Friday, 19 December 2025
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आशा कुमारी थप्पड़ प्रकरण पर उठते कुछ सवाल

शिमला/शैल। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी सचिव, पंजाब की प्रभारी और बनीखेत की विधायक, प्रदेश की वरिष्ठ कांग्रेस नेता आशा कुमारी का थप्पड़ प्रकरण जिस ढंग से प्रचारित /प्रसारित हुआ है उससे कई ऐसे राजनीतिक और प्रशासनिक सवाल खड़े हो गये हैं जिन पर गंभीरता से विचार किया जाना आवश्यक हो गया है क्योंकि इस प्रकरण की एक पात्र महिला कांस्टेबल ने आशा कुमारी के खिलाफ मामला थाना सदर में दर्ज करवा दिया है। इस कांस्टेबल के बाद आशा कुमारी ने भी मामला दर्ज करवा दिया है। यह मामला जब घटा था उसके बाद आशा कुमारी ने इस पर खेद भी व्यक्त कर दिया था लेकिन इस खेद जताने के वाबजूद यह मामला दर्ज हुआ है।
स्मरणीय है कि घटना वाले दिन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी कांग्रेस भवन में काग्रेस के नेताओं की एक बैठक लेने आये थे जिसमें यह विधानसभा चुनाव लड़े सारे प्रत्याशीयों, जिला एवम ब्लाक अध्यक्षों को आमन्त्रित किया गया था क्योंकि इस बैठक में कांग्रेस की हार के कारणों का आंकलन किया जाना था। राहुल गांधी को एसपीजी की सुरक्षा उपलब्ध है जिसका अर्थ है कि जहां भी जिस भी बैठक में राहुल गांधी शामिल होंगे उसमें भाग लेने वालों को इस सुरक्षा ऐजैन्सी से पास लेना अनिवार्य होगा और उसमें भाग लेने वालों की सूची और उसका अनुमोदन स्थानीय आयोजकों से किया जाता है। इस अनुमोदन के बाद ही एसपीजी अपना पास जारी करती है। स्वभाविक है कि इस बैठक के लिये भी यही व्यवस्था थी। इस बैठक में कांग्रेस के सारे नवनिर्वाचित विधायक भाग ले रहे थे। आशा कुमारी चम्बा से जीतने वाली अकेली कांग्रेस नेता है। जबकि हर्ष महाजन से अनुमोदित नीरज नैय्यर और पूर्व वन मन्त्री ठाकुर सिंह भरमौरी तक यह चुनाव हार गये है। आशा कुमारी न केवल विधायक ही है बल्कि वह पंजाब की प्रभारीे भी है। शायद ही प्रदेश में ऐसा कोई हो जो आशा कुमारी के नाम से परिचित न हो।
कांग्रेस भवन में हुई इस बैठक के लिये सुरक्षा प्रबन्धों की जिम्मेदारी स्थानीय पुलिस की थी क्योंकि एसपीजी जो राहुल गांधी की सुरक्षा के लिये जिम्मेदार है। स्थानीय प्रबन्धन में उसकी भूमिका इतनी ही थी कि उसके द्वारा जारी पास के बिना भीतर बैठक में कोई नहीं जा सकता था। पुलिस प्रबन्धन भी ऐसी बैठकों के लिये तैनात किये गये सुरक्षा कर्मियों से यह सुनिश्चित करता है कि वह बैठक में भाग लेने वालों को जानता हो या उन्हें आसानी से चिहिन्त कर पाये ताकि कोई अव्यवस्था की शिकायत न आयेे। इस बैठक के लिये जब आशा कुमारी और अन्य लोग तो प्रत्यक्षदर्शीयों के मुताबिक सबसेे आगे मुकेश अग्निहोत्री उनके पीछे आशा कुमारी और फिर धनीराम शांडिल थे। आशा कुमारी के साथ उनका पीएसओ भी था। सबसे पहले मुकेश निकले उनका पास वहां तैनात इसी महिला कांस्टेबल