Thursday, 18 September 2025
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क्या केंद्रीय योजनाओं का पैसा कर्मचारियों के वेतन पर खर्च किया जा सकता है?

  • पूर्व सरकार द्वारा छोड़ी गयी किस देनदारी का इस सरकार ने कितना भुगतान किया इसका कोई आंकड़ा क्यों जारी नहीं हुआ?
  • जब सरकार ने कर और शुल्क बढ़ाकर तीन हजार करोड़ कमाये हैं तो फिर कर मुक्त बजट कैसे
  • अब तक लिया गया कर्ज कहां-कहां निवेश हुआ है क्या इसका ब्योरा सामने लायेगी सरकार?

शिमला/शैल। पिछले दिनों नेता प्रतिपक्ष जयराम ठाकुर में सरकार पर यह आरोप लगाया कि कुछ समय से ट्रेजरी ही बन्द चल रही है और सारे ठेकेदारों के बिल लंबित पड़े हुये हैं। इसी के साथ यह आरोप लगाया था कि केंद्रीय स्कीमों के तहत आये पैसे से कर्मचारियों के वेतन का भुगतान किया जा रहा है। इसके लिये समग्र शिक्षा के लिये आये पैसे से अध्यापकों का वेतन दिये जाने के लिये सरकार द्वारा इस संबंध में लिखे पत्र का हवाला भी दिया गया था। केंद्रीय योजनाओं के पैसे को डाइवर्ट करके कर्मचारियों के वेतन देने के लिये इस्तेमाल करना अपने में एक बड़ी वित्तीय अनियमितता है। इसका संज्ञान लेकर केंद्र इन योजनाओं के लिये पैसे भेजने पर रोक भी लगा सकता है। नेता प्रतिपक्ष के इस आरोप का जवाब देते हुये मुख्यमंत्री ने कहा कि पैसे की कोई कमी नहीं है। पैसा सही इस्तेमाल के लिये उपलब्ध है लूटने के लिये नहीं। इसी के साथ मुख्यमंत्री ने कहा की व्यवस्था बदलने के लिये नियम बदले जा रहे हैं और इसी का प्रभाव ट्रेजरी पर पड़ा है। शीघ्र ठेकेदारों के बिलों का भुगतान कर दिया जायेगा। मुख्यमंत्री के इस ब्यान की स्पोर्ट में विधायकों मलिन्द्र राजन और अजय सोलंकी ने एक संयुक्त ब्यान में वित्तीय संकट के लिये पूर्व की जयराम सरकार को जिम्मेदार ठहराते हुये आरोप लगाया कि पूर्व सरकार ने अन्तिम छः माह में कर्ज लेकर रेवड़ियां बांटते हुये साधन संपन्न लोगों को भी सब्सिडी के दायरे में रखा। विधायकों ने आरोप लगाया है कि पिछली सरकार 75000 करोड़ का कर्ज और दस हजार करोड़ की कर्मचारियों की देनदारियां विरासत में छोड़ गयी है। जबकि इस सरकार ने एक्साईज, टूरिज्म, पावर और माइनिंग पॉलिसी में बदलाव करके तीन हजार करोड़ की आय अर्जित की है।
