Thursday, 18 September 2025
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क्या हिमाचल कांग्रेस हाईकमान की सूची से गायब हो गया है?

शिमला/शैल। क्या हिमाचल को कांग्रेस हाईकमान ने अपनी सूची से खारिज कर दिया है? यह सवाल इसलिये उठने लगा है कि प्रदेश कांग्रेस की राज्य से लेकर ब्लॉक स्तर की कार्यकारिणीयां जो पिछले वर्ष नवम्बर में भंग कर दी गयी थी उनका पुनर्गठन अब तक नहीं हो पाया है। प्रदेश में इस वर्ष के अन्त में पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव होने हैं। ऐसे में इन चुनावों की तैयारी कांग्रेस संगठन के तौर पर कैसे और कब कर पायेगी यह सवाल हर कार्यकर्ता के दिमाग में उठने लगा है। राज्य में कांग्रेस की सरकार इसलिये बन पायी थी क्योंकि पार्टी ने विधानसभा चुनावों के दौरान दस गारंटियां प्रदेश की जनता को दी थी। इन गारंटियों पर जमीन पर कितना काम हुआ है यह चुनाव उसकी परीक्षा प्रमाणित होंगे। इन गारंटियों में प्रतिवर्ष प्रदेश के युवाओं को एक लाख रोजगार उपलब्ध करवाने और 18 से 60 वर्ष की हर महिला को 1500 रूपये प्रतिमाह देने पर प्रमुख थे। युवाओं को रोजगार का दावा कितना सफल हो पाया है इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि इस दौरान प्रदेश में बेरोजगारी में 9 सितम्बर 2024 को विधानसभा में आये एक प्रश्न के उत्तर के अनुसार वर्ष 2021-22 से वर्ष 2023-24 में 4% की वृद्धि हुई है और उद्योग पलायन करने लग गये हैं। महिलाओं को 1500 रूपये प्रति माह सिर्फ लाहौल स्पीति में ही मिल पाये हैं और जगह नहीं।
प्रदेश सरकार के फैसले भी अब जनता के गले नहीं उतर पा रहे हैं। क्योंकि सरकार एक ओर तो कठिन वित्तीय स्थिति का हवाला देकर जनता पर करों का बोझ लगातार बढा़ती जा रही है और दूसरी ओर इसी कठिन वित्तीय स्थिति में निगमों/बोर्डों के अध्यक्षों/उपाध्यक्षों/सदस्यों का मानदेय बढ़ा रही है। यह बढ़ौतरी भी आपदा काल में हुई है। शिमला से धर्मशाला रेरा कार्यालय को स्थानांतरित करना इसी कड़ी का एक और उदाहरण है। जिन कर्मचारियों ने कांग्रेस को सत्ता में लाने की प्रमुख भूमिका अदा की थी वह सारे वर्ग आज एक बड़े कर्मचारी आन्दोलन के लिये तैयार हो रहे हैं। यह पिछले दिनों कर्मचारी संगठनों के आवाहन पर जूटे अलग-अलग संगठनों की उपस्थिति से प्रमाणित हो गया है। शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी सेवाओं का फील्ड में क्या हाल है यह जनता के बीच जाने से पता चलता है। आज सरकार की हालत यह हो गयी है कि कर्ज आधारित योजनाओं के अतिरिक्त और कोई काम नहीं चल रहा है। आज कर्ज और करों का निवेश उन योजनाओं पर हो रहा है जिनके परिणाम वर्षों बाद आने हैं। फिर इस कर्ज में भी किस तरह का भ्रष्टाचार हो रहा है उसका खुलासा पूर्व मंत्री धर्मशाला के विधायक सुधीर शर्मा के ब्यान से हो जाता है ।
