Friday, 19 September 2025
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सरकार पर लगे हिमाचल बेचने के आरोप कांग्रेस ने दिया राज्यपाल को ज्ञापन

उद्योग लगाने के लिए तीन वर्ष तक सरकार से किसी अनुमति की आवश्यकता नहीं
कर्ज लेकर संपत्ति बनाये और दोहन के लिए प्राइवेट सैक्टर को दे दे तो...
क्या यह सब धारा 118 पर पिछले दरवाजे से हमला नहीं
शिमला/शैल। जयराम सरकार ने सत्ता में चार साल पूरे होने पर मुख्यमंत्री के गृह जिला मण्डी में प्रधानमंत्री को बुलाकर जहां एक बड़ा जश्न मनाया है वहीं पर विपक्षी दल कांग्रेस ने सरकार पर हिमाचल बेचने के आरोप लगाते सरकार की नाकामियों पर एक सात पन्नों का ज्ञापन राज्यपाल को सौंपा है। ज्ञापन में राज्यपाल से स्थिति का कड़ा संज्ञान लेते हुए तुरंत हस्तक्षेप करने का आग्रह किया है। हिमाचल में गैर कृषकों को और गैर हिमाचलीयों पर सरकार की पूर्व अनुमति के बिना जमीन खरीद पर प्रतिबंध है। ऐसे में जब भी किसी भी तरह का कोई उद्योग लगाने का प्रस्ताव सरकार के पास आता है तब ऐसे उद्योग पर यह नियम लागू होते हैं। यही नहीं जमीन खरीद की पूरी अनुमति के अतिरिक्त और भी कई विभागों से पूर्व अनुमतियां लेनी पड़ती हैं। इसमें प्रायः कई बार नियमों की अनदेखी होने के आरोप भी लगते आये हैं । शांता, वीरभद्र और प्रेम कुमार धूमल सभी की सरकारों पर यह आरोप लगे हैं। इन आरोपों की जांच के लिए एस एस सिद्धु जस्टिस रूप सिंह ठाकुर और जस्टिस डी पी सूद की अध्यक्षता में जांच कमेटीयां भी बनी है। इन कमेटियों की रिपोर्ट भी आयी है। लेकिन यह कभी सामने नहीं आया है कि इन पर कार्रवाई क्या हुई है।
अब जयराम सरकार भी इस आरोप से बच नहीं पायी है। इस सरकार पर इस की नीति को लेकर ही आरोपों की स्थिति बन गयी है। क्योंकि इस सरकार ने उद्योगों को यह छूट दे रखी है कि उन्हें उद्योग स्थापित करने के लिए पहले तीन वर्षों में किसी भी तरह की कोई भी पूर्व अनुमति या एनओसी किसी भी विभाग से लेने की आवश्यकता नहीं होगी। स्वभाविक है कि जब तीन वर्ष तक किसी भी तरह की पूर्व अनुमति की आवश्यकता ही नहीं होगी तो