ग्यारह दिसम्बर को शपथ लेने के बाद 12 दिसम्बर को ही फैसला क्यों
मन्त्रीमण्डल के फैसलों की समीक्षा विधायकों की कमेटी में कैसे संभव है
नागरिक उपमण्डल कार्यालय खोलने के लिये जब उच्च न्यायालय की अनुमति चाहिये तो बन्द करने के लिए भी क्यों नहीं चाहिये
बिजली बोर्ड का कोई भी कार्यालय सर्विस कमेटी की अनुमति के बिना नहीं खुल सकता
इस सर्विस कमेटी का मुखिया प्रदेश का मुख्य सचिव या अतिरिक्त मुख्य सचिव वित्त होता है
क्या डिनोटिफिकेशन के फैसले याचिका के आर्ड में शीर्ष प्रशासन पर सवाल नहीं उठते?
शिमला/शैल। सुक्खू सरकार ने पिछली जयराम सरकार द्वारा 1 अप्रैल 2022 से 13-10-2022 तक खोले गये सारे संस्थानों को 12-12-2022 को एक फैसला लेकर बन्द करने के आदेश जारी किये हैं। अब इन आदेशों को भाजपा ने अपने प्रदेश अध्यक्ष एवं सांसद सुरेश कश्यप के माध्यम से उच्च न्यायालय में एक याचिका डालकर चुनौती दे दी है। सरकार पर आरोप लगाया गया है कि उसने बिना किसी समुचित विचार विमर्श के केवल राजनीतिक द्वेष से ग्रसित होकर यह आदेश जारी किये हैं। इस पर सरकार के महाधिवक्ता ने उच्च न्यायालय में यह दलील रखी है कि भाजपा अध्यक्ष को यह याचिका दायर करने का अधिकार नहीं है। इस परिपेक्ष में उच्च न्यायालय का क्या मत रहता है यह देखना आवश्यक हो जाता है और तब तक इस पर कोई राय रखना संगत नहीं होगा।
लेकिन सरकार के इस फैसले से प्रदेश की राजनीति में एक उबाल आ गया है। प्रदेश के हर भाग में भाजपा इस फैसले के खिलाफ धरने प्रदर्शनों पर आ गयी है। नेता प्रतिपक्ष पूर्व मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने पहले दिन ही अपनी प्रतिक्रिया में स्पष्ट कर दिया था कि इन फैसलों को अदालत में चुनौती दी जायेगी और अब इस आश्य की याचिका भी दायर हो गयी है। यह विषय गंभीर है इसलिये इसके गुण दोषो पर टिप्पणी किये बिना याचिका में रखे गये तथ्यों को ही कुछ प्रश्नों के साथ जनता के सामने रखना होगा। क्योंकि यह याचिका प्रदेश के शासन और प्रशासन पर कई गंभीर सवाल खड़े करता है। जिनके परिणाम शायद इस सरकार के पूरे कार्यकाल में प्रसांगिक रहेंगे।
विधानसभा के चुनाव परिणाम 8 दिसंबर को आये कांग्रेस को बहुमत मिला और उसकी सरकार बनाने की कवायद शुरू हो गई। परिणामतः सुखविंदर सिंह सुक्खू कांग्रेस विधायक दल के नेता चुन लिये गये और 11 दिसंबर को उन्हें मुख्यमंत्री और मुकेश अग्निहोत्री को उप मुख्यमंत्री की शपथ दिलाई गयी। इस दो सदस्यों की सरकार ने 12 दिसंबर को ही पिछली सरकार के फैसलों पर यह फैसला ले लिया जिसे उच्च न्यायालय में चुनौती दी गयी है। अप्रैल 22 अक्तूबर 2022 तक जयराम सरकार ने सैकड़ों संस्थान खोले थे जो इस फैसले से बन्द कर दिये गये हैं। क्या इतना बड़ा फैसला लेने के लिये एक दिन का ही समय लेना समुचित विचार विमर्श के लिये पर्याप्त समय हो सकता है यह सवाल उठाया गया है। इसी के साथ यह भी आरोप है कि पिछली सरकार के पूरे मन्त्रीमण्डल द्वारा लिये गये फैसलों की समीक्षा विधायकों की एक कमेटी ने की है। संबद्ध विधायकों ने एक पत्रकार वार्ता में यह स्वयं स्वीकारा भी हैं। विधायकों ने यह सब शपथ लेने से और कमेटी के औपचारिक गठन के बिना ही ऐसा किया है। क्या विधायक मन्त्रीमण्डल के फैसलों पर सदन के बाहर कोई अधिकारिक चर्चा कर सकते हैं यह सवाल भी उठाया गया है।
