्रयास मान चुका है। इस परिदृश्य में आज प्रदेश में जो भी कांग्रेस का नेतृत्व और कार्यकर्ता बचा हुआ है वह सराहना का पात्र बन जाता है। क्योंकि यह सबने देखा है कि मुख्यमंत्री ने किस तर्ज में यह कहा था कि कांग्रेस को चुनाव लड़ने लायक ही नहीं रहने दिया जायेगा। जब नेता प्रतिपक्ष के साथ मंच का हादसा हुआ तब मुख्यमंत्री ने फोन पर जो कुशल क्षेम पूछने का शिष्टाचार निभाया उसकी गंभीरता को उसी क्षण ट्वीट करके हल्का भी बना दिया।
आज प्रदेश की राजनीति व्यवहारिकता के इस स्टेज पर आकर खड़ी हो गयी है की सत्ता के जिस मद में कल तक कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था उसे आज अपनों की ही बगावत ने पूरी तरह काफुर कर दिया है। आज भाजपा की बगावत ही कांग्रेस का एक बड़ा हथियार बन गयी है। क्योंकि आने वाले दिनों में सवाल तो सत्ता पक्ष से ही पूछे जायेंगे विपक्षी से यह सवाल नहीं पूछा जाएगा कि उसने आज तक सरकार के खिलाफ कोई भी आरोपपत्र जारी क्यों नहीं किया। कांग्रेस ने टिकट आवंटन में जिस सूझबूझ का परिचय दिया है वहीं भाजपा की कमजोरी सिद्ध हो गयी है। क्योंकि यह माना जा रहा है कि शायद हर्ष महाजन कांग्रेस के हर उम्मीदवार के खिलाफ विद्रोही उम्मीदवार खड़ा करने के रणनीति पर काम कर रहे हैं क्योंकि हर्ष महाजन लम्बे समय तक कांग्रेस में रहे हैं और स्व. वीरभद्र के विश्वासपात्र रहे हैं। जब वह पहली बार ही मंत्री बनकर विवादित हो गये थे और पोस्टर तक लगने की नौबत आ गयी थी उसके बाद उन्होंने चुनावी राजनीति से किनारा कर लिया था। आज भाजपा में शामिल होने के बाद भी हर्ष महाजन ने चुनाव नहीं लड़ा है। लेकिन राजनीति के माध्यम से व्यापारिक हितों की रक्षा कैसे की जाती है और हितों को कैसे बढ़ाया जाता है वह बहुत अच्छी तरह जानते हैं। वीरभद्र जब केंद्रीय मंत्री थे तब स्क्रैप के कारोबार में उन्होंने अपने इस अनुभव का सफल परिचय दिया। यदि आज भाजपा में आकर वह कांग्रेस को अन्दर से नुकसान पहुंचाने में सफल हो पाते हैं तभी उनकी वहां पर स्वीकार्यता बन पायेगी। कांग्रेस ने इस संभावित नुकसान की आशंका को टिकट आवंटन में ही समय लगाकर काफी कम कर लिया है।

टिकट आवंटन पर उभरी बगावत ने बिगाड़ा भाजपा का खेल

कई जिलों में खाता तक खोलना हो सकता है कठिन
नड्डा जयराम के गृह जिलों में शान्त नहीं हो पायी बगावत
धूमल परिवार को हाशिये पर धकेलना पड़ सकता है महंगा