सुक्खू सरकार ने दिसम्बर 2022 में प्रदेश की सत्ता संभाली थी और सत्ता संभालते ही यह चेतावनी दी थी कि प्रदेश की हालत कभी भी श्रीलंका जैसे हो सकते हैं। यह चेतावनी देने से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रदेश की कठिन वित्तीय स्थिति का इस सरकार को पता था। इससे यह सवाल उठता है कि जब वित्तीय स्थिति का पता था तो किस आधार पर गारन्टीयां देने और उन्हें पूरा करने का उपक्रम किया गया? जब वित्तीय स्थिति ठीक नहीं थी तो फिर मुख्य संसदीय सचिवों की नियुक्तियां क्यों की गयी? कठिन वित्तीय स्थिति के बावजूद प्रदेश पर कैबिनेट का दर्जा देकर सलाहकारों और ओ.एस.डी. का भार क्यों डाला गया? क्योंकि कठिन वित्तीय स्थिति में यदि सरकार अपने अनावश्यक खर्चों पर रोक नहीं लगाती है तो उसकी विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह लग जाते हैं।
इसी के साथ यह सवाल भी उठता है कि सरकार के सत्ता में दो वर्ष हो गये हैं। इन दो वर्षों में सरकार ने दो कर मुक्त बजट पेश किये हैं। पांच गारन्टियां पूरी करने का दावा किया है। इन दो वर्षों में सरकार ने कर्मचारियों के दस हजार की विरासत में मिली देनदारी में से इस सरकार ने कितना अदा कर दिया है इसका कोई आंकड़ा अब तक जारी नहीं हो सका है। पिछली सरकार द्वारा लिये गये कर्ज में से कितने की आदायगी इस सरकार द्वारा की गयी है इसका भी कोई आंकड़ा सामने नहीं आया है। जबकि सरकार के कर्ज लेने की सीमा में कटौती राष्ट्रीय नीति के तहत हुई है। कोविड काल में जो सीमा साढ़े पांच प्रतिशत थी वह कोविड काल के बाद फिर साढे़ तीन प्रतिशत कर दी गयी है। इस तरह यह सवाल अनुतरित बना हुआ है कि पिछली सरकार द्वारा लिये गये कर्ज और छोड़ी गयी देनदारी का सरकार पर व्यवहारिक असर क्या पड़ा है। जब सरकार ने कर और शुल्क बढ़ाकर तीन हजार करोड़ अर्जित किये हैं तो फिर कर मुक्त बजट पेश करने के दावों का औचित्य क्या है। सरकार के इन दोनों बजटों में सरकार कि कुल आय और व्यय में बीस हजार करोड़ से कम का अन्तर रहा है। लेकिन इस अन्तर को पाटने के लिये तीस हजार करोड़ से अधिक का कर्ज क्यों ले लिया गया और उसका निवेश कहां हुआ है यह सवाल भी लगातार अनुतरित रहा है। जबकि नियमों के अनुसार सरकार अपने प्रतिबद्ध खर्चों के लिये कर्ज नहीं ले सकती है। कर्ज उसी कार्य के लिये लिया जा सकता है जिससे सरकार के खजाने को प्रत्यक्ष लाभ पहुंचे। इसलिए सरकार को अब तक लिये गये कुल एक लाख पांच हजार करोड़ के कर्ज का यह श्वेत पत्र जारी करना चाहिये कि किस कार्य के लिये कितना कर्ज लिया गया और उससे राजस्व में कितनी बढ़ौतरी हुई। मुफ्ती के वायदों को पूरा करने के लिये नियमों में कर्ज लेने का कोई प्रावधान नहीं है। यह तथ्य विधायकों और जनता दोनों को समझना होगा। अन्यथा केंद्रीय योजनाओं के पैसे को राज्य सरकार के कर्मचारियों के वेतन के लिये इस्तेमाल करने के परिणाम घातक हो सकते हैं।