इससे एक अलग तरह का प्रशासनिक वातावरण प्रदेश में स्थापित हो जायेगा। जिसको जहां पर भी जिस भी तरह से जमीन मिल पायेगी वह ले ली जायेगी। जमीन बेचने वाला जमीन बेचकर स्वंय भूमिहीन तो नहीं होने जा रहा है इसका ध्यान रखने का कोई प्रावधान ही नहीं है। प्रस्तावित उद्योग पर्यावरण मानकों की कसौटी पर खरा उतरता है या नहीं इसका भी उद्योग स्थापित होने से पहले कोई संज्ञान लेने की आवश्यकता नहीं रखी गयी है। जब उद्योग लगाने से पहले सरकार से कोई वास्ता ही नहीं रखा गया है तो निश्चित रूप से तीन वर्षों में उद्योग लग भी जायेगा। आप्रेशन में भी आ जायेगा और यह भी पता चल जायेगा कि संबंधित उद्योग का भविष्य क्या होगा। तीन वर्ष बाद इस पर सरकार के कायदे कानून लागू होंगे। तब भ्रष्टाचार के लिये अधिकारिक रूप से स्थान मिल जायेगा। उद्योग के अनुसार सारे मानक गढ़े जायेंगे। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि तब किस तरह की कार्य संस्कृति प्रदेश में आ जायेगी। सरकार की इस उद्योग नीति को लेकर आज तक प्रदेश में कोई सार्वजनिक बहस नहीं हो पायी है। माना जा रहा है कि तब उद्योग स्वंय ही एक पत्रा देकर यह घोषित करेंगे कि उन्होंने किसी भी तरह के नियमों की कोई अनदेखी नहीं की है और प्रशासन इसे स्वीकार कर लेगा।
अभी जिस तरह से पर्यटन के नाम पर जंजैहली, बड़ा गांव और क्यारी घाट में एशियन विकास बैंक से ऋण लेकर कन्वैन्शन सेंटर स्थापित किये गये और उन्हें आप्रेशनल होने से पहले ही प्राइवेट सेक्टर को सौंप दिया गया है उससे कांग्रेस के इस हिमाचल बेचने के आरोप को स्वतः ही अधिमान मिल जाता है। क्योंकि स्वयं कर्ज लेकर संपत्तियां बनाओ और फिर उसे दोहन के लिए निजी क्षेत्रा को सौंप दो तो निश्चित रूप से सरकार की नीयत और नीति दोनों पर ही सवाल उठेंगे। क्योंकि सरकार की इस तरह की नीति से भू- सुधार अधिनियम की धारा 118 के औचित्य पर भी सवाल उठेंगे। सरकार जब उद्योगों को सारे कायदे कानूनों से छूट दे देगी और स्वयं कर्ज लेकर प्राइवेट सैक्टर को संपत्तियां सौंपेगी तो इसे पिछले दरवाजे से धारा 118 पर हमला माना जायेगा।

