Thursday, 18 September 2025
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क्या बजट में घोषित योजनाएं जमीनी हकीकत बन पायेगी?

  • बजट का आकार केवल 70 करोड़ बढ़ने से उठा सवाल।
  • पूंजीगत कार्यों के लिये इस बार 4% कम है प्रावधान
  • क्या सारे स्कूलों में इंग्लिश मीडियम लागू है?
  • क्या करीब पांच लाख किसान प्राकृतिक खेती और खुशहाल किसान योजना में कवर हो गये हैं?
शिमला/शैल। मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने वर्ष 2025-26 के लिये 58,514 करोड़ का कुल बजट प्रस्तावित किया है। बजट का यह आकार पिछले वर्ष के 58,444 करोड़ से केवल 70 करोड रुपये अधिक है। बजट का बड़ा भाग राजस्व व्यय पर खर्च होता है क्योंकि उसमें प्रतिबद्ध खर्चें आते हैं जिन्हें कम नहीं किया जा सकता। सरकार के इन प्रतिबद्ध खर्चों में वेतन पर 25, पैन्शन पर 20, ब्याज अदायगी पर 12, कर्ज़ अदायगी पर 10, स्वायत संस्थाओं को ग्रांट पर 9 और शेष 24 पूंजीगत मद में खर्च किये जायेंगे। वर्ष 2024-25 में वेतन पर 25, पैन्शन पर 17, ब्याज अदायगी पर 11, कर्ज़ अदायगी पर 9, स्वायत संस्थाओं को ग्रांट पर 10, और शेष 28 पूंजीगत कार्यों के लिये थे। इन आंकड़ों से स्पष्ट हो जाता है कि इस वर्ष विकास कार्यों पर पिछले वर्ष की तुलना में चार प्रतिशत कम खर्च किये जायेंगे। स्वायत संस्थाओं की ग्रांट में भी एक प्रतिशत की कमी आयेगी। इस वर्ष ब्याज और कर्ज अदायगी पर ज्यादा खर्च होगा। इन आंकड़ों से यह स्पष्ट हो जाता है कि इस वर्ष की वितीय स्थिति पिछले वर्ष के मुकाबले काफी कठिन रहेगी। इस कठिनाई से विकास कार्य प्रभावित होंगे और रोजगार भी कम होगा। इन आंकड़ों से यह शंका होना स्वभाविक है कि इस वर्ष के लिये घोषित योजनाओं पर पूरा अमल नहीं हो पायेगा। सरकार के वित्तीय प्रबंधन पर तब सवाल खड़े हो जाते हैं जब 2024-25 के लिए 17053 करोड़ की अनुपूरक मांगे लाने के बाद भी 2025-26 के लिये बजट का आकार केवल 70 करोड़ ही बढ़ता है। इससे यह सामने आता है कि सरकार ने करीब 17000 करोड़ की अनुपूरक मांगे 58,444 करोड़ के बजट में ही काट छांट करके पूरी की हैं। इसके लिये प्रतिबद्ध खर्चों में तो कमी कि नहीं जा