क्या कैग रिपोर्टों के खुलासे को नजरअन्दाज किया जा सकता है
गुलाब सिंह और रेणु चड्डा के ऑडियो और पवन काजल के पत्र का सच क्या है
शिमला/शैल। मतदान के बाद चुनाव की समीक्षाओं का दौर चल रहा है और भाजपा तथा कांग्रेस दोनों दल अपनी-अपनी सरकारें बनाने के दावे कर रहे हैं। गुजरात और दिल्ली एम.सी.डी. चुनावों के परिदृश्य में नेताओं के लिये यह दावे करना स्वभाविक और आवश्यक भी हो जाता है। ऐसे में किसी निष्पक्ष आकलन के लिये यह आवश्यक हो जाता है कि सरकार के कामकाज को उसके सत्ता संभालने के पहले दिन से लेकर कार्यकाल के अन्तिम दिन तक पूरी निष्पक्षता के साथ नजर में रखा जाये। इसी के साथ यह भी आवश्यक हो जाता है कि इस दौरान विपक्ष और मीडिया की सरकार को लेकर क्या और किस तरह की प्रतिक्रियाएं रही हैं। क्योंकि विपक्ष और मीडिया ही जनता की सूचनाओं के मुख्य स्रोत रहते हैं। जनता इन सूचनाओं और प्रतिक्रियाओं को अपने चारों और व्यवहारिकता में देखकर सबके बारे में अपना मन बनाती है। उसका यह व्यवहारिक अनुभव ही कम ज्यादा या औसत मतदान के रूप में सामने आता है और चुनावी आकलनों का आधार बनता है। इसमें जब केंद्र और राज्य ने एक ही पार्टी की सरकारें होना भी साथ रहता है तब यह आकलन दोनों के ही नेतृत्व का प्रतिफल बन जाता है। इस परिपेक्ष में हिमाचल के चुनाव का आकलन केन्द्र और राज्य दोनों ही सरकारों के आपस में रहे सहयोग का भी खुलासा हो जाता है। इसलिए विपक्ष और मीडिया की प्रतिक्रियाओं को भी संज्ञान में रखना आवश्यक हो जाता है। इस परिपेक्ष में जब जयराम सरकार और भाजपा का आकलन इन चुनावों के परिदृश्य में किया जाये तो यह पहला सवाल इसके डबल इंजन होने को लेकर उठता है। अभी मतदान के बाद मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर की केन्द्रीय वित्त मंत्री के साथ बैठक हुई है। इस बैठक में मुख्य सचिव और अतिरिक्त मुख्य सचिव वित्त भी मुख्यमंत्री के साथ थे। इस बैठक में अन्य मुद्दों के साथ जीएसटी की प्रतिपूर्ति की बहाली का मुद्दा बड़ी प्रमुखता से उठाया गया। यह सामने आया कि केन्द्र सरकार ने जून माह से प्रदेश को जीएसटी की प्रतिपूर्ति पूरी तरह से बन्द कर दी है। जबकि जीएसटी एक्ट के तहत राज्यों का यह प्रतिपूर्ति पाना अधिकार है। यह प्रतिपूर्ति बंद किया राज्य को उसके अधिकार से वंचित रखना हो जाता है। इस प्रतिपूर्ति के तहत प्रदेश का करीब 4000 करोड़ मिलना है जो नहीं दिया जा रहा है।
सरकार को कर्ज लेकर अपना काम चलाना पड़ रहा है। जून में यह प्रतिपूर्ति बन्द हो जाने पर भी जयराम सरकार विधानसभा चुनाव के मतदान तक इस मुद्दे पर जुबान नहीं खोल पायी है। मीडिया भी अधिकांश में चुप रहा है। केवल शैल ने इस पर सवाल उठाये हैं। यहां तक कि विपक्ष भी चुप बैठा रहा है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक हो जाता है कि यदि डबल इंजन के इस तरह के सहयोग की जानकारी मतदाताओं को चुनाव के दौरान रहती तो इसका क्या प्रभाव पड़ता। जबकि डबल इंजन का कड़वा सच 31 मार्च 2019 और 31 मार्च 2020 को आयी कैग रिपोर्ट में ही सामने आ चुका है। इनके मुताबिक 2018-19 और 2019-20 में केन्द्रीय प्रायोजित योजनाओं के लिये केन्द्र से प्रदेश को कोई पैसा नहीं मिला है। जीएसटी की प्रतिपूर्ति भी तब से रुकती चली आयी है। शैल यह दस्तावेज अपने पाठकों के सामने रख चुका है। इसीलिए तो 69 राष्ट्रीय राजमार्ग आज तक सिद्धांत से आगे नहीं बढ़ पाये हैं। 