क्या परिवार रजिस्टर की नकल में हरिजन शब्द लिखा जाना आपत्तिजनक है

भाटिया के पत्र से उठा सवाल

शिमला/शैल। आने वाले चुनावी में प्रदेश के तीसरे दलों की भूमिका क्या होगी इसको लेकर सवाल उठने शुरू हो गये हैं। यह सवाल इसलिए उठ रहे हैं क्योंकि दलित समाज के कुछ संगठनों ने पिछले दिनों एक आयोजन करके यह मुद्दा उठाया था कि उनके लिए आवंटित बजट का सरकार 7 प्रतिश्त भी खर्च नहीं कर रही है। इस आशय का एक ज्ञापन भी प्रदेश के राज्यपाल को सौंपा गया था। इसमें राज्यपाल से हस्तक्षेप करने का आग्रह किया गया था। इसी दौरान कुछ स्वर्ण संगठनों ने जातिगत आरक्षण समाप्त करके आर्थिक आधार पर करने तथा इसके लिये एक स्वर्ण आयोग गठित करने की मांग की। इसके लिये आंदोलन हरिद्वार तक की पदयात्रा और शिमला में एट्रोसिटी एक्ट को लेकर एक शव यात्रा तक आयोजित की गयी। स्वर्ण समाज के इस आंदोलन को देखकर सरकार ने सामान्य वर्ग आयोग का गठन भी कर दिया।
सामान्य वर्ग के लिए आयोग गठित कर दिये जाने के बाद दलित समाज ने एट्रोसिटी एक्ट की शव यात्रा को राष्ट्रद्रोह करार देने के लिए बसपा के माध्यम से राज्यपाल को ज्ञापन दिया। अब संत रविदास धर्म सभा के प्रदेशाध्यक्ष कर्मचन्द भाटिया ने राज्यपाल को पत्र लिखकर मांग की है कि भू अभिलेख के शजरा नसब में जाति, गोत्र, समुदाय, बिरादरी और वंशावली दर्ज होती है। इस अभिलेख कि जब नकल लेने के लिये जा रहे हैं तब उनकी परिवार नकल प्रति पर अनुसूचित जाति समुदाय के कॉलम में हरिजन शब्द लिखा जा रहा है। सामान्य वर्ग के लोगों के लिए स्वर्ण शब्द लिख रहे हैं। हरिजन और स्वर्ण शब्दों को भूलेख में अंकित करना संविधान की भावना तथा सर्वाेच्च न्यायालय के निर्देशों की अवमानना माना जा रहा है। राज्यपाल से अनुरोध किया गया है कि वह इसे बंद करवाये।
प्रदेश में इस समय दलितों की संख्या करीब 30%होने का दावा किया जा रहा है। ऐसे में जिस तरह से इस समाज के लिये आबटित बजट भी पूरा नहीं खर्च किया जा रहा है और ऊपर से अभिलेखों की नकल लेने में हरिजन शब्द दर्ज किया जा रहा है उससे इस समाज के भीतर एक रोष अवश्य पनपता जा रहा है। यह रोष यदि आने वाले समय में एक अलग राजनीतिक राह अपना लेता है तो इसका प्रदेश राजनीतिक समीकरणों पर दूरगामी प्रभाव पड़ेगा यह तय है।