ने चैक किया फिर उनको वापिस कर दिया और वह आगे चले गये। फिर आशा कुमारी ने पास दिखाया लेकिन इस पास को देखने के बाद इसे आशा को वापिस नही किया गया। जब पास वापिस मांगा गया और बताया गया कि आशा कुमारी विधायक है तो इसी पर महिला कांस्टेबल तर्क करने लग गयी उसने साथ खड़े पीएसओ को देखकर भी नही पहचाना जबकि धनीराम शांडिल भी वहीं आशा के पीछे खड़े थे। प्रत्यक्षदर्शीयों के अनुसार कांस्टेबल का व्यवहार जायज़ नही था और इसी पर नौबत थप्पड़ तक पहुंच गयी और उसी क्षण उसका विडियो भी शूट हो गया और तुरन्त ही वायरल भी हो गया। फिर जो विडियो वायरल हुआ है उसमें आशा से पहले मुकेश के जाने की घटना नही है। पास का दिखाना और वापिस मांगना भी रिकार्ड नही है केवल थप्पड़ और उसके बदले में फिर थप्पड़ यही रिकार्ड है।
वायरल हुए विडियो को देखने से यह सवाल उठता है कि विडियो रिकार्ड करने वाला पहले से ही इस बैठक में आने जाने वालो, पुलिस के सरुक्षा कर्मीेयों और एसपीजी की कारवाई को स्वभाविक रूप से रिकार्ड नही कर रहा था जिससे आगे-पीछे की कोई चीज रिकार्ड नही है तो स्वभाविक है कि रिकार्ड करने वाले के लिये भी यह अप्रत्याशित घटना रही हो। तब यह सवाल उठता है कि ऐसे माहोल में तो सामान्यतः दोनों पक्षों को शान्त करने का प्रयास पहले किया जाता है उस माहौल में ऐसी रिकार्डिंग तो तभी संभव है जब रिकार्ड करने वालों को पहले से ही यह ज्ञात रहा हो कि अब ऐसा घटने वाला है। इस प्रकरण में न तो आशा कुमारी के व्यवहार को जायज़ ठहराया जा सकता है और न ही महिला कांस्टेबल के व्यवहार को। फिर यह सामने आना भी आवश्यक है कि क्या यहां तैनात इन सुरक्षा कर्मीयों को यह तक नही समझाया गया था कि किसी भी व्यक्ति के साथ यदि कोई पीएसओ है तो उसका अर्थ क्या होता है। फिर यहां आने वाले लोग किसी मेले में नही जा रहे थे बल्कि कांग्रेस अध्यक्ष की बैठक के लिये विधायक जा रहे थे। ऐसे मे क्या वहां तैनात सुरक्षा कर्मीयों को अधिक संवदेनशील नही होना चाहिये था। क्या इस संवदेनशीलता की जिम्मेदारी अप्रत्यक्षतः शीर्ष प्रशासन की नही हो जाती है। क्या यह सुरक्षा कर्मी इन वी आई पी लोगों को नहीं जानती थी या उन्हे पहचानने की उसे सामान्य समझ भी नही थी। ऐसे बहुत सारे सवाल है जो आगे उठेंगे।

चुनौती भरा होगा जयराम सरकार का सफर

शिमला/शैल। प्रदेश विधानसभा की 44 सीटें जीतने के बाद भी भाजपा को मुख्यमन्त्री का चयन करने में एक सप्ताह का समय लग गया। ऐसा इसलिये हुआ कि भाजपा का मुख्यमन्त्री के तौर पर घोषित चेहरा पूर्व मुख्यमन्त्री एवम नेता प्रतिपक्ष प्रेम कुमार धूमल सुजानपुर से अपना ही चुनाव हार गये। धूमल की हार के साथ ही प्रसारित हो गया कि जयराम ठाकुर को भाजपा हाईकमान ने दिल्ली बुला लिया है और वह प्रदेश के अगले मुख्यमन्त्री होने जा रहें है। इस प्रसारण को इसलिये भी बल मिला क्योंकि चुनाव प्रचार के दौरान जय राम के विधानसभा क्षेत्र में हुई एक रैली को संबोधित