2018 में ऐसे ही सहयोग के चलते सरकार 100 योजनाओं पर एक पैसा तक खर्च नहीं कर पायी है और 2019 में स्कूलों में बच्चों को वर्दियां नहीं मिल पायी है। इस तरह के व्यवहारिक सहयोग के चलते डबल इंजन की सरकार होने का चुनावी लाभ कितना मिला होगा इसका अनुमान लगाया जा सकता है। डबल इंजन के उन पक्षों पर जयराम, अनुराग ठाकुर और जेपी नड्डा इसलिये आज तक चुप चले आ रहे हैं। अब चुनावों के दौरान टिकट आवंटन के बाद जिस तरह की बगावत पार्टी के अन्दर देखने को मिली है उसी के परिणाम स्वरूप करीब दो दर्जन चुनाव क्षेत्रों में बागियों ने चुनाव लड़ा है। इनमें से कितने चुनाव जीतकर आ जायेंगे इसका सही आकलन पार्टी के विद्वान अभी तक नहीं लगा पाये हैं। लेकिन यह मुख्यमंत्री ने स्वयं माना है कि बारह से पन्द्रह बागी नुकसान पहुंचा सकते हैं। इसलिये बागियों से संपर्क साधने को लेकर शीर्ष नेतृत्व एक राय नहीं हो पाया है। लेकिन इस सबसे ज्यादा रोचक तो पार्टी नेता गुलाब सिंह ठाकुर का जोगिन्दर नगर से वायरल हुआ ऑडियो है। इस ऑडियो की चर्चा अभी थमी भी नहीं थी कि चम्बा से वरिष्ठ पार्टी नेत्री रेणु चड्डा का ऑडियो सामने आ गया हालांकि उसने इसका बाद में खण्डन भी किया हैं। लेकिन इन ऑडियोज में जो चर्चाएं और आक्षेप उठाये गये हैं उन सब पर अन्त में पवन काजल के पत्र ने प्रमाणिकता की मोहर भी लगा दी है। पवन काजल ने अपने पत्र पर प्रतिक्रिया देते हुए स्वीकार किया है कि यह पत्र उन्होंने जे.पी. नड्डा और मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के नाम लिखा है तथा इसमें सही आरोप लगाये हैं। पत्र के वायरल होने पर उन्होंने हैरानी अवश्य जताई है। ऐसे ही आरोप प्रदेश के हर हिस्से में सामने आये हैं। इस चुनाव में भाजपा को अपने सिद्धांतों को अंगूठा दिखाना पड़ा है। परिवारवाद का आरोप अब केवल विपक्ष के लिये हैं और भाजपा पर लागू नहीं होता है। सिद्धांतों के इसी खोखले पन का परिणाम है कि प्रधानमन्त्री को हिमाचल में एक दर्जन तो गुजरात में पच्चास रैलियां करनी पड़ी हैं। और की महंगाई का जवाब प्रधानमन्त्री को मोबाइल डाटा सस्ता होने के रूप में देना पड़ रहा है। महंगाई और बेरोजगारी का दंश झेलते युवा को सस्ता डाटा राम मन्दिर तीन तलाक और 370 हटाने के नाम पर ज्यादा देर तक भटकाया नहीं जा सकता। भ्रष्टाचार पर अन्ना का आन्दोलन यदि दिल्ली में स्व. शीला दीक्षित की सरकार को शुन्य कर सकता है तो आज विनियोग के नाम पर सारे सार्वजनिक उपकरणों को एक-एक करके निजी क्षेत्र के हवाले करना भाजपा को शून्य पर क्यों नहीं ला सकता है।
