Friday, 19 September 2025
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प्रधानमंत्री की संभावित यात्रा से पहले प्रदेश भाजपा में फिर उभरी हलचल

शिमला/शैल। जयराम सरकार को सत्ता में चार वर्ष पूरे होने जा रहे हैं। इस अवसर पर मंडी में राज्य स्तरीय एक आयोजन किया जा रहा है। इस आयोजन के लिए प्रधानमंत्री को आमंत्रण भेजा गया है। नरेंद्र मोदी इस आयोजन में शामिल होंगे या नहीं यह अभी तक स्पष्ट नहीं है। जहां सरकार सता के चार साल पूरे करने जा रही है वहीं पर इस चौथे वर्ष में हुए चारों उपचुनाव की सरकार हार गयी है। इस हार पर तत्कालिक प्रतिक्रिया देते हुए मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने महंगाई को इसका कारण बताया था। यह संयोग है कि मुख्यमंत्री के इस बयान के बाद पेट्रोल-डीजल की कीमतों में कमी आयी थी। लेकिन 2014 से अगर तुलना की जाये तो आज भी कीमतें कई गुना ज्यादा है। ऐसे में यदि प्रधानमंत्री इस जश्न पर मंडी आते हैं तो वह इस महंगाई और बेरोजगारी के लिए क्या जवाब देते हैं यह देखना दिलचस्प होगा। क्योंकि जहां मंडी को आयोजन स्थल बनाया गया है वही पर उसी मंडी में लोकसभा के लिये भी उपचुनाव हुआ और भाजपा हार गयी। जबकि इसी मंडी में एक समय स्व.वीरभद्र सिंह और उनके परिवार पर यह आरोप लगाया गया था कि उनके पेड़ पर भी नोट उगते हैं। इस आरोप के बाद प्रतिभा सिंह चुनाव हार गयी थी। लेकिन आज वही प्रतिभा सिंह उन पुराने सारे कलंको को धोते हुये मोदी और जयराम दोनों की सरकारों के हाथों से यह सीट छीन कर ले गयी है। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि मंडी की हार की जिम्मेदारी कौन लेता है जयराम या मोदी।
उपचुनावों की हार के लिए हुये मंथन के बाद कुछ हलकों में इस हार के लिए धूमल और उनके नजदीकियों को भी जिम्मेदार ठहराया गया है। इसके लिए यह तर्क दिया गया है कि 2017 में धूमल मुख्यमंत्री का चेहरा थे परंतु जब वह स्वयं चुनाव हार गये और जयराम को पार्टी ने मुख्यमंत्री बना दिया तो अब जयराम को नीचा दिखाने के लिए इन लोगों ने उपचुनाव में हार की पटकथा लिख दी। जब इस तरह की चर्चाएं सार्वजनिक हुई और उसके बाद प्रेम कुमार धूमल दिल्ली पहुंच गये तो भाजपा के राजनीतिक हलकों में फिर से अटकलों का बाजार गर्म हो गया है। इस गर्मी से क्या निकलता है यह आने वाला समय ही बतायेगा। लेकिन राजनीतिक विश्लेषकों के लिए यह एक रोचक स्थिति बन गयी है। क्योंकि अब जब पार्टी चार वर्षों का जश्न चारों उपचुनाव हारने के बाद भी मना रही है तो यह स्वभाविक है कि इन चार वर्षों में जो कुछ प्रदेश और सरकार में घटा है वह सब भी चर्चा में आयेगा ही। क्योंकि इस सरकार में जिस तरह से समय-समय पर पत्र बम फूटते रहे हैं उनमें उठाये गये मुद्दे आज भी यथास्थिति बने हुये हैं। इन्हीं पत्र बम्बों का परिणाम है स्वास्थ्य विभाग को लेकर हुई एफ आई आर/संगठन को लेकर आये इन्दु गोस्वामी के पत्र को क्या आज भी नजरअंदाज किया जा सकता है शायद नहीं। आज इस सरकार पर सबसे बड़ा आरोप यह है कि इस ने प्रदेश को कर्ज के ऐसे चक्रव्यूह में उलझा दिया है जिससे बाहर निकलना संभव नहीं होगा। इतने कर्ज के बावजूद भी यह सरकार प्रदेश के युवाओं को रोजगार देने में असफल रही है। आज जब मल्टी टास्क वर्कर भर्ती करने के लिये आठ हजार संस्थानों में चार हजार मुख्यमंत्री के कोटे से भरने की नीति बनाने पर सरकार आ जाये तो अन्दाजा लगाया जा सकता है कि उसका बेरोजगार युवाओं और उनके अभिभावकों पर क्या असर हुआ होगा।