क्या केंद्रीय योजनाओं का पैसा कर्मचारियों के वेतन पर खर्च किया जा सकता है?

  • पूर्व सरकार द्वारा छोड़ी गयी किस देनदारी का इस सरकार ने कितना भुगतान किया इसका कोई आंकड़ा क्यों जारी नहीं हुआ?
  • जब सरकार ने कर और शुल्क बढ़ाकर तीन हजार करोड़ कमाये हैं तो फिर कर मुक्त बजट कैसे
  • अब तक लिया गया कर्ज कहां-कहां निवेश हुआ है क्या इसका ब्योरा सामने लायेगी सरकार?

शिमला/शैल। पिछले दिनों नेता प्रतिपक्ष जयराम ठाकुर में सरकार पर यह आरोप लगाया कि कुछ समय से ट्रेजरी ही बन्द चल रही है और सारे ठेकेदारों के बिल लंबित पड़े हुये हैं। इसी के साथ यह आरोप लगाया था कि केंद्रीय स्कीमों के तहत आये पैसे से कर्मचारियों के वेतन का भुगतान किया जा रहा है। इसके लिये समग्र शिक्षा के लिये आये पैसे से अध्यापकों का वेतन दिये जाने के लिये सरकार द्वारा इस संबंध में लिखे पत्र का हवाला भी दिया गया था। केंद्रीय योजनाओं के पैसे को डाइवर्ट करके कर्मचारियों के वेतन देने के लिये इस्तेमाल करना अपने में एक बड़ी वित्तीय अनियमितता है। इसका संज्ञान लेकर केंद्र इन योजनाओं के लिये पैसे भेजने पर रोक भी लगा सकता है। नेता प्रतिपक्ष के इस आरोप का जवाब देते हुये मुख्यमंत्री ने कहा कि पैसे की कोई कमी नहीं है। पैसा सही इस्तेमाल के लिये उपलब्ध है लूटने के लिये नहीं। इसी के साथ मुख्यमंत्री ने कहा की व्यवस्था बदलने के लिये नियम बदले जा रहे हैं और इसी का प्रभाव ट्रेजरी पर पड़ा है। शीघ्र ठेकेदारों के बिलों का भुगतान कर दिया जायेगा। मुख्यमंत्री के इस ब्यान की स्पोर्ट में विधायकों मलिन्द्र राजन और अजय सोलंकी ने एक संयुक्त ब्यान में वित्तीय संकट के लिये पूर्व की जयराम सरकार को जिम्मेदार ठहराते हुये आरोप लगाया कि पूर्व सरकार ने अन्तिम छः माह में कर्ज लेकर रेवड़ियां बांटते हुये साधन संपन्न लोगों को भी सब्सिडी के दायरे में रखा। विधायकों ने आरोप लगाया है कि पिछली सरकार 75000 करोड़ का कर्ज और दस हजार करोड़ की कर्मचारियों की देनदारियां विरासत में छोड़ गयी है। जबकि इस सरकार ने एक्साईज, टूरिज्म, पावर और माइनिंग पॉलिसी में बदलाव करके तीन हजार करोड़ की आय अर्जित की है।