चार साल के कार्यकाल के बाद कहां खड़े हैं भाजपा और जयराम

2019-20 कि कैग रिपोर्ट से सरकार पर  उठे गंभीर सवाल 
एडीबी के कर्ज से बनी संपत्तियां ऑपरेशनल होने से पहले ही प्राइवेट हाथों में क्यों ?
जयराम के अधिकांश मंत्रियों का विवादित होना क्या एक संयोग है या कुछ और...

शिमला/शैल। जयराम सरकार के सत्ता में चार साल पूरे होने जा रहे हैं इस अवसर पर मंडी में एक राज्य स्तरीय आयोजन किया जा रहा है। प्रधानमंत्री ने इसमें शामिल होने की हां भी कर दी है। स्वाभविक है कि जब प्रधानमंत्री इस आयोजन में शामिल होंगे तो प्रदेश से ही ताल्लुक रखने वाले राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा और केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर भी इसमें शामिल होंगे ही। यह आयोजन उस समय हो रहा है जब अभी कुछ दिन पहले ही हुए चारों उपचुनाव भाजपा और जयराम सरकार हार गयी है। बल्कि इस हार के बाद प्रदेश में नेतृत्व परिवर्तन के कयास चल पड़े थे। क्योंकि भाजपा गुजरात, उत्तराखंड और कर्नाटक में नेतृत्व परिवर्तन बड़े छोटे-छोटे मुद्दों पर कर चुकी थी। लेकिन अभी तक प्रदेश की सरकार और संगठन किसी में भी कुछ भी बदलाव नहीं हो पाया है। कहा यह जा रहा है कि यदि मुख्यमंत्री जयराम ने हार के लिए अपनी तत्कालिक प्रतिक्रिया में महंगाई को जिम्मेदार न ठहराया होता और इस प्रतिक्रिया के बाद पेट्रोल और डीजल की कीमतों में मोदी सरकार ने कमी न की होती तो शायद स्थितियां कुछ और होती। फिर इसी के साथ उत्तर प्रदेश के चुनाव को जोड़कर यह तर्क सामने आया है कि उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणामों के बाद ही राज्यों की समस्याओं पर ध्यान दिया जायेगा। इस तरह जो दो-तीन माह का समय जयराम को मिल गया है उसमें वह अपनी कार्यशैली में कितना सुधार कर पाते हैं उस पर हाईकमान से लेकर प्रदेश के हर आदमी की नजर रहेगी।
किसी भी मुख्यमंत्री और उसकी सरकार के लिए सबसे बड़ी कसौटी यही होती है कि क्या वह सत्ता में वापसी कर पायेगी? यदि हार भी होती है तो वह शर्मनाक नहीं होनी चाहिये। इस गणित में अब तक रही कांग्रेस और भाजपा की सरकारों में कोई भी मुख्यमंत्री सत्ता में वापसी नही कर पाया है। इसलिए यदि जयराम भी सत्ता में वापसी नहीं कर पाते हैं तो यह कोई अनहोनी नहीं होगी। वीरभद्र और प्रेम कुमार धूमल पर यह आरोप लगता रहा है कि उनके परिवारों का शासन प्रशासन में दखल ज्यादा बढ़ गया था इसलिए वह वापसी नहीं कर पाये। परंतु जयराम के परिवार से तो कोई भी राजनीति में नहीं है। इसके बावजूद भी यदि जयराम सत्ता में वापसी नहीं कर पाते हैं तो वीरभद्र और धूमल परिवार भी इस आरोप से मुक्त हो जाते हैं। उस सूरत में यह आरोप मुख्यमंत्री की अपने सलाहकारों की टीम और उनकी अपनी प्रशासनिक समझ पर ही आकर टिकेगा।
इस मानक पर यदि जयराम के चार वर्षों के कार्य का आकलन किया जाये तो इसका सबसे बड़ा प्रमाणिक दस्तावेज कैग की वर्ष 2019-20 की इस विधानसभा सत्र में आई रिपोर्ट हो जाती है। इस रिपोर्ट में जयराम सरकार पर सबसे बड़ा आरोप लगा है कि उसने जनहित से जुड़ी 96 योजनाओं पर एक पैसा भी खर्च नहीं किया और न ही खर्च न करने का कोई कारण ही बताया है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि कोई भी योजना एक करोड़ से कम की नहीं थी। रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि इसी अवधि में सरकार का कर्ज 62000 करोड़ से पार गया है। स्मरणीय है कि 9 मार्च 2018 के अपने पहले बजट भाषण में मुख्यमंत्री ने सदन में यह कहा है कि उनकी सरकार को 46000 करोड़ का कर्ज विरासत में मिला है। सीएजी