सरकार की इसी तरह की नीतियों का परिणाम है कि हर चुनाव क्षेत्र का प्रभाव किसी ना किसी मंत्री के पास होने के बावजूद सरकार हार के गयी। क्या इन प्रभारी मंत्रियों ने चुनाव के दौरान किसी भीतरघात की शिकायत की थी शायद नहीं। क्या टिकटों का आवंटन इन मंत्रियों या धूमल गुट ने किया था शायद नहीं। ऐसे में आज जो भूमिका तैयार की जा रही है क्या उसे आने वाले आम चुनाव में मिलने वाली हार की जिम्मेदारी अभी से दूसरों पर डालने की नीयत और नीति के रूप में नहीं देखा जाना चाहिये। इस परिदृश्य में यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि इस हार के बावजूद प्रधानमंत्री क्या संदेश देकर जाते हैं। 

जब सरकार का सूचना एवं जनसंपर्क विभाग ही पारदर्शी न हो तो

शिमला/शैल। हर सरकार अपनी नीतियों योजनाओं और कार्यक्रमों का प्रचार-प्रसार करती है। इस प्रचार का एक बड़ा माध्यम समाचार पत्र और इलेक्ट्रॉनिक संचार तंत्र रहता है। सूचना और जनसंपर्क विभाग के माध्यम से इस काम को अंजाम दिया जाता है। इसके लिये सरकारी धन खर्च किया जाता है। इसी कारण से विपक्ष इस खर्च की जानकारी सरकार से मांगता है। इस संदर्भ में पिछले कुछ अरसे से विधानसभा के हर सत्र में जयराम सरकार से यह पूछा जा रहा है कि उसने अपने प्रचार प्रसार पर कितना खर्च किया है। किन-किन अखबारों को कितने-कितने विज्ञापन जारी किये हैं। विधानसभा के इस सत्र में भी आशीष बुटेल और राजेंद्र राणा के दो अतारांकित प्रश्न आये लेकिन हर बार की तरह इस बार भी इन प्रश्नों का स्पष्ट उत्तर देने की बजाये यही कहा गया है कि सूचना एकत्रित की जा रही है। हर बार यही जवाब आने से यह सवाल उठना और आशंका होना स्वभाविक है कि सरकार का आचरण इस संबंध में भी पारदर्शी नहीं है। क्योंकि जब सरकार अखबारों को विज्ञापन जारी करती ही है और प्रचार के अन्य माध्यमों पर भी खर्च करती है तब इस खर्च की जानकारी का विवरण सदन में रखने से हिचकिचाहट क्यों? इसके लिए सरकारी धन का करोड़ों में खर्च हो रहा है। यह सत्तारूढ़ राजनीतिक दल का पैसा नहीं है। जिसके खर्च पर पार्टी का नियंत्रण हो। जब सरकार यह जानकारी भी सदन के माध्यम से जनता के सामने नहीं रखना चाहती है तो इसका अर्थ है कि वह इसमें कुछ छुपाना चाहती है। कुछ छुपाने की व्यवस्था तब आती है जब इसमें नियमों का पालन न किया गया हो। उन अखबारों को प्रोत्साहन दिया गया हो जिन्होंने तबलीगी समाज को करोना बम्ब करार दिया था। जिन अखबारों ने सरकार से सवाल पूछने का दुस्साहस किया है उनके विज्ञापन बंद करके उन्हें प्रताड़ित करने का प्रयास किया गया हो। जब सरकार का सूचना एवं जनसंपर्क ही पारदर्शी न हो तो सरकार की कारगुजारीयों को लेकर उसके माध्यम से भेजी गई सूचनायें कितनी विश्वसनीय और पारदर्शी होंगी। इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। सूचना और जनसंपर्क विभाग का प्रभार स्वयं