शिमला/शैल। जयराम सरकार ने सत्ता संभालते ही यह स्पष्ट कर दिया था कि वह पूर्ववर्ती वीरभद्र सरकार के अन्तिम छः माह में लिये फैसलों की समीक्षा करेंगे। कई फैसलों की समीक्षा के बाद उन्हें बदल भी दिया गया है। कुछ पर तो जांच तक के आदेश हो चुके हैं। शराब कारोबार को लेकर बनाई गयी बिवरेज कारपोरेशन की जांच में तो एफआईआर तक हो चुकी है। यह जानकारी स्वयं मुख्यमन्त्री ने बजट भाषण में हुई चर्चा का जवाब देतेे हुए सदन को दी है। इसी चर्चा के उत्तर में मुख्यमन्त्री ने यह भी घोषणा की कई संस्थान समीक्षा के बाद बन्द कर दिये गये हैं। इन संस्थानों को बन्द करनेे के कारण गिनाते हुए एक बड़ा कारण यह बताया गया कि इन्हे खोलने के लिये वित्त विभाग से स्वीकृति तक नही ली गयी और संस्थान खोल दिये गये। जब मुख्यमन्त्री ने सदन में यह खुलासा रखा है तोे निश्चित रूप से यह सही ही होगा।
सरकार का कामकाज़ कैस चलता है इसके संचालन की प्रक्रिया क्या रहती है इसके लिये सदन द्वारा वाकायदा रूल्ज़ आॅफ विजनैस पारित है। इन नियमों में संवद्ध विभाग के कल्र्क से लेकर मन्त्री तक सबकी शक्तियों और कार्यो का बंटवारा किया हुआ है। कोई भी यदि कार्य निष्पादन में इन नियमों से बाहर जाता है या उनकी उल्लंघना करता है तो उसके खिलाफ वाकायदा कारवाई हो जाती है इन नियमों के मुताबिक सरकार में मुख्यमन्त्री से भी अधिक शक्ति पूरी मन्त्री परिषद की सामूहिक रूप से रहती है। इसलिये हर विभाग को हर छोटे बड़े फैसले को मन्त्री परिषद की बैठक में जाकर उसकी स्वीकृति की मोहर उस पर लगवाई जाती है। मन्त्री परिषद की बैठक में वित्त सचिव या उसका प्रतिनिधि भी मौजूद रहता है। यदि वित्त विभाग की किसी फैसले पर सहमति न भी रहे तो उसे अपनी भिन्न राय दर्ज करने का भी अधिकार रहता है। यदि वित्त विभाग की असहमति के बावजूद मन्त्री परिषद किसी फैसले का अनुमोदन कर देती है तो उसका फैसला ही सर्वोपरि रहता है। ऐसे में फैसला लेने वालों के खिलाफ कोई कारवाई नही की जा सकती है। बल्कि मन्त्री परिषद तो वित्त विभाग से बाकायदा स्वीकृति प्राप्त फैसलों को भी पलटने का अधिकार रखती है।
इस परिदृश्य में आज जयराम सरकार पूर्ववर्ती वीरभद्र सरकार के शासनकाल के फैसलों को समीक्षा बाद के बदलने के लिये अधिकृत तो है लेकिन इनके लिये किसी के खिलाफ कोई कारवाई नही की जा सकती। लेकिन जयराम सरकार ने पूर्ववर्ती वीरभद्र सरकार के शासनकाल में लिये गये कर्जाें और अन्य फैसलों के लिये वित्तिय कुप्रबन्धन का आरोप लगाया है। यह आरोप एक तरह से वित्त विभाग पर सीधा आरोप हो जाता है। आने वाले समय में प्रशासनिक विभाग कोई भी फैसला लेते हुए पहले वित्त विभाग की अनुमति मांगेगा। वित्त विभाग भी अनुमति देने से पूर्व सारे संवद्ध नियमों की अनुपालना और बिना कर्ज के धन की उपलब्धता देखेगा। आज कर्ज की जो स्थिति है और जो आगे बढ़ने वाली है उसको देखते हुए यह कहा जा सकता है कि सरकार के सारे घोषित लक्ष्यों में से शायद दस प्रतिशत भी पूरे नही हो पायेंगें। क्योंकि आज मुख्यमंत्री ने जो बजट भाषण सदन में रखा और सदन ने चर्चा के बाद उसे अनुमोदित भी कर दिया है उसमें एफआरबीएम के तहत बहुत सारे बिन्दु चर्चा से छूट गये हैं। यह बिन्दु छूट गये हैं या जानबूझकर छोड़ दिये गये हैं इसका सही पता तो आने वाले समय में ही लगेगा।