की रिपोर्ट और मुख्यमंत्री के भाषण से यह सामने आता है कि इस सरकार को 8000 करोड़ का कर्ज प्रतिवर्ष लेना पड़ रहा है। यदि इतना कर्ज लेकर भी जनहित की 96 योजनाओं पर इस सरकार में कोई पैसा ही खर्च नहीं किया है तो कार्यकुशलता पर इससे बड़ा सवाल और क्या हो सकता है। कैग के इस प्रमाण पत्र के बाद शायद विपक्ष को सरकार पर हमलावर होने के लिये और किसी बारूद की जरूरत नहीं रह जाती है। इसी प्रमाण पत्र के साथ जब एडीबी के कर्ज से सिराज बड़ागांव और क्यारीघाट में बनी संपत्तियों को ऑप्रेशनल होने से पहले ही प्राइवेट सेक्टर को दे देने का सच सामने आयेगा तो फिर कांग्रेस के साठ/आठ के दावे को पूरा होने से कौन रोक पायेगा।
इस वस्तुस्थिति में राजनीतिक विश्लेषकों के सामने एक बड़ा सवाल यह भी आ रहा है कि यह सब कुछ ऐसे घट गया कि जयराम को इसका पता ही नहीं चल पाया या फिर अपनी कुर्सी पक्की करने के लिए यह सब कुछ घटने दिया गया। इस सवाल की पड़ताल करने के लिए कुछ तथ्यों पर नजर डालना आवश्यक हो जाता है। 2017 का चुनाव भाजपा ने धूमल को मुख्यमंत्री घोषित करके लड़ा था। लेकिन संयोगवश पार्टी को तो बहुमत मिल गया और धूमल अपनी पूरी टीम के साथ हार गये। इस हार के बाद भी विधायकों के एक बड़े वर्ग की ओर से उन्हें मुख्यमंत्री बनाने की मांग और उनके लिये सीट खाली करने की पेशकश तक हुई। उस समय पार्टी में दूसरे वरिष्ठ लोगों में महेंद्र सिंह, जे.पी. नड्डा और सुरेश भारद्वाज आते थे। जयराम वरिष्ठता में इन सबके बाद थे। महेंद्र सिंह आर एस एस से ताल्लुक नहीं रखते और इसी गणित से में बाहर हो गये। नड्डा का नाम भी यहां तक आ गया था कि उनके समर्थकों ने तो मिठाईयां बांट दी और रास्ते से वापस हुए। इस गणित में जयराम फिर बैठ गये और मुख्यमंत्री बन गये। लेकिन इन दावेदारों का डर हर समय सिर पर मंडराता रहा। इस डर से बाहर आने के लिए सबसे पहले धूमल को शिमला से बाहर किया गया। उसके बाद हर जिले के बड़े नेता और संघ के नजदीकीयों को विवादित बनाने की कवायद शुरू हुई। मुख्यमंत्री के अपने ही कार्यालय के धर्मा-धर्माणी को लेकर एक पत्र वायरल हो गया। उसके बाद दूसरे पत्र में परमार और बिंदल तथा रविन्द्र रवि निशाने पर आ गये। इसी दौरान अनिल शर्मा और महेंद्र सिंह में मोर्चा खुल गया। महेंद्र सिंह सभी के निशाने पर आ गये। कांगड़ा में उद्योग मंत्री विक्रम भी पत्र बम के शिकार हुये। सरवीन चौधरी के खिलाफ विजय मनकोटिया आ गये। इंदु गोस्वामी को भी संगठन और सरकार के खिलाफ पत्र लिखना पड़ा। उपचुनाव में सुरेश भारद्वाज राजीव बिंदल और राकेश पठानिया सभी के चुनावी प्रबंधन कौशल की हवा निकल गयी। अभी नड्डा के अपने ही गृह जिले में उसके अपने ही लोग उससे नहीं मिल पाये और उल्टे मामलों के शिकार बन गये।
इस तरह यदि पूरी वस्तु स्थिति पर निष्पक्ष नजर डालें तो भाजपा का हर वह नेता तो देर सवेर नेतृत्व का दावेदार हो सकता था इस समय किसी न किसी कारण से विवादितों की कतार में आ गया है। इस सब में आज भी अकेले जयराम ही उन नेताओं में बचा है जो स्वयं ज्यादा विवादित नहीं है। भले ही इस सब की कीमत संगठन को चुकानी पड़ेगी लेकिन आज जयराम ने अपने को वहां लाकर खड़ा कर दिया है जहां उसका कोई विकल्प पार्टी के पास उपलब्ध नहीं है। जिस तरह से इस समय कांगड़ा को तीन जिलों में बांटने की योजना बन रही है और कांगड़ा का सारा नेतृत्व इस पर चुप्पी साधे बैठा है उसको क्या राजनीति की एक बड़ी शातिर चाल नहीं माना जाना चाहिए क्योंकि इसके बाद कांगड़ा का सबसे बड़ा जिला होने का टैग खत्म हो जायेगा। क्या उसका नुकसान कांगड़ा के वर्तमान नेताओं को नहीं होगा ।