आज कांग्रेस की सरकारें केवल तीन राज्यों हिमाचल, कर्नाटक और तेलंगाना में ही रह गयी हैं। कांग्रेस की नीतियों और कार्यक्रमों का आकलन यहां की सरकारों की परफारमेन्स के आधार पर होगा। इस समय कांग्रेस नेतृत्व बिहार में चुनाव आयोग से लड़ रहा है। यदि इस लड़ाई में हिमाचल की देहरा विधानसभा के उप-चुनाव में जो कुछ कांग्रेस शासन में घटा है उसका जिक्र उठा दिया गया तो यह सारी लड़ाई कुन्द होकर रह जाएगी। यह दूसरी बात है कि इस मुद्दे पर प्रदेश कांग्रेस और भाजपा में आपसी सहमति चल रही है। लेकिन जिस तरह से प्रदेश सरकार हर रोज जनाक्रोश से घिरती जा रही है उसमें संगठन का आधिकारिक तौर पर नदारद रहना क्या संकेत और संदेश देता है इसका अन्दाजा लगाया जा सकता है। क्योंकि प्रदेश अध्यक्षा स्वयं कई बार यह आग्रह हाईकमान से कर चुकी है की कार्यकारिणी का गठन शीघ्र किया जाये। परन्तु यह आग्रह जब अनसुने हो गये हों तो यही कहना पड़ेगा कि शायद कांग्रेस हाईकमान की सूची से हिमाचल को निकाल ही दिया गया है। क्या हाईकमान के प्रतिनिधि प्रदेश प्रभारीयों ने भी इस और आंखें और कान बंद कर रखे हैं। या आज यह स्थिति आ गयी है कि प्रदेश में कोई भी संगठन की जिम्मेदारी लेने को तैयार ही नहीं हो रहा है।

निगम के प्रस्ताव के बिना ही मंत्रिमंडल द्वारा फैसला ले लेना आया सवालों में

  • आर.एस.बाली का खुलासा भारी पड़ सकता है सरकार पर
  • लाभ कमा रही ईकाई की संपत्ति प्राइवेट सैक्टर को देना कितना सही ?
  • क्या सरकार रूल्स ऑफ बिजनेस को भी अनदेखा कर रही है ?

शिमला/शैल। क्या सुक्खू सरकार विधानसभा द्वारा पारित कार्य निष्पादन नियमों की भी अनदेखी करने लग गयी है। यह सवाल पर्यटन विकास निगम के चौदह होटलों को ओ.एन.एम आधार पर निजी क्षेत्र को सौंपने के प्रस्तावित फैसले पर निगम के ही अध्यक्ष द्वारा एक पत्रकार वार्ता में एतराज उठाये जाने के बाद चर्चा में आया है। पर्यटन निगम अध्यक्ष विधायक आर.एस.बाली ने पत्रकार वार्ता में स्पष्ट कहा है कि निगम की ओर से इस आश्य का कोई प्रस्ताव सरकार को न ही भेजा गया और न ही निदेशक मण्डल द्वारा कभी पारित किया गया। बाली ने यह भी स्पष्ट कहा कि शायद सरकार और मंत्रिमंडल के सामने सारे तथ्य रखे ही नहीं गये हैं। इस समय पर्यटन निगम लाभ कमा रही है और टर्नओवर अढ़ाई वर्ष में 70 करोड़ से बढ़कर 100 करोड़ से ऊपर हो गया है। फिर बीते अढ़ाई वर्षों में पर्यटन निगम को सरकार की ओर से कोई ग्रांट नहीं मिली है। जबकि इसकी मांग कई बार की गयी। ऐसे में स्पष्ट है कि पर्यटन निगम की कार्यशैली में काफी सुधार हुआ है और उसके कर्मचारी निगम को लाभ की ईकाई में बदलने में सफल हो गये हैं। इसलिये जो ईकाई लाभ कमाने में आ गई हो उसकी संपत्तियों को