तहसील देहरा के रक्कड़ और कोटाला बेहड़ में दो एसडीएम कार्यालय खोले गये थे यह कार्यालय खोलने की प्रक्रिया में प्रदेश उच्च न्यायालय से भी अनुमति लिया जाना अनिवार्य होता है। याचिका में कहा गया है कि यह वंच्छित अनंुमतियां लेकर ही यह उपमण्डल नागरिक के कार्यालय खोले गये थे। स्वभाविक है कि इन्हें बन्द करने के लिए भी उच्च न्यायालय की अनुमति वांछित होगी। सरकार के इस फैसले पर उच्च न्यायालय की प्रतिक्रिया क्या रहेगी यह आने वाले दिनों में पता चलेगा। इसी तरह राज्य बिजली बोर्ड के कार्यालय खोलने के लिये भी विभिन्न स्तरों की लंबी प्रक्रिया रहती है। अंत में इस आशय के सारे प्रस्ताव विद्युत बोर्ड की सर्विस कमेटी के पास जाते हैं। बिजली बोर्ड की सर्वाेपरि कमेटी है इसकी अनुमति के बिना बोर्ड में कुछ नहीं घट सकता। स्वभाविक है कि बोर्ड के कार्यालय बन्द करने के लिये भी यही प्रक्रिया रहेगी। इस सर्विस कमेटी का मुखिया सरकार का मुख्य सचिव या अतिरिक्त मुख्य सचिव रहता है। याचिका में यह तथ्य दर्ज है इसका अर्थ है कि सुक्खू सरकार के मुख्य सचिव और मुख्य सूचना आयुक्त इस प्रक्रिया के अंग रहे हैं। इनकी सहमति के बिना विद्युत बोर्ड में न कोई कार्यालय खुल सकता है और न ही बन्द हो सकता है।
इस याचिका से यह स्पष्ट हो जाता है कि पूर्व सरकार के इन संद्धर्भित फैसलों में प्रदेश के मुख्य सचिव और वित्त सचिव की भूमिका प्रमुख रही है और आज भी है। ग्यारह दिसम्बर को शपथ लेने के बाद बारह दिसम्बर को ही सरकार ने यह फैसला ले लिया। यह फैसला लेने के लिये विधायकों की जिस कमेटी की सिफारिशों को आधार बनाया गया उसकी शायद बैठक ही इस फैसले के बाद हुई है। कांग्रेस ने चुनावों में ही स्पष्ट कर दिया था कि वह जयराम सरकार के फैसलों की समीक्षा करेगी। शीर्ष प्रशासन को इसकी जानकारी थी। प्रशासन को यह भी पता था कि जिस तरह से फैसला लेने के लिये एक तय प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है उसी तरह फैसला पलटने के लिए भी प्रक्रिया अपनानी पड़ती है। याचिका में आरोप लगाया गया है कि संस्थान बन्द करने का फैसला लेने के बाद प्रशासनिक विभागों से इस आशय के प्रस्ताव लिये जा रहे हैं। ऐसे में यह स्वभाविक सवाल उठ रहा है कि यदि संस्थानों को बन्द करने का फैसला लेने से पहले इनकी उपोदयता और प्रसंगिता को लेकर एक विधिवत व्यवहारिक रिपोर्ट ले ली जाती तो न ही भाजपा को पहले ही दिन सड़कों पर उतरने का मौका मिलता और न ही इस तरह की कोई याचिका