Friday, 19 December 2025
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राज्यपाल के अभिभाषण पर अनचाहे ही घिर गयी सरकार

शिमला/शैल। नवनिर्वाचित विधायकों को शपथ दिलाने के लिये धर्मशाला के तपोवन स्थित विधानसभा परिसर में आयोजित पहले ही सत्र में विपक्ष सत्ता पक्ष पर हावी रहा है। हालांकि इस सत्र में विधायकों की शपथ के बाद विधानसभा अध्यक्ष और उपाध्यक्ष का चयन एक सामान्य कार्यावाही ही थी। इस कार्यावाही के बाद दूसरा बड़ा काम राज्यपाल का अभिभाषण था। क्योंकि नव निर्वाचित विधायक शपथ के बाद ही सही अर्थो में विधायक बनें हैं और इसके बाद ही वह विधायी कार्य कर पायेंगे। ऐसे में नयी विधानसभा के पहले ही सत्रा में राज्यपाल के अभिभाषण और उस पर चर्चा के अतिरिक्त और कोई बड़ा कार्य नही था।
राज्यपाल का अभिभाषण मन्त्रीमण्डल तैयार करता है और उसके अनुमोदन के बाद ही इसे राज्यपाल को भेजा जाता है। अभिभाषण का प्रारूप जब राजभवन में पंहुच जाता है तब राज्यपाल का सचिवालय इसका अध्ययन करता है और फिर राज्यपाल के पास इसे रखा जाता है। यदि राजभवन को लगे कि अभिभाषण के किसी बिन्दु पर सरकार से और जानकारी या चर्चा की आवश्यकता है तो ऐसी जानकारी मांग ली जाती है। क्योंकि राज्यपाल जब सदन को संबोधित करते हैं तब वह सरकार को ‘‘ मेरी सरकार’’ कहकर संबोधित करते हैं। क्योंकि सरकार ही राज्यपाल की सहायक और सलाहकार होती है। सरकार का हर आदेश राज्यपाल के नाम से ही जारी होता है। इस परिदृश्य में जब राज्यपाल सदन को संबोधित करते हैं तो उनका हर कथ्य सरकार का कथ्य बन जाता है। उनका संबोधन सरकार के पूरे कार्य चित्र और चरित्र का आईना होता है।
राज्यपाल के इस संबोधन में यह दावा किया गया है कि जयराम प्रदेश के अब तक रहे मुख्यमन्त्रिायों में सबसेे युवा मुख्यमन्त्री हैं। विपक्ष ने इस दावे को तथ्यों केे विपरीत करार देते हुए सदन में रखा कि डा.परमार, ठाकुर रामलाल, शान्ता कुमार और वीरभद्र जब मुख्यमन्त्री बने थे तब वह आयु में जयराम से छोटेे थे। बल्कि जब धूमल मुख्यमन्त्राी बने थे तब वह भी इसी आयु वर्ग में थे। इस तरह राज्यपाल के इस संबोधन का यह कथ्य तथ्यों के विपरीत था। यह कथ्य ऐसा कुछ बड़ा नही था जिससे सरकार की कारगुजारी पर गुणात्मक रूप से कोई बड़ा फर्क पड़ेगा। लेकिन यह कथ्य अभिभाषण में आया है इसलिये इसकी अहमियत बढ़ जाती है। इस कथ्य के तथ्य की दर्ज होने से पहले पड़ताल हो जानी चाहिये थी इसे हल्के से नही लिया जाना चाहिये था। तथ्यों के गलत होने की जिम्मेदारी किसी पर तय होनी चाहिये थी। क्योंकि यह एक सामान्य राजनीतिक कार्यकर्ता का किसी सड़क के नुक्कड़ पर दिया जाने वाला भाषण नही था।
इसी तरह धार्मिक पर्यटन के लिये भी जिस तरह का शब्द चयन किया गया है उसको लेकर भी विपक्ष की टिप्पणी सरकार पर भारी पड़ी है। यही नही भाजपा ने चुनावों के दौरान जो चुनाव घोषणा पत्रा ‘‘दृष्टि पत्र’’ के नाम से जारी किया था उसे राज्यपाल के अभिभाषण में सरकार का नीति पत्रा करार दिया गया है। यह स्वभाविक और तय सत्य है कि हर सरकार अपने घोषणा पत्रा के दावों को पूरा करने के लिये काम करती है और उसे अपना नीति दस्तावेस बनाकर चलती है। लेकिन जब राज्यपाल के अभिभाषण में यह दावा किया जाता है तब यह अपेक्षित हो जाता है कि इस दृष्टि पत्रा को भी सदन में रखा जाता। क्योंकि अभिभाषण की प्रति सदन में रखी जाती है और सभी सदस्यों को उपलब्ध करवाई जाती है। परन्तु इस अभिभाषण में उल्लेखित दृष्टि पत्र एक अलग दस्तावेज है जिसका अभिभाषण में जिक्र किया जा रहा है और वही दस्तावेज सदन के पटल पर नही है। कायदे से ऐसा नही होना चाहिये था।
यह कुछ छोटे-छोटे बिन्दु रहे हैं जिन पर विपक्ष सत्तापक्ष पर भारी पड़ गया। इन बिन्दुओं का ध्यान यह अभिभाषण तैयार कर रहे सचिवालय के अधिकारियों को रखना चाहिये था। सचिवालय के साथ ही राजभवन के सचिवालय ने भी इन पर ध्यान नही दिया। जबकि राज्यपाल और मुख्यमन्त्राी दोनों के पास ही अधिकारियों के साथ ही सलाहकार भी नियुक्त हैं । लेकिन ऐसा लगता है कि इस अभिभाषण को किसी ने भी गंभीरता से नही लिया है और इसी कारण से विपक्ष सता पक्ष पर भारी पड़ गया।