प्राइवेट सैक्टर को सौंपने का कोई औचित्य नहीं बनता। फिर जो चौदह ईकाईयां प्राईवेट सैक्टर को सौंपने का फैसला लिया गया उनके रैनोवेशन के लिये निगम को ही धन उपलब्ध करवाया जाना चाहिये क्योंकि वह बनी हुई इकाइयां है और शीघ्र ऑपरेटिव हो जायेंगी। इनके रखरखाव के लिए एशियन विकास बैंक द्वारा दिये जा रहे कर्ज में से पैसा उपलब्ध करवाया जा सकता है। इस परिदृश्य में सरकार को अपने फैसले पर पुनर्विचार करना चाहिये।
आर.एस.बाली मुख्यमंत्री के विश्वास पात्रों में गिने जाते हैं। ऐसे में बाली द्वारा यह सार्वजनिक करना कि निगम के प्रस्ताव के बिना ही इस तरह का फैसला ले लिया जाना अपने में कई सवाल खड़े कर जाता है। क्योंकि रूल्स ऑफ बिजनेस के अनुसार किसी भी कार्य का कोई भी प्रस्ताव निगम बोर्ड विभाग द्वारा सरकार में सचिव को भेजा जाता है। उस प्रस्ताव पर सचिव और विभाग के मंत्री में मंत्रणा होती है। यदि सचिव और मंत्री की राय में मतभेद हो तब उस विषय को मंत्रिपरिषद में ले जाया जाता है। यदि मंत्री और सचिव दोनों सहमत हो तो विषय को आगे ले जाने की आवश्यकता नहीं होती है। क्योंकि मंत्री अपने में सक्षम होता है। पर्यटन निगम के चौदह होटल को प्राइवेट क्षेत्र को सौंपने के प्रस्तावित फैसले को विपक्ष ने हिमाचल ऑन सेल की संज्ञा दी है। ऐसे में जब निगम सार्वजनिक रूप से यह कह दे कि उसके यहां से इस आश्य का कोई प्रस्ताव ही नहीं गया तब स्थिति काफी बदल जाती है। क्योंकि आने वाले दिनों में यह फैसले कई विवादों का कारण बनेंगे और तब मंत्रिमंडल की स्वीकृति का भी कोई अर्थ नहीं रह जाता है। सागर कथा मामले में इस तरह की स्थितियां एक समय प्रदेश में घट चुकी हैं। इसलिये पर्यटन विकास निगम के अध्यक्ष का यह खुलासा की उसकी ओर से कोई प्रस्ताव ही नहीं गया और इसके बाद मंत्रिमंडल का फैसला ले लेना अपने में कई सवाल खड़े कर जाता है।

क्या यह टनों के हिसाब से बही लकड़ी बारिश में ऊपर से बरसी है?

  • सरकार की इस पर चुप्पी से उठे सवाल
  • 2023 में थुनाग में भी ऐसे ही बही थी लकड़ी जिसका आज तक पता नहीं चला है।

शिमला/शैल। क्या हिमाचल में हर बरसात में ऐसे ही जान माल का नुकसान होता रहेगा? यह सवाल इसलिये उठ रहा है क्योंकि 2023 में भी आयी आपदा के दौरान मण्डी के थुनाग में आयी बाढ़ में बड़ी मात्रा में लकड़ी नालों में बहकर आयी थी। इस बार भी सैंज में बादल फटने से जीवा नाला में आयी बाढ़ में टनों के हिसाब से लकड़ी बहकर पंडोह डैम तक पहुंची है। सैंज में जहां बादल फटा है उस क्षेत्र में एक पॉवर प्रोजेक्ट का काम चल रहा था। यह काम एक इंदिरा प्रियदर्शनी कंपनी के पास है और कंपनी के पास सैकड़ो मजदूर काम कर रहे थे। पॉवर प्रोजेक्ट के काम में कई अनियमितताओं के आरोप लगे हैं जो जांच के बाद ही सामने आ पायेंगे। मजदूरों के पंजीकरण का भी आरोप है इसलिये मौतों के सही आंकड़ों को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं। कांगड़ा के धर्मशाला में भी बादल फटने से बाढ़ आयी है जिसमें कई मजदूर बह गये हैं। इस क्षेत्र में भी ‘सोकनी दा कोट’ में एक पॉवर प्रोजेक्ट का काम चल रहा था जिसके निर्माण में कई अनियमितताओं के आरोप हैं। 