शिमला/शैल। टिकट आवंटन के बाद जिस स्तर पर भाजपा में रोष और बगावत के स्वर उभरे हैं उससे यह स्पष्ट हो गया है की सत्ता में वापसी करने और रिवाज बदलने के जितने भी दावे किये जा रहे थे वह सब न केवल हकीकत से कोसों दूर हो गये हैं बल्कि पार्टी को दहाई का आंकड़ा लांघने के भी संकट पर खड़ा कर दिया है। क्योंकि टिकट आवंटन में पार्टी के अब तक के घोषित सारे बड़े सिद्धांतों की आहुति दे दी गयी है। जिस परिवारवाद को कांग्रेस के खिलाफ बड़े हथियार के रूप में अब तक इस्तेमाल किया जा रहा था और उसी के आधार पर उपचुनाव में जिस चेतन बरागटा का टिकट काटा गया था अब उसी को टिकट देने की मजबूरी हो जाना इसका प्रमाण है। जल शक्ति मंत्री महेन्द्र सिंह की जगह उनके बेटे को टिकट देना पड़ा है। ऐसे आधा दर्जन मामले हैं जहां पर परिवारवाद को प्राथमिकता दी गयी है। दो मंत्रियों सुरेश भारद्वाज और राकेश पठानिया के चुनाव क्षेत्र बदले गये। दोनों मंत्रियों के समर्थक इस पर रोष में हैं। सुरेश भारद्वाज के समर्थकों ने तो शिमला से उम्मीदवार बनाये गये संजय सूद के खिलाफ तो राम मंदिर ट्रस्ट से मुख्यमंत्री कोष में पैसा देने के मामले को सवाल बना कर उछाल दिया है। जबकि अब तक यह मामला राम मंदिर ट्रस्ट की चारदीवारी से बाहर नहीं निकला था। लेकिन अब यह चुनावी मुद्दा बना दिया गया है। ऐसे करीब डेढ़ दर्जन चुनाव क्षेत्र हैं जहां अपनों की बगावत व्यक्तिगत स्तर की अदावत तक पहुंच चुकी है। राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा और मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के अपने जिला बिलासपुर और मण्डी में बगावत का जो स्तर सामने आया है उसने दोनों नेताओं की व्यक्तिगत स्वीकार्यता पर ही गंभीर प्रश्न खड़े कर दिये हैं। आज ही जो स्थिति बन चुकी है उसमें प्रदेश के आधे जिलों में तो पार्टी का खाता तक खुलने की संभावनाएं कठिन हो गयी हैं। इस बगावत को शान्त करने के लिये कई जगह आंसुओं का सहारा लेना का प्रयास किया गया है तो कई जगह इन आंसुओं ने आग में घी का काम किया है। 29 तारीख तक यह बगावत कितनी शान्त हो पाती है यह तो तभी पता चलेगा। लेकिन यह तय है कि इस बगावत में अभी तक जो कुछ बाहर आ गया है वही इस घर को जलाकर राख करने के लिये काफी है। क्योंकि कमान से निकले हुये तीर वापस नहीं आते हैं।
जिस स्तर तक यह बगावत पहुंच चुकी है शायद उसका पूर्वानुमान जयराम और नड्डा को या तो नहीं रहा है या फिर एक सोची-समझी योजना के तहत यह किया गया है। क्योंकि हिमाचल में सत्ता में वापसी कोई भी पूर्व मुख्यमंत्री नहीं कर पाया है। मीडिया मंचों से सौ-सौ सर्वश्रेष्ठता के तमगे लेकर भी रिवाज नहीं बदल पाया है। क्योंकि सरकार बनने के बाद सत्ता में वापसी सरकार के कामकाज के आधार पर होती है। मीडिया के प्रमाण पत्रों पर नहीं। जयराम सरकार में तो मुख्यमंत्री का पद दायित्व से अधिक लग्जरी का माध्यम प्रचारित होकर रह गया। जनता को भले ही इसकी जानकारी न रही हो लेकिन पार्टी के बड़े पदाधिकारियों और विधायकों को अवश्य रही है। बल्कि बहुत सारे तो इस जानकारी के आधार पर टिकट पाने और बचाने में सफल हुये हैं। इस सरकार के नाम सबसे अधिक कर्ज लेने का तमगा लगना इसी लग्जरी भाव का परिणाम है। सरकार की पांच वर्ष की कारगुजारी क्या रही है उस पर तो चर्चाएं चुनाव प्रचार के दौरान आयेंगी। लेकिन अभी तक आपस में स्कोर सैटल करने में जो शीत युद्ध चल रहा था वह अब टिकट आवंटन में धूमल परिवार को सफलतापूर्वक हाशिये पर धकेल दिये जाने से एक मोड़ तक पहुंचा दिया गया है। क्योंकि जब यह सामने आया कि 2017 के चुनाव में धूमल और उनके समर्थकों को योजनाबद्ध तरीके से बाहर किया गया था तब यह चर्चा उठी कि धूमल को अपना राजनीतिक मान सम्मान बहाल करने के लिये एक बार चुनाव में आना ही चाहिये। धूमल के भी इस आशय के कुछ बयान आये। राज्यसभा सांसद इन्दु गोस्वामी ने सुजानपुर में इस मन्तव्य को सार्वजनिक भी कर दिया। पार्टी कार्यकर्ताओं में यह संदेश भी चला गया लेकिन टिकट आवंटन में धूमल परिवार को पूरे व्यवहारिक रूप से हाशिये पर धकेल दिये जाने से यह स्पष्ट हो गया है कि पार्टी की हार की चिंता से धूमल को राजनीति से बाहर करना इस समय नेतृत्व की प्राथमिकता बन गयी थी जिसमें नड्डा जयराम सफल रहे हैं।

