Sunday, 21 December 2025
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क्या भ्रष्टाचार को संरक्षण देना सरकार की नीति है?

  • इण्डस इंटरनेशनल विश्वविद्यालय प्रकरण से उठी चर्चा
  • अक्तूबर 22 में विनियामक आयोग विश्वविद्यालय बन्द करने की सिफारिश भेजता है
  • लेकिन जनवरी में नये कोर्स शुरू करने की भी अनुमति दे देता है क्यों?
शिमला/शैल। हिमाचल को शैक्षणिक हब बनाने के नाम पर जब प्रदेश में प्राइवेट सेक्टर में निजी विश्वविद्यालय और अन्य उच्च शैक्षणिक संस्थान बड़े पैमाने पर खुले थे तब यह आरोप लगा था कि शिक्षा का बाजारीकरण किया जा रहा है। यह आरोप लगा था कि इन संस्थानों में छात्रों और उनके अभिभावकों दोनों का ही यहां शोषण होगा। इन आरोपों का गंभीर संज्ञान लेते हुये सरकार ने 2010 में ही एक निजी शिक्षण संस्थान विनियामक आयोग की स्थापना कर दी थी। इन शिक्षण संस्थानों में यूजीसी के मानकों के अनुसार अध्यापन हो रहा है। इन संस्थानों में नियुक्त किया जा रहा टीचिंग और नॉन टीचिंग स्टॉफ यूजीसी द्वारा तय शैक्षणिक योग्यता के अनुसार रखा जा रहा है। और उसे यूजीसी के मानकों के अनुसार वेतन भत्ते दिए जा रहे हैं यह सुनिश्चित करना इस आयोग के क्षेत्राधिकार में रखा गया था। जो संस्थान तय मानकों पर जितना उतरेगा उसे उसी के अनुरूप पाठय कोर्स आवंटित किये जाएंगे। यह सब सुनिश्चित करने के लिए आयोग द्वारा समय-समय पर इन संस्थानों का निरीक्षण किया जाना और उस निरीक्षण की रिपोर्ट सरकार को सौंपना आयोग के कार्य क्षेत्र का अनिवार्य हिस्सा है। यही नहीं इन शैक्षणिक संस्थाओं की कार्यशैली को पारदर्शी बनाने के लिए हर विश्वविद्यालय की ई.सी. में विधायकों का भी मनोनयन विधानसभा द्वारा किया जाता है। सभी विश्वविद्यालयों को इतनी इतनी जमीन खरीद की अनुमतियां हासिल हैं कि शायद ही कोई विश्वविद्यालय अपनी आधी जमीन का भी अब तक उपयोग कर पाया हो। जबकि दो वर्ष के भीतर ऐसी हासिल जमीन का उपयोग करना होता है और इसकी रिपोर्ट भी आयोग को देनी होती है। लेकिन सरकार द्वारा नियामक आयोग स्थापित किए जाने के बाद भी मानव भारतीय विश्वविद्यालय प्रकरण इस प्रदेश में घट गया। आज ऊना स्थित इण्डस इंटरनेशनल विश्वविद्यालय भी कुछ कुछ इस कगार पर पहुंचता नजर आ रहा है। इसमें विश्वविद्यालय में ज्यादा सवाल तो विनियामक आयोग की कार्य प्रणाली और सरकार की उदासीनता पर उठ रहे हैं। स्वभाविक है कि किसी भी विश्वविद्यालय में बच्चे वहां पढ़ा रहे अध्यापकों की योग्यता से प्रभावित होकर ही आते हैं। जिस संस्थान में छात्रों की संख्या हर वर्ष गिरती चली जाये वह संस्थान ज्यादा देर कार्यशील नहीं रह सकता यह तय है। इस विश्वविद्यालय में 2019-20 के शैक्षणिक सत्र में छात्रों की संख्या 135 थी जो 2020-21 में घटकर 55 रह गई और 2021-22 में शून्य पहुंच गई। 2022-23 में स्नातक और स्नातकोत्तर दोनों में 166 है। छात्रों की इस घटती संख्या का विनियामक आयोग की रिपोर्ट के अनुसार अयोग्य फैक्लटी और यूजीसी के मानकों के अनुसार स्टॉफ को वेतन न दिया जाना। विनियामक आयोग इन कमियों पर इस विश्वविद्यालय को जुर्माना भी लगता है और फिर कोविड के नाम पर आधा जुर्माना माफ भी कर देता है। जब विश्वविद्यालय में कोई सुधार नहीं होता है तो यह आयोग अक्तूबर 22 में इसे बन्द करने की प्रक्रिया शुरू करने के लिए सरकार को पत्र भेज देता है। लेकिन अक्तूबर के बाद 2023 में इसी विश्वविद्यालय को बी.ए.एम.एस. और एल.एल.बी. जैसे नये कोर्स शुरू करने की अनुमति देता है। उधर सरकार आयोग के अक्तूबर 22 के पत्र पर आज तक कोई कारवाई नहीं करती है। जब रिकॉर्ड पर यह स्थितियां आ चुकी हो और फिर भी कुछ कारवाई न हो पाये तो इसे भ्रष्टाचार को संरक्षण देना न कहा जाये तो और क्या कहा जाये?