स्मरणीय है कि Fiscal Responsibilty and Budget& Management Act ( FRBM) संसद द्वारा 2003 में लाया गया था और इसके वित्तिय घाटे को 2008 तक 3% तक लाना था। यह घाटे की स्थिति सरकारों के लिये तब आती है जब उसके खर्चे राजस्व से बढ़ जाते हैं। इन बढे़ हुए खर्चों को नियन्त्रित और कम करने के कदम उठाने के लिये यह एक्ट लाया गया था। इस एक्ट पर वित्तमन्त्री अरूण जेटली ने 2016 के शुरू में एक रिव्यू कमेटीे का गठन किया था। इसकी दूसरी रिपोर्ट 23 जनवरी 2017 को वित्तमन्त्री को सौंप दी गयी थी। इस रिपोर्ट के बाद वित्तमन्त्री अरूण जेटली केन्द्र के राजस्व घाटे को 2% की जगह 2017-2018 के लिये 1.9% पर ले आये हैं। इसी रिव्यू कमेटी की रिपोर्ट के बाद केन्द्र के वित्त विभाग की ओर से मार्च 2017 में प्रदेश सरकार को भी एक सश्क्त पत्र आया था लेकिन इस पत्र के बाद भी राज्य सरकार ने अपने खर्चे कम करने के लिये कोई कड़े कदम नही उठाये हैं बल्कि यह माना जा रहा है कि इस पत्र के बाद केन्द्र के द्वारा हिमाचल को जो 71000 करोड़ दिये जाने की बात प्रधानमन्त्री मोदी ने अपनी मण्डी की जनसभा में उठायी थी उसमें केन्द्र से प्रदेश को 71000 करोड़ की बजाये केवल 46793 करोड़ ही मिल पाये हैं।
ऐसे में प्रदेश सरकार ने अपने खर्चों के लिये कर्जो के साथ जो केन्द्र से सहायता मिलने की उम्मीद बांध रखी है वह सही में ही पूरी हो पायेगी इसको लेकर सन्देह हो रहा है। क्योंकि अपने राजस्व खर्चों को कम करने के लिये क्या उपाय किये जायें इसको लेकर सदन में कोई चर्चा नही उठायी गयी है। बल्कि मार्च 2017 में जो केन्द्र के वित्त विभाग से पत्र प्राप्त हुआ था उस पर वीरभद्र सरकार ने आय के स्त्रोत बढ़ाने के उपाय सुझाने के लिये जो कमेटी हर्षवर्धन चौहान की अध्यक्षता में बनाई थी उसमें चौहान के साथ कोई और सदस्य नामित नही किया गया था। चैहान ने भी अपनी रिपोर्ट आचार संहिता लगने से कुछ समय पूर्व ही सरकार को सौंपी थी और यह रिपोर्ट मुख्यमन्त्री जयराम के मुताबिक एक बार भी मन्त्री परिषद के सामने नही रखी गयी है। इस खुलासे से स्पष्ट हो जाता है कि प्रदेश की व्यवहारिक वित्तिय स्थिति के बारे में पूर्व सरकार कितनी गंभीर और ईमानदार रही है। लेकिन इस सबमें प्रदेश का वित्त विभाग भी अपनी भूमिका और जिम्मेदारी से भाग नही सकता है। क्योंकि वित्त विभाग ने कभी भी अपनी निर्भिक राय रिकार्ड पर सरकार के सामने नही रखी है। लेकिन इस बार अनचाहे ही मुख्यमन्त्री के माध्यम से वित्तविभाग पर कुप्रबन्धन का आरोप लग गया है। इस आरोप की वित्त विभाग की क्या प्रतिक्रिया रहती है और उसका प्रभाव सरकार पर क्या पड़ता है इसका खुलासा तो आने वाले समय में ही सामने आयेगा। लेकिन माना जा रहा है कि इससे सरकार का रास्ता आसान नही रहेगा।

शिमला/शैल। कांग्रेस विधायक दल के नेता मुकेश अग्निहोत्री ने कहा है कि मुख्यमन्त्री जयराम ठाकुर ने अपने पहले ही बजट भाषण में साफ कर दिया है कि उनकी सरकार पूरी तरह कर्जों और केन्द्र की सहायता पर आश्रित है और बेरोजगारी को दूर करने के लिये उनके पास कोई योजना नही है। उन्होने बजट को बेरोजगारों और युवा वर्ग से बड़ा धोखा करार दिया। अभी कुछ महीने पहले ही चुनावों के दौरान भारतीय जनता पार्टी लगातार प्रदेश में बेरोजगारी की दुहाई दे रही