उच्च न्यायालय में आने की नौबत आती। यह एक तकनीकी और वैधानिक मुद्दा था और इस पर शीर्ष प्रशासन को राजनीतिक नेतृत्व के सामने सारी स्थिति विस्तार से रखनी चाहिये थी। लेकिन शायद ऐसा हो नहीं पाया। बल्कि संयोग ऐसा घटा कि जब प्रशासन के शीर्ष पर 31 दिसम्बर रात को मुख्य सचिव और मुख्य सूचना आयुक्त की नियुक्तियों के फैसलों पर पहली जनवरी को अनुपालना सुनिश्चित होने के बाद दो जनवरी को भाजपा की है याचिका उच्च न्यायालय में दायर हो जाती है। इस याचिका में जिस तरह से कुछ तकनीकी पक्षों को उभारा गया है उससे यह गंघ आती है कि प्रशासन ने जानबूझकर सरकार को उलझाने का प्रयास किया है।

कांग्रेस और भाजपा आये आमने-सामने
शीर्ष प्रशासन बना दर्शक
जयराम ठाकुर मुद्दे को भुनाकर बने नेता प्रतिपक्ष
नये संस्थानों से प्रदेश पर पड़ा तीन हजार करोड़ का अतिरिक्त भार
शिमला/शैल। निवर्तमान जयराम सरकार ने चुनावी वर्ष के अंतिम छः माह में प्रदेश में नौ सौ से ज्यादा विभिन्न संस्थान खोलने की घोषणाएं करके सरकारी खजाने पर तीन हजार करोड़ का अतिरिक्त भार डाला था। जयराम सरकार जब यह कर रही थी तो कांग्रेस सहित कुछ लोग सरकार के इन फैसलों पर नजर भी रख रहे थे। क्योंकि यह फैसले सरकार के कार्यकाल के अन्तिम छः माह में उस समय लिये जा रहे थे जब प्रदेश के पास कर्ज लेने के अतिरिक्त और कोई साधन इन्हें पूरा करने के लिये नहीं बचा था। जबकि प्रदेश का कर्ज भार पहले ही 75,000 करोड़ का आंकड़ा पार कर चुका था। यही नहीं केन्द्र सरकार इससे पहले ही राजस्व घाटा अनुदान और जीएसटी प्रतिपूर्ति बन्द कर चुकी थी। अटल ग्रामीण सड़क योजना बन्द हो चुकी है। इनसे ही प्रदेश को करीब तीन हजार करोड़ का नुकसान हो चुका है। इस परिदृश्य में प्रदेश पर और तीन हजार करोड़ का बोझ डालना हर समझदार के सामने एक बड़ा सवाल बनता जा रहा था। क्योंकि जो शीर्ष प्रशासन प्रदेश की वित्तीय स्थिति से अवगत था वह इस सब पर मौन चल रहा था। सरकार की इन गतिविधियों से यह लगातार स्पष्ट होता जा रहा था कि जो सरकार अन्तिम छः माह में यह सब कुछ कर रही है उसने इससे पहले कुछ नहीं किया और अब चुनाव जीतने के लिये एक हथियार के रूप में घोषणाओं का इस्तेमाल किया जा रहा है। यदि चुनावी परिणाम न भी मिले तो आने वाली कांग्रेस के लिये यह सब एक बड़ा फन्दा साबित होंगे। दूसरी ओर जब कांग्रेस इस सब पर नजर रख रही थी तब उसने चुनाव प्रचार के दौरान ही यह ऐलान कर दिया था कि वह इन फैसलों की समीक्षा करके इन्हें डिनोटिफाई करेगी। सरकार बनने के बाद कांग्रेस ने अपने वायदे पर अमल करते हुये फैसलों की समीक्षा करके इन्हें डिनोटिफाई करना शुरू कर दिया है। संयोगवश इसी दौरान भाजपा की यह चर्चाएं सामने आना शुरू हो गयी कि नेता प्रतिपक्ष के लिए जयराम की जगह सतपाल सत्ती और विपिन परमार के नाम चलने शुरू हो गये हैं। जयराम ठाकुर ने इस स्थिति का संज्ञान लेते हुये सुक्खू सरकार के