Friday, 19 September 2025
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मुख्य संसदीय सचिवों के प्रकरण ने बढ़ाया नैतिक सवालों का दायरा

  • कैबिनेट रैंक की नियुक्तियों पर भी उठने लगे सवाल
  • मुख्य सचेतक और सचेतकों की संभावित नियुक्तियों पर उठे सवाल

शिमला/शैल। मुख्य संसदीय सचिवों के मामले में प्रदेश उच्च न्यायालय ने उनको मंत्रियों के समकक्ष मिलने वाली सुविधाओं और मंत्रियों की तर्ज पर काम करने की सुविधाओं पर रोक लगा दी है। यह आदेश आने पर ऐसा लगा था कि शायद अब इनसे कार्यालय और सरकारी कार्यालय की सुविधायें छिन जायेगी। परन्तु ऐसा कुछ हुआ नहीं है। क्योंकि वर्तमान मुख्य संसदीय सचिवों की नियुक्तियां इस आश्य के 2006 में बने एक्ट के तहत हुई है। उस एक्ट में इन सारी सुविधाओं का प्रावधान है और वह एक्ट अभी तक अदालत द्वारा निरस्त नहीं किया गया है। वैसे इस एक्ट को भी उच्च न्यायालय में चुनौती दी गयी है। लेकिन जब तक एक्ट बना रहेगा तब तक यह लोग अपने पदों पर बने रहेंगे। वैसे यह एक्ट संविधान में मंत्रियों की संख्या को सीमित करने के आश्य के हुये संशोधन के मुलतः उल्लंघना है। इसलिये माना जा रहा है की अन्तिम फैसले में सरकार का 2006 का एक्ट निरस्त होगा ही। लेकिन इस परिदृश्य में यह राजनीतिक सवाल खड़ा होता है कि भाजपा ने जब मुख्य संसदीय सचिवों को मंत्रियों के समकक्ष मिलने वाली सुविधाओं पर रोक लगाने की मांग की है तब इस मांग से पहले इस एक्ट को निरस्त करने की मांग क्यों नहीं की? क्या इन भाजपा विधायकों को 2006 के एक्ट के प्रभाव की जानकारी नहीं थी या इसके पीछे निहित कुछ और है। इस समय जो फैसला आया है इसमें मुख्य संसदीय सचिवों का कोई अहित नहीं हुआ है। परन्तु इस फैसले पर कांग्रेस और भाजपा दोनों दलों की कोई प्रतिक्रियाएं नहीं आयी हैं इससे भी कुछ अलग ही संदेश जा रहा है। स्मरणीय है कि संविधान में संशोधन करके मंत्रियों की सीमा तय करने के पीछे सरकारों की फिजूल़ खर्ची रोकना सबसे बड़ा उद्देश्य था और इसीलिये मुख्य संसदीय सचिवों और संसदीय सचिवों की नियुक्तियों को रद्द करते हुये असम के संद्धर्भ में यह फैसला दिया था कि विधायिका को इस तरह का एक्ट पास करने का अधिकार ही नहीं है। असम के मामले के साथ ही हिमाचल की एसएलपी संलग्न थी। जुलाई 2017 में आये इस फैसले के कारण ही जयराम सरकार के कार्यालय में ऐसी नियुक्तियां नहीं की गयी थी। मुख्य संसदीय सचिवों की नियुक्तियां 2006 के एक्ट के तहत हुयी है और जब तक यह एक्ट निरस्त नहीं होता तब तक यह पदों पर बने भी रहेंगे। लेकिन उनके बने रहने से क्या नैतिक सवाल भी हल हो जायेगा? क्या उनके बने रहने से प्रदेश की वित्तीय स्थिति सुधर जायेगी? क्या सरकार को कर्ज नहीं लेना पड़ेगा? यह सारे सवाल नैतिकता से जुड़े हुये हैं? इस समय सरकार ने बहुत सारी नियुक्तियां कैबिनेट रैंक में कर रखी हैं। कैबिनेट रैंक में नियुक्तियों का अर्थ है कि