आचार संहिता लागू होने के दिन तक भी नहीं भरे जा सके मुख्य सूचना आयुक्त और खाद्य आयुक्त के पद

केवल जस्टिस बारोवालिया ही बन पाये लोकायुक्त

शिमला/शैल। भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना आंदोलन के माध्यम से बड़ा आन्दोलन खड़ा करके केन्द्र की सत्ता पर काबिज हुई भाजपा शासित अधिकांश प्रदेशों में लम्बे समय तक लोकायुक्त के पद नहीं भर पायी है। हिमाचल भी ऐसे ही राज्यों में से एक है। यहां पर लोकायुक्त का पद भरने की कवायद उस दिन की गयी जब चुनाव आयोग ने विधानसभा की चुनावों की तारीखों का ऐलान कर दिया। प्रदेश उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति चन्द्रभूषण बारोवालिया को इस पद पर नियुक्त किया गया है। जब उनका न्यायमूर्ति के पद से त्यागपत्र स्वीकार हो जायेगा तब वह बतौर लोकायुक्त शपथ ग्रहण करेंगे। जस्टिस बारोवालिया बतौर न्यायाधीश मार्च 2023 में सेवानिवृत्त होने वाले थे।
उधर जयराम सरकार ने पिछले तीन महीने से भी समय से खाली पडी मुख्य सूचना आयुक्त की कुर्सी पर किसी को नहीं बिठाया। शुरू में इस कुर्सी पर मौजूदा मुख्य सचिव आर डी धीमान को बिठाने की अटकलें चली थी। लेकिन अचानक वह मुख्य सचिव बन गये। फिर लगा की जिन राम सुभग सिंह को मुख्य सचिव के पद से हटा कर धीमान को मुख्य सचिव बनाया गया है, उन्हें मुख्य सूचना आयुक्त बनाया जायेगा। लेकिन जयराम सरकार ने ऐसा कुछ नहीं किया। सचिवालय से जुडे सूत्रों के मुताबिक धीमान इस कुर्सी पर बैठने के चाहवान थे। वह दिसम्बर में मुख्य सचिव के पद से सेवानिवृत हो जायेंगे। लेकिन जयराम सरकार के सामने नया मुख्यसचिव किसे बनाया जाये यह आडे आ गया। पहले ही धीमान से तीन-तीन वरिष्ठ अधिकारी जयराम सरकार से खार खाये हुये हैं। राम सुभाग सिंह, निशा सिंह और संजय गुप्ता जो धीमान से वरिष्ठ थे को सरकार ने सलाहकार बनाया हुआ है।
हालांकि जयराम चाहते थे 1990 बैच के आइएएस अधिकारी प्रबोध सक्सेना का मुख्य सचिव बना दिया जाये लेकिन ऐसा नहीं किया जा सका और मुख्य सूचना आयुक्त की कुर्सी खाली रह गयी। अब संभवत अगली सरकार ही अपने किसी चहेते अधिकारी को इस पद पर बिठायेगी।
उधर राज्य खाद्य आयोग के अध्यक्ष का पद भी खाली ही रह गया है। जयराम सरकार इस पद पर भी किसी की नियुक्ति नहीं कर पायी। अध्यक्ष के पद का कार्यभार आयोग के सदस्य रमेश गंगोत्रा देख रहे है। पिछले दिनों उनके आयोग के सचिव पर एफआइआर दर्ज करा दी थी। उसके बाद आयोग के सचिव ने भी उन पर अदालत के जरिए एफआइआर दर्ज करा रखी हैै। दोनों ने एक दूसरे पर जातिसूचक शब्द बोलने और मारपीट के इल्जाम लगा रखे हैं।

