शिमला/शैल। सुक्खू सरकार ने पिछले दिनों कांगड़ा से ताल्लुक रखने वाले राजा अवस्थी को दिल्ली में सोशल मीडिया कोऑर्डिनेटर नियुक्त किया है। यह नियुक्ति आउटसोर्स के माध्यम से की गयी है। आउटसोर्स की प्रक्रिया को प्रदेश की इलेक्ट्रॉनिक कॉरपोरेशन ने अंजाम दिया है। निगम ने राजा अवस्थी का नाम सूचना एवं जनसंपर्क विभाग को उसकी सहमति के लिये भेजा। विभाग ने इसे स्वीकार करके राजा अवस्थी को दिल्ली में यह नियुक्ति दे दी। इलेक्ट्रॉनिक कॉरपोरेशन को राजा अवस्थी का नाम शिमला की एक आउटसोर्स कंपनी द्वारा प्रेषित किया गया है। इस नियुक्ति से यह इंगित होता है कि सूचना एवं जनसंपर्क विभाग के कुछ कार्यांे को सरकार आउटसोर्स कंपनियों को सौंपना चाहती है। जिसमें दिल्ली में सोशल मीडिया के साथ कोऑर्डिनेट करना भी शामिल है। वैसे दिल्ली में विभाग का क्षेत्रीय कार्यालय भी कार्यरत है। लेकिन सरकार ने विभाग को सक्षम न मानकर दिल्ली में यह काम एक आउटसोर्स कंपनी को दिया है। सुक्खू सरकार ने सत्ता में आने के बाद आउटसोर्स के माध्यम से कोविड काल में स्वास्थ्य विभाग में रखे गये 1800 से अधिक कर्मचारियों को बाहर निकाला भी है। इस निष्कासन से उठे विवाद के बाद आउटसोर्स योजना पर कुछ विचार विमर्श भी हुआ है। राजा अवस्थी की नियुक्ति से आउटसोर्स की प्रासंगिकता तो प्रमाणित हो जाती है और यही सवाल खड़ा होता है कि इसके माध्यम से अपने ही लोगों को भर्ती करने का साधन बनाया जाये। आउटसोर्स के माध्यम से रखें कर्मियों को भी सरकार में भर्ती करने का प्रावधान रखा जाये। इस समय जो 35000 के करीब आउटसोर्स के माध्यम से रखे गये कर्मचारी है उनके भविष्य को लेकर भी सरकार को सोचना चाहिये। इस नियुक्ति की चयन प्रक्रिया पर उठ रहे सवालों के साथ सरकार की मीडिया पॉलिसी पर उसकी नीयत और नीति दोनों ही अलग से प्रशनित हो गये हैं। दिल्ली में सोशल मीडिया के लिये कोआर्डिनेटर नियुक्त किया गया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि सरकार सोशल मीडिया मंचों की भूमिका और प्रासंगिकता दोनों को स्वीकार करती है। दिल्ली स्थित सोशल मीडिया मंचों तक सरकार का प्रश्न रखना और उसे प्रचारित प्रसारित करवाने की जिम्मेदारी इस सोशल मीडिया कोऑर्डिनेटर की होगी। इस सरकार का पक्ष दिल्ली स्थित हाईकमान तक तो पहुंच जायेगा। लेकिन क्या वही पक्ष प्रदेश की जनता के सामने उसी क्लेवर में आ पायेगा और जनता उस पर विश्वास कर पायेगी? क्योंकि प्रदेश की जनता के सामने तो सरकार का व्यवहारिक पक्ष यथास्थिति मौजूद रहेगा। फिर शिमला स्थित मीडिया के कुछ वर्ग को जिस तरह सरकार ने उत्पीड़ित करना शुरू किया हुआ है उसके परिदृश्य में सरकार कुछ समय के लिये हाईकमान को तो प्रभावित कर लेगी परन्तु प्रदेश की जनता के सामने उसकी स्थिति और हास्यस्पद हो जायेगी। दिल्ली में सोशल मीडिया कोऑर्डिनेटर बिठाने से सरकार स्वतः ही एक अन्तर विरोध का शिकार हो गयी है।

शिमला/शैल। सुक्खू सरकार ने पिछले दिनों कांगड़ा से ताल्लुक रखने वाले राजा अवस्थी को दिल्ली में सोशल मीडिया कोऑर्डिनेटर नियुक्त किया है। यह नियुक्ति आउटसोर्स के माध्यम से की गयी है। आउटसोर्स की प्रक्रिया को प्रदेश की इलेक्ट्रॉनिक कॉरपोरेशन ने अंजाम दिया है। निगम ने राजा अवस्थी का नाम सूचना एवं जनसंपर्क विभाग को उसकी सहमति के लिये भेजा। विभाग ने इसे स्वीकार करके राजा अवस्थी को दिल्ली में यह नियुक्ति दे दी। इलेक्ट्रॉनिक कॉरपोरेशन को राजा अवस्थी का नाम शिमला की एक आउटसोर्स कंपनी