मुख्यमंत्री के पास है। इस विभाग का महत्व कई अर्थों में सरकार के गुप्तचर विभाग से भी ज्यादा होता है। क्योंकि हर अखबार और अन्य माध्यमों से आने वाले समाचारों की जानकारी मुख्यमंत्री तथा तंत्र के अन्य बड़े अधिकारियों तक ले जाना इसकी जिम्मेदारी है। जहां कोई सूचना या जानकारी गलत छप गई हो उसका खंडन और स्पष्टीकरण जारी करना इस विभाग की जिम्मेदारी है। लेकिन इस सरकार के कार्यकाल में यह विभाग सरकार और पत्रकारों के मध्य एक संवाद स्थापित करने में पूरी तरह से विफल रहा है। शायद यह विभाग इस नीति से चला कि सवाल पूछने वाले के विज्ञापन बंद करके उस प्रकाशन को ही बंद करवा दिया जाये। लेकिन विभाग यह भूल गया कि अब जबसे मीडिया के बड़े वर्ग पर गोदी मीडिया होने का टैग लगा है तबसे पाठक उन छोटे बड़े समाचार पत्रों को ज्यादा अहमियत दे रहे हैं जो दस्तावेजी प्रमाणों के साथ जनता में जानकारियां रख रहे हैं।

क्या चार शून्य का परिणाम नड्डा के काम की परख के आग्रह का ही एडवांस जबाव है

शिमला/शैल। उप चुनावों के बाद पहली बार अपने घर बिलासपुर आये भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा ने वहां बने एम्स के उद्घाटन के अवसर पर प्रदेश की जनता से आग्रह किया है कि वह जो काम करें उसकी पीठ थपथपायें और जो काम न करें उसे घर बिठायें। इसी के साथ अपने पार्टी के लोगों से भी उन्होंने कहा है कि वह स्ट्रांग लीडर की खोज करें। राष्ट्रीय अध्यक्ष नड्डा का हिमाचल अपना घर है और वह दो बार यहां मंत्री भी रह चुके हैं। ऐसे में राष्ट्रीय अध्यक्ष के अपने गृह राज्य में ही भाजपा की सरकार होने के बावजूद यदि पार्टी उपचुनाव में सारी सीटें हार जायें तो इस पर राष्ट्रीय स्तर पर तो पहले सवाल उनसे पूछे जायेंगे। शायद इसीलिए उपचुनावों की हार राष्ट्रीय स्तर पर मीडिया की चर्चा बनी। क्योंकि हिमाचल जैसे छोटे से राज्य से राष्ट्रीय अध्यक्ष होने से हिमाचल की भी पहचान बनी है। नड्डा के अपने लिये भी इस हार के दूरगामी परिणाम होंगे। इन्हीं परिणामों की आहट के कारण ही वह प्रदेश की सरकार को चाहकर भी न तो खुलकर अभयदान दे पा रहे हैं और न ही अनुशासन का चाबुक चला पा रहे हैं।
स्मरणीय है कि विधानसभा की तीनों ही सीटों पर जब उम्मीदवारों की घोषणा हुई थी तो तीनों ही जगह विरोध और विद्रोह के स्वर मुखर हुये थे। अर्की से गोबिंद राम शर्मा ने तो चुनाव प्रचार के लिए अपनी डयूटी ही बाहर लगवा ली थी। फतेहपुर से तो कृपाल परमार को तो मुख्यमंत्री अपने साथ हेलीकॉप्टर में बिठाकर ही ले आये थे। कोटखाई में तो बरागटा ने निर्दलीय होकर चुनाव लड़ भी लिया और पार्टी के उम्मीदवार की तो जमानत तक जब्त हो गयी। बरागटा का टिकट कटने पर ही यह बाहर आया था कि प्रदेश नेतृत्व तो उन्हें टिकट देना चाहता था परंतु हाईकमान ने काट दिया। हिमाचल के संदर्भ में यह हाईकमान नड्डा ही थे और हैं क्योंकि यह उनका अपना गृह राज्य है। तीनों जगह टिकटों के गलत आवंटन का आरोप लगा है और अपरोक्ष में यह आरोप नड्डा पर ही आता है। शायद इसीलिए वह खुलकर स्पष्ट कुछ भी नहीं बोल पा रहे हैं।