ऐसे व्यक्ति को कैबिनेट रैंक के मंत्री के समकक्ष सुविधायें मिलेगी। भले ही ऐसी नियुक्तियों को अदालत में कोई चुनौती नहीं दी गयी है लेकिन प्रदेश जिस तरह की वित्तीय स्थिति से गुजर रहा है उसमें आने वाले दिनों में यह मुद्दे स्वतः ही चर्चा में आ जायेंगे। क्योंकि चुनाव में वायदे करते हुये मतदाताओं से यह नहीं कहा गया था कि उन्हें पूरा करने के लिये कर्ज लिया जायेगा। पिछली सरकार में जब मुख्य सचेतक और सचेतकों की नियुक्तियां की गयी थी तब उस एक्ट को उच्च न्यायालय में चुनौती दी गयी थी जो अब तक लम्बित है। अब शायद यह सरकार भी ऐसी नियुक्तियां करने जा रही है। ऐसे में जो वातावरण निर्मित होता जा रहा है उसमें सरकार पर वैधानिक सवालों की जगह नैतिक सवालों का दायरा बढ़ने जा रहा है।

कुंडू प्रकरण में सरकार और विपक्ष दोनों की विश्वसनीयता सवालों में

  • मुख्यमंत्री फैसला ही पढ़ते रहे और कुंडू सर्वोच्च न्यायालय भी पहुंच गये
  • क्या आम आदमी इस व्यवस्था से सुरक्षित रह पायेगा?
शिमला /शैल। डीजीपी कुंडू ने हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के उस फैसले के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में 29 दिसंबर को एसएलपी दायर कर दी है। जिसमें उच्च न्यायालय ने डीजीपी और एसपी कांगड़ा को उनके पदों से हटाने के निर्देश दिए थे‌। स्मरणीय है कि उच्च न्यायालय ने यह आदेश पालमपुर के एक कारोबारी निशांत शर्मा की 28-10-23 को आयी शिकायत का स्वतःसंज्ञान लेते हुए दायर हुई याचिका पर किए हैं । निशांत शर्मा ने 28-10- 2023 को यह शिकायत हिमाचल सरकार, डीजीपी, उच्च न्यायालय और कुछ अन्य को भेजी थी। इसमें डीजीपी के खिलाफ भी गंभीर आरोप लगाए गए थे। लेकिन इस शिकायत पर सरकार द्वारा कुछ नहीं किया गया। बल्कि डीजीपी ने उनके खिलाफ आई शिकायत पर 4-11-23 को निशांत शर्मा के खिलाफ ही एक एफआईआर दर्ज करवा दी। इस पर उच्च न्यायालय ने मामले का स्वतः संज्ञान लिया और तब निशांत की शिकायत पर एफआईआर दर्ज हुई। एफ आई आर दर्ज होने के बाद एसपी कांगड़ा और शिमला से रिपोर्ट तलब की। यह रपट अदालत ने सरकार को भी भेजी लेकिन सरकार ने इसके बाद भी कुछ नहीं किया। सरकार द्वारा इस तरह आंखें बंद कर लेना अपने में ही कई सवाल खड़े कर जाता है ।एक्योंकि शिकायतकर्ता ने अपने को इन लोगों से जान और माल के खतरे का गंभीर आरोप लगाया हुआ था। सरकार की बेरुखी के बाद उच्च न्यायालय ने 26 दिसंबर को निर्देश दिए की डीजीपी और एसपी को तुरंत अपने पदों से हटकर अन्यत्र तैनात किया जाए जहां वह जांच को प्रभावित न कर सके। क्योंकि डीजीपी के पद पर बने रहते उनके खिलाफ निष्पक्ष जांच हो पाना संभव नहीं हो सकता।