सुक्खू सरकार ने दिसम्बर 2022 में प्रदेश की सत्ता संभाली थी और सत्ता संभालते ही यह चेतावनी दी थी कि प्रदेश की हालत कभी भी श्रीलंका जैसे हो सकते हैं। यह चेतावनी देने से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रदेश की कठिन वित्तीय स्थिति का इस सरकार को पता था। इससे यह सवाल उठता है कि जब वित्तीय स्थिति का पता था तो किस आधार पर गारन्टीयां देने और उन्हें पूरा करने का उपक्रम किया गया? जब वित्तीय स्थिति ठीक नहीं थी तो फिर मुख्य संसदीय सचिवों की नियुक्तियां क्यों की गयी? कठिन वित्तीय स्थिति के बावजूद प्रदेश पर कैबिनेट का दर्जा देकर सलाहकारों और ओ.एस.डी. का भार क्यों डाला गया? क्योंकि कठिन वित्तीय स्थिति में यदि सरकार अपने अनावश्यक खर्चों पर रोक नहीं लगाती है तो उसकी विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह लग जाते हैं।
इसी के साथ यह सवाल भी उठता है कि सरकार के सत्ता में दो वर्ष हो गये हैं। इन दो वर्षों में सरकार ने दो कर मुक्त बजट पेश किये हैं। पांच गारन्टियां पूरी करने का दावा किया है। इन दो वर्षों में सरकार ने कर्मचारियों के दस हजार की विरासत में मिली देनदारी में से इस सरकार ने कितना अदा कर दिया है इसका कोई आंकड़ा अब तक जारी नहीं हो सका है। पिछली सरकार द्वारा लिये गये कर्ज में से कितने की आदायगी इस सरकार द्वारा की गयी है इसका भी कोई आंकड़ा सामने नहीं आया है। जबकि सरकार के कर्ज लेने की सीमा में कटौती राष्ट्रीय नीति के तहत हुई है। कोविड काल में जो सीमा साढ़े पांच प्रतिशत थी वह कोविड काल के बाद फिर साढे़ तीन प्रतिशत कर दी गयी है। इस तरह यह सवाल अनुतरित बना हुआ है कि पिछली सरकार द्वारा लिये गये कर्ज और छोड़ी गयी देनदारी का सरकार पर व्यवहारिक असर क्या पड़ा है। जब सरकार ने कर और शुल्क बढ़ाकर तीन हजार करोड़ अर्जित किये हैं तो फिर कर मुक्त बजट पेश करने के दावों का औचित्य क्या है। सरकार के इन दोनों बजटों में सरकार कि कुल आय और व्यय में बीस हजार करोड़ से कम का अन्तर रहा है। लेकिन इस अन्तर को पाटने के लिये तीस हजार करोड़ से अधिक का कर्ज क्यों ले लिया गया और उसका निवेश कहां हुआ है यह सवाल भी लगातार अनुतरित रहा है। जबकि नियमों के अनुसार सरकार अपने प्रतिबद्ध खर्चों के लिये कर्ज नहीं ले सकती है। कर्ज उसी कार्य के लिये लिया जा सकता है जिससे सरकार के खजाने को प्रत्यक्ष लाभ पहुंचे। इसलिए सरकार को अब तक लिये गये कुल एक लाख पांच हजार करोड़ के कर्ज का यह श्वेत पत्र जारी करना चाहिये कि किस कार्य के लिये कितना कर्ज लिया गया और उससे राजस्व में कितनी बढ़ौतरी हुई। मुफ्ती के वायदों को पूरा करने के लिये नियमों में कर्ज लेने का कोई प्रावधान नहीं है। यह तथ्य विधायकों और जनता दोनों को समझना होगा। अन्यथा केंद्रीय योजनाओं के पैसे को राज्य सरकार के कर्मचारियों के वेतन के लिये इस्तेमाल करने के परिणाम घातक हो सकते हैं।