लेकिन अभी एम्स के उद्घाटन के अवसर पर ही जिस तरह से पुलिसकर्मियों के परिजनों ने मौन प्रदर्शन किया है वह नड्डा के लिये एक पर्याप्त संकेत और संदेश हो जाता है कि प्रदेश के कर्मचारीयों ही की क्या दशा है। क्योंकि जेसीसी की बैठक के बाद पहला प्रदर्शन बीएमएस के लोगों ने किया और दूसरा आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं ने किया। आउटसोर्स पर लगे कर्मचारी अपने लिये एक निश्चित नीति की मांग कर रहे हैं। सरकार के फैसले के कारण जेबीटी प्रशिक्षु और बी एड में टकराव की स्थिति बन चुकी है। इस तरह प्रदेश कर्मचारियों का एक बहुत बड़ा वर्ग सरकार से नाराज चल रहा है। यह पूरी तरह सामने आ चुका है।
उपचुनावों में हार के कारण जानने के लिए हुए मंथन में भी एक राय नहीं बन पायी है। यह रणधीर शर्मा और सुरेश कश्यप के अलग-अलग ब्यानों से सामने आ चुका है। राजीव बिंदल के करीबी पवन गुप्ता ने तो त्यागपत्र देने का सबसे बड़ा कारण ही मुख्यमंत्री कार्यालय द्वारा भ्रष्टाचार को संरक्षण देना बताया है। कृपाल परमार ने यहां तक कह दिया कि अब जलालत सहने की सारी हदें पार हो गयी हैं। पार्टी ने भले ही इन त्याग पत्रों पर ज्यादा चर्चा नहीं होने दी है। लेकिन जनता के पास तो यह सब कुछ पहुंच चुका है। बल्कि इसके बाद यहां और मुखरता के साथ चर्चा में आ गया है कि धूमल के करीबियों को इस सरकार में चुन-चुन कर हाशिये पर धकेलने के प्रयास हुये हैं। केंद्रीय विश्वविद्यालय को लेकर तो जयराम और अनुराग ठाकुर का टकराव तो एक ही मंच पर सामने भी आ चुका है। यह सब प्रदेश की जनता के सामने घटा है और वह याद रखे हुए हैं। आज जब नड्डा काम की परख की बात करते हैं तो यह सही है। क्योंकि हर सरकार यही दावा करती है कि उसने बहुत काम किये हैं। अपने कामों के लिये सर्वश्रेष्ठता के पुरस्कार भी सरकारें प्राप्त कर लेती हैं। जो सर्वश्रेष्ठता आज जयराम सरकार को मिल रही है पूर्व में वही सर्वश्रेष्ठता के पुरस्कार प्रो. धूमल और फिर वीरभद्र की सरकारों को भी मिल चुके हैं। लेकिन इन पुरस्कारों की जमीनी हकीकत की भुक्तभोगी रही जनता ने उनको रिपीट नहीं करवाया। उनके वक्त में ऐसे उपचुनाव नहीं आये थे अन्यथा वह अपना संदेश पहले ही दे देती। आज जयराम के वक्त में आये यह उपचुनाव और उनके परिणाम नड्डा के आग्रह पर पूरे उतरते हैं। जनता ने अपना फैसला एक तरह से सुना दिया है। इस फैसले को पढ़ना या इस पर आंखें बंद कर लेना यह राष्ट्रीय अध्यक्ष का अपना इम्तहान होगा।
क्योंकि जब वह स्ट्रांग लीडर तलाशने की बात करते हैं तब वह यह तलाश कार्यकर्ताओं के जिम्मे लगाकर अपनी जिम्मेदारी से नहीं भाग सकते। पुलिस कर्मियों के परिजन अपने नेता को मिलने आये थे उसके सामने अपनी बात रखने आये थे यदि अपने नेता को मिलने के लिये भी उनके खिलाफ कार्रवाई की बात हो और नड्डा इस पर भी खामोश रहे तो इसी से भविष्य का अनुमान लगाया जा सकता है

क्या प्रदेश कांग्रेस में अभी से मुख्यमंत्री के लिए रेस शुरू हो गयी है