करते हुए भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमितशाह ने सिराज की जनता को आश्वासन दिया था कि उनके विधायक को जीतने के बाद एक बड़ी जिम्मेदारी दी जायेगी। लेकिन जैसे ही जयराम का नाम मुख्यमन्त्री के लिये आगे बढ़ा उसी के साथ राजीव बिन्दल सुरेश भारद्वाज, नरेन्द्र बरागटा और किशन कपूर के नाम भी मीडिया ने सीएम के दावेदारों के साथ जोड़ दिये। लेकिन इसी बीच जब कार्यकर्ताओं से लेकर नेताओं तक ने धूमल और संयोगवश उनके निकटस्थों की हार मोदी लहर के होते हुए चर्चा का विषय बनी और कार्यकर्ताओं ने इसे महज एक संयोग मानने से इन्कार कर दिया तब सीएम के चयन का विषय भी एक प्रश्नचिन्ह बन गया। इस प्रश्नचिन्ह के आते ही दो दर्जन से ज्यादा विधायकों ने धूमल को ही फिर से सीएम बनाने की मांग कर दी। बल्कि दो विधायकों वीरेन्द्र कंवर और सुखराम चौधरी ने धूमल को पुनः चुनाव लड़वाने के लिये अपनी सीटें खाली करने का आॅफर तक दे दिया। पर्यवेक्षकों के सामने धूमल और जयराम के समर्थकों में समानान्तर नारेबाजी तक हो गयी। दोनों के समर्थकों ने कड़ा स्टैण्ड लेकर प्रोटैस्ट दर्ज करवाया। इस वस्तुस्थिति को देखते हुए पर्यवेक्षक दिल्ली लौट गये।
हाईकमान को सारी वस्तुस्थिति से अवगत करवाकर नये निर्देशों के साथ जब पुनः शिमला लौटे तो पूरे प्रदेश में यह संदेश फैल गया कि अब नड्डा मुख्यमन्त्री बनने जा रहे हैं। इस पर नड्डा के समर्थकों ने भी लडडू बांटकर जश्न की तैयारी कर ली। प्रदेश की जनता इस संदेश पर भी सतुंष्ट हो गयी। क्योंकि चुनावों की प्रक्रिया शुरू होने से बहुत अरसा पहले ही नड्डा संभावित मुख्यमन्त्री के रूप में देखे जाने लग पड़े थे। उनकी कार्यशैली से भी यही संकेत और संदेश जा रहे थे। इसलिये अब जब नड्डा का नाम नये सिरे से चर्चा में आया तो किसी को भी यह केवल मीडिया ही की खबर नही लगी। परन्तु जब अन्तिम परिणाम सामने आया तब फिर फैसला जयराम के पक्ष में सुनाया गया। इस फैसले की घोषणा के साथ यह भी चर्चा में आ गया कि देर शाम तक पंडित सुखराम और किश्न कपूर तथा धवाला की धूमल के साथ बैठक हुई जिसमें हाईकमान को अवगत करवा दिया गया कि विधायकों का बहुमत तो धूमल के साथ ही खड़ा है। सूत्रों के मुताबिक इस शक्ति प्रदर्शन से बचने के लिये ही धूमल ने एक वक्तव्य जारी करके स्पष्ट किया कि सीएम की वह रेस में नही है। धूमल के इस वक्तव्य के बाद ही जयराम का मार्ग प्रशस्त हुआ और उनके नाम की औपचारिक घोषणा हुई।
इस तरह सीएम के चयन में यह जो कुछ घटा उससे यह स्पष्ट हो गया है कि इस सहमति पर पहुंचने के लिये बड़ी कसरत करनी पड़ी है। इस पूरे घटनाक्रम में जो सबसे महत्वपूर्ण सवाल सामने आ खड़ा हुआ है कि क्या धूमल और उनके निकटस्थों की एक साथ हार क्या एक महज संयोग है या इसके पीछे कोई सुनियोजित शडयंत्र था? क्योंकि यदि यह एक संयोग है तब इन हारने वाले और दूसरे नेताओं को भी यह आत्मचितन्तन का अवसर है। लेकिन यदि यह एक षडयंत्र