कौन झूठ बोल रहा है सुक्खु या जयराम शान्ता ने पूछा सवाल

शिमला/शैल। हिमाचल प्रदेश एक कठिन वित्तीय स्थिति से गुजर रहा है यह चेतावनी मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खु ने प्रदेश की सत्ता संभालते ही जनता को दे दी थी। यह दूसरी बात है की जयराम सरकार के समय जब वह विधायक थे तब उन्हें इस स्थिति का अन्दाजा नहीं हो पाया था। यहां तक कि जब कांग्रेस ने चुनाव जीतने के लिये दस गारंटियां प्रदेश की जनता को दी थी तब भी ऐसी वित्तीय स्थिति का कोई इंगित तक नहीं हो पाया था। इस कठिन वित्तीय स्थिति के नाम पर ही प्रदेश में सेवाओं और वस्तुओं के दाम बढ़ाये गये। संवैधानिक प्रावधान न होते हुये भी प्रदेश में छः मुख्य संसदीय सचिवों की नियुक्तियां की गयी और उन्हें महंगी गाड़ियों से नवाजा गया। इसी वित्तीय स्थिति को नियंत्रण में लाने के लिये हजारों आउटसोर्स कर्मियों को सेवा से निकला गया। ऐसे दर्जनों फैसले हैं जो कठिन वित्तीय स्थिति के नाम पर जनता पर लादे गये हैं। कई गैर विधायकों को ताजपोशीयों से नवाजा गया है। कठिन वित्तीय स्थिति के परिदृश्य में ही जनता गारंटीयों की मांग नहीं कर रही है।