शिमला/शैल। हिमाचल कांग्रेस के लिए 2014 का लोकसभा चुनाव हारने के बाद यह 2021 के उप चुनाव जीतना एक बहुत बड़ी जीत है। शायद इतनी जीत की उम्मीद कांग्रेस को भी नहीं थी। इन उपचुनावों में सरकार भाजपा और कांग्रेस सभी के आकलन फेल हुये हैं। यदि कांग्रेस को उम्मीद होती कि वह मंडी का लोकसभा उपचुनाव जीत जायेगी तो शायद प्रतिभा सिंह की जगह कॉल सिंह या सुखराम का पौत्र आश्य शर्मा यहां से उम्मीदवार होते। प्रतिभा सिंह को अर्की से विधानसभा ही लड़नी पड़ती और वह इंकार न कर पाती। यदि राष्ट्रीय स्तर पर बदल रहे राजनीतिक परिदृश्य को पंडित सुखराम थोड़ा सा भी समझ पाते तो अनिल शर्मा 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद ही भाजपा और उसकी विधायकी छोड़कर कांग्रेस में जा चुके होते। यह सब इस समय इसलिए प्रसांगिक है क्योंकि अभी भी सभी पक्षों के नेता गण जन आकलन नहीं कर पा रहे हैं।

कांग्रेस में चारों उपचुनाव जीतने के बाद अभी से अगले मुख्यमंत्री के लिए रेस लग गयी है। इस रेस के संकेत हॉली लॉज में पिछले दिनों हुये आयोजन से उभरने शुरू हो गये हैं। प्रतिभा सिंह की जीत के बाद जिस तरह से कुछ लोग उन्हें जीत की बधाई देने पहुंचे और इस जीत पर जिस तरह से भोज दिया गया तथा कांग्रेस ऑफिस से बाहर पत्राकार सम्मेलन का आयोजन किया गया उससे यह संदेश देने का प्रयास किया गया कि वह अब प्रदेश कांग्रेस की धुरी बनने की भूमिका में आ गयी है। इसी से एक वर्ग उन्हें अभी प्रदेश का अध्यक्ष बनाने की योजना में लग गया है। लेकिन यह वर्ग भूल गया है कि जो लोग उन्हें बधाई देने पहुंचे वह पूरे प्रदेश का नहीं वरन एक क्षेत्रा विशेष का ही प्रतिनिधित्व करते हैं। लेकिन जैसे ही यह संकेत सामने आये की वह प्रदेश कांग्रेस का केंद्र होने कीओर बढ़ रही हैं तभी दिल्ली में उनके शपथ ग्रहण समारोह में सारे बड़े नेता नहीं पहुंचे और वहीं से कांग्रेस की एकजुटता पर सवाल उठने शुरू हो गये। प्रतिभा सिंह को वीरभद्र सिंह बनने में समय लगेगा। यह वीरभद्र सिंह ही थे जो अपने विरोधी की योग्यता की भी कदर करते थे। लेकिन उन्ही वीरभद्र सिंह को सुखबिन्द्र सुक्खु को प्रदेश अध्यक्ष के पद से हटाने के लिये आनंद शर्मा, आशा कुमारी और मुकेश अग्निहोत्री का साथ लेना पड़ा। इसका परिणाम हुआ की कुलदीप राठौर को अध्यक्ष बनाना पड़ा।
लेकिन कुलदीप राठौर को 2019 के लोकसभा चुनाव और इन चुनावों के कारण आये दो विधानसभा चुनावों में संगठन के सारे बड़े नेताओं का कितना सहयोग मिला वह स्वःवीरभद्र सिंह के उसी ब्यान से स्पष्ट हो जाता है जब उन्होंने यहां तक कह दिया था की मंडी से कोई भी मकर झंडू चुनाव लड़ लेगा। इस तरह की राजनीतिक परिस्थितियों से निकलकर कुलदीप राठौर की प्रधानगी में ही सोलन और पालमपुर की नगर निगमों में कांग्रेस को जीत हासिल हुई। यही जीत अब उपचुनावों में सामने आ गयी। जबकि इसी दौरान राठौर के राजनीतिक संरक्षक माने जाने वाले आनंद शर्मा का नाम कांग्रेस के असंतुष्ट के जी -23 के ग्रुप का एक बड़ा नाम बनकर सामने आ गया। इस समय कांग्रेस की जीत के श्रेय से कुलदीप राठौर के नाम को हटाना जनता में कोई अच्छा संदेश नहीं देगा। जब कुलदीप राठौर पर मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने 12 करोड़ के फर्जी बिल बनाकर हाईकमान को भेजने का आरोप लगाया था तब भी कांग्रेस के बड़े नेता उनके पक्ष में नहीं आये थे।
