शिमला/शैल। सुक्खू सरकार की पहली ही सालगिरह पर राहुल और प्रियंका गांधी के न आने को नेता प्रतिपक्ष पूर्व मुख्यमंत्री जय राम ठाकुर ने जिस तरह से अपने विरोध प्रदर्शन पर जनता के सामने रखा है उससे प्रदेश के सियासी हल्कों में सारे समीकरण गड़बड़ा गये हैं। क्योंकि जयराम ने दावा किया है कि ‘‘हमने पहले ही कह दिया था कि अगर उनमें थोड़ी भी शर्म होगी तो नहीं आयेंगे।’’ सरकार की पहली ही सालगिरह पर इन केंद्रीय नेताओं का न आना अपने में ही बहुत कुछ कह जाता है। फिर जिस तरह से जयराम ने इस न आने को पेश किया है वह उसका सबसे बड़ा सियासी
स्ट्रोक माना जा रहा है। क्योंकि हिमाचल सरकार की पहले साल की असफलताओं को ही भाजपा ने तीनों चुनावी राज्यों मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में खूब प्रचलित किया था और आज हिमाचल भाजपा इन राज्यों में कांग्रेस की असफलता को इस प्रचार का प्रतिफल मान रही है। जयराम के इस दावे से अनचाहे ही यह संकेत और संदेश चला गया है कि हिमाचल सरकार में सब अच्छा नहीं चल रहा है। जयराम के इस कथन से प्रदेश कांग्रेस का हर कार्यकर्ता और प्रदेश का हर आदमी यह सोचने लग जायेगा कि क्या सही में कांग्रेस हाईकमान प्रदेश सरकार के कामकाज से प्रसन्न नहीं है।
अभी अभी कांग्रेस तीन राज्यों में चुनाव हारी और उस हार में हिमाचल सरकार कि परफॉरमैन्स को भी एक कारण माना गया है। ऐसे में आने वाले लोकसभा चुनावों में प्रदेश सरकार और संगठन का मनोबल गिराने के लिए राहुल- प्रियंका और खड़गे का न आना उस समय तो और भी गंभीर हो जाता है जब उनके आने का प्रचार किया जा रहा हो। भाजपा सरकार की गारंटीयों पर पहले से ही आक्रामक चल रही है। आरटीआई के माध्यम से प्रमाण जुटाकर जनता के सामने रख रही है। जबकि सरकार व्यवस्था परिवर्तन के नाम पर भाजपा काल से चले आ रहे प्रशासन को ही अभी तक यथास्थिति रख कर चली आ रही है। हिमाचल कांग्रेस का कोई भी बड़ा छोटा नेता अभी तक भाजपा की नीतियों पर कोई सवाल तक नहीं कर पाया है। राहुल ने ही जिन मुद्दों पर प्रधानमंत्री और भाजपा को घेरा है उनको भी प्रदेश कांग्रेस के नेता आगे नहीं बढ़ा पाये हैं।
इस वस्तुस्थिति में सरकार के पहले ही समारोह में केंद्रीय नेतृत्व का न आ पाना प्रदेश की कांग्रेस को ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा कर देता है जिसका कोई आसान जवाब दे पाना संभव नहीं होगा। जयराम द्वारा पैदा किये सन्देह का परिणाम दूरगामी होगा। इसका जवाब देने के लिये जो तथ्यात्मक आक्रामकता अपेक्षित है शायद उसके लिए सरकार, उसका तंत्र और सलाहकार कोई भी तैयार नहीं लगता। यह तय है कि जो बीज आज विपक्ष ने इस अनुपस्थिति पर बीज दिये हैं उनके फल भयंकर होंगे।
शिमला/शैल। सुक्खू सरकार का सत्ता में एक वर्ष पूरा हो गया है। इस अवसर पर सरकार धर्मशाला में एक राज्य स्तरीय समारोह का आयोजन करने जा रही है। इस आयोजन में यह स्वभाविक है कि सरकार इसमें अपनी एक वर्ष की उपलब्धियां और भविष्य की योजनाओं का प्रारूप जनता के सामने रखेगी। जनता सरकार से कितना संतुष्ट है इसका प्रमाण तो आने वाले लोकसभा चुनाव के परिणाम ही होंगे यह तय है। लेकिन राजनीतिक विश्लेषकों के लिये इस दौरान जो कुछ घटा है इसका व्यवहारिक आकलन करना आवश्यक हो जाता