द्वारा प्रेषित किया गया है। इस नियुक्ति से यह इंगित होता है कि सूचना एवं जनसंपर्क विभाग के कुछ कार्यांे को सरकार आउटसोर्स कंपनियों को सौंपना चाहती है। जिसमें दिल्ली में सोशल मीडिया के साथ कोऑर्डिनेट करना भी शामिल है। वैसे दिल्ली में विभाग का क्षेत्रीय कार्यालय भी कार्यरत है। लेकिन सरकार ने विभाग को सक्षम न मानकर दिल्ली में यह काम एक आउटसोर्स कंपनी को दिया है। सुक्खू सरकार ने सत्ता में आने के बाद आउटसोर्स के माध्यम से कोविड काल में स्वास्थ्य विभाग में रखे गये 1800 से अधिक कर्मचारियों को बाहर निकाला भी है। इस निष्कासन से उठे विवाद के बाद आउटसोर्स योजना पर कुछ विचार विमर्श भी हुआ है। राजा अवस्थी की नियुक्ति से आउटसोर्स की प्रासंगिकता तो प्रमाणित हो जाती है और यही सवाल खड़ा होता है कि इसके माध्यम से अपने ही लोगों को भर्ती करने का साधन बनाया जाये। आउटसोर्स के माध्यम से रखें कर्मियों को भी सरकार में भर्ती करने का प्रावधान रखा जाये। इस समय जो 35000 के करीब आउटसोर्स के माध्यम से रखे गये कर्मचारी है उनके भविष्य को लेकर भी सरकार को सोचना चाहिये। इस नियुक्ति की चयन प्रक्रिया पर उठ रहे सवालों के साथ सरकार की मीडिया पॉलिसी पर उसकी नीयत और नीति दोनों ही अलग से प्रशनित हो गये हैं। दिल्ली में सोशल मीडिया के लिये कोआर्डिनेटर नियुक्त किया गया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि सरकार सोशल मीडिया मंचों की भूमिका और प्रासंगिकता दोनों को स्वीकार करती है। दिल्ली स्थित सोशल मीडिया मंचों तक सरकार का प्रश्न रखना और उसे प्रचारित प्रसारित करवाने की जिम्मेदारी इस सोशल मीडिया कोऑर्डिनेटर की होगी। इस सरकार का पक्ष दिल्ली स्थित हाईकमान तक तो पहुंच जायेगा। लेकिन क्या वही पक्ष प्रदेश की जनता के सामने उसी क्लेवर में आ पायेगा और जनता उस पर विश्वास कर पायेगी? क्योंकि प्रदेश की जनता के सामने तो सरकार का व्यवहारिक पक्ष यथास्थिति मौजूद रहेगा। फिर शिमला स्थित मीडिया के कुछ वर्ग को जिस तरह सरकार ने उत्पीड़ित करना शुरू किया हुआ है उसके परिदृश्य में सरकार कुछ समय के लिये हाईकमान को तो प्रभावित कर लेगी परन्तु प्रदेश की जनता के सामने उसकी स्थिति और हास्यस्पद हो जायेगी। दिल्ली में सोशल मीडिया कोऑर्डिनेटर बिठाने से सरकार स्वतः ही एक अन्तर विरोध का शिकार हो गयी है।



शिमला/शैल। भाजपा कांग्रेस द्वारा विधानसभा चुनावों में दी गारंटीयों का पूरा करने में सुक्खू सरकार द्वारा अब तक कोई भी प्रभावी कदम न उठाये जाने को लेकर लगातार आक्रामक होती जा रही है। भाजपा जितना आक्रमक होती जा रही है उसी अनुपात में कांग्रेस का जवाब कमजोर होता जा रहा है। बल्कि सुक्खू सरकार पर क्षेत्रीय असन्तुलन का आरोप ज्यादा गंभीर होता जा रहा है। मंत्रिमण्डल में चले आ रहे तीनों खाली पदों को न भर पाना अब सुक्खू सरकार का नकारात्मक पक्ष गिना जाने लगा है। इस समय कांगड़ा से एक ही मंत्री का सरकार में होना शान्ता जैसे वरिष्ठतम नेता को यह कहने पर मजबूर कर गया है कि कांगड़ा को मंत्री नहीं मुख्यमंत्राी के लिये लड़ाई लड़नी चाहिए। क्योंकि प्रदेश में सरकार बनाने का फैसला सबसे बड़ा जिला होने के नाते कांगड़ा ही करता है। शान्ता के इस सुझाव का कांगड़ा के राजनेताओं पर कितना और क्या असर पड़ता है यह तो आने वाला समय ही बतायेगा। लेकिन शान्ता के इस उपदेश के बाद ही कांगड़ा से एकमात्र मंत्री चंद्र कुमार का मंत्रिमण्डल विस्तार को लेकर ब्यान आया है। इसी उपदेश के बाद ही मुख्यमंत्री का भी विस्तार को लेकर ब्यान आया है। इन ब्यानों से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह क्षेत्रीय असन्तुलन का आरोप लोकसभा चुनावों में अवश्य असर दिखायेगा।