थीं वायदा था सत्ता परिवर्तन पर वे बड़े पैमाने पर नौकरियों का प्रबन्धन करेगी लेकिन मौजूदा बजट में न तो नौकरियों का प्रावधान किया गया और न ही बेरोजगारी दूर करने की दिशा में ही कोई पुख्ता पहल की गई है। उल्टे बेरोजगारी भत्ता जैसी महत्वकांक्षी योजना को भी समाप्त कर दिया गया है। उन्होने दलील दी कि मंहगाई जैसे ज्वलंत मुद्दे पर भी मुख्यमंत्री खामोश रहे।
मुख्यमंत्री ने सारा ध्यान प्राईवेट सैक्टर की तरफ केन्द्रित किया है और हिमाचल के भोले भाले लोगों से चुनाव में किये गए वायदों को नज़रअन्दाज कर दिया है। उन्होने कहा कि मुख्यमंत्री का पहला बजट भाषण क्रान्तिकारी और प्रदेश को आगे ले जाने की दिशा में कोई पहल करने वाला होना चाहिये था लेकिन ऐसी कोई भी सोच मुख्यमन्त्री के बजट भाषण के माध्यम से नही दिख पाई हैं और बजट में न तो कोई नयापन है और न ही कोई नई सोच इस बजट में सामने आई है। मुख्यमंत्री ने लम्बे बजट भाषण में छोटी- छोटी प्रोत्साहन राशि देकर अपनी पीठ थप-थपाने की कोशिश की है। अन्यथा यह न तो भाजपा के दृष्टिपत्र और न ही घोषणा पत्र को पूरा करने का कोई प्रयास है। मुकेश अग्निहोत्री ने कहा कि मुख्यमंत्री ने बजट के शुरूआत में ही यह दलील दी कि पूर्व सरकारों ने कर्जे लेकर सरकारें चलाई है लेकिन बजट के अंत में यह साफ कर दिया कि वे भी कर्जे लेने के र्फामूले पर ही चलेंगे और बजट के घाटे को कर्जो से और केन्द्रिय रियायतों से ही करेंगें जिसकी शुरूआत हो भी चुकी है। सरकार ने शुरूआती दौर में दो हज़ार करोड़ के कर्जे ले भी लिये है। उन्होने कहा कि बजट उन्ही अधिकारियों ने बनाया हैं जो पहले भी बनाते आये है। इसलिये इसमें वही शेरो -शायरी और साहित्यिक अंदाज डालकर मुख्यमंत्री को खुश करने का प्रयास किया है। इसके अलावा पूर्व सरकार के समय में जो योजना चलाई गई उन्हे अपने खाते में डालने का अनावश्यक प्रयास किया है। उन्होने कहा कि कौशल विकास भत्ता योजना पूर्व सरकार के शासन से चली आ रही है और डेढ लाख से अधिक बेरोज़गारों को इसका फायदा भी मिल चुका है हर साल इसके लिए जिस तरह 100 करोड़ रखा जाता था उसी नीति पर वर्तमान सरकार भी चल रही है। जबकि बेरोजगारी भत्ते को समाप्त कर बेरोजगारों पर कुठाराघात करने का प्रयास किया है। उन्होने कहा कि 3 मैडिकल काॅलेजों की योजना भी कांग्रेस शासन के समय से चली आ रही है उसे भी भाजपा अपने खाते में डालने की अनावश्यक प्रास कर रही है जब कि यह पूर्व केन्द्रिय मंत्री गुलाम नवी आज़ाद के समय में हालिस हुई थी। डिजिटल राशन कार्ड योजना भी कांग्रेस के समय में ही शुरू हो चुकी है और उन्होने खेत संरक्षण योजना या पोली हाऊस योजनायें, सस्ता राशन अन्न योजना यह भी पहले से चली आ रही याजनायें है। मुकेश अग्निहोत्री ने कहा कि इस बजट में भाजपा के वायदो के अनुरूप Entry टैक्स हटाने का कोई प्रावधान सरकार ने नहीं किया है। रूसा को समाप्त कर विद्यार्थीयों को लुभाने के लिए जो एलान किये जाते रहे हैं उसका एलान भी नही हुआ है। गरीबों के लिए आवास योजना राशि बढाने की तरफ भी कोई कदम नही उठाया गया है। उन्होने कहा कि सरकार सत्ता के पहले दौर में कर्मचारियों के तबादलों व जश्न मे उलझी रही इसलिये बजट के लिए कोई पुख्ता समय उपलब्ध नही करवा सकी। इस बजट में जयराम सरकार कोई भी दूरदर्शी कदम नही उठा पाई है।