रहा है तो फिर यह संघ और भाजपा के लिये एक बड़े संकट का संकेत है क्योंकि आगे एक वर्ष के बाद लोकसभा के चुानव आने हैं। फिर इस बार भाजपा के लगभग सभी चुनावों क्षेत्रों से भीतरीघात की शिकायतें मिली हैं। इतने बडे पैमाने पर ऐसी शिकायतें पहली बार ही मिली हैं। इन शिकयतों पर पार्टी का आंकलन क्या रहता है इसका खुलासा तो आने वालेे दिनों में ही सामने आयेगा। लेकिन अब तक जो कुछ घट चुका है उसका प्रभाव सरकार पर अवश्य पडेगा। मन्त्रीमण्डल का गठन कैसा रहता है इसमें पुरानेे अनुभवी लोगों को जो पहले भी मन्त्री या मन्त्री स्तर तक की जिम्मेदारी निभा चुके हैं उन्हें कितनी जगह मिलती है और इनके साथ नये लोगों को कितना स्थान दिया जाता है इस पर सबकी निगाहें रेहगी। क्योंकि प्रदेश में ऐसा पहली बार हुआ है कि चुनावों के दौरा कांग्रेस से निकलकर एक मन्त्री भाजपा में शामिल होता है और पार्टी उसे टिकट देती है तथा वह जीत भी जाता है। अनिल शर्मा का मामला ऐसा ही है। अब क्या अनिल शर्मा को मन्त्रीमण्डल में स्थान मिलता है या नही। यह पार्टी के लिये भी एक कसौटी रहेगा। क्योंकि मण्डी में ही सबसे सशक्त और वरिष्ठ ठाकुर महेन्द्र सिंह हैं। ऐसे में क्या महेन्द्र सिंह और अनिल शर्मा दोनों को एक साथ जगह मिल पायेगी। इसी तहर शिमला में सुरेश भारद्वाज और नरेन्द्र बरागटा का मामला है क्या इन दोनों को भी एक साथ ले लिया जायेगा? कांगड़ा में किशन कपूर, सरवीण चौधरी, राकेश पठानिया, विपिन परमार और रमेश धवाला सब एक बराबर के दावेदार हैं। इनके बाद राजीव बिन्दल, वीरेन्द्र कंवर, गोबिन्द ठाकुर और डा॰ रामलाल मारकण्डेय पुराने लोगों में से हैं। इन सारे पुराने लोगों का ही एक साथ मन्त्रीमण्डल में आ पाना संभव नही है। फिर ऐसे में नये लोगों को कैसे समायोजित किया जायेगा यह बड़ा सवाल मुख्यमन्त्री के सामने रहेगा। स्वभाविक है कि भाजपा को भी संसदीय सचिव बनाकर ही यह तालमेल बिठाना पड़ेगा।
इस समय प्रदेश का कर्जभार 50,000 करोड़ से ऊपर जा पहुंचा है। भारत सरकार का वित्त विभाग मार्च 2016 में कर्ज की सीमा को लेकर सरकार को कड़ा पत्र लिख चुका है। ऐसे में वित्तिय स्थिति भी नई सरकार के लिये गंभीर चुनौति होगी। इसके लिये पिछली सरकार के अन्तिम तीन माह में लिये गये फैसलों पर नये सिरे से विचार करने या इन्हे बदलने से ही समस्या हल नहीं होगी। भ्रष्टाचार पर जीरो टालरैन्स का दावा हर बार किया जाता रहा है लेकिन आज तक अपने ही आरोप पत्रों पर भाजपा सत्ता में आकर कोई कारवाई नहीं कर पायी है। इस बार अनिल शर्मा तो एक ऐसा मुद्दा बन जायेगा कि एक ओर उस पर भाजपा के ही आरोप पत्र मे आरोप दर्ज हैं तो दूसरी ओर उसका मन्त्री बनना भी तय माना जा रहा है। ऐसे दर्जनों मामले हैं जहां सरकार को कड़ी परीक्षा से गुजरना होगा। वनभूमि पर हुए अतिक्रमणों से लेकर प्रदेश भर में हुए अवैध निर्माणों पर उच्च न्यायालय से लेकर एन जी टी तक के आये फैसलों पर अमल करना जयराम सरकार के लिये सबसे चुनौति और कसौटी सिद्व होगी।