सकती। केवल विकासात्मक खर्चों पर ही कैंची चलाई जा सकती है। लेकिन इसी के साथ यह सवाल आता है कि सरकार ने वर्ष के दौरान जो कर्ज लिया वह कहां खर्च हुआ? क्योंकि जब 17000 करोड़ की अनुपूरक मांगे और 10000 करोड़ से अधिक का घाटा पूरा करने के बाद भी बजट का आकार न बढ़े तो यह सवाल तो पूछा ही जायेगा की कर्ज का निवेश कहां हुआ? क्योंकि कर्मचारियों के डी.ए. और संशोधित वेतनमानों का एरियर अब भी अदायगी के लिये पड़ा हुआ है। इस बजट से जहां सरकार के वित्तीय प्रबंधन पर सवाल खड़े हो रहे हैं वहीं पर राज्यपाल के अभिभाषण में दर्ज उपलब्धियों पर भी प्रश्न चिन्ह लग जाता है। राज्यपाल के अभिभाषण में यह कहा गया है कि सरकार ने विधानसभा चुनाव में घोषित दस गारंटीयों में से छः पूरी कर दी है। उन छः गारंटीयों में से एक है कि सारे सरकारी स्कूलों में इंग्लिश माध्यम कर दिया गया है। दूसरी गारंटी प्राकृतिक खेती खुशहाल किसान योजना के तहत 3577 ग्राम पंचायतों में 2,87,000 प्रशिक्षित और 2 लाख 8 हजार अभ्यास शील किसानों को कवर कर दिया गया है। आज प्रदेश की हर पंचायत में दो-तीन स्कूल हैं जहां पर आसानी से इस दावे की पड़ताल हो जायेगी कि हर स्कूल में इंग्लिश मीडियम हुआ है या नहीं। 2011 की जनगणना के मुताबिक प्रदेश में 20690 गांव है सरकार का दावा है कि उसकी योजना के तहत करीब 5 लाख किसान कवर हो चुके हैं। इस दावे का अर्थ है कि प्रदेश के हर गांव से कम से कम एक दर्जन किसान योजना के लाभार्थी है परन्तु क्या व्यवहार में ऐसा है? क्या कांग्रेस का कोई नेता या कार्यकर्ता अपने गांव के लाभार्थीयों की कोई सूची जारी कर पायेगा शायद नहीं। क्योंकि यह सब दावे फाइलों तक ही सीमित हैं उससे आगे कहीं नहीं। इस बार जब पूंजीगत कार्य के लिये धन का प्रावधान ही पिछले वर्ष की तुलना में 4% कम है तब यह स्वभाविक है कि प्रदेश में विकास कार्य प्रभावित होंगे ही। इस बजट के आंकड़ों से यह इंगित होता है कि यह दस्तावेज इन अफसरशाहों ने तैयार किया है जिनका प्रदेश की जनता से कोई सीधा सरोकार नहीं है। विश्लेषकों के मुताबिक यह बजट कांग्रेस के विधायकों और कार्यकर्ताओं को जनता के सामने रखकर उपलब्धि का कोई दावा नहीं करने देगा।
 