है। क्योंकि चुनावी फ्रंट पर सबसे बड़ी घटना सोलन नगर निगम के महापौर और उप महापौर पदों का चुनाव है। इस निगम में पार्षदों का बहुमत कांग्रेस का है यानि जनता ने चुनाव में कांग्रेस पर भरोसा किया था। लेकिन अब जनता के इस भरोसे को कांग्रेस के ही पार्षदों ने संतुष्ट और असंतुष्ट खेमे में बांटकर तोड़ दिया है। पार्षदों की यह खेमेबाजी बड़े अरसे से चर्चा में थी और तब खुलकर सामने आ गयी थी जब कांग्रेस के ही पार्षद भाजपा के साथ मिलकर अविश्वास प्रस्ताव लाये थे। उस समय यदि इसका गंभीर संज्ञान ले लिया जाता तो शायद अब हार का मुख न देखना पड़ता। सोलन जिला से दो मुख्य संसदीय सचिव हैं जबकि सोलन के विधायक मंत्री हैं। इस चुनाव में सहमति बनाने के लिये दो और मंत्रियों की जिम्मेदारी भी लगाई गयी थी लेकिन सबके प्रयास असफल रहे। पार्षद पार्टी के वरिष्ठ कार्यकर्ता माने जाते हैं यदि ऐसे लोगों ने पार्टी के फैसले पर नाराजगी जताते हुए इस तरह का आचरण किया है तो इसको गंभीरता से लिया जाना चाहिये। कहीं सरकार और संगठन में पूरे प्रदेश में ही ऐसी स्थिति तो नहीं बनती जा रही है। लोकसभा चुनावों से पूर्व सोलन की यह हार बहुत कुछ इंगित करती है क्योंकि हर कार्यकर्ता भी नेताओं पर नजर रख रहा है।
राजनीतिक फलक से हटकर यदि वित्तीय मुहाने की बात की जाये तो सरकार ने सत्ता संभालते ही प्रदेश के हालात श्रीलंका जैसे होने की चेतावनी दी थी। पूर्व सरकार पर वित्तीय कुप्रबंधन का आरोप लगाया था। इस आश्य का श्वेत पत्र भी जनता के सामने रखा। लेकिन यह श्वेत पत्र जानकारी से आगे नहीं बढ़ा। लेकिन कठिन वित्तीय स्थिति के परिदृश्य में सरकार को जो लगाम अपने खर्चों पर लगानी चाहिये थी वह नहीं लग सकी। मुख्य संसदीय सचिवों से लेकर जो दूसरी राजनीतिक नियुक्तियां की गयी हैं उनका औचित्य जनता के सामने भ्रामकता से अधिक कुछ नहीं बन पाया है। अब सचेतक और उप सचेतक के पदों को भरने की चर्चा शुरू हो गयी है जबकि यह मामला भी प्रदेश उच्च न्यायालय में लंबित है। इसका फैसला आये बिना इन पदों को भरना फिर विवाद का विषय बनेगा। इसी तरह प्रशासनिक ट्रिब्यूनल की बहाली भी आम आदमी में अनुचित मानी जा रही है। किसी भी कर्मचारी संगठन ने इसकी मांग नहीं की है। फिर प्रशासनिक ट्रिब्यूनल में सरकार के फैसलों को ही तो कर्मचारी चुनौती देते हैं। यदि सरकार फैसला ही गलत न करें और उनको अपने ही स्तर पर सुलझा ले तो फिर ट्रिब्यूनल में जाने की नौबत ही नहीं आयेगी। ऐसे में आज ट्रिब्यूनल की बहाली को कुछ सेवानिवृत लोगों को रोजगार देने से अधिक नहीं देखा जा रहा है।
इस समय प्रदेश में बेरोजगारी सबसे बड़ी समस्या बनती जा रही है। सरकार ने सौ दिन पूरे होने पर भी सरकारी क्षेत्र में तीस हजार और प्राइवेट क्षेत्र में 90,000 रोजगार देने का वायदा किया था। इसी सरकार की अपनी ही रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश में सरकारी विभागों में 70,000 पद खाली हैं। अकेले शिक्षा विभाग में ही 22,000 पद खाली हैं और सरकार अगले सत्र से अंग्रेजी माध्यम में सरकारी स्कूलों में शिक्षण देने और प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र में राजीव गांधी डे-बोर्डिंग स्कूल खोलने की घोषणा कर रही है। क्या विभाग में इतने पद