2023 में जब बरसात में आपदा आयी थी तब नदियों के किनारे हो रहे खनन को इसका बड़ा कारण बनाया गया था। इस पर मंत्रियों में ही विवाद भी हो गया था। इस समय हिमाचल में चंबा से लेकर किन्नौर शिमला तक करीब साढे पांच सौ छोटी-बड़ी पॉवर परियोजनाएं चिन्हित हैं और अधिकांश पर काम चल रहा है। चंबा में रावी पर चल रही पॉवर परियोजनाओं में 65 किलोमीटर तक रावी अपने मूल बहाव से लोप है। यह तथ्य अवय शुक्ला की रिपोर्ट में दर्ज है और प्रदेश उच्च न्यायालय में यह रिपोर्ट दायर है। स्वभाविक है कि जब पानी के मूल रास्ते को रोक दिया जायेगा तो बरसात की किसी भी बारिश में जब पानी बढ़ेगा तो वह तबाही करेगा ही। अवय शुक्ला की रिपोर्ट का संज्ञान लेकर पॉवर परियोजनाओं में इस संबंध में क्या कदम उठाये गये हैं इसको लेकर कोई रिपोर्ट आज तक सामने नहीं आ पायी है। पॉवर परियोजनाओं के निर्माण से पूरे क्षेत्र का पर्यावरण संतुलन प्रभावित हुआ है और इसका असर गलेश्यिरों के पिघलने पर पढ़ रहा है। लाहौल-स्पीति और किन्नौर में कई परियोजनाओं पर स्थानीय लोगों ने आपत्तियां भी उठाई है और धरने प्रदर्शन भी किये हैं। ग्लेशियरों के पिघलने से कालांतर में परियोजनाओं पर भी प्रभाव पड़ेगा। इसलिये समय रहते इस सवाल पर ईमानदारी से विचार करके कुछ ठोस और दीर्घकालिक उपाय करने होंगे अन्यथा भविष्य में और भी गंभीर स्थितियों का सामना करना पड़ेगा।
2023 में जो लकड़ी थुगान में बहकर आयी थी उसका संज्ञान शायद अदालत ने भी लिया था और उस पर एक रिपोर्ट भी तलब की थी। इस रिपोर्ट में क्या सामने आया है इसको लेकर कोई जानकारी आज तक सामने नहीं आयी है। न ही किसी ने यह दावा किया है कि यह लकड़ी उसकी थी। उस अवैधता पर आज तक पर्दा पड़ा हुआ है। अब सैंज में बादल फटने से जो लकड़ी जीवा नाला से होकर पंडोह तक पहुंची है उसको लेकर भी रहस्य बना हुआ है कि यह लकड़ी किसकी है। टनों के हिसाब से पंडोह डैम में लकड़ी पहुंची है। वन निगम जिसके माध्यम से वन विभाग लकड़ी का निस्तारण करता है उसके उपाध्यक्ष ने साफ कहा है कि यह लकड़ी वन निगम की नहीं है। क्षेत्र के वन विभाग के अधिकारियों ने भी इस लकड़ी के बारे में स्पष्ट कुछ नहीं कहा है इसे बालन की लकड़ी कहकर पल्ला झाड़ने का प्रयास किया है। इस लकड़ी के जो वीडियो सामने आये हैं उनसे स्पष्ट हो जाता है कि यह करोड़ो की लकड़ी है। यदि किसी प्राइवेट आदमी की इतनी मात्रा में वैध लकड़ी