ऐसी कठिन वित्तीय स्थिति से गुजर रही सरकार पर जब प्राकृतिक आपदा ने भी अपना योगदान दिया तब सही में प्रभावितों को पता चला कि आपदा का दंश क्या होता है और ऐसे समय में जब सरकार का खजाना खाली हो तो तब पता चलता है कि इसका व्यवहारिक प्रभाव क्या पड़ रहा है। सुक्खु सरकार ने दिसम्बर में सत्ता संभाली थी और आपदा का प्रकोप जुलाई से शुरू हुआ। लेकिन सरकार ने डीजल पर वैट मंत्रिमंडल विस्तार से पहले ही बढ़ा दिया था। इस आपदा में 500 से अधिक लोग मारे गये हैं या गुम हुये हैं। सरकारी अनुमानों के अनुसार 12000 करोड़ का नुकसान इस आपदा में हुआ है। स्वभाविक है कि इतने बड़े नुकसान कि राज्य सरकार अपने ही संसाधनों से भरपाई नहीं कर सकती है। उसके लिये केंद्र सरकार की सहायता चाहिये थी। आपदा के इस आकार पर राज्य सरकार ने इसे राष्ट्रीय आपदा घोषित करने की मांग की थी। जोशीमठ और भुज की त्रासदी की तर्ज पर सहायता की मांग की थी। इस आपदा की में केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी प्रदेश के दौरे पर आये थे और प्रदेश को 300 करोड़ की सहायता की घोषणा की थी। केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर तो प्रदेश से ताल्लुक रखनेे के नाते केंद्र सरकार की पूरी सहायता प्रदेश को मिलने की बात कह चुके हैं। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा ने तो शिमला में सरकार से बैठक करके कहा था की प्रदेश सरकार जो भी मांगेगी उसे वह सब मिलेगा। नेता प्रतिपक्ष पूर्व मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर तो वाकायदा आंकड़े गिनाकार यह बता रहे थे कि सुक्खु सरकार ने जो 4500 करोड़ का राहत पैकेज घोषित किया है वह केंद्रीय सहायता पर ही आधारित है।
लेकिन सुक्खु सरकार लगातार यह कह रही है कि केंद्र सरकार से कोई सहायता प्रदेश को नहीं मिल पायी है। 4500 करोड़ का राहत पैकेज सरकार में अपने ही संसाधनों से दिया है। इसके लिये विधायकों की क्षेत्रीय विकास निधि में कटौती की गयी है। विभागों के बजट में कटौती की है। 1000 करोड़ मनरेगा से लिया गया है। इस समय केंद्रीय सहायता का सच आपदा से बड़ा सवाल बनता जा रहा है। क्योंकि केंद्र सरकार के प्रतिनिधि और हिमाचल से ताल्लुक रखने वाले नड्डा, अनुराग ने एक बार भी जयराम द्वारा परोसे जा रहे आंकड़ों पर प्रश्न चिन्ह नहीं लगाया है। जयराम प्रदेश में जहां भी जा रहे हैं वह जनता को केंद्रीय सहायता के बारे में बराबर जानकारी दे रहे हैं। दूसरी और सुखविंदर सिंह सुक्खु लगातार केंद्रीय सहायता मिलने से इनकार कर रहे हैं। भाजपा प्रदेश अध्यक्ष इस सरकार द्वारा दस माह में ही दस हजार करोड़ का कर्ज लेने की बात कह रहे हैं और कर्ज लेने में इस आंकड़े का कोई खंडन नहीं कर पा रहा है। ऐसे में यह सवाल अलग से खड़ा होता जा रहा है की यह कर्ज कहां खर्च किया जा रहा है? मुख्यमंत्री हर सहायता की राशि दो गुनी करने की घोषणा करते आ रहे हैं ऐसे में अब वह समय आता जा रहा है जब मुख्यमंत्री और उनकी सरकार की घोषणाओं का व्यवहारिक सच आने वाले दिनों में जनता के सामने आयेगा ही।
इस समय केंद्रीय सहायता पर जिस तरह का वाकयुद्ध सुक्खु और जयराम में चल निकला है उस पर स्वतः ही यह सवाल खड़ा हो गया है की इन दोनों शीर्ष नेताओं में से कोई एक तो झूठ बोल ही रहा है। दो बार के मुख्यमंत्री और पूर्व केंद्रीय मंत्री रहे शान्ता कुमार ने ऐसे समय में यह सवाल उठाया है कि प्रदेश में इतनी बड़ी त्रासदी पर भी मुख्यमंत्री और पूर्व मुख्यमंत्री जब जनता में इस तरह की ब्यानबाजी पर आ गये हैं तो प्रदेश का इससे बड़ा दुर्भाग्य और कुछ नहीं हो सकता है।

क्या सुक्खु सरकार पत्रकारों का गोदीकरण करना चाहती है

  • क्या संशोधनों को बैक डेट से लागू किया जा सकता है?
  • क्या विज्ञापन बन्द करना समाचार पत्र को बन्द करवाने का प्रयास है?