पुलिसकर्मीयों के परिजन निकालेंगे रोष रैली

शिमला/शैल। जयराम सरकार ने प्रदेश कर्मचारियों के साथ जेसीसी बैठक करके उन्हें नये वेतनमान देने और अनुबंध कर्मचारियों की अनुबंध अवधि तीन साल से घटाकर दो साल करने का फैसला लिया है। जेसीसी में हुये इस फैसले को मंत्रिमंडल की बैठक में भी अनुमोदित कर दिया गया है। लेकिन सरकार के इस फैसले का लाभ उन पुलिसकर्मियों को नहीं मिलेगा जो पुलिस में 2015, 16, 17 और 19 में भर्ती हुये हैं। इन वर्षों में भर्ती हुये करीब 5700 पुलिस कर्मी इस फैसले से लाभान्वित नहीं होंगे। क्योंकि इनके लिए अनुबंध अवधि अभी भी आठ वर्ष ही है। इन्हें 10300+3200 का वेतनमान लेने के लिये आठ वर्ष का इंतजार करना ही पड़ेगा।
निश्चित रूप से इन पुलिस कर्मचारियों के साथ यह ज्यादती है। इस न इन्साफी के खिलाफ यह लोग पुलिस मैस का बहिष्कार करके और बाकायदा इसका रोजना मचे में जिक्र करके अपना विरोध प्रकट करते आये हैं। जब जेसीसी की बैठक में इनकी मांगों पर सुनवाई नहीं हुई तब तय लोग मुख्यमंत्री के आवास पर उनसे मिलने भी पहुंच गये थे। मुख्यमंत्री ने इनकी बात सुनके आश्वासन भी दिया था। लेकिन इस आश्वासन के बावजूद इन्हें पुलिस मुख्यालय से अनुशासन के चाबुक का सामना करना पड़ा। जुबान बंद रखने की पाबंदी लग गयी। सोशल मीडिया में भी अपनी तकलीफ सांझा नहीं कर सकते ऐसे निर्देश जारी हो गये। ऐसी पाबंदी लगने पर इनके परिजनों ने इनकी मांगे उठाने की जिम्मेदारी ले ली। बिलासपुर में जब भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा आये थे तब उनके सामने यह मांगे रखने का फैसला लिया और इसकी जानकारी जिला प्रशासन को दे दी गयी थी। लेकिन जब परिजन नड्डा से मिलने पहुंचे तब उनके खिलाफ एफ आई आर दर्ज कर दी गयी।
अब यह परिजन अपने बच्चों की लड़ाई लड़ने के लिए विवश कर दिये गये हैं। क्योंकि जब विधानसभा में भी यह मामला उठा तब इस विसंगति की जिम्मेदारी पूर्व की कांग्रेस सरकार पर डाल दी गयी। ऐसे में अब इन परिजनों ने सरकार को चेतावनी दी है कि यदि इनकी मांगों को पूरा न किया गया तो यह लोग प्रधानमंत्री की प्रस्तावित मण्डी यात्रा के दौरान रोष रैली निकालकर प्रधानमंत्री के सामने अपनी मांगें रखेंगे। कर्मीयों के दर्जनों अभिभावकों ने इस आशय के पत्र लिखकर मुख्यमंत्री को अपने फैसले से अवगत करवा दिया है। लेकिन अभी तक सरकार की ओर से इनकी मांग स्वीकार करने के कोई संकेत नहीं आये हैं। ऐसे में तय माना जा रहा है की मण्डी में बिलासपुर से भी बड़ा कुछ घटेगा।

संवैधानिक अधिकारों की शव यात्रा पर राजद्रोह क्यों नहींःबसपा

सामान्य वर्ग आयोग के गठन की अधिसूचना मंत्रिमंडल की बैठक से गायब क्यों रही
मंडी में क्यों बड़े दलित अत्याचार के मामले
ओबीसी भी पूरा 27% आरक्षण लागू किए जाने की मांग पर आ गए हैं