मुख्यमंत्री के बजट भाषण 2024-25 के अंश
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
मुख्यमंत्री के बजट भाषण 2025-26 के अंश
 
 
 
 
 
 
 
 
 

विश्वसनीयता बनाने के लिये नेगी प्रकरण सी.बी.आई. को सौंप देना चाहिये

  • यदि देशराज का नाम एफ.आई.आर. में हो सकता है तो मीणा का क्यों नहीं?
  • शोंगटोंग और पेखूबेला परियोजनाओं पर उठते सवाल कब तक नजरअन्दाज होते रहेंगे
  • यदि पत्र बम आने पर उसमें दर्ज आरोपों को गंभीरता से लिया होता तो शायद नेगी की मौत न होती
शिमला/शैल। क्या पावर कॉरपोरेशन के चीफ इंजीनियर विमल नेगी की मौत के लिये जिम्मेदार लोगों को सजा मिल पायेगी? प्रदेश सरकार द्वारा इस मामले में आदेशित जांच और पुलिस द्वारा दर्ज की एफ.आई.आर. की जांच पर भरोसा क्यों नहीं हो पा रहा है? क्या विपक्ष की मांग पर यह मामला सी.बी.आई. को सौप जायेगा? यह सवाल इसलिये उठ रहे हैं क्योंकि जिस दिन से विमल नेगी गायब हुये थे उसके बाद से उनके परिजनों और पावर कारपोरेशन के कर्मियों/सहयोगियों द्वारा यह लगातार कहा जाता रहा कि वह गंभीर मानसिक तनाव में थे। इस मानसिक तनाव के लिये निगम के प्रबंधन को जिम्मेदार बताया जा रहा था। यह कहा जा रहा था कि प्रबंधन उन्हें गलत काम करने के लिये बाध्य कर रहा था। देर तक काम करवाया जाता था। छुट्टी मांगने पर छुट्टी नहीं दी जा रही थी। जब बिमल नेगी की लाश भाखड़ा बांध से शाहतलाई के निकट बरामद हुई तब परिजनों और कॉरपोरेशन के कर्मचारियों ने जिस तरह के आरोप लगाये और निगम के दो अधिकारियों हरिकेश मीणा और देशराज को तुरन्त प्रभाव से निलंबित करने की मांग की। इनके खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज करने की मांग की। इस मांग पर देशराज को तो निलंबित कर दिया गया परन्तु हरिकेश मीणा को नहीं। इस मामले में जो एफ.आई.आर. दर्ज की गयी उसमें देशराज का तो नाम आ गया परन्तु मीणा का नाम नहीं आया केवल प्रबंध निदेशक लिखा गया। हरिकेश मीणा का नाम एफ.आई.आर. में न होने का मामला जब विधानसभा में गूंजा तब भी मीणा का नाम एफ.आई.आर. में नहीं आया। उसके बाद मीणा को छुट्टी पर भेज दिया गया। सरकार ने उसके बाद केवल यह आश्वासन दिया की जांच में जिसका नाम सामने आयेगा उसे एफ.आई.आर. में जोड़ दिया जायेगा।