टिकट वितरण ही तय करेगा कि भाजपा की खेमे बाजी कहां खड़ी है

शिमला/शैल। भाजपा ने टिकट आवंटन के लिये कोर कमेटी की बैठक को रद्द करके संसदीय क्षेत्रवार पदाधिकारियों की बैठक बुलाकर उनसे प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र के लिये तीन-तीन नामों का गुप्त मतदान करवाकर उनकी राय जानने की प्रक्रिया अपनाई है। इस मतदान की पेटियां हेलीकॉप्टर के माध्यम से दिल्ली ले जाकर चुनाव चयन कमेटी के सामने रखी जायेंगी। भाजपा को यह प्रक्रिया अपनाने की की बात चुनाव तारीखों का ऐलान होने के बाद ही क्यों दिमाग में आयी। यह सवाल विश्लेषकों के लिये महत्वपूर्ण हो गया है। क्योंकि जब प्रधानमंत्री की चम्बा में रैली आयोजित की गयी थी तब वहां पर जो पोस्टर लगाये गये थे उनमें राज्यसभा सांसद इन्दु गोस्वामी का फोटो गायब था। जैसे ही यह सूचना दिल्ली पहुंची तो वहां से आये निर्देशों के बाद पुराने पोस्टर हटाकर इन्दु गोस्वामी के फोटो के साथ नये पोस्टर लगाये गये। इन्दु गोस्वामी का पोस्टर इस तरह से आने के बाद भाजपा के भीतर की राजनीति में फिर तूफान खड़ा हो गया है। क्योंकि इन्दु गोस्वामी को मुख्यमंत्री बनाए जाने की चर्चाएं दो बार बड़ी गंभीरता से उठ चुकी हैं। इन्हीं चर्चाओं के बीच इन्दु गोस्वामी ने सुजानपुर में प्रेम कुमार धूमल को भारी मतों से जीताने की अपील कर दी थी। इससे यह संकेत स्पष्ट रूप से उभर रहे थे की धूमल और इन्दु गोस्वामी का गठजोड़ आने वाले समय में प्रभावी हो सकता है। धूमल कि 2017 के चुनाव में हार एक प्रायोजित षडयंत्र थी यह सामने आ चुका है। धूमल को अपना राजनीतिक सम्मान बहाल करवाने के लिए एक बार चुनाव लड़ कर जीतने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं रह जाता है।
भाजपा के अन्दर अचानक उभरी यह स्थिति आगे चलकर क्या करवट लेती है यह टिकट वितरण से ही साफ हो जाएगा। क्या धूमल और उनके समर्थकों को पार्टी टिकट देती है या नहीं? अगर धूमल चुनाव लड़ते हैं तो स्पष्ट संदेश होगा कि अगले मुख्यमंत्री वही होंगे। इससे एक बार फिर नड्डा-जयराम बनाम धूमल खेमों में अघोषित संघर्ष और तेज हो जायेगा। क्योंकि जब दोनों निर्दलीयों को भाजपा में शामिल करवाया गया था तो उससे धूमल समर्थक ही सीधे प्रभावित हुए थे और इसमें स्थानीय मण्डलों तक को विश्वास में नहीं लिया गया था। वहां से दोनों खेमों में शुरू हुआ यह संघर्ष अब टिकट वितरण में क्या असर दिखाता है यह देखना रोचक होगा। क्या मुख्यमंत्री खेमा इन लोगों को टिकट दिलवा पाता है या नहीं? दोनों निर्दलीयों को स्थानीय मण्डलों के विरोध के बावजूद टिकट मिलना सीधा संकेत होगा कि इस चुनाव में धूमल खेमे को पूरी तरह अप्रसांगिक कर दिया गया है।
ऐसी स्थिति में यह देखना दिलचस्प होगा कि धूमल खेमा चुनाव में क्या भूमिका निभाता है। चुनाव प्रचार में कितना सक्रिय रह पाता है। यह माना जा रहा है कि नड्डा जय राम के आश्वासन पर भाजपा में शामिल हुए चारों विधायकों को यदि पार्टी टिकट दे देती है तो उस स्थिति में किसी भी विधायक या मंत्री का टिकट काट पाना संभव नहीं हो पायेगा। सरकार पर लगते आ रहे नॉन परफारमैन्स के आरोपों के साथ ही पार्टी को चुनाव में उतरना होगा।

कांग्रेस में मुख्यमंत्री का चेहरा बनने की होड़ में लगे नेता क्या अपने जिलों में स्थापित हो पायेंगे