क्षेत्रीय असन्तुलन तो मंत्रिमण्डल से बाहर हुई राजनीतिक ताजपोशीयों में भी पूरी नग्नता के साथ प्रदेश के सामने आ गया है। इस समय मुख्यमंत्री की सहायता के लिये सलाहकारों विशेष कार्यकारी अधिकारियों की नियुक्तियों में करीब 90% की हिस्सेदारी अकेले जिला शिमला की हो गयी है। इसी बड़ी हिस्सेदारी के कारण ही सुक्खू सरकार को कुछ विश्लेष्कों ने मित्रों की सरकार का उपनाम दे दिया है। इस उपनाम का व्यवहारिकता में जवाब देने का साहस किसी कार्यकर्ता में नहीं हो पा रहा है। बल्कि कुछ विश्लेष्क मुख्यमंत्री की कार्यशैली का इस तरह विश्लेष्ण कर रहे है कि सुक्खू अपनी पूरी राजनीतिक कुशलता के साथ मुख्यमंत्री बनने में सफल हो गये हैं। मुख्यमंत्री बनने के बाद शिमला नगर निगम के चुनाव आये और उसमें भी शिमला वासियों को कुछ वायदे करके जिनमें एटिक को रिहाईसी बनाना और बेसमैन्ट को खोलना आदि शामिल थे के सहारे यह चुनाव भी जीत गये। अब लोकसभा चुनावों की हार जीत में तो पार्टी की राष्ट्रीय नीतियों की ही भूमिका रहेगी। फिर लोकसभा चुनाव तो स्वर्गीय वीरभद्र सिंह के कार्यकाल में भी हारे हैं। विधानसभा में कोई भी मुख्यमंत्री स्व.वीरभद्र सिंह से लेकर शान्ता, धूमल और जयराम तक कोई रिपीट नहीं कर पाया है। इसमें सुक्खू के नाम कोई दोष नहीं आयेगा। लेकिन इस दौरान जिन मित्रों को वह राजनीतिक लाभ दे पायेंगे वह पार्टी के अन्दर उनका एक प्रभावी तबका बन जायेगा। इसलिये सुक्खू को लेकर जो यह धारणा फैलाई जा रही है कि वह किसी की नहीं सुनते और अपनी ही मर्जी करते हैं इसके पीछे पार्टी के अन्दर आने वाले वक्त के लिये अपना एक स्थाई वर्ग खड़ा करना है।
इस समय कांग्रेस गारंटीयां पूरी नहीं कर पायी है इस आरोप का एक बड़ा हिस्सा पिछले दिनों आयी आपदा में छुप जाता है। जहां तक लोकसभा चुनावों का प्रश्न है उसके लिये सुक्खू की राजनीति को समझने वालों के मुताबिक वह कांगड़ा, हमीरपुर और शिमला से मंत्रियों या वरिष्ठ विधायकों को चुनावी उम्मीदवार बनवाने का प्रयास करेंगे। क्योंकि सुक्खू की अस्वस्थता के दौरान यही लोग महत्वपूर्ण भूमिकाओं में थे। ऐसे में लोकसभा चुनावों में क्षेत्रीय असन्तुलन और आर्थिक कठिनाइयों का यदि सरकार जवाब न दे पायी तो यह चुनाव जीत पाना कठिन हो जायेगा।




इस तरह फैसले लेने और उन पर अमल से पहले ही उन्हें बदल देना यही दिखता है कि बिना व्यापक विचार विमर्श के फैसले लिये जा रहे हैं। सरकार में आपस में तालमेल का गहरा संकट चल रहा है। इस तरह की कार्य प्रणाली का आम जनता पर अच्छा प्रभाव नहीं पड़ रहा है। ऐसे बिना सोच विचार लिये जा रहे फैसलों से जनता में यही संदेश जा रहा है कि सरकार पैसा इकट्ठा करने के लिये कोई भी फैसला ले रही है। लेकिन फैसलों की यह व्यवहारिकता नहीं देखी जा रही है कि उनका आम जनता पर क्या प्रभाव पड़ेगा। आज सरकार हरित ऊर्जा के नाम ई-वाहन खरीद योजना पर 50ः तक अनुदान देने की घोषणा कर रही है। लेकिन इस घोषणा के बाद भी लोग आगे नहीं आ रहे हैं। इससे यह स्पष्ट संकेत जाता है कि लोग इस योजना की पहाड़ी क्षेत्र में सफलता को लेकर पूरी तरह आश्वस्त नहीं है। फिर आज प्रदेश जिस तरह के वित्तीय संकट में चल रहा है उसमें यह सवाल और भी अहम हो जाता है कि क्या कर्ज लेकर ऐसी योजनाओं को लाना आवश्यक है।