इस प्रकरण में जिस तरह का आचरण सरकार का सामने आया है उससे तो यही प्रश्न उठता है कि यदि एफ.आई.आर. में देशराज का नाम हो सकता है तो उसी आधार पर मीणा का क्यों नहीं? कॉरपोरेशन के मुखिया मीणा है देशराज नहीं। परिजनों और निगम कर्मियों ने तो सबसे अधिक जिम्मेदार मीणा को ठहराया है। इस मामले की प्रशासनिक जांच अतिरिक्त मुख्य सचिव ओंकार शर्मा को सौंप गयी है। यह प्रशासनिक जांच और पुलिस की एफ.आई.आर. की जांच दोनों एक ही समय में चलेगी। पुलिस तंत्र की निष्पक्षता पर इसी दौरान सोशल मीडिया पर आयी भूपेंद्र नेगी की पोस्ट ने कई गंभीर प्रश्न चिन्ह लगा दिये हैं। पावर कॉरपोरेशन के प्रबंधन और सरकार पर अविश्वास क्यों किया जा रहा है? यह सवाल अपने में ही बहुत महत्वपूर्ण और गंभीर है। क्योंकि पावर कॉरपोरेशन द्वारा जिन परियोजनाओं का निष्पादन किया जा रहा है वहां पर हुये भ्रष्टाचार को लेकर इस सरकार के आने के बाद से ही सवाल उठने लग पड़े थे।
स्मरणीय है कि इस सरकार के कार्यकाल में पावर कॉरपोरेशन के भ्रष्टाचार को लेकर एक पत्र प्रधान मंत्री के नाम लिखा गया था। इस पत्र में पावर कारपोरेशन के प्रबंध निदेशक और एक अन्य आई.ए.एस. अधिकारी के खिलाफ शोंग टोंग जल विद्युत परियोजना को लेकर करोड़ों के भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे। इन आरोपों की जांच करवाये जाने की बजाये पावर कॉरपोरेशन के प्रबंध निदेशक मीणा ने कुछ पत्रकारों के खिलाफ ही एक एफ.आई.आर. दर्ज करवा दी थी। इसकी जांच में भाजपा विधायक जनक राज तक का नाम उछला था। उस समय भी पत्र में दर्ज आरोपों की जांच सी.बी.आई. से करवाने की बातें हुई थी। परन्तु आज तक कोई परिणाम सामने नहीं आया है। जबकि मार्च 2023 में जब मुख्यमंत्री ने इस परियोजना को जुलाई 2025 तक पूरा करने के निर्देश एक समीक्षा बैठक में दिये थे तब मुख्यमंत्री ने इसमें आ रही बाधाओं को एक माह में पूरा करने के निर्देश दिये थे। इसके बाद परियोजना के डिजाइन में 600 प्रतिशत के बदलाव आने की चर्चा उठी थी। यह भी चर्चा में आया था कॉरपोरेशन 150 दिनों तक इस मामले में निष्क्रिय होकर बैठी रही है। 2024 में कॉरपोरेशन पर पेखूबेला सौर ऊर्जा परियोजना के निर्माण में भ्रष्टाचार होने के आरोप लगे थे। यह सवाल उठा था कि यदि गुजरात में 35 मेगावाट की सौर ऊर्जा परियोजना 144 करोड़ में बन सकती है तो पेखूबेला की 32 मेगावाट की सौर परियोजना 220 करोड़ में क्यों। लेकिन इन सवालों के जवाब आज तक नहीं आये हैं। स्वभाविक है कि जिस कॉरपोरेशन की कार्य प्रणाली पर इस तरह के सवाल उठे हों और सरकार द्वारा उन्हें टाल दिया गया हो वहां पर ईमानदार अधिकारी किस तरह के मानसिक तनाव में काम कर रहे होंगे इसका अन्दाजा लगाया जा सकता है। जब भी सरकार ऐसे भ्रष्टाचार को संरक्षण देगी तब ईमानदार अधिकारियों का अंजाम यही होगा यह तय है। सरकार को अपनी विश्वसनीयता बहाल करने के लिये यह मामला सी.बी.आई. को सौंप देना चाहिये।