शिमला/शैल। हिमाचल सरकार ने पत्रकारों को मिले सरकारी आवासों का किराया पांच गुणा से भी अधिक बढ़ा दिया है। किराया बढ़ाने के साथ ही पत्रकारों से उनका आयु प्रमाण पत्र और शिमला में उनका अपना कोई मकान है या नहीं इसकी भी जानकारी मांगी है। इसी के साथ संबंधित समाचार पत्र की प्रदेश में प्रसार संख्या और शैक्षणिक योग्यता का भी संशोधित नियमों में उल्लेख किया है। मैंने पिछले अंक में सम्पादकीय लिखा था जिस पर कई तरह की प्रतिक्रियाएं और सवाल पाठकों की ओर से आये हैं। प्रतिक्रियाएं और सवाल जानने की नीयत से ही यह लेख लिखा गया था। इसलिये उनके प्रति उत्तर के तौर पर यह लेख लिखना आवश्यक समझ रहा हूं। मैं 1974 से शैल का सम्पादन और प्रकाश्न लगातार करता आ रहा हूं। एक साप्ताहिक पत्र के लिये आज की भीड़ में अपना स्थान बनाना कितना चुनौती पूर्ण होता है यह मैं जानता हूं। क्योंकि समाचार पत्रों के जगत में एक साप्ताहिक अपने बेबाक विश्लेषण से ही अपना स्थान बना सकता है और बेबाक विश्लेषण सत्ता में बैठे किसी भी राजनेता और बड़े नौकरशाह को अच्छा नहीं लगता है। इसी कारण से सरकारों से टकराव एक सामान्य नीयती बन जाती है क्योंकि अपना भ्रष्टाचार उजागर होता किसी को भी अच्छा नहीं लगता। इसलिये हर सरकार ऐसे समाचार पत्रों को कुचलने दबाने के लिये सब कुछ करती है। इस कड़ी में सबसे पहला हथियार विज्ञापन बन्द करना और यदि आवास आदि की सुविधा भी मिली हुई है तो उसे भी किसी न किसी बहाने छीनना। क्योंकि हिमाचल में कोई भी राजनेता अपने ही दम पर सत्ता का विरोध आज तक नहीं कर पाया है। इसमें अग्रणी भूमिका अखबारों ने ही निभाई है। हिमाचल में तो भ्रष्टाचार कतई बर्दाशत न करने की घोषणा करके भ्रष्टाचार को संरक्षण देने की भूमिका निभाने में आ गयी है सरकारें। वर्तमान सरकार भी व्यवस्था परिवर्तन के नाम पर भ्रष्टाचार को संरक्षण देने का किरदार ही निभा रही है। इसलिये पत्रकार साथियों से यही आग्रह है कि आप अपनी भूमिका स्वयं तय करें। अब सवाल है नियमों की अनुपालना का। 2023 में ही कितने मान्यता प्राप्त पत्रकार है इन्हें किन नियमों के तहत मान्यता दी गई थी? उन नियमों में संशोधन करने की आवश्यकता कैसे महसूस की गयी? क्या उसके लिये सरकार के किसी अधिकारी ने पत्रकारों से सामूहिक रूप से कोई विचार विमर्श किया? ऐसे विचार विमर्श में समाचार पत्रों के प्रकाशकां से भी विचार विमर्श किया गया? पत्रकारों की योग्यता तय होनी चाहिए। लेकिन क्या यह काम सरकार करेगी या प्रेस परिषद। शायद योग्यता तय करना पत्रकारिता का कोर्स करवाने वाले संस्थाओं और विश्वविद्यालय का है। सरकार अपने यहां सूचना एवं जनसंपर्क अधिकारी नियुक्त करने के लिए तो योग्यता तय कर सकती है लेकिन किसी समाचार पत्र को ऐसा करने के लिए निर्देशित नहीं कर सकती। फिर जिन नियमों में आज संशोधन किया जा रहा है उन्हें पिछली तारीख से लागू नहीं किया जा सकता यह एक सामान्य नियम है। ऐसे में जब सरकार पूर्व से इन संशोधनों को लागू करने का प्रयास करेगी तो तय है कि कुछ इन लोगों को नियतम दंडित करने की मंशा है। सरकार पत्रकारों को उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाने के लिये बाध्य कर रही है। अपने यहां व्यापक भ्रष्टाचार और भाई भतीजावाद पर नियंत्रण पाने की जगह पत्रकारों पर नियंत्रण करने का प्रयास कर रही है। पत्रकार को सरकारी कर्मचारी बनाने का प्रयास करना गलत होगा। आज पड़ोसी राज्य पत्रकारों को सुविधाएं देते हुये पैन्शन तक दे रहे हैं। लेकिन हिमाचल सरकार उनके विज्ञापन बन्द करने और आवास छीनने का प्रयास कर रही है। यदि सरकार की नीयत साफ होती तो जैसे पहले पत्रकारों को आवासीय कॉलोनी दी गयी है उसी तर्ज पर आज दो-दो बिस्वा जमीन देकर उनको घर बनाने की सुविधा देती जैसे अन्यों के लिए अभी किया है। जिन पत्रकारों के पास अपने घर है उन्हें सरकारी आवास सरकार ने दिये ही क्यों? जो लोग आज सरकार में हैं वह शायद बीस वर्ष पहले भी इसी विधानसभा के सदस्य थे तब उनकी सोच क्या थी? सरकार को समझना होगा कि विज्ञापन बन्द कर देने और सुविधाएं छीनने से आप किसी का लिखना बन्द नहीं कर सकते। वैसे भी यह कहावत है कि शीशे के घरों में रहने वाले दूसरों पर पत्थर नहीं फैंकते।