इस तरह बह जाती तो वह तो तूफान खड़ा कर देता। परन्तु ऐसा भी कुछ सामने नहीं आया है। टनों के हिसाब से लकड़ी सामने है लेकिन इसका मालिक कोई नहीं है। सरकार के वन विभाग का लकड़ी के निस्तारण का काम वन विभाग के माध्यम से होता है और वन विभाग लकड़ी का मालिक होने से इन्कार कर रहा है तो स्वभाविक है कि यह लकड़ी अवैध कटान की ही है क्योंकि बारिश में आसमान से तो यह टपकी नहीं है? सरकार ने अभी तक इस लकड़ी का स्रोत पता लगाने के लिये कोई कदम नहीं उठाये हैं इस बारे में कोई जांच गठित नहीं की गयी है। वन विभाग का प्रभार स्वयं मुख्यमंत्री के पास है। सरकार में किसी मंत्री ने इस पर कोई सवाल नहीं उठाया है। केवल अखिल भारतीय कांग्रेस प्रवक्ता विधायक कुलदीप राठौर ने इसकी जांच किये जाने की मांग की है। सरकार की ओर से आधिकारिक रूप से इस पर कुछ न कहने से और भी कई सवाल खड़े हो जाते हैं। यहां तक पॉवर प्रोजेक्ट का निर्माण कर रही कंपनी तक सवाल उठने लग पड़े हैं।


भ्रष्टाचार के अहम मुद्दों पर प्रदेश भाजपा की खामोशी सवालों में

शिमला/शैल। क्या व्यवस्था परिवर्तन में भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच न करना भी शामिल है? क्या व्यवस्था परिवर्तन के नाम पर विपक्ष का भी गंभीर मुद्दों पर खामोश रहना शामिल है? क्या व्यवस्था परिवर्तन के नाम जनता की सुविधा केवल भाषणों तक ही सीमित रह गई है? यह सारे सवाल इसलिये उठ रहे हैं क्योंकि भ्रष्टाचार पर जो आचरण पूर्व सरकार का था वहीं कुछ इस सरकार में भी हो रहा है। पूर्व सरकार में भ्रष्टाचार के उन आरोपों पर भी कोई कारवाई नहीं हुई जो भाजपा ने बतौर विपक्ष अपने आरोप पत्रों में लगाये थे। कोविड काल में हुई कई खरीदें विवादित रही और मामले बने लेकिन उन मामलों का क्या हुआ वह आज तक सामने नहीं आ पाया है और सरकार बदलने के बाद कांग्रेस ने भी उसी परंपरा को निभाने का आचरण जारी रखा है। बल्कि विधानसभा चुनावों के दौरान जो आरोप पत्र पूर्व सरकार के खिलाफ जनता में जारी किया था उस पर भी कोई कारवाई नहीं हुई है। भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने वाले दोनों सरकारों में बराबर प्रताड़ित होते रहे हैं।
स्व. विमल नेगी की मौत इसी वस्तुस्थिति का ही परिणाम है। क्योंकि 2023 में ही पॉवर कारपोरेशन में व्यापक भ्रष्टाचार को लेकर एक पत्र वायरल हुआ था उस पत्र का गंभीरता से संज्ञान नहीं लिया गया बल्कि जिन पत्रकारों ने उस पत्र पर सरकार से गंभीर सवाल पूछे उन्हें ही प्रताड़ित किया गया। यदि उस पत्र का गंभीरता से संज्ञान ले लिया जाता तो शायद विमल नेगी प्रकरण न घटता। इसी तरह कांग्रेस नेता बैंस ने जो आरोप विजिलैन्स को सौंपी अपनी शिकायत में लगा रखे हैं उन आरोपों का न तो कोई खंडन किसी कोने से आया है और न ही विजिलैन्स ने