सुखविंदर सिंह बनाम निशु ठाकुर एवं अन्य मानहानि मामले को प्रवीण कुमार ने दी उच्च न्यायालय में चुनौती

शिमला/शैल। मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने 2017 में जब वह नादौन से विधायक थे तब निशु ठाकुर, ईशा ठाकुर, प्रवीण कुमार पत्रकार अमर उजाला और कपिल बस्सी पत्रकार दैनिक सवेरा के खिलाफ आपराधिक एवं सिविल मानहानि के मामले शिमला तथा हमीरपुर में दायर किये थे। लेकिन इन मामलों का निपटारा अब तक नहीं हो सका है। हमीरपुर में दायर हुआ सिविल मामला अब शायद लोक अदालत में पहुंच गया है। शिमला में दायर हुये आपराधिक मामले में प्रतिवादियों को शायद अभी तक वांछित दस्तावेज भी उपलब्ध नहीं हो पाये हैं। यह मामले इतना लम्बा क्यों हो रहे हैं। इस पर अब अमर उजाला के पत्रकार प्रवीण कुमार ने हिमाचल उच्च न्यायालय में दस्तक देकर इस मामले को बन्द किये जाने की गुहार लगाई है। यह मामले जब दायर हुये थे तब सुखविंदर सिंह सुक्खू नादौन से विधायक और पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष थे परन्तु अब तो वह दो वर्षों से भी अधिक समय से प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं। ऐसे में यह मामले तो अब तक निपट जाने चाहिये थे। परन्तु ऐसा हो नहीं पाया है। इसलिये इन मामलों की पृष्ठभूमि में जाना आवश्यक हो जाता है। स्मरणीय है की मानहानि के यह मामले ईशा ठाकुर और निशु ठाकुर द्वारा 2016 में हमीरपुर में आयोजित एक पत्रकार वार्ता पर आधारित हैं। इस पत्रकार वार्ता में इन भाई बहन ने नादौन के जडोत गांव में मान खड्ड पर कार्यरत एक स्टोन क्रेशर और हॉट मिक्सिंग प्लांट में हो रही अवैधताओं पर प्रशासन का ध्यान आकर्षित किया था। यह आरोप लगाया था कि क्रेशर के साथ लगती उनकी 27 कनाल जमीन पर यह क्रेशर लगाया गया है। यह मामला उच्च न्यायालय ने भी स्वतः संज्ञान में लिया था। एनजीटी के आदेश से यह स्टोन क्रेशर वहां से हटाया गया है। ऐसे में स्टोन क्रेशर को लेकर उठाये गये एतराज स्वतः ही अधारहीन हो जाते हैं। इन्हीं पत्रकार वार्ताें में एक आरोप यह भी था कि सुक्खू ने 769 कनाल जमीन अपने भाई के नाम खरीदी है। जिसे बाद में अपने नाम करवा लिया गया। यह पत्रकार वार्ताएं शायद 2016 में हुई। परन्तु इसका संज्ञान 2017 में लेकर मानहानि के मामले दायर किये गये। यहीं पर यह उल्लेखनीय हो जाता है कि सुक्खू ने 2017 में नादौन में विधानसभा चुनाव लड़ा और वह जीत गये। चुनाव परिणाम के कुछ समय बाद इन्हीं भाई बहन के पिता बसन्त सिंह ठाकुर ने सुक्खू के चुनाव को यह कहकर उच्च न्यायालय में चुनौती दे दी की सुक्खू ने चुनाव शपथ पत्र में संपत्ति को लेकर तथ्यों को छुपाया है। उच्च न्यायालय ने इस पर चुनाव याचिका तो स्वीकार नहीं की क्योंकि समय अवधि निकल गयी। परन्तु आरोपों को सक्ष्म आथॉरिटी के पास उठाने को कहा और अथॉरिटी को निर्देश दिये की इस पर शीघ्र कारवाई हो। उच्च न्यायालय के निर्देशों पर यह मामला एस.पी. हमीरपुर के कार्यालय में जांच के लिये आ गया। यहां ए.एस.पी. ने इस मामले की जांच की और तथ्य छुपाने के आरोपों को सही पाया। ए.एस.पी की जांच रिपोर्ट के बाद धारा 156;3द्ध के तहत यह मामला ए.सी.जे.एम. की अदालत में नादौन में दायर हो गया। यहां अदालत ने फिर जांच करवाई और तथ्यों को सही पाया। परन्तु अपनी रिपोर्ट में यह कहा है कि इससे किसी को व्यक्तिगत लाभ हानि नहीं हुई है इसलिये चालान को रद्द कर दिया जाये और इस सिफारिश पर चालान रद्द हो गया और सुक्खू को राहत मिल गयी।
नादौन अदालत के फैसले को उच्च न्यायालय मे चुनौति दी गयी। इस पर जस्टिस राकेश कैंथला की एकल पीठ ने इस याचिका को तो अस्वीकार कर दिया लेकिन साथ यह भी कह दिया कि इसका मामले के गुण दोष पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। इससे स्पष्ट हो जाता है की संपत्ति संबंधी तथ्यों को छुपाने के आरोप को अलग से चुनौती दी जा सकती है। क्योंकि खरीदी गई जमीन के राजस्व रिकॉर्ड में दर्ज है कि इसमें ताबे हुकुक बर्तनदारान है और साथ ही 316 कनाल से अधिक की खरीद लैण्ड सीलिंग एक्ट के प्रावधानों में भी आती है। इस परिदृश्य में अमर उजाला के पत्रकार द्वारा मानहानि के मामले का उच्च न्यायालय में चुनौती दिया जाना रोचक और गंभीर हो जाता है। क्योंकि इस तरह के राजस्व इन्द्रराज वाली जमीन विलेज् कामन लैण्ड हो जाती है। जिसे न खरीदा जा सकता है न बेचा जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने इस संबंध में 2011 में राज्यों के मुख्य सचिवों को कड़े निर्देश जारी किये हुये हैं।