आज की परिस्थितियों में भाजपा भी बराबर सवालों के घेरे में आती है

  • महत्वपूर्ण सवालों पर भाजपा की चुप्पी सन्देह के घेरे में
  • पत्रकारों को भी सरकार का प्रवक्ता या आम आदमी का पक्षकार दोनों में से एक चुनना होगा

शिमला/शैल। इस समय हिमाचल में जिस तरह का राजनीतिक और प्रशासनिक स्थितियां बनती जा रही हैं उनके परिदृश्य में सरकार और सत्तारूढ़ कांग्रेस के साथ ही विपक्षी दल भाजपा भी बराबर सवालों के घेरे में आती जा रही है। यह बराबर आरोप लगता जा रहा है कि वर्तमान सुक्खू सरकार तभी तक सत्ता में बनी रहेगी जब तक उसे परदे के पीछे से भाजपा का सहयोग हासिल है। यह स्थितियां क्या है और कैसे निर्मित हुई तथा इसका प्रदेश पर क्या प्रभाव पड़ा इस पर खुलकर चर्चा करना व सवाल उठाना आवश्यक हो गया है। सुक्खू सरकार ने दिसम्बर 2022 में सत्ता संभाली और फिर पहला काम प्रदेश को यह चेतावनी देने का किया कि राज्य के हालात कभी भी श्रीलंका जैसे हो सकते हैं। इस चेतावनी के बाद विधायकों के शपथ ग्रहण से पहले ही पूर्व मुख्यमंत्री को नेता प्रतिपक्ष की मान्यता दे दी। इस मान्यता का प्रभाव यह हुआ कि इस सरकार द्वारा पिछली सरकार के अंतिम छः माह में लिये फसलों को पलटने के कारण पहले बीस दिनों में ही जो रोष का वातावरण उभरा था उसको ठण्डे बस्ते में डालने के लिए उच्च न्यायालय में याचिका डालने का रूट ले लिया गया और पूरा मामला वहीं रूक कर रह गया। इसी के साथ सरकार ने व्यवस्था परिवर्तन का सूत्र पकड़कर प्रदेश की शीर्ष नौकरशाही को अपने-अपने पदों पर सुरक्षित रखते हुये भ्रष्टाचार के खिलाफ रस्म अदायगी का शिष्टाचार भी नहीं निभाया। इसका परिणाम हुआ कि भ्रष्टाचार तो अपनी जगह फलता फूलता रहा और उसके आरोप पत्र बम्बों की शक्ल में सार्वजनिक भी हुये। इन पत्र बम्बों के सार्वजनिक होने पर मीडिया के खिलाफ तो मामले दर्ज हो गये लेकिन सत्ता पक्ष और विपक्ष ब्यानों/ प्रतिब्यानों की औपचारिकता से आगे नहीं बढ़े। आज तक दोनों पक्ष इस धर्म की अनुपालना पूरी ईमानदारी से निभाते आ रहे हैं। 2017 में जब सुक्खू के चुनाव शपथ पत्र को बसन्त सिंह ठाकुर ने चुनौती दी और मामला प्रदेश उच्च न्यायालय तक पहुंचा और उच्च न्यायालय ने इसकी जांच के आदेश दिये तब हमीरपुर भाजपा के सारे शीर्ष नेतृत्व ने इस पर पत्रकार वार्ता आयोजित कर उस समय तो अपना धर्म निभा दिया। लेकिन उसके बाद आज तक भाजपा इस सबसे संवेदनशील मुद्दे पर मौन साधकर बैठ गयी है। इसी मौन का परिणाम है कि मुख्यमंत्री को सदन में यह कहने का साहस हुआ कि ई.डी. की हिरासत में पहुंचे ज्ञान चन्द विधानसभा में मेरा समर्थक है तो लोकसभा में अनुराग ठाकुर का समर्थक है। स्मरणीय है कि 2017 में मुख्यमंत्री के जिस जमीन मुद्दे को हमीरपुर के भाजपा विधायकों और दूसरे पदाधिकारी ने पत्रकार वार्ताओं के माध्यम से उठाया था आज उस मुद्दे पर यह लोग चुप हो गये हैं। जबकि पिछले वर्ष हमीरपुर और नादौन में ई.डी. तथा आयकर की छापेमारी से पूरा परिदृश्य ही बदल गया है। कुछ लोग ई.डी. की हिरासत में पहुंच गये हैं। इसी प्रकरण का शिकायतकर्ता युद्ध चन्द बैंस खुलकर सामने आ गया है। यह प्रकरण प्रदेश की राजनीति का केन्द्र बिंदु बन चुका है। लेकिन इसी केन्द्रीय मुद्दे पर भाजपा की कोई प्रतिक्रिया नहीं आ रही है।