पेपर लीक मामले की जांच में लंबा समय लगने की संभावना

  • अभी मामला एसएफएसएल के पास लंबित है
  • एसएफएसएल में रिपोर्टिंग का पद रहा है खाली
  • 10000 अभ्यार्थियों का भविष्य जांच पूरी होने तक लटका

शिमला/शैल। सुक्खु सरकार ने अधीनस्थ सेवाचयन बोर्ड को पेपर लीक होने की शिकायते आने के बाद बोर्ड के संबंद्ध अधिकारियों/कर्मचारियों के खिलाफ मामला दर्ज करने के बाद विस्तृत जांच के लिये एक एस.आई.टी. का गठन कर दिया था। एस.आई.टी की जांच जैसे ही आगे बढ़े तो कई और परीक्षाओं में भी पेपर लीक होने के मामले सामने आये। करीब एक दर्जन मामले इस बोर्ड के खिलाफ दर्ज हो चुके हैं। इतने सारे मामले बन जाने के बाद सरकार ने इस बोर्ड को ही भंग कर दिया और इसका काम भी लोकसेवा आयोग को दे दिया। यह मामले बनने के बाद हजारों अभ्यार्थियों का भविष्य लटक गया। क्योंकि जिन परीक्षाओं में पेपर लीक होने के आरोप लगे थे उनके परिणाम घोषित होने से लटक गये। इस पर अभ्यार्थियों में रोष पनपना शुरू हो गया। अभ्यार्थी आन्दोलन करने के लिये विवश हो गये। मुख्यमंत्री से मिलने पर भी आश्वासनों से अधिक कुछ नहीं मिल पाया। विधानसभा तक भी यह प्रकरण पहुंच गया। सरकार ने जल्द ही नई व्यवस्था बनाने का आश्वासन दिया। इस आश्वासन के बाद अब एक नये राज्य चयन आयोग का गठन कर दिया गया है। इसकी अधिसूचना के साथ ही अधिकारियों की भी तैनाती कर दी गयी है। लेकिन इस अधिसूचना के जारी होने से भी उन अभ्यार्थियों का मसला तो हल नहीं हो सकता जिनके परिणाम मामले बनने से लटके हुये हैं। क्योंकि जिन परीक्षाओं को लेकर मामले बन चुके हैं उनके परिणाम तो जांच पूरी होने के बाद ही घोषित हो पायेंगे। जांच पूरी होने के बाद चालान अदालत में जायेंगे और फिर अदालत का फैसला आने के बाद अगली प्रक्रिया शुरू होगी। इस तरह लम्बे समय तक इन अभ्यार्थियों को इन्तजार करना पड़ेगा। क्योंकि अभी तो मामला फॉरेंसिक परीक्षण के लिए एसएफएसएल जुन्गा के डॉक्यूमेंट फोटोग्राफी विभाग में लंबित पड़ा है। क्योंकि वहां पर जांच के लिये कोई रिपोर्टिंग अधिकारी ही तैनात नहीं है। जबकि सरकार यह जांच तेजी से चल रही होने का दावा कर रही है। विजिलैन्स जांच में जिन परीक्षाओं के परिणाम फंसे हुये हैं उनमें करीब 10000 अभ्यार्थी और उनके परिवार प्रभावित हो रहे हैं। 3 अक्तूबर 2023 को आरटीआई के माध्यम से मिली जानकारी के जब तक रिपोर्टिंग अधिकारी की तनाती नहीं हो जाती तब तक यह मामला आगे नहीं बढ़ेगा। अभी तक रिपोर्टिंग अधिकारी की तैनाती न किये जाने से यह आशंका बढ़ती जा रही है की क्या यह सरकार जानबूझकर इस मामले को लम्बा बढ़ाना चाहती है। आरटीआई की इस जानकारी से अभ्यार्थियों और उनके अभिभावकों में रोष बढ़ने की संभावना है।