पुलिस में हुए फेरबदल में सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों की अवहेलना

शिमला/शैल। जयराम सरकार ने प्रदेश के पुलिस प्रमुख सोमेश गोयल को हटाकर सीताराम मरड़ी को पुलिस प्रमुख के तौर पर तैनाती दी है। मरड़ी 1886 बैच और गोयल 1984 बैच के आई पी एस अधिकारी हैं। गोयल जून 2017  में  डी जी पी स्टेट बने थे। उनसे पहले 1985 बैच के संजय कुमार डी जी पी थे। क्योंकि जब संजय कुमार को डी जी पी बनाया गया था उस समय गोयल के खिलाफ विजिलैन्स में एक मामला चल रहा था। इस कारण से उनकी वरिष्ठता को नज़रअन्दाज किया गया। लेकिन अब जब 2017 में गोयल का मामला समाप्त हुआ तो संयोगवश उसी दौरान संजय कुमार केन्द्र में प्रतिनियुक्ति पर चले गये और गोयल आसानी से डी जी पी स्टेट बन गये। परन्तु अब गोयल केन्द्र में प्रतिनियुक्ति पर नही गये  हैं और उन्हें छः माह के बाद ही पद से हटाकर उनसे कनिष्ठ को डी जी पी नियुक्त कर दिया गया है। पुलिस के शीर्ष पर हुए फेरबदल को लेकर पुलिस मुख्यालय से लेकर सचिवालय तक में सवाल उठने शुरू हो गये हैं। सवाल उठ रहा है कि क्या सरकार पुलिस प्रमुख को दो सालों के कार्यकाल से पहले ही हटा सकती है या नही? 
यह सवाल इसलियेे उठ रहा है कि पुलिस तन्त्र में सुधार किये जाने को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर जो प्रयास एक लम्बे अरसे से चले आ रहे थे उनके तहत 1979 में राष्ट्रीय पुलिस कमिशन का गठन किया गया था। इस कमिशन की रिपोर्टों पर जब कोई कारवाई नही हुई तब 1996 में दो सेवानिवृत पुलिस प्रमुखों ने सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की। डी जी पी प्रकाश सिंह और एन के सिंह ने याचिका दायर करके अदालत से आग्रह किया कि सरकार को एनपीसी की सिफारिशें लागू करने के निर्देश दिये जायें। इस याचिका पर 22 सितम्बर 2006 को सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आया और इसमें सरकार को सात निर्देश दिये गये और इस पर राज्य सरकारों से भी अनुपालना रिपोर्ट तलब की गयी थी। इसके लिये 16 मई 2008 को एक माॅनिटरिंग कमेटीे का भी गठन किया गया था। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में जो सात निर्देश जारी किये थे उनके तहत पहला था कि स्टट सिक्योरिटी कमीशन का गठन किया जाये। दूसरा था कि डी जी पी की नियुक्ति पारदर्शी हो और उसका कार्याकाल कम से कम दो वर्ष का रहे। तीसरा था कि आॅप्रेशन डयूटी पर तैनात जिला पुलिस चीफ से लेकर एस एच ओ तक को दो वर्ष का कार्यकाल दिया जाये। 