भाजपा की बड़ी जीत पर धूमल की हार से उठा बडा सवाल

शिमला/शैल। 1980 में भाजपा के गठन के बाद प्रदेश में पहली बार अपने दम पर पार्टी का इतनी बड़ी जीत हासिल हुई है। क्योंकि 1990 में जनता दल के साथ गठबन्धन के कारण भाजपा को जीत मिली थी और शान्ता मुख्यमन्त्री बने थे। 1998 में सुखराम की हिमाचल विकास कांगे्रस के सहयोग से धूमल की सरकार बनी थी। 2007 में भाजपा अपने ही दम पर जीत गयी थी और सरकार बन गयी थी। लेकिन तब इतनी सीटें नही मिली थी। इस बार अपने ही दम पर 44 सीटें जीत कर एक बड़ी जीत दर्ज की है। इस जीत को सुनिश्चित करने के लिय ही भाजपा को अन्त में उस समय धूमल को नेता घोषित करना पड़ा जब यह आरोप लगना शुरू हुआ कि भाजपा ’’बिन दुल्हे की बारात’’ बनकर रह गयी है। धूमल को मतदान से केवल नौ दिन पहले नेता घोषित किया गया। स्वभाविक है कि नेता घोषित करने को लेकर पार्टी ने अपना स्टैण्ड बड़े फीड बैक और विचार विमर्श के बाद ही बदला होगा। नेता घोषित किये जाने के बाद पार्टी को 44 सीटों पर जीत हासिल हुई है लेकिन इसी जीत में मुख्यमन्त्री का चेहरा बने धूमल ही अपनी सीट पर हार गये। यही नही पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष सत्तपाल सत्ती चुनाव हार गये। पूर्व मन्त्री और विधायक रविन्द्र रवि, गुलाब सिंह ठाकुर, पार्टी प्रवक्ता विधायक रणधीर शर्मा तथा पूर्व संसाद कृपाल परमार भी चुनाव हार गये। यह सभी लोग धूमल के विश्वस्त माने जाते है और यह तय माना जा रहा था कि यदि यह लोग जीत जाते तो अब मन्त्री भी बनते। हारने वालों में इतना ही बड़ा एक नाम महेश्वर सिंह का भी शामिल है।
ऐसे में अब प्रदेश के राजनीतिक और प्रशासनिक हल्कों में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि भाजपा की इनती बड़ी जीत का श्रेय आखिर किसके नाम है क्या यह जीत मोदी लहर का परिणाम है? लेकिन मोदी लहर पर यह प्रश्न लग रहा है कि इस चुनाव प्रचार के दौरान मोदी ने प्रदेश के चार स्थानों पर जनसभाओं को सबोधित किया है और उनमें पांवटा साहिब के सुखराम चौधरी ही जीत हासिल कर पायेे है। बाकी के तीनों इन्दु गोस्वामी, कृपाल परमार और सत्तपाल सत्ती हार गये हैं। नगर निगम शिमला के चुनावों से कुछ ही दिन पहले मोदी की शिमला रैली हुई लेकिन इस रैली के बावजूद नगर निगम में भाजपा को अपने दम पर बहुमत नही मिल पाया था। इस परिपेक्ष्य में यदि यह माना जाये कि प्रदेश में मोदी लहर तो थी तभी 44 सीटों पर जीत मिली है लेकिन इस पर यह सवाल उठता है कि यदि लहर थी तो इतने बड़े नेता एक साथ ही क्यों हार गये? पिछले सदन में इन सबकी परफारमैन्स बहुत महत्वपूर्ण रही है। हर गंभीर मुद्दे पर सरकार को घेरने वालों में इनके नाम प्रमुख रहते थे। इसीलिये इन सब नेताओं का एक साथ हार जाना संगठन के लिये एक इतना बड़ा सवाल है कि इसे नज़र अन्दाज कर पाना आसान नही है। क्योंकि एक साल बाद ही पार्टी को लोकसभा चुनाव का सामना करना है और यदि वास्तव में ही यह नेता अपना-अपना जनाधार खो चुके हैं तो इनके स्थान पर अभी से नये चेहरों की तलाश करनी होगी।