डीजीपी को पद से हटाने के निर्देश उच्च न्यायालय ने 26 दिसंबर को दिए थे और यह निर्देश उसी दिन मुख्यमंत्री के संज्ञान में आ गए थे। लेकिन मुख्यमंत्री की इस मामले पर प्रतिक्रिया 29 दिसंबर को आयी। जिसमें उन्होंने यह कहा कि वह उच्च न्यायालय के फैसले को पढ़ने के बाद प्रतिक्रिया देंगे। 29 को जब मुख्यमंत्री यह प्रतिक्रिया दे रहे थे तब तक शायद कुंडू सुप्रीम कोर्ट में एसएलपी दायर कर चुके थे। इस मामले में नेता प्रतिपक्ष जयराम ठाकुर और भाजपा अध्यक्ष राजीव बिंदल की भी कोई प्रतिक्रिया नहीं आयी है। जबकि हर मामले उनकी प्रतिक्रियाएं आती हैं। जिस मामले में एक डीजीपी के खिलाफ कोई यह शिकायत करें कि उसे डीजीपी से ही जान और माल का खतरा है और ऐसे मामले में सरकार उच्च न्यायालय के फैसले पर भी खामोश बैठी रहे तथा विपक्ष भी मौन साध ले तो स्वभाविक है कि ऐसी व्यवस्था परिवर्तन पर आम आदमी कैसे और कितना विश्वास कर पायेगा? इस मामले में सरकार और विपक्ष दोनों का ही राजनीतिक आचरण सवालों के घेरे में आ खड़ा हुआ है। इस आचरण से यह संदेश चला गया है की उच्च पदस्थों के बारे में इस व्यवस्था से कोई उम्मीद करना संभव नहीं होगा। क्योंकि जब शिकायतकर्ता की शिकायत पर ही किसी जांच से पहले उसी के खिलाफ मामला दर्ज कर लिया जाये तो ऐसा व्यक्ति किस से न्याय की उम्मीद करेगा।
इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय का फैसला क्या आता है और उच्च न्यायालय क्या संज्ञान लेता है यह तो आने वाला समय ही बतायेगा। लेकिन इससे यह स्पष्ट हो गया है कि शीर्ष अफसरसाही ही सरकार पर पूरी तरह प्रभावी है।
कुंडू प्रकरण में सरकार और विपक्ष दोनों की विश्वसनीयता सवालों में
मुख्यमंत्री फैसला ही पढ़ते रहे और कुंडू सर्वोच्च न्यायालय भी पहुंच गये
क्या आम आदमी इस व्यवस्था से सुरक्षित रह पायेगा?
शिमला /शैल। डीजीपी कुंडू ने हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के उस फैसले के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में 29 दिसंबर को एसएलपी दायर कर दी है। जिसमें उच्च न्यायालय ने डीजीपी और एसपी कांगड़ा को उनके पदों से हटाने के निर्देश दिए थे‌। स्मरणीय है कि उच्च न्यायालय ने यह आदेश पालमपुर के एक कारोबारी निशांत शर्मा की 28-10-23 को आयी शिकायत का स्वतःसंज्ञान लेते हुए दायर हुई याचिका पर किए हैं । निशांत शर्मा ने 28-10- 2023 को यह शिकायत हिमाचल सरकार, डीजीपी, उच्च न्यायालय और कुछ अन्य को भेजी थी। इसमें डीजीपी के खिलाफ भी गंभीर आरोप लगाए गए थे। लेकिन इस शिकायत पर सरकार द्वारा कुछ नहीं किया गया। बल्कि डीजीपी ने उनके खिलाफ आई शिकायत पर 4-11-23 को निशांत शर्मा के खिलाफ ही एक एफआईआर दर्ज करवा दी। इस पर उच्च न्यायालय ने मामले का स्वतः संज्ञान लिया और तब निशांत की शिकायत पर एफआईआर दर्ज हुई। एफ आई आर दर्ज होने के बाद एसपी कांगड़ा और शिमला से रिपोर्ट तलब की। यह रपट अदालत ने सरकार को भी भेजी लेकिन सरकार ने इसके बाद भी कुछ नहीं किया। सरकार द्वारा इस तरह आंखें बंद कर लेना अपने में ही कई सवाल खड़े कर जाता है ।एक्योंकि शिकायतकर्ता ने अपने को इन लोगों से जान और माल के खतरे का गंभीर आरोप लगाया हुआ था। सरकार की बेरुखी के बाद उच्च न्यायालय ने 26 दिसंबर को निर्देश दिए की डीजीपी और एसपी को तुरंत अपने पदों से हटकर अन्यत्र तैनात किया जाए जहां वह जांच को प्रभावित न कर सके। क्योंकि डीजीपी के पद पर बने रहते उनके खिलाफ निष्पक्ष जांच हो पाना संभव नहीं हो सकता।