 

 

 

बजट अनुमानों में 30% का अन्तर आना शुभ संकेत नहीं अनुपूरक मांगों से उठे सवाल

  • 17000 करोड़ से अधिक की अनुपूरक मांगों को कैसे पूरा किया गया?
  • बढ़ा हुआ खर्च पूरा करने के लिये जनता पर कितना बोझ डाला गया और कितना कर्ज लिया गया?

शिमला/शैल। सुक्खू सरकार ने वर्ष 2024-25 के लिए 17053.78 करोड़ का अनुपूरक बजट पेश किया है। इस वित्तीय वर्ष के लिये सरकार ने 58444 करोड़ के अनुमान का बजट पेश किया था। इस बजट में 46667 करोड़ का राजस्व व्यय और 42153 करोड़ की राजस्व प्राप्तियां दिखायी गयी थी। बजट अनुमानों के अनुसार यह वर्ष 10784 करोड़ के घाटे पर बन्द होना था। लेकिन अनुपूरक बजट ने सरकार की वित्तीय स्थिति पर कुछ गंभीर सवाल खड़े कर दिये हैं। अनुपूरक बजट में यह विवरण दिया गया है कि बढ़ा हुआ खर्च किन मदो पर खर्च हुआ है। सत्रह हजार करोड़ से अधिक के अनुपूरक बजट से यह सामने आया है कि सरकार के मूल अनुमानों में करीब 30% की वृद्धि हुई है। यह वृद्धि क्यों हुई है और इसका आने वाले समय सरकार की राजस्व आय पर भी कोई असर पड़ेगा या यह बढ़ौतरी नियमित राजस्व व्यय का ही हिस्सा बनकर रह जायेगी। क्योंकि सामान्यतः हर वर्ष खर्चों में दस प्रतिश्त की मानक वृद्धि लेकर अगले बजट अनुमान तैयार किये जाते हैं। ऐसे में वर्ष 2025-26 का बजट अनुमान 80,000 करोड़ लगभग रहने का अनुमान है। वर्ष 2024-25 के 58444 करोड़ के बजट अनुमानों में वर्ष 10784 करोड़ के घाटे पर बन्द हो रहा था। अब जब अनुपूरक मांगों को मिलाकर बजट का कुल आकार ही 75000 करोड़ पहुंच जाता है तब आगे का यह बजट निश्चित रूप से 80000 तक पहुंचेगा ही।
वर्ष 2024-25 में राजस्व आय 42153 करोड़ की अनुमानित थी। तब इस वर्ष 10% की वृद्धि के साथ क्या यह 65000 करोड़ हो पायेगी यह देखना बड़ा सवाल होगा। क्योंकि इसी वित्तीय वर्ष में सरकार द्वारा वित्तीय संसाधन बढ़ाने के लिये किये गये उपायों से राजस्व आय में कितनी वृद्धि हुई है इसका आंकड़ा तो अगले बजट के अनुमानों में ही सामने आयेगा। लेकिन अनुपूरक बजट से जो खर्च बढ़ा है उसका आंकड़ा तो सामने आ गया है। परन्तु इस खर्च को पूरा करने के लिये कितने टैक्स लगाये जायेंगे और कितना कर्ज लिया जायेगा तो आगे ही सामने आयेगा। क्योंकि आगे चलकर सरकार को गारंटीयां भी पूरी करनी है। अभी तो राज्यपाल के अभिभाषण में यह गारंटीयां लागू हो गयी हैं। परन्तु आगे चलकर इनको व्यवहारिक रूप में भी पूरा करना होगा। चालू वित्त वर्ष में 17000 करोड़ से अधिक का खर्च बढ़ने पर इसको पूरा करने के लिये कितना कर्ज लिया गया है और भविष्य में और कितना कर्ज लिया जायेगा यह अभी सामने आना बाकी है। विपक्ष के मुताबिक सरकार 30000 करोड़ का कर्ज ले चुकी है। लेकिन अनुपूरक बजट में जब खर्च ही करीब 17000 करोड़ बढ़ा है तो इससे अधिक कर्ज लेने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिये।
ऐसे में अब यह विपक्ष की जिम्मेदारी हो जाती है कि वह इस बढ़े हुये खर्च का विवरण लेकर उस प्रदेश की जनता के सामने रखे। इसमें यह भी सामने आना चाहिये कि सही में कौन सी तत्कालिक आवश्यकताओं पर यह खर्च किया गया। इस खर्च को पूरा करने के लिये जनता पर कितना बोझ डाला गया और कितना कर्ज लिया गया। क्योंकि किसी सरकार के बजट अनुमानों में 30% तक का अन्तर आना कोई शुभ संकेत नहीं है। इतना बड़ा अन्तर किसी प्राकृतिक आपदा के बिना जायज नहीं ठहराया जा सकता। क्योंकि अनुपूरक बजट वर्ष के अन्त में विभिन्न मांगों में हुये खर्च के सर प्लस या सरन्डर से प्रभावित नहीं होता है। बजट आवंटनों की समीक्षा वित्त विभाग वर्ष में तीन चार बार करता है। इसलिये यह अब माननीय के विवेक और ईमानदारी पर सीधा सवाल आ जाता है कि बजट अनुमानों में आये इस अन्तर का पूरा ब्योरा कारणों सहित प्रदेश की जनता के सामने रखे।