खाली होते हुए ऐसे कार्यक्रमों को सफलतापूर्वक अन्जाम दिया जा सकेगा है इस पर सबकी निगाहें लगी हुई है। युवाओं को रोजगार देने के लिये ई-टैक्सी परमिट और सोलर पॉवर परियोजनाओं की शुरुआत एक अच्छा और सराहनीय फैसला माना जा रहा है। लेकिन लोस चुनावों से पहले यह कितनी व्यवहारिक शक्ल ले पाता है इस पर सबकी नज़रें लगी हुई हैं। एक वर्ष में जितने आरोप विभिन्न पत्रों के माध्यम से प्रशासन पर लगे हैं उनकी चर्चा आने वाले चुनावों में विपक्ष अवश्य उठायेगा इसका जवाब सरकार कैसे देगी इस पर भी सबकी निगाहें रहेंगी। सरकार और संगठन में तालमेल कैसे बैठ पाता है यह भी बड़ा मुद्दा रहेगा। क्योंकि तालमेल का अभाव पहले ही चर्चा में आ चुका है। ऐसे में एक वर्ष के आकलन में सरकार की कारगुजारी औसत से अधिक नहीं आंकी जा सकती। यह सही है कि आपदा ने सरकार के गणित को बुरी तरह प्रभावित किया है लेकिन इस आपदा से पहले ही सरकार ने अपना भार इतना बढ़ा लिया जिसकी आवश्यकता ही नहीं थी। इसी भार के कारण सरकार का क्षेत्रिय सन्तुलन गड़बड़ाया है।
शिमला/शैल। साल पूरा होने जा रहा है इस अवसर पर सरकार धर्मशाला में एक कार्यक्रम का आयोजन करने जा रही है। इसके लिये मुख्यमंत्री केंद्रीय नेताओं को आमंत्रित भी कर आये हैं क्योंकि एक बड़ा आयोजन होने जा रहा है। लेकिन सरकार के इस आयोजन की कोई औपचारिक जानकारी पार्टी की प्रदेश अध्यक्षा सांसद प्रतिभा सिंह को नहीं दी गयी है। प्रतिभा सिंह ने सरकार द्वारा कोई जानकारी न दिये जाने की बात सार्वजनिक रूप से स्वीकारी है। कांग्रेस संगठन की अपनी ही सरकार द्वारा इस तरह की नजरअन्दाजी प्रदेश के राजनीतिक हल्कों में गंभीर चर्चा का विषय बनी हुयी है। क्योंकि अभी-अभी तो कांग्रेस को तीन राज्यों में हार का झटका लगा है। ऐसे में प्रदेश सरकार और संगठन के इस टकराव को विश्लेषक अलग नजर से देख रहे हैं। सरकार संगठन की अनदेखी करती आ रही है इस आश्य की शिकायतें हाईकमान तक पहुंचती रही हैं। सरकार की कार्यशैली से क्षेत्रीय असंतुलन उस सीमा तक पहुंच गया है जहां उसे अब संतुलित कर पर पाना मुख्यमंत्री के लिये भी असंभव होता जा रहा है। क्योंकि यह असंतुलन मित्रों को स्थापित करने के कदमों का प्रतिफल है। जो सरकार कर्ज के आंकड़ों के दस्तावेजी प्रमाणों को भी झुठलाने का साहस करें उससे उसकी बजटीय समझ पर भी सवाल उठते हैं। आज एक वर्ष के अवसर पर यदि सरकार की उपलब्धियों की चर्चा की जाये तो सबसे बड़ी उपलब्धि लेने की ही आती है। जो गारंटीयां चुनावों में जनता को परोसी थी उनकी पूर्णता की ओर चरणबद्ध तरीके से पूरा करने के आश्वासन के अतिरिक्त और कुछ भी सरकार के पास कहने और देने को नहीं है। इस परिदृश्य में आने वाले लोकसभा चुनाव में शायद पार्टी को चारों सीटों के लिये प्रत्याशी तय करना भी आसान नहीं होगा। राजनीतिक पंडित जानते हैं कि विधानसभा चुनाव जीतने में स्व. वीरभद्र की विरासत का विशेष योगदान रहा है। इस विरासत की अनदेखी चुनावी राजनीति में महंगी पड़ेगी। क्योंकि सरकार का अपना कुछ भी उसके पक्ष में नहीं है। अभी सरकार के सिर पर मुख्य संसदीय सचिवों के मामले की तलवार लटकी हुई है। यदि कहीं इन लोगों को अदालत ने विधायकी से भी आयोग्य घोषित कर दिया तो सरकार का बना रह पाना कठिन हो