डीजीपी को पद से हटाने के निर्देश उच्च न्यायालय ने 26 दिसंबर को दिए थे और यह निर्देश उसी दिन मुख्यमंत्री के संज्ञान में आ गए थे। लेकिन मुख्यमंत्री की इस मामले पर प्रतिक्रिया 29 दिसंबर को आयी। जिसमें उन्होंने यह कहा कि वह उच्च न्यायालय के फैसले को पढ़ने के बाद प्रतिक्रिया देंगे। 29 को जब मुख्यमंत्री यह प्रतिक्रिया दे रहे थे तब तक शायद कुंडू सुप्रीम कोर्ट में एसएलपी दायर कर चुके थे। इस मामले में नेता प्रतिपक्ष जयराम ठाकुर और भाजपा अध्यक्ष राजीव बिंदल की भी कोई प्रतिक्रिया नहीं आयी है। जबकि हर मामले उनकी प्रतिक्रियाएं आती हैं। जिस मामले में एक डीजीपी के खिलाफ कोई यह शिकायत करें कि उसे डीजीपी से ही जान और माल का खतरा है और ऐसे मामले में सरकार उच्च न्यायालय के फैसले पर भी खामोश बैठी रहे तथा विपक्ष भी मौन साध ले तो स्वभाविक है कि ऐसी व्यवस्था परिवर्तन पर आम आदमी कैसे और कितना विश्वास कर पायेगा? इस मामले में सरकार और विपक्ष दोनों का ही राजनीतिक आचरण सवालों के घेरे में आ खड़ा हुआ है। इस आचरण से यह संदेश चला गया है की उच्च पदस्थों के बारे में इस व्यवस्था से कोई उम्मीद करना संभव नहीं होगा। क्योंकि जब शिकायतकर्ता की शिकायत पर ही किसी जांच से पहले उसी के खिलाफ मामला दर्ज कर लिया जाये तो ऐसा व्यक्ति किस से न्याय की उम्मीद करेगा।
इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय का फैसला क्या आता है और उच्च न्यायालय क्या संज्ञान लेता है यह तो आने वाला समय ही बतायेगा। लेकिन इससे यह स्पष्ट हो गया है कि शीर्ष अफसरसाही ही सरकार पर पूरी तरह प्रभावी है।
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आरटीआई आवेदन पर नगर निगम शिमला सवालों में

शिमला/शैल। नगर निगम शिमला परिक्षेत्र में हो रहे निर्माणों की वैधता के लिये नगर निगम प्रशासन ही पूरी तरह जिम्मेदार है। क्योंकि निर्माण संबंधी कोई भी नक्शा निगम प्रशासन के अनुमोदन के बिना व्यवहारिक रूप नहीं ले सकता। यहां तक की सरकारी निर्माण को भी टीसीपी अधिनियम के प्रावधान के मुताबिक इसी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। धर्मशाला के मकलोड़गंज प्रकरण में सर्वाेच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया हुआ है ऐसे में किसी भी निर्माण के लिए आये नगरों की सारी औपचारिकताओं की जानकारी नगर निगम या दूसरे संबंधित निकाय के पास होना अनिवार्य है। ऐसी जानकारी को कोई भी व्यक्ति आरटीआई के तहत हासिल कर सकता है। जब से एनजीटी ने शिमला में निर्माण को लेकर कुछ प्रतिबंध और कुछ शर्ते लगायी हैं तब से यहां