उन आरोपों पर अभी तक कोई कारवाई की है। जबकि बैंस शायद विजिलैन्स को यह चेतावनी भी दे चुके हैं कि यदि इन आरोपों की जांच के लिये उन्हें विजिलैन्स मुख्यालय से बाहर अनशन पर भी बैठना पड़ा तो वह ऐसा भी करेंगे। क्योंकि बैंस के खिलाफ कांगड़ा के ऋण मामले को लेकर जो मामला दर्ज किया गया था उसमें बैंस को प्रदेश उच्च न्यायालय से जमानत मिल चुकी है और जमानत के फैसले में मान्य उच्च न्यायालय ने अधिकारियों के आचरण पर जिस तरह की टिप्पणियां कर रखी है उससे बैंस द्वारा लगाये गये आरोपों की गंभीरता और गहरा जाती है। भ्रष्टाचार पर शिमला के एस.पी. रहे संजीव गांधी ने अपनी एल.पी.ए. में मुख्य सचिव और डीजीपी के आचरण पर जिस तरह के सवाल उठा रखे हैं उससे भी सरकार की भ्रष्टाचार पर मानसिकता ही उजागर होती है। यह अलग विषय है कि यदि संजीव गांधी को एल.पी.ए. दायर न करनी पड़ती तो शायद सरकार के इन शीर्ष चेहरों पर से यह नकाब न उतरती। लेकिन इस में यह सब सामने आने के बाद भी सरकार अपने स्तर पर इन बड़ों के खिलाफ कोई कारवाई नहीं कर पा रही है। सरकार का यह आचरण भी सरकार के भ्रष्टाचार के प्रतिरूख को ही स्पष्ट करता है।
लेकिन इसी सब में विपक्ष की भूमिका पर भी गंभीर सवाल उठने शुरू हो गये हैं। इस सरकार ने लैण्ड सीलिंग एक्ट में संशोधन कर बेटियों को हक देने का विधेयक पारित किया है। लेकिन यह विधेयक लाये जाने से पूर्व सरकार ने इस बारे में कोई आंकड़े नहीं जुटाये हैं कि लैण्ड सीलिंग एक्ट तो 1974 में पारित होकर 1971 से लागू हो चुका है। ऐसे में पिछले पचास वर्षों में ऐसे कितने मामले आज भी प्रदेश में मौजूद हैं जिनमें यह एक्ट लागू ही नहीं हो सका है। या ऐसे कितने नये मामले खड़े हो गये हैं जिन्होंने सीलिंग एक्ट को अंगूठा दिखाते हुए आज सीलिंग से अधिक जमीन इकट्ठी कर ली है। यह एक बहुत ही संवेदनशील मामला है और इस पर भविष्य में सवाल अवश्य उठेंगे। लेकिन इस मामले पर विपक्ष की खामोशी अपने में ही कई सवाल खड़े कर जाती है। क्योंकि विपक्ष जब देहरा विधानसभा उपचुनाव के दौरान कांगड़ा केंद्रीय सहकारी बैंक धर्मशाला और जिला कल्याण अधिकारी द्वारा 78.50 लाख रुपए बांटे जाने की अपने ही भाजपा प्रत्याशी द्वारा राज्यपाल को सौंपी गई शिकायत पर चुप है तो स्पष्ट हो जाता है कि भ्रष्टाचार के इस हमाम में सब बराबर के नंगे हैं। जनता को भ्रमित करने के लिये कुछ ऐसे मद्दों को उछाला जा रहा है जिसे सत्तारूढ़ सरकार और विपक्ष की आपसी रस्म अदायगी जनता के सामने आती रहे। प्रदेश के वित्तीय संकट पर दोनों पक्ष इस रस्म अदायगी को ही तो निभा रहे हैं। जब बढ़ते कर्ज से भविष्य लगातार असुरक्षित होता जा रहा है लेकिन इस मुद्दे पर रस्म अदायगी से ज्यादा कुछ नहीं हो रहा है।

प्रदेश कांग्रेस को क्यों नहीं मिल रहा नया अध्यक्ष?