अभी प्रदेश कांग्रेस को वीरभद्र के समय में बने वीरभद्र ब्रिगेड के साथ जुड़े नेताओं कि संगठन में स्थापना के मुद्दे का भी सामना करना पड़ेगा। इसकी पहली जिम्मेदारी प्रतिभा सिंह और विक्रमादित्य सिंह पर आयेगी। यह वीरभद्र की रणनीति रहती थी कि वह कई जगह समानांतर सत्ता केंद्र खड़े कर देते थे। लेकिन आज क्या प्रदेश कांग्रेस में इस सामर्थय का कोई नेता है शायद नहीं। फिर चारों उपचुनाव हारने से जो फजीहत भाजपा और जयराम सरकार की हुई है उससे उबरने के लिए भाजपा भी कुछ कदम तो उठायेगी ही। इसमें केंद्र से लेकर राज्यों तक भाजपा सरकारें जांच एजेंसियों का ही सबसे पहले उपयोग करती आयी है। बहुत संभव है कि आने वाले दिनों में भाजपा कांग्रेस के खिलाफ सौंपे अपने आरोप पत्रों पर कुछ कार्रवाई करने का प्रयास करे। ऐसे में इस समय यदि कांग्रेस में मुख्यमंत्री की रेस अभी से शुरू हो जाती है तो वह संगठन और प्रदेश के हित में नहीं होगी। प्रदेश में पहले से ही स्वर्ण आयोग का भूत सक्रिय हो गया है और विक्रमादित्य सिंह तक इसकी छाया पड़ चुकी है। यहां यह स्मरण रखना होगा कि केंद्र ने क्रीमी लेयर की सीमा 8 लाख करने के बाद उस पर उठने वाले सवालों का रुख मोड़ने के लिए ही इस भूत को जगाया है। बल्कि आने वाले दिनों में भाजपा के बजाय कांग्रेस से लड़ने के लिए आम आदमी पार्टी और टीएमसी भी मैदान में होंगी। क्योंकि जिन कारपोरेट घरानों के इशारे पर कृषि कानून लाये गये थे अब इन कानूनों की वापसी के बाद इन घरानों का रुख टीएमसी की ओर मुड़ गया है। ममता बनर्जी और गौतम अडानी की मुलाकात से इसकी शुरुआत हो चुकी है। प्रदेश कांग्रेस को इन आने वाले खतरों के प्रति अभी से सावधान होना होगा।

स्वर्ण आयोग की राजनीति में घिरती कांग्रेस और भाजपा

क्रीमी लेयर की सीमा आठ लाख करना क्या सही है
क्या स्वर्ण आयोग के पक्षधर विधानसभा में क्रीमी लेयर पर चर्चा करेंगे

शिमला/शैल। पिछले दिनों प्रदेश की राजधानी शिमला में कुछ स्वर्ण संगठनों ने स्वर्ण आयोग की मांग को लेकर 800 किलोमीटर की हरिद्वार तक पदयात्रा करने के कार्यक्रम की घोषणा की है। इस घोषणा के साथ ही शिमला में एट्रोसिटी एक्ट की शव यात्रा भी निकाली है। इस शव यात्रा का अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति तथा अन्य पिछड़ा वर्ग के संगठनों ने विरोध किया है। इस शव यात्रा को संविधान का अपमान करार देते हुए प्रदेश उच्च न्यायालय में इस आश्य की याचिका दायर करने की भी बात की है। इस शव यात्रा के विरोध में हर जिले में इन वर्गों का नेतृत्व जिलाधीशों के माध्यम से राज्यपाल को ज्ञापन देने की रणनीति पर आ गया है। जो स्वर्ण संगठन स्वर्ण आयोग गठित किए जाने की मांग कर रहे हैं उनकी मांगों में यह भी शामिल है कि आरक्षण जातिगत आधार पर नहीं वरन आर्थिक आधार पर होना चाहिए। क्रीमी लेयर के मानक का कड़ाई से पालन होना चाहिए। यदि इन मांगों को ध्यान से देखा समझा जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि यह मांग राजनीति से प्रेरित और अंतः विरोधी है। क्योंकि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए 22.5% आरक्षण का प्रावधान देश की पहली संसद द्वारा गठित काका कालेलकर आयोग की सिफारिशें आने पर कर दिया गया था। इसके बाद 1977 में जनता पार्टी की सरकार आने पर गठित हुए मंडल आयोग की सिफारिशें स्व.वी.