मुख्यमंत्री के व्यवस्था परिवर्तन के सूत्र ने प्रदेश को कर्ज के ऐसे चक्रव्यूह में लाकर खड़ा कर दिया है जिससे आने वाला भविष्य भी प्रश्नित होता जा रहा है। जिस तरह से हर सेवा और उपभोक्ता वस्तु के शुल्क बढ़ाये जा रहे हैं। उसी अनुपात में प्रदेश के आम आदमी की क्रय शक्ति नहीं बढ़ी है। बिजली राज्य का तमगा लेकर उद्योगों को बुलाने वाले राज्य में आज प्रदेश का आम उपभोक्ता बिजली के बिल अदा करने में असमर्थता के कगार पर पहुंच गया है। लेकिन विपक्ष यह सवाल नहीं उठा पा रहा है कि आम आदमी पर इतना कर्जभार लादने के बाद भी सरकार का कर्ज लेना कम नहीं हो रहा है। यह कर्ज कहां निवेशित हो रहा है इस पर कोई सवाल क्यों नहीं उठाया जा रहा है। जो अधिकारी पिछली सरकार में सर्वे सर्वा और इन्ही मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने उनके खिलाफ सदन में आरोप लगाये थे। आज वही अधिकारी इस सरकार में मुख्य सलाहकार की भूमिका में है। यह आम चर्चा है कि ऐसे ही अधिकारी वर्तमान और पूर्व सरकार में सबसे बड़े संपर्क सूत्र की भूमिका निभा रहे हैं। इसलिये सारा विरोध रस्म अदायगी की भूमिका से आगे नहीं बढ़ रहा है। एक ओर भाजपा सांसद हर्ष महाजन दावा कर रहे हैं कि जब चाहे तब सरकार गिरा सकते हैं। लेकिन सरकार से तीखे सवाल पूछने का साहस नहीं कर रहे हैं। इस समय प्रदेश बेरोजगारी में देश में छठे स्थान पर पहुंच चुका है। आठ लाख पंजीकृत बेरोजगार हैं। इस स्थिति में जिस तरह से विधानसभा में हुई नियुक्तियों का पूरा प्रकरण सारे दस्तावेजी परमाणों के साथ सामने आया है और उस पर जिस तरह की प्रतिक्रिया विधानसभा सचिवालय की ओर से सामने आयी है उससे एक बहुत ही गंभीर स्थिति पैदा हो गयी है। इस पर विपक्ष किस तरह से आगे बढ़ता है यह देखना रोचक होगा। क्योंकि यह एक ऐसा संवेदनशील मुद्दा है जिस पर आठ लाख बेरोजगारों का भविष्य और विश्वास टिका हुआ है।
इस परिदृश्य में यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि विपक्ष जनहित के मुद्दों पर ब्यानबाजी के रश्मि विरोध से हटकर किसी जनआन्दोलन का रास्ता अपनाता है या नहीं। यही स्थिति इस समय प्रदेश के मीडिया की है क्योंकि आज सरकार ने मान्यता प्राप्त और गैर मान्यता प्राप्त पत्रकारों की लकीर खींचकर सचिवालय में प्रवेश की अनुमति देने का फैसला लिया है उससे यह सवाल उठने लगा है कि क्या पत्रकार सरकार के प्रवक्ता होने की भूमिका छोड़कर आम आदमी के पक्ष में सरकार से तीखे सवाल पूछने का साहस दिखा पाते हैं या नहीं। इस सरकार के कार्यकाल में जिस तरह से सरकार ने मानहानि का रूट छोड़कर सीधे अपराधिक मामले दर्ज करने की नीति अपनायी है उससे स्पष्ट हो जाता है कि सरकार उससे पूछे जाने वाले तीखे सवालों से डरने लगी है। पत्रकारों को अपने बेवाक लेखन से आगे बढ़ना होगा। पत्रकारों में इस तरह के वर्ग भेद पैदा करके कोई भी सरकार ज्यादा समय तक अपने ऊपर ईमानदारी का चोला पहन कर जनता को गुमराह नहीं कर सकती। इस तरह कुल मिलाकर जो परिस्थितियां बन गयी है उनमें सत्ता पक्ष तो कटघरे में आता ही है लेकिन विपक्ष भी अपनी तटस्थता के कारण बराबर सवालों में आता है।