के निर्माण पर आम आदमी का ध्यान भी केंद्रित होना शुरू हो गया है। ऐसे में अगर निगम किसी आरटीआई आवेदन का तय समय पर जवाब न दे और अपील अधिकारी को इसके लिये संबंधित सूचना अधिकारी को कड़ा पत्र लिखना पड़ जाये तो स्वभाविक रूप से संद्धर्भित निर्माण और संबंधित निगम प्रशासन को लेकर शंकाएं उभरेगी ही। स्मरणीय है कि एक आरटीआई एक्टीविस्ट देवाशीष भट्टाचार्य ने शिमला के मैहली क्षेत्र में बने एक निर्माण की फोटो के साथ नगर निगम से उसके संबंध में कुछ जानकारियां मांगी। यह जानकारियां 18-10-2023 को मांगी गयी थी। जब इनका जवाब तय समय के भीतर नहीं आया तो देवाशीष ने इसकी अपील दायर कर दी। इस अपील पर 12-12-2023 को संबंधित अपील अधिकारी का फैसला आया। जिसमें अपील अधिकारी ने आवेदक को निशुल्क जानकारी उपलब्ध करवाने के निर्देश दिये हैं। इससे स्पष्ट हो जाता है कि जब आरटीआई आवेदनों पर तय समय के भीतर सूचना न दिये जाने पर आवेदक अपील में जाने के लिये बाध्य कर दिया जाता है तो उस आरटीआई की अवधारणा को ही आघात पहुंचता है। इस संबंध में डाली गयी आरटीआई और उस पर अपील अधिकारी के निर्देश पाठकों के सामने यथास्थिति रखे जा रहे हैं।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

किसी के भी खिलाफ स्थायी गैग आदेश नहीं लगाया जा सकता

  • देवाशीष भट्टाचार्य बनाम रचना गुप्ता मामले में उच्च न्यायालय ने किया स्पष्ट
  • कोई भी लेखन असत्य और अप्रमाणित नहीं होना चाहिये

शिमला/शैल। क्या कोई व्यक्ति आर.टी.आई. के माध्यम से उसके बारे में जुटाई गयी जानकारी के सोशल मीडिया या प्रिंट मीडिया मंच पर सार्वजनिक होने से बदनाम हो सकता है? क्या ऐसे आर.टी.आई. एक्टिविस्ट के खिलाफ कोई अदालत यह स्थाई प्रतिबन्ध लगा सकती है कि अमुक व्यक्ति किसी अमुक व्यक्ति या उसके परिजनों के खिलाफ सोशल मीडिया या प्रिंट मीडिया में ष्।दल ेजंजउमदज व िंदल दंजनतमष् नहीं लिख सकता है। यह सारे सवाल आर.टी.आई. एक्टिविस्ट देवाशीष भट्टाचार्य बनाम रचना गुप्ता मामले में प्रदेश उच्च न्यायालय में चर्चा में आये हैं। उच्च न्यायालय ने ऐसे आदेश को 12-12-2023 को संशोधित करते हुये स्पष्ट किया है कि ऐसा स्थायी गैग आदेश कानून सम्मत नहीं है उच्च न्यायालय ने पुराने आदेश को संशोधित करते हुये कहा है कि देवाशीष अपने लेखन के लिये स्वतंत्र है। बशर्त कि ऐसा लेखन असत्य और अप्रमाणित न हो। स्मरणीय है कि 2019 में लोकसेवा आयोग की सदस्य डॉ. रचना गुप्ता ने देवाशीष भट्टाचार्य के खिलाफ एक करोड़ की मानहानि का मुकद्दमा दायर किया था जो अब तक लंबित है। लेकिन 2020 में इस मानहानि के मामले के लंबित होते हुये रचना गुप्ता उच्च न्यायालय की एकल पीठ से देवाशीष भट्टाचार्य के खिलाफ एक गैग ऑर्डर पाने में सफल हो गयी थी। देवाशीष ने इस आदेश को उच्च न्यायालय में चुनौती दी और 12-12-2023 को यह संशोधित फैसला आ गया जिसमें गैग ऑर्डर को निरस्त करते हुये यह शर्त लगायी गयी की लेखन असत्य और अप्रमाणित नहीं होना चाहिये। जब यह गैग आदेश आया था तब इससे यह संदेश गया था कि प्रभावशाली लोगों के खिलाफ आर.