खिलाफ फैसले पर मोर्चा खोल दिया है। पूरे प्रदेश में प्रदर्शनों का दौर शुरू हो गया जो जसवां प्रागपुर में शालीनता और सभ्यता की सारी सीमायें लांघ गया। जयराम ने सुक्खू सरकार के फैसलों को उच्च न्यायालय तक में चुनौती देने की घोषणा तक कर दी। जयराम अदालत जाते हैं या नहीं यह तो आने वाला वक्त ही बतायेगा। लेकिन यह सब करने से जयराम नेता प्रतिपक्ष अवश्य चुन लिये गये। अब इन फैसलों को लेकर किसका पक्ष कितना सही है यह तो आने वाला समय ही बतायेगा कि वित्तीय और प्रशासनिक अनुमतियां कितने फैसलों में रही हैं। लेकिन प्रशासनिक सूत्रों के मुताबिक 25% फैसलों में सारी आवश्यक औपचारिकताएं पूरी हैं। प्रशासन के इसी फीडबैक के सहारे जयराम ने सुक्खू को चुनौती देने का साहस किया है। क्योंकि जिस प्रशासन के सहयोग से जयराम ने यह फैसले लिये थे उसकी रिपोर्ट पर ही सुक्खू उन्हें डिनोटिफाई करने के फैसले ले रहे हैं।
इन फैसलों के संद्धर्भ में शीर्ष प्रशासन से यह सवाल बनता है कि जब इन घोषणाओं के लिये बजट का प्रावधान ही नहीं था तो इन घोषणाओं को फील्ड में घोषित करने के लिये जो आयोजन किये गये उनके लिये धन का प्रावधान कहां से किया गया। क्योंकि इन आयोजनों पर ही कई करोड़ों का खर्च हुआ है। धन के इस प्रबन्धन की जानकारी प्रदेश के वित्त विभाग से आनी चाहिये थी। इसके लिये प्रदेश के मुख्य सचिव और वित्त सचिव को पत्रकार वार्ता के माध्यम से स्थिति स्पष्ट करनी चाहिये थी। लेकिन इसका जवाब कांग्रेस विधायकों सर्वश्री हर्षवर्धन चौहान, रोहित ठाकुर और अनिरुद्ध सिंह की ओर से दिया गया। शायद इसीलिये यह सवाल भी उछला कि जब संस्थान खोलने का फैसला पूरे मंत्रिमंडल द्वारा लिया गया है तो इन्हें डिनोटिफाई करने के लिये पूरे मंत्रिमंडल की आवश्यकता क्यों नहीं? यदि मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री ही मंत्रिमंडल बन जाते हैं तो फिर दूसरों के फैसलों में देरी क्यों की जा रही है। विश्लेषकों का मानना है कि पूर्व मुख्यमंत्री प्रशासन के माध्यम से सुक्खू सरकार को उलझाने का प्रयास कर रहे हैं।
पहले ही सीमेन्ट के रेट बढ़ा दिये। यह रेट बढ़ाये जाने पर सरकार और जनता में रोष होना स्वभाविक था क्योंकि जनता को सरकार बदलने का ईनाम इस महंगाई के रूप में मिला। जब सरकार ने यह रेट बढ़ाये जाने का कारण पूछा तो अचानक घाटा होने का कवर लेकर इस इन सीमेन्ट कारखानों को बिना किसी पूर्व सूचना के बन्द कर दिया गया। कारखाने अचानक बन्द कर दिये जाने से हजारों लोग एकदम प्रभावित हुये हैं क्योंकि जो लोग यहां पर नौकरी कर रहे थे उनकी नौकरी पर अचानक प्रश्न चिन्ह लग गया है। सीमेन्ट के उत्पादन से लेकर इसकी ढुलाई तक के काम में प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े हजारों लोग प्रभावित हो गये हैं। एक तरह से अराजकता का माहौल पैदा हो गया है। उत्पादन बन्द कर दिये जाने से सरकारी और गैर सरकारी