जायेगा। हालात नये चुनावों तक पहुंच सकते हैं। क्योंकि भाजपा की राजनीतिक आवश्यकता होगी कि वह इस सरकार को अपने ही भार से गिरने के कगार पर लाकर खड़ा कर दे। जब कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर कमजोर हो रही हो तो ऐसे समय में एक मुख्यमंत्री द्वारा अपने ही प्रदेश अध्यक्ष और संगठन की अनदेखी के प्रयासों को विश्लेषक राजनेताओं की नीयत से जोड़कर देखने को विवश हो जायेंगे। क्योंकि इस तरह के प्रयास किसी भी गणित से पार्टी हित नहीं माने जा सकते। यदि सरकार और संगठन का यह टकराव सरकार की बलि लेने के कगार पर पहुंच जाता है तो इसकी सीधी जिम्मेदार कांग्रेस हाई कमान की होगी।
शिमला/शैल। तीनों हिंदी भाषा राज्यों में कांग्रेस की हार और भाजपा की जीत ने सारे राजनीतिक समीकरणों को पलट कर रख दिया है। इसका हिमाचल में इस कदर प्रभाव पड़ा है की पूर्व मुख्यमंत्री और नेता प्रतिपक्ष ठाकुर जय राम ने सरकार पर ऐसा हमला बोला है जिसके परिणाम दुरगामी और बहुत व्यापक होंगे। जयराम ठाकुर ने यह बड़ा आरोप लगाया है कि छत्तीसगढ़ में पिछले दिनों जितने घोटाले सामने आये जिनमें कोयला, शराब, गोबर और महादेव ऐप विशेष चर्चित रहे इन घोटालों का पैसा हिमाचल के चुनावों में चुनावी फण्ड के रूप में इस्तेमाल हुआ और इसकी जांच होनी चाहिए। हिमाचल में छत्तीसगढ़ मॉडल लागू किये जाने के सुक्खू सरकार के दावों और प्रयासों पर हमला बोलते हुये सवाल किया कि क्या यह सरकार इन घोटालों पर अमल करने जा रही है। उन्होंने सरकार से छत्तीसगढ़ मॉडल का खुलासा प्रदेश की जनता के सामने रखने की मांग की है।
राजस्थान की बात करते हुये जय राम ने खुलासा किया कि वहां एक लाल डायरी का जिक्र है जिसमें वहां की सरकार के एक मंत्री ने सरकार के सभी को घोटालों को अपनी एक डायरी में लिख रखा था। यह बात बाहर आते ही उस मंत्री को सरकार से निकाल दिया गया। राजस्थान में कांग्रेस के शासन में 19 पेपर लीक के मामले होने का जय राम ने जिक्र उठाया है। नेता प्रतिपक्ष ने यह भी खुलासा किया कि सुक्खू सरकार द्वारा दस गारंटीयों को लेकर बोले जा रहे हैं झूठ को भी उन्होंने तीन राज्यों में बेनकाब किया और उसका परिणाम इन नतीजों के रूप में सामने आया है। जय राम ने सरकार द्वारा एक वर्ष पूरा होने के उपलक्ष में मनाये जा रहे जश्न के औचित्य पर भी गंभीर सवाल उठाये हैं।
जय राम द्वारा लगाये गये आरोप भले ही सीधे तौर पर प्रदेश सरकार के खिलाफ नहीं है। लेकिन इन आरोपों का जवाब देना सुक्खू सरकार की जिम्मेदारी हो जाती है। अब कांग्रेस के पास हिंदी भाषा राज्यों में केवल हिमाचल ही रह जाता है। इसलिए ऐसे उठने वाले सवालों का जवाब देने की बड़ी जिम्मेदारी यहां के नेतृत्व पर आ जाती है। क्योंकि हिमाचल से केंद्र में एक महत्वपूर्ण मंत्री अनुराग ठाकुर आते हैं। यही नहीं भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा भी हिमाचल से ही ताल्लुक रखते हैं। परंतु पिछले एक वर्ष के कार्यकाल पर नजर डालें तो ऐसा कुछ भी रिकॉर्ड पर नहीं आता है कि हिमाचल सरकार या संगठन के किसी बड़े नाम ने केंद्र पर कभी कोई सवाल उठाया हो। बल्कि ऐसा लगता रहा है कि केंद्र सरकार पर कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व द्वारा उठाये जा रहे सवालों से प्रदेश सरकार का कोई वास्ता ही न हो।