  • कोई भी मंत्री अपना पद छोड़कर संगठन की जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं।

शिमला/शैल। प्रदेश कांग्रेस के नये अध्यक्ष का चयन क्यों नहीं हो पा रहा है? यह सवाल अब आम चर्चा का विषय बनता जा रहा है। क्योंकि सात माह पहले प्रदेश अध्यक्षा श्रीमती प्रतिभा सिंह को छोड़कर राज्य से लेकर ब्लॉक स्तर तक की सारी कार्यकारिणीयां भंग कर दी गई थी। तब यह तर्क दिया गया था कि निष्क्रिय पदाधिकारी के स्थान पर नये कर्मठ लोगों को संगठन में जिम्मेदारियां दी जायेंगी। नये लोगों की तलाश के लिये एक पर्यवेक्षकों की टीम भेजी गई थी। इस टीम की रिपोर्ट पर नये पदाधिकारी का चयन होगा। लेकिन कोई परिणाम सामने नहीं आया। इसी बीच राजीव शुक्ला की जगह रजनी पाटिल को प्रभारी बनाकर भेज दिया गया। रजनी पाटिल ने भी बड़े आश्वासन दिये परन्तु स्थितियां नहीं बदली। प्रदेश अध्यक्षा प्रतिभा सिंह ने यह स्वीकार किया कि राहुल गांधी से भी आग्रह किया गया था की नई कार्यकारिणी का गठन शीघ्र किया जाये। लेकिन इसका भी कोई परिणाम नहीं निकला। इसी बीच प्रदेश अध्यक्ष भी नया ही बनाये जाने की चर्चा चल पड़ी है। इस चर्चा पर प्रतिभा सिंह का यह ब्यान आया था कि नया अध्यक्ष रबर स्टैंप नहीं होना चाहिये। पिछले दिनों यह भी चर्चा में रहा कि नया अध्यक्ष अनुसूचित जाति से होगा यह सिद्धांत रूप से तय हो गया है। इस दिशा में कई नाम भी चर्चित हुये और कहा गया कि नया अध्यक्ष और प्रदेश मंत्रिमंडल का विस्तार एक साथ ही हो जायेगा। क्योंकि मंत्रिमंडल में एक स्थान खाली चल रहा है। लेकिन जो परिस्थितियों चल रही हैं उनके अनुसार अभी निकट भविष्य में ऐसा कुछ होता नजर नहीं आ रहा है।
प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बने अढ़ाई वर्ष का समय हो गया है। विधानसभा चुनाव के दौरान प्रतिभा सिंह प्रदेश कांग्रेस की अध्यक्ष थी लेकिन जब मुख्यमंत्री के चयन की बात आयी तब प्रदेश अध्यक्ष कि उस चयन में कितनी भागीदारी रही यह पूरा प्रदेश जानता है। बल्कि मुख्यमंत्री के बाद जब मंत्री परिषद का विस्तार और इस विस्तार से पहले कितना अभियान दिया गया यह भी पूरा प्रदेश जानता है। बल्कि मंत्रिमंडल के विस्तार के बाद तो संगठन और सरकार सीधे-सीधे दो अलग ध्रुवों की तरह जनता के सामने आते चले गये। सक्रिय कार्यकर्ताओं को सरकार में सम्मानजनक समायोजन दिया जाये इसके लिये हाईकमान तक से शिकायतें हुई और एक कोआर्डिनेशन कमेटी तक का गठन हुआ लेकिन इस कमेटी से कितनी सलाह ली गयी यह सब भी जग जाहिर हो चुका है। व्यवहारिक रूप से सरकार के सामने संगठन की भूमिका ही नहीं रह गयी है। संगठन की भूमिका ही सरकार के आगे पूरी तरह से गौण हो चुकी है। आज सरकार के सामने संगठन का कोई स्थान ही नहीं रह गया है और निकट भविष्य में इसमें कोई बदलाव आने की भी संभावना नहीं दिख रही है। आज यह स्थिति बन गयी है की सरकार की भी संभावना नहीं दिख रही है। आज यह स्थिति बन गयी है कि सरकार के सामने संगठन की शायद कोई आवश्यकता ही नहीं रह गयी है। इसलिये अगला अध्यक्ष कौन बनता है और उसकी कार्यकारिणी की क्या शक्ल होती है इसका तब तक कोई अर्थ नहीं होगा जब तक सरकार के अपने आचरण में परिवर्तन नहीं होता।