पी. सिंह की सरकार के कार्यकाल में लागू करने से अन्य पिछड़ा वर्ग को भी 27% का आरक्षण लाभ मिल गया था। इसी सरकार में इस आरक्षण के खिलाफ आंदोलन हुआ। वीपी सिंह की सरकार इसकी बलि चढ़ गई और आरक्षण का मुद्दा सर्वोच्च न्यायालय में जा पहुंचा। सर्वोच्च न्यायालय ने ऐतिहासिक फैसला देते हुए आरक्षण का आधार आर्थिक कर दिया। आर्थिक संपन्नता के लिए क्रीमी लेयर को मानक बना दिया। उस समय जो क्रीमी लेयर की सीमा एक लाख तय की गई थी वह आज मोदी सरकार में आठ लाख हो गई है। मोदी सरकार ही क्रीमी लेयर की सीमा दो बार बढ़ा चुकी है। यह है आज की व्यवहारिक सच्चाई। हो सकता है स्वर्ण आयोग के गठन की मांग करने वाले सभी लोगों को इस स्थिति का ज्ञान ही ना हो।
जब सर्वोच्च न्यायालय ने पहले ही हर तरह के आरक्षण का आधार आर्थिक करके क्रीमी लेयर का मानक तक बना दिया है तब आरक्षण के विरोध का आधार कहां बनता है। या तो यह मांग की जाये की किसी भी तरह का आरक्षण हो ही नहीं। चाहे कोई अमीर है या गरीब है किसी के लिए भी आरक्षण होना ही नहीं चाहिये। गरीबों के लिए किसी भी तरह की कोई योजना होनी ही नहीं चाहिये। वेलफेयर स्टेट की अवधारणा ही खत्म कर दी जानी चाहिये। क्या आज स्वर्ण आयोग के गठन की मांग करने वाला कोई भी राजनेता या राजनीतिक दल यह कहने का साहस कर सकता है कि सभी तरह का आरक्षण बंद होना चाहिये। वी.पी. सिंह सरकार के समय में जब मंडल बनाम कमंडल हुआ था तो उस समय किस विचारधारा के लोगों ने आरक्षण का विरोध किया था। अब जब से मोदी सरकार आयी है तब से कई राज्यों में आरक्षण को लेकर आंदोलन हुये हैं। हर आंदोलन में यही मांग उठी है कि या तो हमें भी आरक्षण दो या सबका समाप्त करो। संघ प्रमुख मोहन भागवत तक आरक्षण पर बयान दे चुके हैं। लेकिन इसी सबके साथ जब भी इस दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने आरक्षण को लेकर कोई व्यवस्था दी तो मोदी सरकार ने संसद में शीर्ष अदालत के फैसले को पलट दिया है।
इस दौरान हिमाचल ही एक ऐसा राज्य रहा है आरक्षण को लेकर कोई आंदोलन नही उठा है। अब जयराम सरकार के अंतिम वर्ष में आरक्षण पर स्वर्ण आयोग की मांग के माध्यम से एक मुद्दा खड़ा किया जा रहा है। इसमें भी महत्वपूर्ण यह है कि यह मुद्दा भी मुख्यमंत्री के उस बयान का परिणाम है जिसमें उन्होंने कहा की स्वर्ण जातियों के हितों की रक्षा के लिए स्वर्ण आयोग का गठन किया जायेगा। मुख्यमंत्री के इस बयान में कांग्रेस के भी विक्रमादित्य सिंह जैसे कई विधायक पार्टी बन गये हैं। सभी स्वर्ण आयोग गठित करने के पक्षधर बन गये हैं। क्या यह लोग विधानसभा के इस सत्र में इस पर चर्चा करेंगे की क्रीमी लेयर में आठ लाख का मानक कैसे तय हुआ है। आठ लाख की वार्षिक आय का अर्थ है करीब 67000 प्रति माह। यदि 67 हजार प्रतिमाह की आय वाला व्यक्ति भी आरक्षण का हकदार है तो सरकार को यह जानकारी सार्वजनिक करनी चाहिए कि इस मानक में प्रदेश के कितने लोग आ जाते हैं। स्वर्ण आयोग की मांग करने वालों को भी इस मानक पर अपना पक्ष स्पष्ट करना चाहिये। जब आरक्षण आर्थिक आधार पर मांगा जा रहा है तो फिर और मुद्दा ही क्या बचता है।

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