स्मरणीय है कि जब सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला आया था और उस पर अमल की रिपोर्ट तलब की गयी थी तब हिमाचल सरकार ने एक अध्यादेश लाकर तुरन्त प्रभाव से इस पर अमल किया था और बाद में विधानसभा सत्रा के दौरान इस आश्य का नियमित विधेयक पारित किया गया था। इस विधेयक और सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद पुलिस में इन पदों पर तैनात अधिकारियों को दो वर्ष के कार्यकाल से पहले किसी ठोस कारण के बिना हटाना संभव नही है। केरल और गोवा में राज्य सरकारों द्वारा डी जी पी को उनके पदों से हटाया गया था। इस हटाने को जब अदालत में चुनौती दी गयी थी तब सरकार को अपने फैसले वापिस लेने पडे़ थे। अब 2017 में भी सर्वोच्च न्यायालय ने दो वर्ष के कम से कम कार्यकाल को लेकर सरकार को कड़े़ निर्देश दिये हैं। यह सब संभवतः इसलिये किया गया है ताकि पुलिस और जांच ऐजैन्सीयों  पर ‘‘पिंजरे का तोता’’ होने के आरोप कम से कम लगें। आज प्रदेश में सरकार बदली है। नये मुख्मन्त्री ने कार्यभार संभाला है। गृह विभाग भी उन्ही के पास है। संभव है कि सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले और सरकार के अपने ही विधेयक की जानकारी शायद मुख्मन्त्री को न रही हो। लेकिन गृह सचिव को इसकी जानकारी रहना स्वभाविक और आवश्यक है तथा यह उनकी जिम्मेदारी है कि वह मुख्मन्त्री को भी इससे अवगत करवायें। क्योंकि आज यदि कोई अधिकारी या अन्य व्यक्ति इस फैसले को लेकर अदालत का दरवाजा खटखटा देता है तो सरकार के लिये कठिनाई पैदा हो सकती है। क्योंकि अभी सरकार ने यह ऐलान किया है कि वह पिछली सरकार द्वारा बनाये गये मामलों को वापिस लेगी। जबकि यह मामले वापिस लेने के लिये संबंधित जांच अधिकारियों के खिलाफ भी झूठे या कमजा़ेर मामले बनाने के लिये कारवाई करने के निर्देश सर्वोच्च न्यायालय एक मामले में संबधित अधिकारियों को जारी कर चुका है। कानून के इस परिदृश्य में पुलिस में हुए कुछ फेर बदल सरकार के लिये परेशानी खड़ी कर सकते हैं क्योकि कई अधिकारियों का दो साल का कार्यकाल पूरा नही हुआ है।