आउटसोर्स प्रणाली पर उच्च न्यायालय के पूर्ण प्रतिबन्ध के बावजूद कंपनियां आवेदन मांग रही है

  • सरकार कंपनियों के आचरण पर चुप क्यों?
  • प्रतिबन्ध के बाद सरकार ने भी मंत्रियों द्वारा सोशल कोऑर्डिनेटर भर्ती करने की नीति बनाई है
  • क्या सरकार यह भर्ती कर पायेगी?
  • आउटसोर्स भर्ती संविधान के अनुच्छेद 16 की उल्लंघना है

शिमला/शैल। प्रदेश उच्च न्यायालय ने दिसम्बर में आउटसोर्स के माध्यम से की जा रही भर्तीयों पर रोक लगा दी है। उच्च न्यायालय में यह मामला स्वास्थ्य विभाग में नर्साें की प्रस्तावित भर्ती को लेकर आया था। नर्सों की कुछ भर्ती बैचवाइज और कुछ सीधी परीक्षा से होती रही है। लेकिन इस बार यह भर्ती आउटसोर्स के माध्यम से की जा रही थी। उच्च न्यायालय ने आउटसोर्स भर्ती को संविधान के अनुच्छेद 16 का उल्लंघन करार दिया है। याचिकाकर्ता बाल कृष्ण ने अदालत को अवगत करवाया है कि सरकार पिछले 15 वर्षों से नियमित भर्तीयों को टालकर आउटसोर्स के माध्यम से भर्तीयां करती जा रही हैं। इससे सरकार में नियमित पद समाप्त होते जा रहे हैं। इसमें बेरोजगार युवाओं का शोषण भी हो रहा है। क्योंकि उनसे बहुत ही कम वेतन पर काम करवाया जाता है। केन्द्र सरकार में केवल चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी ही आउटसोर्स के माध्यम से रखे जाते हैं। लेकिन प्रदेश में तृतीय श्रेणी के कर्मचारी भी आउटसोर्स के माध्यम से रखे जा रहे हैं और इसके लिये सरकार ने इलेक्ट्रॉनिक्स कॉरपोरेशन को अधिकृत कर रखा है। उच्च न्यायालय के सामने यह सब आने के बाद अदालत ने इलेक्ट्रॉनिक्स कॉरपोरेशन और नाईलेट पर भी आउटसोर्स भर्ती करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया है। स्वास्थ्य विभाग और पर्यटन विभाग पर आउटसोर्स नियुक्तियों पर प्रतिबन्ध लगाते हुये सरकार से आउटसोर्स का सारा डाटा सार्वजनिक रूप से उपलब्ध करवाने के निर्देश पारित किये हैं। इलेक्ट्रॉनिक्स कॉरपोरेशन से इस संद्धर्भ में अपनी भूमिका स्पष्ट करने का भी आदेश दिया है। सरकार ने यह प्रतिबन्ध हटाने के लिये अभी जनवरी में अदालत से गुहार लगाई थी। अदालत ने सरकार के आग्रह को ठुकराते हुये आउटसोर्स पर प्रतिबन्ध को जारी रखा है। अदालत ने आउटसोर्स भर्ती में शामिल कंपनियों और चयनित उम्मीदवारों का विवरण सार्वजनिक करने के भी निर्देश दिये हैं। अदालत में यह भी सामने आया है कि प्रदेश में आउटसोर्स भर्ती में शामिल 104 कंपनियां फर्जी हैं। अदालत के इन निर्देशों के बाद भी सरकार ने मंत्रियों को सोशल काऑर्डिनेटर आउटसोर्स के माध्यम से लगाने की नीति बनाई है। अब यह देखना रोचक होगा कि उच्च न्यायालय द्वारा आउटसोर्स पर प्रतिबन्ध लगाने के बाद भी सरकार अपने फैसले पर कायम रहती है या नहीं। सरकार की तर्ज पर कुछ कंपनियों ने आउटसोर्स के माध्यम से भर्तीयां करने के लिए आवेदन आमंत्रित कर रखे हैं। यह प्रस्तावित भर्तीयां आयुष और पर्यटन तथा शिक्षा विभाग में की जायेगी। इसके लिये प्रार्थीयों से ऑनलाइन आवेदन मांगे गये हैं। ऑनलाइन फॉर्म भरने वाले इसके लिये 300 रूपये तक की फीस ले रहे हैं। यही नहीं आवेदन करने के बाद प्रार्थी संबंधित मंत्रियों के कार्यालय तक शिमला में पहुंच रहे हैं। प्रार्थियों के पहुंचने से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह सब कुछ मंत्रियों के भी संज्ञान में है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि जब प्रदेश उच्च न्यायालय ने आउटसोर्स भर्ती को संविधान के अनुच्छेद 16 की उल्लंघना करार देते हुये इस पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगा रखा है तब युवाओं का इस तरह से शोषण क्यों किया जा रहा है? सरकार एक ब्यान जारी करके आम युवा को इस बारे में जानकारी क्यों नहीं दे रही है? जो कंपनियां उच्च न्यायालय के प्रतिबन्ध के बावजूद युवाओं से आवेदन आमंत्रित कर रही हैं उनके खिलाफ कारवाई क्यों नहीं की जा रही है।

हिमाचल उच्च न्यायालय द्वारा ज्ञान चंद की जमानत याचिका खारिज करने के बाद ई.डी. ने दायर कर दिया चालान

  • बैंस ने भी इसी मामले में ई.डी. में शिकायतकर्ता होने का दावा किया है
  • बैंस की शिकायत में नामितों  के खिलाफ कोई कारवाई होना अभी तक सामने नहीं आया है