शिमला/शैल। प्रदेश के स्वर्ण संगठन जातिगत आरक्षण समाप्त करके सारा आरक्षण आर्थिक आधार पर करने और एट्रोसिटी एक्ट खत्म करने की मांग करते रहे हैं। मंडल बनाम कमण्डल आंदोलन के दौरान तो यह विरोध प्रदेश में आत्मदाह के प्रयासों तक पहुंच गया था। लेकिन उसके बाद अब जयराम सरकार के समय में यह विरोध फिर मुखर हो उठा है। बल्कि इस दौरान दलित उत्पीड़न के मामलों में भी वृद्धि हुई है। दलित वर्ग से ताल्लुक रखने वाले मंत्री तक को मंडी में मन्दिर में प्रवेश नहीं करने दिया गया था। स्वर्ण समाज का यह विरोध उस समय पूरी तरह खुलकर सामने आ गया जब 15 से 21 नवम्बर के बीच एट्रोसिटी अधिनियम की राजधानी शिमला में भी शव यात्रा निकाली गयी। प्रशासन इस शव यात्रा पर पूरी तरह खामोश रहा जबकि एट्रोसिटी अधिनियम संविधान द्वारा इन वर्गों को दिया गया अधिकार है। ऐसे में यह शव यात्रा एक तरह से संविधान की ही शव यात्रा बन जाती है और इस तरह से राष्ट्रद्रोह के दायरे में आती है। दलित समाज की मांग के बावजूद प्रशासन द्वारा कोई कदम न उठाया जाना और धर्मशाला में विधानसभा सत्र के दौरान स्वर्ण संगठनों के आन्दोलन के दबाव में मुख्यमंत्री द्वारा सामान्य वर्ग आयोग के गठन की अधिसूचना जारी करवा दिये जाने से यह मामला एक अलग ही पायदान पर पहुंच गया है।
प्रदेश की बहुजन समाज पार्टी ने इसका कड़ा संज्ञान लेते हुए राज्यपाल को इस संदर्भ में एक ज्ञापन सौंपकर शव यात्रा निकालने वालों और इस पर संवद्ध प्रशासन के मौन रहे अधिकारियों के खिलाफ राष्ट्रद्रोह के तहत मामला दर्ज करके कारवाई करने की मांग की है। बसपा ने इस आशय का एक ज्ञापन भी राज्यपाल को सौंपा है। इस ज्ञापन में बसपा ने मुख्यमंत्री के गृह जिले मंडी और उनके ही चुनाव क्षेत्र सिराज में हुए दलित उत्पीड़न के मामलों को प्रमुखता से उठाया है। सिराज में हुए पदम देव हत्याकांड कमल जीत उर्फ कोमल हत्याकांड और द्रंग में 80 वर्षीय बुजुर्ग से हुई मारपीट तथा जोगिन्दर नगर में 11 वर्षीय बच्ची के साथ हुए बलात्कार के मामलों का जिक्र करते हुये आरोप लगाया गया है कि एट्रोसिटी एक्ट को हटाने की मांग करके इन वर्गों के खिलाफ अत्याचार करने की छूट की मांग की जा रही है। क्योंकि संविधान द्वारा दिए गए इस अधिकार के बावजूद भी दलित अत्याचार के इन मामलों पर कार्रवाई न होना अपने में यही प्रमाणित करता है।
दूसरी और स्वर्ण संगठनों की मांग पर सरकार ने धर्मशाला में सामान्य वर्ग के लिए आयोग के गठन की अधिसूचना जारी करके आन्दोलन की धारा को तो रोक दिया है। लेकिन इस अधिसूचना के बाद मंत्रिमंडल की हुई पहली बैठक में अधिसूचना का मुद्दा न आने से भी कई सवाल खड़े हो रहे हैं। क्योंकि आन्दोलनकर्ताओं की मांग है जातिगत आरक्षण और एट्रोसिटी एक्ट को समाप्त करना। लेकिन यह दोनों ही संविधान द्वारा दिये गये अधिकार हैं। इनमें कोई भी संशोधन करना संसद के अधिकार क्षेत्र में आता है। इसमें राज्य सरकार या उसके द्वारा गठित आयोग की कोई भूमिका ही नहीं है। यहां तक कि ऊंची जातियों के आर्थिक रूप से पिछड़ा को 10 प्रतिशतआरक्षण 1991 में नरसिंह राव सरकार ने दिया था उसे भी सर्वोच्च न्यायालय 1992 में आये इन्दिरा साहनी मामले के फैसले में रद्द कर चुका है। फिर अन्य पिछड़े वर्गों को जो 27 प्रतिशत आरक्षण मिला है उस पर भी प्रदेश में पूरी तरह अमल नहीं हो पाया है। यह वर्ग भी इस पर अमल की मांग को लेकर सामने आ रहा है। इस परिदृश्य में जयराम सरकार के लिये आने वाला समय काफी रोचक रहने वाला है।

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