ऐसे में आज जो आरोप नेता प्रतिपक्ष जय राम ठाकुर ने उठाये हैं वह छत्तीसगढ़ और राजस्थान के साथ ही कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व पर भी आ जाते हैं। इन सवालों पर प्रदेश सरकार का आचरण कैसा रहता है यह देखना रोचक होगा।
शिमला/शैल। सुक्खू सरकार ने पिछले दिनों कांगड़ा से ताल्लुक रखने वाले राजा अवस्थी को दिल्ली में सोशल मीडिया कोऑर्डिनेटर नियुक्त किया है। यह नियुक्ति आउटसोर्स के माध्यम से की गयी है। आउटसोर्स की प्रक्रिया को प्रदेश की इलेक्ट्रॉनिक कॉरपोरेशन ने अंजाम दिया है। निगम ने राजा अवस्थी का नाम सूचना एवं जनसंपर्क विभाग को उसकी सहमति के लिये भेजा। विभाग ने इसे स्वीकार करके राजा अवस्थी को दिल्ली में यह नियुक्ति दे दी। इलेक्ट्रॉनिक कॉरपोरेशन को राजा अवस्थी का नाम शिमला की एक आउटसोर्स कंपनी द्वारा प्रेषित किया गया है। इस नियुक्ति से यह इंगित होता है कि सूचना एवं जनसंपर्क विभाग के कुछ कार्यांे को सरकार आउटसोर्स कंपनियों को सौंपना चाहती है। जिसमें दिल्ली में सोशल मीडिया के साथ कोऑर्डिनेट करना भी शामिल है। वैसे दिल्ली में विभाग का क्षेत्रीय कार्यालय भी कार्यरत है। लेकिन सरकार ने विभाग को सक्षम न मानकर दिल्ली में यह काम एक आउटसोर्स कंपनी को दिया है। सुक्खू सरकार ने सत्ता में आने के बाद आउटसोर्स के माध्यम से कोविड काल में स्वास्थ्य विभाग में रखे गये 1800 से अधिक कर्मचारियों को बाहर निकाला भी है। इस निष्कासन से उठे विवाद के बाद आउटसोर्स योजना पर कुछ विचार विमर्श भी हुआ है। राजा अवस्थी की नियुक्ति से आउटसोर्स की प्रासंगिकता तो प्रमाणित हो जाती है और यही सवाल खड़ा होता है कि इसके माध्यम से अपने ही लोगों को भर्ती करने का साधन बनाया जाये। आउटसोर्स के माध्यम से रखें कर्मियों को भी सरकार में भर्ती करने का प्रावधान रखा जाये। इस समय जो 35000 के करीब आउटसोर्स के माध्यम से रखे गये कर्मचारी है उनके भविष्य को लेकर भी सरकार को सोचना चाहिये। इस नियुक्ति की चयन प्रक्रिया पर उठ रहे सवालों के साथ सरकार की मीडिया पॉलिसी पर उसकी नीयत और नीति दोनों ही अलग से प्रशनित हो गये हैं। दिल्ली में सोशल मीडिया के लिये कोआर्डिनेटर नियुक्त किया गया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि सरकार सोशल मीडिया मंचों की भूमिका और प्रासंगिकता दोनों को स्वीकार करती है। दिल्ली स्थित सोशल मीडिया मंचों तक सरकार का प्रश्न रखना और उसे प्रचारित प्रसारित करवाने की जिम्मेदारी इस सोशल मीडिया कोऑर्डिनेटर की होगी। इस सरकार का पक्ष दिल्ली स्थित हाईकमान तक तो पहुंच जायेगा। लेकिन क्या वही पक्ष प्रदेश की जनता के सामने उसी क्लेवर में आ पायेगा और जनता उस पर विश्वास कर पायेगी? क्योंकि प्रदेश की जनता के सामने तो सरकार का व्यवहारिक पक्ष यथास्थिति मौजूद रहेगा। फिर शिमला स्थित मीडिया के कुछ वर्ग को जिस तरह सरकार ने उत्पीड़ित करना शुरू किया हुआ है उसके परिदृश्य में सरकार कुछ समय के लिये हाईकमान को तो प्रभावित कर लेगी परन्तु प्रदेश की जनता के सामने उसकी स्थिति और हास्यस्पद हो जायेगी। दिल्ली में सोशल मीडिया कोऑर्डिनेटर बिठाने से सरकार स्वतः ही एक अन्तर विरोध का शिकार हो गयी है।