शिमला/शैल। हिमाचल प्रदेश कांग्रेस के चुनावी टिकटों के आवटन में सिद्धांत रूप से जब यह फैसला लिया था की सभी वर्तमान विधायकों पूर्व में रहे प्रदेश कांग्रेस अध्यक्षों और वर्तमान में प्रदेश से ताल्लुक रखने वाले अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के पदाधिकारियों को टिकट दिये जायेंगे तो उससे कांग्रेस की भाजपा और आप पर एक मनोवैज्ञानिक बढ़त बन गयी थी। लेकिन इस बढ़त पर उस समय ग्रहण लग गया जब विप्लव ठाकुर जैसी वरिष्ठ नेता का ब्यान आ गया कि ऐसा कुछ नहीं हुआ है। इसी के साथ शिमला जिला से किसी ने पार्टी द्वारा करवाये गये सर्वेक्षणों की विश्वसनीयता पर यह कहकर सवाल खड़े कर दिये कि सर्वेक्षण का यह काम किसी बड़े नेता ने अपने ही किसी खास रिश्तेदार को एक योजना के तहत दिया था। इन ब्यानों का किसी बड़े नेता ने खण्डन नहीं किया और इसके बाद पार्टी से कुछ लोग भाजपा में चले गये तथा टिकट आवंटन कमेटी में सुखविंदर सुक्खू और प्रतिभा सिंह में उभरे मतभेदों की खबरें तक छप गयी। इसी सब के कारण टिकट आवंटन अभी तक फाईनल नही हो पाया है। बल्कि कांग्रेस में उभरी इस स्थिति को भाजपा और आप पूरी तरह अपने पक्ष में भुना भी रहे हैं। ऐसे में यह आकलन करना स्वभाविक हो जाता है कि कांग्रेस ने ऐसी स्थिति क्यों उभरी है और इसका पार्टी की चुनावी सेहत पर क्या असर पड़ेगां कांग्रेस प्रदेश में 2014 2017 और 2019 में हुये चुनावों में बुरी तरह हार चुकी है। जबकि तब स्व.वीरभद्र और स्व.पंडित सुखराम जैसे बड़े नेता भी मौजूद थे। इसके बाद जब प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बदला तब कांग्रेस ने पहले दो नगर निगम और फिर 3 विधानसभा तथा एक लोकसभा का उप चुनाव जीता। क्या कांग्रेस की यह जीत प्रदेश नेतृत्व के कारण हुई या राष्ट्रीय स्तर पर योजनाबद्ध तरीके से चलती रही राहुल गांधी की सक्रियता से। इस पक्ष पर शायद आज तक खुलकर विचार नहीं हुआ है। जबकि व्यवहारिक सच तो यह रहा है कि 2014 से लेकर मार्च 2020 में कोविड के कारण लगे लॉकडाउन तक केन्द्र सरकार के जो भी आर्थिक फैसले रहे हैं उन पर पूरे देश में पूरी स्पष्टता के साथ किसी भी दूसरे नेता ने बेबाक सवाल नहीं उठाये हैं। इन आर्थिक फैसलों का असर आज महंगाई और बेरोजगारी के रूप में हर घर तक पहुंच चुका है। इन्हीं फैसलों के कारण विकास दर का आकलन लगातार घटता जा रहा है। रूपया डॉलर की मुकाबले बुरी तरह लूढ़क चुका है। केन्द्र से लेकर राज्यों तक कर्ज इतना बढ़ चुका है कि रिजर्व बैंक तक श्रीलंका जैसे हालात हो जाने की आशंका व्यक्त कर चुका है। इस वस्तु स्थिति ने आम आदमी को पूरी तरह आतंकित कर दिया है। सरकार इससे ध्यान हटाने के लिए जांच एजैन्सियों का खुला राजनीतिक उपयोग करने पर आ गयी है। आर्थिक स्थिति पर संघ प्रमुख मोहन भागवत तक चिन्ता व्यक्त कर चुके हैं। यह व्यवहारिक स्थिति कांग्रेस की ताकत बन गयी है और इसी का एहसास शायद प्रदेश कांग्रेस के नेताओं को नहीं है। जबकि चारों उपचुनाव हारने के बाद से लेकर आज तक सरकार के पक्ष में कर्ज बढ़ने के अतिरिक्त कुछ नहीं घटा है। इस व्यवहारिक स्थिति के बावजूद प्रदेश कांग्रेस के नेताओं में बढ़ती खींचतान इसका संकेत मानी जा रही है कि आज यह नेता अपने को येन केन प्रकरेण मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करवाने की कवायद में लग गये हैं। यह सही है कि स्व. वीरभद्र सिंह के बाद नेतृत्व के नाम पर कांग्रेस शून्य की स्थिति से गुजर रही है। स्व. वीरभद्र सिंह के निधन से उपजी सहानुभूति को भुनाने के लिए प्रतिभा सिंह को पार्टी अध्यक्ष बनाया जाना समय की मांग था। लेकिन इस समय भी नेता को मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करना घातक होगा। क्योंकि जो भी घोषित होगा उसे पूरे प्रदेश में प्रचार के लिये निकलना पड़ेगा और पीछे से वह धूमल की तरह अपनों के ही षड़यंत्र का शिकार हो जायेगा। ऐसे में यदि मुख्यमंत्री के लिये दावेदारी जताने वालों को अपने-अपने जिले की सारी सीटें जिताने की जिम्मेदारी डाल दी जाये तो इससे पार्टी और नेता दोनों को ही लाभ मिलेगा।


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