क्षेत्र में चल रहे निर्माण कार्य प्रभावित हुये हैं। सीमेन्ट की ढुलाई में लगे ट्रकों के पहिये एकदम रुक गये हैं। ट्रक यूनियनों और कंपनी प्रबन्धन में हो रही वार्ताएं हर रोज विफल हो रही है। प्रशासन एक तरह से लाचारगी का शिकार हो गया है। कंपनी प्रबन्धन सीमेन्ट उत्पादन में घाटा होने का कवर लेकर ट्रकों से भाड़ा कम करने की मांग कर रहा है तो ट्रक ऑपरेटर तेल की कीमतें बढ़ने और उसी के कारण रखरखाव के दाम बढ़ने का तर्क देकर भाड़ा कम करने में असमर्थता व्यक्त कर रहे हैं। सुक्खू सरकार जनता से रोजगार बढ़ाने के दावा करके आयी है। इस तालाबन्दी से लगे हुये रोजगार पर ही संकट खड़ा हो गया है।शीर्ष प्रशासन की निष्ठाओं और ईमानदारी पर उठेंगे सवाल
शिमला/शैल। कांग्रेस ने चुनावों में वायदा किया था कि वह जयराम द्वारा पिछले छः माह में लिये गये फैसलों की समीक्षा करेगी। सरकार बनने के बाद मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने विधायकों की एक कमेटी बनाकर इन फैसलों की समीक्षा करवाई। इस समीक्षा में विभागों से ऐसे फैसलों की सूची लेकर प्रशासनिक सचिवों और वित्त विभाग से जानकारी ली गयी जो फैसले प्रशासनिक अनुमति और बजट प्रावधानों के बिना लिये गये थे। उन्हें अन्ततः रद्द करने का फैसला लिया गया। इस सैद्धान्ति फैसले के बाद बिना प्रावधानों के खोले गये कार्यालयों/संस्थानों को बन्द करने के आदेश जारी किये गये हैं। इनमें बिजली बोर्ड और लोक निर्माण तथा शिक्षा विभाग प्रभावित हुए हैं। सुक्खू सरकार के इन फैसलों को बदले की भावना से की गई कारवाई करार देते हुए पूर्व मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने इन फैसलों को प्रदेश उच्च न्यायालय में चुनौती देने की घोषणा की है। जयराम ठाकुर ने यह भी कहा है कि इन फैसलों के लिये सभी वांछित अनुमति ली गयी है।
जयराम ठाकुर के इस ब्यान से स्थिति रोचक हो गयी है क्योंकि सुक्खू सरकार को वित्त विभाग ने यह जानकारी दी है कि इन फैसलों की अनुपालना करने के लिये बजट ही नहीं है। जयराम ठाकुर इसमें सारी औपचारिकताएं पूरी होने का दावा कर रहे हैं और इसी आधार पर इन फैसलों को प्रदेश उच्च न्यायालय में चुनौती देकर बदले की भावना से की जा रही कारवाई करार देना चाहते हैं। यह अपने में ही रोचक स्थिति हो जाती है कि जो वित्त विभाग इन फैसलों को बिना बजट के लिये गये करार दे रहा है उसी के सामने जयराम सरकार ने यह फैसले लिये हैं। ऐसे में किसका दावा कितना सही है इसका सच तो अदालत में ही सामने आयेगा। इसी के साथ यह भी स्पष्ट हो जायेगा कि प्रशासन राजनेताओं को कितनी सही जानकारी और राय देता है। क्योंकि जयराम शासन में बहुत सारे अधिकारियों को शीर्ष पदों पर बैठाने के लिये बहुत सारे नियमों/कानूनों को ताक पर रखा गया था। आज यदि उन अधिकारियों द्वारा दी गयी राय और जानकारी सही नहीं निकलती है तो इसके प्रभाव दूरगामी होंगे यह तय है।