टी.आई. सूचनाओं के आधार पर कलम उठाना कठिन है। लेकिन संशोधित आदेश से स्पष्ट हो गया कि कानून के आगे कोई भी प्रभावशाली नहीं है। इस आदेश से प्रशासन को भी यह संदेश गया कि आर.टी.आई. के माध्यम या अन्य प्रमाणिक दस्तावेजों के माध्यम से सार्वजनिक हुई जानकारीयों को नजर अन्दाज करना सही नहीं होगा।
यह रहा उच्च न्यायालय का आदेश
This appeal has been preferred by the appellant defendant against interim injunction order dated 03.01.2020, passed in OMP No.574 of 2019 in COMS No.20 of 2019, titled as Dr.Rachna Gupta vs.Dev Ashish Bhattacharya The operative portion of the impugned order is as under:-
" In these circumstances taking into consideration the above mentioned circumstances, the application is allowed and the non - applicant (defendant) is restrained from posting or publishing any statement of any nature, against the applicant, her husband and her family members on facebook or on any other social media, including print or electronic media, till the disposal of the main suit Accordingly, the application is disposed of.”
2. The main ground for assailing the impugned order is that appellant-defendant has been restrained from posting or publishing “any statement of any nature” against the respondent- plaintiff, her husband and her family members. It has been contended that such blanket gag order is not permissible under law.
3. The passing of aforesaid injunction order against the appellant-defendant has been justified by learned counsel for the respondent-plaintiff by referring documents filed with the plaint as well as with application CMP No.18474 of 2023 in this appeal.
4. Taking into consideration averments in the pleadings, documents placed on record, case law referred in impugned order and submissions made by learned counsel for the parties and also balancing the rights and reasonable restriction with reference to Article 19 of the Constitution of India, interim injunction order is modified as under:- “Taking into consideration the facts and circumstances, the non- applicant (defendant) is restrained from posting or publishing any defamatory, scandalous, untrue and/or unverified statement, directly or indirectly, against the applicant/plaintiff, her husband and her family members on facebook or on any other social media, including print or electronic media, till the disposal of the main suit.”