धूमल की हार से पूरे प्रदेश के राजनीतिक समीकरण बदल गये हैं। पार्टी इस हार का आंकलन कैसे करती है यह तो आने वाला समय ही बतायेगा लेकिन इस हार के साथ ही चुनाव के दौरान हुए भीतरघात के आरोपों की गंभीरता एकदम बढ़ जाती है क्योंकि अधिकांश क्षेत्रों से भीतरघात के आरोपों की गंभीरता एकदम बढ़ जाती है क्योंकि चर्चा उठ रही है कि धूमल का चुनाव क्षेत्रा भी एक सुनियोजित रणनीति के तहत ही बदला गया था। चर्चा है कि धूमल सुजानपुर से लड़ने को ज्यादा तैयार नही थे। सुजानपुर उनपर अन्तिम क्षणों में थोपा गया था। चर्चा तो यहां तक है कि दिल्ली में वीरभद्र सिंह की भाजपा के दो बड़े नेताओं से एक बैठक हुई थी और उस बैठक में धूमल और उनके निकटस्थों को हराने की पुख्ता योजना तैयार की गयी थी। इसी योजना के तहत कांग्रेस ने हमीरपुर में कमज़ोर उम्मीदवार दिया और बदले में भाजपा ने अर्की से विधायक गोबिन्द शर्मा का टिकट काटा। क्योंकि अब जिस तरह के परिणाम सामने आये हैं उससे यह माना जा रहा है कि वीरभद्र के मुकाबले में भाजपा से गोविन्द शर्मा ही होते तो शायद वीरभद्र की जीत भी आसान नहीं होती। ऐसे में जहां एक ओर इस तरह की संभावनाओं की अब चर्चा हो रही है वहीं पर यह सवाल और गंभीर हो रहा है कि धूमल और उनके निकटस्थ चुनाव कैसे हार गये?
अब जिस तरह से धूमल और उनके लोगों की हार सामने आयी है उससे इस दौरान सोशल मीडिया में आये ओपीनियन पोलज़ की ओर ध्यान जाना स्वभाविक है। क्योंकि सारे चैनल्ज़ के ओपीनियन पोल में भाजपा को इतनी सीटें नही दी जा रही थी जो बाद में इन चैनल्ज़ ने एग्जिट पोल में अपने ओपीनियन पोलज़ को स्वतः ही नकार दिया। आखिर ऐसा कैसे संभव हुआ इसका कोई सर्वस्वीकार्य उत्तर नही मिल रहा है। बल्कि अक्तूबर के अन्तिम सप्ताह में हुए एक ओपीनियन पोल में तो विधानसभा क्षेत्र वार यहां तक बता दिया गया कि कहां कितने मतों से हार जीत होगी। इस ओपीनियन पोल में कांग्रेस को 21 ही सीटें दी गयी थी। भाजपो को 41 सीटें दी गयी थी और छः सीटों पर ’’सर्वे उपलब्ध नहीे’’ कहा गया था। अब परिणाम आने पर केवल इतना ही अन्तर आया है कि भाजपा को 41 की बजाये 44 सीटें मिल गयी लेकिन कांग्रेस 21 पर ही बनी रही है। मतदान से पहले ही इस स्तर तक मतों की गिनती कैसे संभव हो सकती है यह एक सवाल बना हुआ है। सूत्रों के मुताबिक यह पोल संघ से जुडे़ लोगों द्वारा अन्जाम दिया गया है लेकिन इस पोल में भाजपा के धूमल सहित जो बडे़ नेता अब चुनाव हारे हैं उन्हे इस पोल में हारा हुआ नही दिखाया गया है। फिर यह सवाल और भी गंभीर हो जाता है कि संघ का अपना ही सर्वेक्षण इस कदर कैसे असफल हो सकता है।
                                     चर्चा में रहा ये ओपीनियन पोल

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