नेता प्रतिपक्ष के लिये राहुल ने मुकेश पर जताया भरोसा

शिमला/शैल। पत्रकारिता से राजनीति मे आये और लगातार चैथी बार ऊना के हरोली विधानसभा क्षेत्र से अपनी जीत कायम रखने वाले पूर्व उद्योग मन्त्री मुकेश अग्निहोत्री सदन में कांग्रेस विधायक दल के नेता होंगे। अखिल भारतीय राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी ने नेता प्रतिपक्ष की जिम्मेदारी निभाने का दायित्व मुकेश को सौंपा है। स्मरणीय है कि जब कांग्रेस विधायक दल अपनेे स्तर पर नेता का चयन नहीं कर पाया और प्रस्ताव पारित करके नेता चुनने का अधिकार राहुल गांधी को सौंप दिया तब इसके लिये राहुल का मुकेश पर भरोसा जताना अपने में एक बड़ा अहम राजनीतिक फैसला हो जाता है। वीरभद्र सरकार  के मन्त्रीमण्डल के सदस्यों में से मुख्यमन्त्री के अतिरिक्त कवेल सुजान सिंह पाठानिया कर्नल डा. धनी राम शांडिल और मुकेश अग्निहोत्री ही इन चुनावों मे जीत हासिल कर पाये हैं इन तीनों में से पिछली सरकार के कार्यकाल में सदन में यदि किसी की परफारमैन्स सराहनीय रही है तो उसमें मुकेश अग्निहोत्री का नाम ही पहले स्थान पर आता है। इस नाते आज नेता प्रतिपक्ष के रूप में मुकेश के चयन  को आम आदमी का समर्थन मिल रहा है।
लोकतन्त्र में जितना महत्व सत्ता का होता है उसके मुकाबले में प्रतिपक्ष का महत्त्व उससे ही बड़ा हो जाता है। क्योंकि सरकार के हर काम पर बारिकीे से नज़र रखने और गुण दोष के आधार पर उसका समर्थन अथवा विरोध करना यह सबसे बडी़ जिम्मेदारी एक उत्तरदायी विपक्ष की रहती है। यही नहीं सरकार की गलत नीतियों पर सार्वजनिक जन चर्चा का वातावरण तैयार करना भी विपक्ष का सबसे बड़ा दायिव रहता है। आज संयोगवश केन्द्र से लेकर राज्य तक एक ऐसी पार्टी की सरकार है जो अपनी एक निश्चित विचारधारा रखती हैै और इस पार्टी को संघ की राजनीतिक ईकाई माना जाता है, इसलिये यह स्वभाविक है कि इस सरकार के हर फैसले में कहीं न कहीं इसकी विचारधारा का प्रभाव  अवश्य परिलक्षित रहेगा और संघ की विचारधारा की स्वीकार्यता को लेकर पूरे समाज में अभी बहस की ही स्थिति चल रही है। इस नाते भाजपा की कार्यशैली को समझने के लिये संघ की विचारधारा को समझना भी आवश्यक होगा तथा इसके लिये एक व्यापक अध्ययन की भी आवश्यकता रहेगी। इस समय कांग्रेस के जो 21 विधायक चुनकर आये हैं उनमें इन मानकों पर शायद मुकेश ही ज्यादा खरे उतरे हैं। राष्ट्रीय स्तर पर भी विपक्षी दल जितना संघ की विचारधारा को लेकर आक्रामक दिखते हैं उतना शायद सरकार के फैसलों को लेकर नही है और यही भाजपा संघ की सफलता है कि उसके फैंसलो की जगह उसकी विचारधारा को लेकर ही आक्रामकता सामने आ रही है।
इस परिदृश्य में नेता प्रतिपक्ष के रूप में मुकेश की जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है क्योंकि वह पिछली सरकार में एक महत्वपूर्ण मन्त्री रहे हैं। सरकार के हर फैसलें में वह बराबर के  भागीदार रहे हैं। भाजपा ने बतौर विपक्ष इसी सरकार के खिलाफ समय-समय पर आरोप पत्र सौंपे हैं। इन्ही आरोप पत्रों के माध्यम से सरकार कांग्रेस के ऊपर सदन के भीतर और बाहर बराबर दबाव बनाये रखेगी। कांग्रेस सरकार के अन्तिम छः माह के फैसलों पर जय राम  सरकार ने पुनर्विचार करने की घोषणा की है। इसलिये इन फैसलों की सदन के भीतर और बाहर वकालत करना नेता प्रतिपक्ष की जिम्मेदारी हो जाती है। यह एक अच्छा संयोग है कि कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में वित्त विभाग के प्रमुख की जिम्मेदारी जो अधिकारी निभा रहा था आज जयराम सरकार में भी यह जिम्मेदारी उसी अधिकारी के पास है। सरकार के हर फैसले में विभाग की भागीदारी रहती है बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि वित्त विभाग की स्वीकृति के बिना कोई भी फैसला हो ही नही पाता है। ऐसे में इस संद्धर्भ में यह सरकार पिछली सरकार के प्रति ज्यादा आक्रामक हो ही नही पायेगी। इसकी पहली झलक राजस्व विभाग में हुई सेवानिवृत कर्मचारियों की नियुक्तियों को लेकर इस सरकार के यूटर्न लेने से समाने भी आ गयी है।
 लेकिन राजनीतिक परिदृश्य में मुकेश का नेता प्रतिपक्ष बनाना इस संद्धर्भ में भी एक बड़ा फैसला बन जाता है कि वीरभद्र के कार्यकाल में मुख्यमन्त्री और संगठन प्रमुख में अन्त तक टकराव की स्थिति बनी रही है। क्या यह टकराव आज भी उसी स्थिति में बना रहेगा या इसमें कमी आयेगी क्योंकि मुकेश को बहुत हद तक वीरभद्र का ही प्रतिनिधि अभी तक माना जा रहा है। इस संद्धर्भ में मुकेश पर वीरभद्र के साये का तमगा कब तक चिपका रहता है और वह व्यवहारिक तौर पर इस साये से कब और कैसे बाहर आते हैं इस पर सबकी निगाहें बनी रहेगी।  आज संयोगवश कांग्रेस अध्यक्ष सुक्खु और नेता प्रतिपक्ष मुकेश दोनों हमीरपुर संसदीय क्षेत्र से ताल्लुक रखते हैं फिर जातिय समीकरण में भी दोनों प्रदेश की दो बड़ी जातियों से आते हैं। यह दोनो नेता आपस मे किस तरह का तालमेल बिठाते हैं इस पर भी सबकी नजरें रहेंगी क्योंकि आने वाले लोकसभा चुनावों में पार्टी को जीत दिलाने की जिम्मेदारी इन्ही दोनो की होगी।

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