5. Appeal is disposed of in aforesaid terms, so also pending application(s), if any

जब राजकोषीय घाटा ही 6170 करोड़ था तो 6700 करोड़ का कर्ज क्यों लिया गया

  • एक वर्ष में 14000 करोड़ का कर्ज लेना बना मुद्दा
  • क्या वर्ष 2023-24 की कर्ज सीमा लांघ चुकी है सरकार
  • इस वित्तीय स्थिति में गारंटीयां पूरी हो पाने पर उठने लगे सवाल

शिमला/शैल। कांग्रेस की सुक्खू सरकार अपने एक वर्ष के कार्यकाल में 14000 करोड़ का कर्ज ले चुकी है। इतना कर्ज लेने के बावजूद चुनावों में दी हुई गारंटीयां पूरी करने में कोई बड़ा कदम नहीं उठा पायी है। लाहौल और स्पीति की महिलाओं को 1500 रूपये देने की घोषणा पर जनवरी 2024 से अमल होगा। पुरानी पैन्शन बहाल कर देने के बाद कर्मचारियों के भुगतान के मामले उच्च न्यायालय के आदेशों के बाद ए.जी. ऑफिस में भुगतान के लिये लंबित है। कांग्रेस का विपक्ष में पूर्व जयराम सरकार के खिलाफ यही बड़ा आरोप था की इस सरकार ने प्रदेश को कर्ज के गर्त में डाल दिया है। ऐसे में जब कांग्रेस की सरकार भी उसी कर्ज के रास्ते पर पहले से भी ज्यादा गति से चल पड़े तो स्वभाविक है कि यह सवाल उठेगा ही कि कहीं यह सरकार भी वित्तीय कुप्रबंधन और फिजूल खर्ची का शिकार तो नहीं हो रही है। इस सवाल को समझने के लिये वर्ष 2022-23 के बजट को देखना पड़ेगा क्योंकि सुक्खू सरकार को यह बजट जयराम से विरासत में मिला है।
इस बजट को पूरा करने के लिये सुक्खू सरकार ने जनवरी 2023 से कर्ज लेना शुरू किया और वित्तिय वर्ष के अन्त मार्च 2023 तक 6700 करोड़ का कर्ज ले लिया। जयराम सरकार ने वर्ष 2022-23 के लिये 51364.75 करोड़ का बजट सदन में पारित करवाया था। इस वित्तीय वर्ष में 6170 करोड़ का राजकोषीय घाटा रहने का अनुमान था और मुख्यमंत्री सुक्खू  ने भी अपने बजट भाषण में इसे स्वीकारा है।
यदि सुक्खू सरकार ने जयराम शासन के अंतिम छः माह के लिये गये फैसलों को रद्द करके 600 से अधिक संस्थानों को बन्द न किया होता तो यह घाटा और भी बढ़ जाता। इसीलिये 13141.07 करोड़ की अनुपरक मांगे सदन में लाने के बाद भी अन्तिम राजकोषीय घाटा 6170 करोड़ ही रहा। इस घाटे का अर्थ है 2022-23 के बजट को पूरा करने के लिये 6170 करोड़़ का ही कर्ज लेने की आवश्यकता थी। लेकिन आर.टी.आई. सूचना के अनुसार सुक्खू सरकार ने जनवरी 23 से मार्च 23 तक 6700 करोड़ का कर्ज़ क्यों ले लिया। यह सवाल इसलिये उठ रहा है कि जब आर.टी.आई. में इस कर्ज के दस्तावेज सामने आये तो यह कहा गया कि 6700 करोड़ का कर्ज तो वित्तीय वर्ष 2022-23 के खर्चों को पूरा करने के लिये लिया गया। जब इस वर्ष की आवश्यकता ही 6170 करोड़ की थी तो इसके लिये 6700 करोड़ कर्ज क्यों लिया गया इसका कोई जवाब नहीं आया है।
सुक्खू सरकार का केन्द्र सरकार पर यह आरोप है कि उसने राज्य सरकार की कर्ज लेने की सीमा में कटौती कर दी है और अब वह एक वर्ष में केवल 6000 करोड़ का ही कर्ज ले सकती है। लेकिन यह सरकार 2023-24 की इस कर्ज सीमा से अधिक का कर्ज इस वित्तीय वर्ष में दिसंबर तक ही ले चुकी है। क्योंकि इस सरकार द्वारा लिये गये कुल कर्ज का आंकड़ा करीब चौदह हजार करोड़ हो चुका है। जिसका अर्थ है कि अगले तीन माह में नियमानुसार यह सरकार कोई नया कर्ज नहीं ले पायेगी। दूसरी ओर सरकार को 1500 रूपये महिलाओं को देने की गारंटी भी जनवरी से पूरी करने के वायदे को अन्जाम देना है। ऐसे में जब सरकार के पास वित्तीय संसाधन ही नहीं होंगे तो इन गारंटीयों को पूरा करने पर स्वतः ही प्रश्न चिन्ह लग जाता है।

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