शिमला/शैल। अवैध खनन और मनी लॉन्ड्रिंग में ई.डी. की डासना जेल पहुंच चुके नादौन के खनन कारोबारी ज्ञान चन्द की हिमाचल उच्च न्यायालय ने जमानत याचिका खारिज करते हुये कहा है कि याचिकाकर्ता को जमानत देने का कोई आधार नहीं बनता है। अदालत के सामने आये रिकॉर्ड के मुताबिक ज्ञान चन्द आदि के खिलाफ ई.डी.ने 2-7-24 को मामला दर्ज किया और चार-पांच जुलाई को छापेमारी की। इस छापेमारी में जो दस्तावेज संजय के आवास से बरामद हुये उनमें यह भी सामने आया की याचिकाकर्ता ने 2023-24 को उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में 4.70 करोड़ से एक स्टोन क्रेशर खरीदा है। जिसमें 1.6 करोड़ का भुगतान कैश में किया गया है। यह कैश हिमाचल में हुये अवैध खनन से अर्जित किया गया। इसी कड़ी में साथ 7-11-24 को सहारनपुर में भी वहां के खनन इंस्पैक्टर ने भी धारा 379, 413, 415, 417, 418, 424, 471 और आई.पी.सी. की धारा 120ठ आदि में एफआईआर दर्ज की गयी है। इस तरह जो तथ्य ई.डी. द्वारा उच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति बिपिन चन्द्र नेगी की एकल पीठ के सामने रखे उनके आधार पर अदालत में याचिकाकर्ता को जमानत देने से इन्कार कर दिया। अदालत ने अपने फैसले में साफ कहा है कि The facts, in the case at hand, made out from the grounds of arrest and reasons to believe prima facie reflect that the officer, in the case at hand, had material in his possession, on the basis of which in writing reasons to believe were recorded, that the applicant, who is to be arrested is guilty of the offence under the Act. As is the requirement of law, grounds of arrest and reasons to believe were supplied to the applicant upon his arrest. The conclusion drawn prima facie appears to logically flow from the facts. Prima facie neither there exists any error of nor there appears to be any improper exercise of power.

In view of the aforesaid, I am of the considered view that no case for grant of bail has been made out in terms of Section 45 of the PML Act, as there exist reasonable grounds for believing that the applicant is guilty of such offence. Moreover, taking into account the antecedent of the applicant, his propensities, the way and manner in which the applicant is alleged to have committed the offence, in my considered view, the applicant is likely to commit similar offences, if enlarged on bail in the future.
Necessity of arrest, in the case at hand, has been made out in the reasons to believe (Page 427 of the paper book). No case is made out for grant of bail at this stage.

हिमाचल उच्च न्यायालय के इस फैसले के बाद ई.डी. ने ज्ञानचन्द और सात अन्य आरोपियों के खिलाफ धन शोधन मामले में गाजियाबाद की विशेष अदालत में चालान दायर कर दिया है जिसका संज्ञान भी अदालत ने ले लिया है। ई.डी. ने चालान के साथ ही मामले में जांच भी जारी रखने की बात कही है। अब इस आगामी जांच में कब क्या सामने आता है और उसका अनुपूरक चालान कब पेश होता है इस पर निगाहें लगी रहेंगी। क्योंकि इसी मामले के दौरान युद्ध चन्द बैंस के खिलाफ केसीसी बैंक के ऋण मामले में राज्य विजिलैन्स ने एफआईआर दर्ज कर ली थी। यह एफआईआर दर्ज होने के बाद बैंस ने ऊना में एक पत्रकार वार्ता में इसी ज्ञान चन्द और अन्य के खिलाफ बहुत ही गंभीर आरोप लगा रखे हैं। इन आरोपों में बैंस ने दावा किया है कि ज्ञान चन्द आदि के खिलाफ ई.डी. में शिकायतकर्ता भी वही है। बैंस को केन्द्र के गृह मंत्रालय द्वारा सुरक्षा भी प्रदान की गई है। उच्च न्यायालय ने बैंस को अंतरिम जमानत भी दी है। विजिलैन्स यह जमानत रद्द करवाने का प्रयास कर रही है। बैंस ने जिन लोगों के खिलाफ ई.डी. में शिकायत दर्ज करवाने की बात की है उनमें से किसी की भी कोई पूछताछ नहीं हुई है। अब ई.डी. द्वारा ज्ञान चंद और सात अन्य के खिलाफ चालान दायर कर दिये जाने के बाद बैंस द्वारा अपनी शिकायत में नामितों को लेकर क्या कारवाई होती है यह देखना रोचक हो गया है।

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