शिमला जल प्रबंधन निगम की कार्यप्रणाली पर उठे सवाल

  • पूर्व उपमहापौर टिकेन्द्र पंवर ने मुख्य सचिव को लिखा पत्र

शिमला/शैल। शिमला के लिये 24 घंटे जलापूर्ति सुनिश्चित करने के लिए जब नगर निगम शिमला के महापौर और उपमहापौर दोनों पदों पर माकपा का कब्जा था तब विश्व बैंक की सहायता से एक परियोजना पर विचार किया गया था। उस समय के प्रयासों के चलते 2022 में इस परियोजना की डीपीआर 2022 में ही फाइनल हुई। डीपीआर में परियोजना की लागत 490 करोड़ आंकी गयी थी। इस आकलन के बाद अक्तूबर 2022 में इसके लिए निवेदाएं आमंत्रित की गयी और 790 करोड़ की निविदा उसी कम्पनी की आ गयी जिसने पहले निविदा दी थी। 790 करोड़ की निविदा आने पर सवाल उठे। क्योंकि सी पी एच ई ई ओ ने 2022 में ही 490 करोड़ की डीपीआर अनुमोदित की थी। ऐसे में अक्तूबर 2022 में यह रेट बढ़ाकर 790 करोड़ हो जाये तो किसी का भी माथा आवश्यक ठनकेगा ही। इस पर एसजेपीएनएल ने उस समय यह निविदा रद्द कर दी। इसके बाद मार्च 2023 में पुनः निविदायें आमंत्रित की गयी। इस बार भी उन्हीं लोगों ने निविदायें डाली जिन्होंने पहले डाली थी। लेकिन इस बार यह निविदा 920 करोड़ की आयी है।
ऐसे में यह सवाल उठाना स्वभाविक है कि जो डीपीआर 490 करोड़ की आंकलित हुई हो उसकी निविदा एक वर्ष से भी कम समय में ही मूल के दो गुना से भी कैसे बढ़ जाये? क्या डीपीआर बनाने वाले लोग सक्षम नहीं थे? क्या विश्व बैंक के अधिकारियों ने भी इस पर आंख बंद कर ली थी? यह परियोजना कर्ज के पैसे से शक्ल लेगी और इस कर्ज की अदायगी प्रदेश की जनता करेगी। ऐसे में निविदा दरों में इतनी भिन्नता आना कई सवाल खड़े करता है। क्योंकि इसके लिये निविदायें डालने वाले पिछले दो-तीन बार से वही दो लोग हैं। क्या ऐसे में यह आशंका नहीं उभरती की कहीं यह दोनों लोग आपस में मिलकर ही यह खेल तो नहीं खेल रहे हैं। क्या एक वर्ष से कम समय में इसकी दरों में 131% की बढ़ौतरी कैसे हो गयी? जब इस पर 2022 से ही सवाल उठाये जा रहे हैं और पत्र लिखे जा रहे हैं तो उनका जवाब क्यों नहीं दिया जा रहा है। मुख्य सचिव को भी इस बारे में पत्र लिखा गया है लेकिन उस पर कोई कारवाई होना अब तक सामने नहीं आया है।
इसी के साथ यह सवाल भी उठ रहा है की शिमला के लिए 500 करोड़ की स्मार्ट सिटी परियोजना परिकार्यन्वित की गयी थी जो उसके लिये चिन्हित की गयी। 210 परियोजनाओं में शिमला के लिये जलापूर्ति की कोई योजना क्यों नहीं रखी गयी? क्या उसमें शिमला को लोहे का जंगल बनाने से अधिक कुछ नहीं सोचा गया। अब तक स्मार्ट सिटी के नाम पर 868.26 करोड रुपए खर्च किये जा चुके हैं। इसमें कुछ एक कार्यों की व्यवहारिकता पर सवाल भी उठने शुरू हो गये हैं। संजौली से आईजीएमसी तक 23.33 करोड से बने कवर्ड फुटपाथ का औचित्य सवालों में है। इसी तरह 13.50 करोड़ की लागत से बन रही लिफ्ट पर यह सवाल उठ रहा है कि क्या यह लिफ्ट इसमें काम करने वाले कर्मचारियों का वेतन निकाल पायेगी। इसी तरह छोटा शिमला से आयुर्वेद अस्पताल तक 12.78 करोड़ की लागत से बन रहे रास्ते के औचित्य पर सवाल उठ रहे हैं। जल परियोजनाओं पर उठते सवालों से स्मार्ट सिटी योजनाओं के कार्य भी चर्चा में आ गये हैं। देखना रोचक होगा कि सरकार इस पर जांच करवाती है या नहीं।

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