क्योंकि संगठन तो सरकार के फैसलों को जनता में ले जाने का माध्यम होता है। लेकिन आज प्रदेश सरकार जिस तरह के फैसले लेती जा रही है उससे सरकार और आम जनता में लगातार दूरी बढ़ती जा रही है। कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव के दौरान लोगों को जो दस गारंटियां दी थी उनकी व्यवहारिक अनुपालना शून्य है। कांग्रेस का कार्यकर्ता सरकार का क्या संदेश लेकर जनता के बीच में जायेगा। राष्ट्रीय स्तर पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जीतने विवादित होते जा रहे हैं उसी अनुपात में प्रदेश सरकार केंद्र पर आश्रित होती जा रही है। प्रदेश भाजपा इस स्थिति का पूरा-पूरा राजनीतिक लाभ उठाती जा रही है। वित्तीय स्थिति इस कदर बिगड़ चुकी है कि उसकी आड़ लेकर केंद्र कब प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू कर दे यह आशंका बराबर बनी हुई है। जिस सरकार के मुख्यमंत्री के अपने प्रभार के विभाग में एक वरिष्ठ अधिकारी की मौत के कारणों की जांच उच्च न्यायालय को सी.बी.आई. को सौंपनी पड़ जाये और वह मौत आत्महत्या की जगह हत्या की ओर इंगित होती जाये उस सरकार की सामान्य स्थिति को क्या कहा जायेगा। यही नहीं इसी सरकार के मुख्य सचिव के सेवा विस्तार का मामला जिस मोड़ पर उच्च न्यायालय में खड़ा है क्या वह केंद्र और राज्य के संबंधों की व्यवहारिकता की ओर एक बड़ा संकेत नहीं है। आने वाले दिनों में प्रदेश सरकार के यह फैसले राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बनेंगे यह तय है।
इस वस्तु स्थिति में यह सवाल बराबर ध्यान आकर्षित करता है कि क्या कांग्रेस हाईकमान के सामने प्रदेश के यह मुद्दे नहीं पहुंचे हैं? क्या हाईकमान इतने गंभीर मामलों के बारे में अभी तक अनभिज्ञ ही है? कांग्रेस जहां भी चुनाव में जायेगी वहीं पर उसे कुछ आश्वासन देने पड़ेंगे। कुछ घोषणाएं करनी पड़ेगी। क्या उस समय कांग्रेस हाईकमान की विश्वसनीयता पर हिमाचल की कांग्रेस सरकार का आचरण प्रश्नचिन्ह नहीं लगायेगा? क्या यह हाईकमान के संज्ञान में यथास्थिति लाना प्रदेश प्रभारी की जिम्मेदारी नहीं बनती? क्या किसी प्रदेश की वित्तीय स्थिति और वहां के संसाधनों का अनुमान लगाये बिना क्या कोई चुनावी वायदे किये जाने चाहिए? क्या वित्तीय स्थिति का प्रभाव सरकार के अपने आचरण पर नहीं दिखना चाहिए? इस मानक पर हिमाचल सरकार बुरी तरह उलझी हुई है। आज हिमाचल में कोई भी नेता संगठन की जिम्मेदारी लेने के लिये शायद तैयार नहीं है। कोई भी मंत्री अपना मंत्री पद छोड़कर संगठन की जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं है और इसी से सरकार के व्यवहारिक प्रभाव का पता चल जाता है।

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