शिमला/शैल। राजनीति में बढ़ते अपराधिकरण को रोकने के लिये विशेष अदालतें गठित की जानी है। सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों के अनुसार यह अदालतें पहली मार्च तक गठित हो जानी थी। ऐसी अदालतों के गठन के बाद विधायकों/सांसदो/मन्त्रियों से जुडे़ आपराधिक मामलों की कार्यवाही एक वर्ष के भीतर पूरी किये जाने का प्रावधान किया गया है। सर्वोच्च न्यायालय ऐसे मामलों को प्राथमिकता के आधार पर निपटाने के निर्देश पहले भी कई बार दे चुका है जिन पर ठीक से अमल नही हो पाया है। लेकिन इस बार इस संद्धर्भ में गंभीरता बदल गयी है क्योंकि प्रधानमन्त्री मोदी ने भी देश और संसद से यह वायदा किया है कि वह संसद और विधानसभाओं को अपराधियों से मुक्त करवायेंगे। यह तभी संभव है जब माननीयों से जुड़े आपराधिक मामलों के निपटारे एक समय सीमा के भीतर हो जायें।
प्रदेश की वर्तमान विधानसभा में भी करीब एक दर्जन सदस्य ऐसे हैं जिनके खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं। कांग्रेस की आशा कुमारी को तो अदालत एक वर्ष कीे सजा़ तक सुना चुका है। इस मामले में आशा कुमारी की अपील अदालत में लंबित है। वीरभद्र सिंह के खिलाफ सीबीआई अदालत में चालान दायर कर चुकी है। ईडी भी चालान दायर कर चुकी है। इसी तरह भाजपा के सांसद अनुराग ठाकुर और वीरेन्द्र कश्यप के मामले अदालत में पहुंच चुके हैं। भाजपा के ही किशन कपूर और राजीव बिन्दल के मामले भी अदालत में पहुंच चुके हैं। ऐसे में यदि विशेष अदालत गठित हो जाती है तो इन माननीयों के मामलों में फैसला आने में वक्त नही लगेगा और इससे प्रदेश की राजनीति के सारे गणित बदल जायेंगे।
दिल्ली उच्च न्यायालय ने माननीयों के मामलों को निपटाने के लिये विशेष अदालत का गठन कर दिया है लेकिन हिमाचल में अभी तक ऐसा नही हो पाया है। इस संद्धर्भ में अभी तक सरकार और उच्च न्यायालय की ओर से कोई कदम नही उठाये गये हैं। उच्च न्यायालय के रजिस्ट्रार के मुताबिक प्रदेश उच्च न्यायालय में पिछले दिनों छुट्टियां होने के कारण इस दिशा में कारवाई नही हो पायी है। लेकिन उच्चस्थ सूत्रों के मुताबिक कुछ लोग विशेष अदालत का गठन किये जाने को टालनेे का प्रयास कर रहे हैं। यह लोग तर्क दे रहे हैं कि हिमाचल में ऐसे मामलों की संख्या कम होने के कारण अलग से ऐसी विशेष अदालत गठित किये जाने का कोई औचित्य नही बनता है लेकिन जिन भी माननीयों के खिलाफ मामले चल रहे हैं उन्हें एक वर्ष की तय समय सीमा के भीतर कैसे निपटाया जाये इस बारे में यह लोग एकदम चुप हैं। माना जा रहा है कि जयराम सरकार पर कुछ मामलों को वापिस लेने के लियेे जो दबाव बना हुआ है उसके चलते भी विशेष अदालत के गठन को लंबित किया जा रहा है। क्योंकि जब विशेष अदालत का गठन अधिसूचित हो जायेगा तब इन मामलों को वापिस लेना और भी कठिन हो जायेगा।
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