क्या "असली भाजपा" व्यक्तिगत रोष का प्रतिफल है

  • क्या यह रोष समय आने पर स्वतः ही शांत हो जायेगा
प्रदेश भाजपा का अगला अध्यक्ष कौन होगा? क्या वर्तमान अध्यक्ष को ही फिर से जिम्मेदारी मिल जायेगी या कोई नया अध्यक्ष चुना जायेगा? नया अध्यक्ष महिला होगी या पुरुष? प्रदेश अध्यक्ष का चयन टलता क्यों जा रहा है? भाजपा को लेकर यह सवाल लम्बे समय से चर्चा में चल रहा है। इन सवालों का जवाब आने से पहले ही भाजपा में पनपता रोष मुखर होकर सामने आ गया है। भाजपा में इस मुखरता को आकार दिया है पूर्व मंत्री रमेश धवाला ने। उन्होंने रुष्ट भाजपाइयों को इकट्ठा करके इस रोष को "असली भाजपा" का नाम दिया है। "असली भाजपा" का नाम देने से ही यह सामने आ जाता है कि यह रोष भाजपा की विचारधारा से असहमति होने का परिणाम नहीं है। बल्कि कुछ नेताओं के साथ व्यक्तिगत मतभेदों का परिणाम है। तय है कि व्यक्तिगत मतभेद जितनी तीव्रता से आकार लेते हैं उसी तीव्रता के साथ समय आने पर शांत भी हो जाते हैं। इस रोष के आकार लेने से यह स्पष्ट हो जाता है कि वर्तमान में प्रदेश भारी गुटबन्दी का शिकार है। क्योंकि प्रदेश भाजपा में कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष हर्ष महाजन जब भाजपा में शामिल हुये थे तब भाजपा के किसी भी छोटे-बड़े नेता ने उनके विरोध में कुछ नहीं कहा था। लेकिन हर्ष महाजन जब भाजपा में राज्यसभा का उम्मीदवार बन गये और कांग्रेस में तोड़फोड़ करके जीत भी हासिल कर गये तब उनके विरोध में स्वर उभरने लगे। पूर्व मंत्री रमेश धवाला रमेश ने तब यह आरोप लगाकर अपना विरोध प्रकट किया कि जब वह भाजपा के समर्थन में आये थे तब महाजन ने उनकी गाड़ी तोड़ी थी।
राज्यसभा में भाजपा की जीत के बाद कांग्रेस के छः विधायक पाला बदलकर भाजपा में शामिल हो गये तब इसका विरोध भाजपा के अन्दर कहीं से मुखर नहीं हुआ। जब दल बदल के कारण आये उपचुनावों में इन कांग्रेसियों को भाजपा से टिकट मिल गये तब यह विरोध थोड़ा सा व्यक्तिगत होकर सामने आया। बल्कि तब इन नये बने भाजपाइयों का जितना विरोध मुख्यमंत्री ने किया उतना भाजपा के भीतर नहीं उभरा। परन्तु लोकसभा चुनावों के बाद दिल्ली में बनी मोदी सरकार में प्रदेश को भागीदारी नहीं मिली अनुराग ठाकुर की जगह जे.पी. नड्डा गुजरात से राज्यसभा सांसद होने पर मंत्री बन गये। तब प्रदेश भाजपा के भीतरी समीकरणों का गणित बिगड़ा। इस बिगड़े गणित में कांग्रेस से भाजपायी बने नेताओं को मुख्यमंत्री और उनकी सरकार से सीधा भिड़ने की स्थिति बन गयी। आज कांग्रेस और मुख्यमंत्री के साथ नये बने भाजपायी सीधा टकराव में खड़े हैं। नादौन और हमीरपुर में हुई ई.डी. और आयकर की छापेमारी में विरोधी पक्ष की भूमिका यह नये भाजपायी निभा रहे हैं। मूल भाजपाइयों में से केवल नेता प्रतिपक्ष पूर्व मुख्यमंत्री जय राम ठाकुर ही सरकार पर हमलावर हो रहे हैं और बाकी भाजपायी तो विरोध की रस्म अदायगी भी नहीं कर पा रहे हैं। यह सही है कि इस समय सरकार अपने ही फैसलों से इस कदर जनता में बदनाम होती जा रही है कि भाजपा या किसी अन्य को सरकार का विरोध करने की आवश्यकता ही नहीं रही है। भाजपा इसी से खुश है कि उसे एक सुनियोजित विरोध करने की आवश्यकता ही नहीं है। लेकिन यदि कांग्रेस ने ही आने वाले दिनों में नेतृत्व में परिवर्तन करके किसी नये नेता को जिम्मेदारी सौंप दी तब भाजपा के पास सरकार के विरोध का कोई तार्किक आधार नहीं बचेगा।
इस समय प्रदेश की राजनीतिक स्थितियां जिस दौर से गुजर रही हैं और प्रदेश लगातार कर्ज के दलदल में फसता जा रहा है उसका सीधा कुप्रभाव रोजगार पर पड़ेगा। सरकार में रोजगार के अवसर लगातार कम होते जायेंगे। उद्योग पलायन करने के कगार पर पहुंच जायेंगे। इससे सीधा प्रदेश का नुकसान होगा और इसकी जिम्मेदारी सरकार के साथ ही विपक्ष पर भी आयेगी। यह प्रदेश का दुर्भाग्य है कि कांग्रेस के लोग सरकार होने के कारण विरोध में कुछ नहीं कर पा रहे हैं। भाजपा इसी नीति पर चल रही है कि कांग्रेस अपने ही भार के नीचे दबकर दम तोड़ देगी। इसलिये उसे कुछ करने की जरूरत ही नहीं है। इससे प्रदेश का कितना नुकसान हो रहा है और इस ओर किसी का ध्यान नहीं है।

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