आज मतदान के बाद चुनावी परिणामों का स्वभाविक आकलन करते हुये क्या भाजपा के अन्दर की इस स्थिति को ध्यान में नहीं रखा जाना चाहिये? क्या आज विश्वविद्यालय के परिणामों में 80% छात्रों का फेल हो जाना सरकार की कोविड नीति और प्रबंधनो पर नये सिरे से विचार करने पर बाध्य नहीं करता है? क्या आकलन में कैग रिपोर्टों के खुलासों का संज्ञान नहीं लिया जाना चाहिये? क्या इन सच्चाईयों पर मीडिया की चुप्पी के कारण ही उसे गोदी मीडिया की संज्ञा नहीं मिली है? यदि इस सबको एक साथ रखने के बाद कुछ लोगों को भाजपा के पक्ष में सब कुछ हरा ही दिखाई दे तो सही में सब कुछ हरा ही हो जायेगा यह कतई संभव नहीं है। इसलिये भाजपा की काठ की हांडी इस बार चढ़ने वाली नहीं है यह तय है।
शिमला/शैल। जयराम सरकार ने 21.7.2022 को 106 डॉक्टरों को Stop Gap Arrangement के नाम पर दो वर्ष के लिये नियुक्तियां दी हैं। इन नियुक्तियों में डॉ. अभिनव वर्मा, डॉ.नवीन कुमार डॉ. मुकुल शर्मा के नाम भी शामिल हैं। स्मरणीय है कि यह तीनों लोग डॉ. राजेंद्र प्रसाद मेडिकल कॉलेज टांडा में घटे अमन काचरू रैगिंग प्रकरण में शामिल थे। इसमें अमन काचरू की मौत हो गयी थी। इस मौत के बाद इन लोगों के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज हुआ। इस मामले में ट्रायल कोर्ट ने इन्हें हत्या का दोषी पाया और चार लोगों को सजा सुनायी। इस सजा के खिलाफ यह चारों लोग नवीन कुमार, अभिनव वर्मा, अजय वर्मा और मुकुल शर्मा 2010 में अपील में चले गये। इस अपील में उच्च न्यायालय ने इनकी और सरकार की अपीलों को खारिज करते हुए 4 अप्रैल 2013 को दिये अपने फैसले में सजा को बरकरार रखते हुये यह फैसला दिया।
55. In so far as sentence is concerned, we observe that a young medical student had died consequent upon violent and repeated slapping by the accused persons which is inhuman and is a blatant breach of human right. The victim was the only son of his parents. His life has gone for a song. The accused persons were also medical students which is considered to be a cream, but their barbarous act was a dastardly act for a youth who was none else than their college-mate. While balancing all the factors of both the sides we do feel that it is absolutely not a case of giving any benefit under the benefit of Probation of Offenders Act. However, in the totality of facts and circumstances and looking at the punishment provided for the offences for which they have been held guilty and by adopting a balanced approach to meet the ends of justice, we affirm the sentence already imposed by the learned trial court, with modification in sentence that in addition to the fine already imposed, each of the accused appellants shall also deposit compensation to the tune of `1,00,000/- each under section 357 Cr.P.C. within a month from today, failing which it shall be realized by the learned trial court as a fine. The amount so realized shall be released to the next of the kin of deceased Aman Kachroo. To the above extent, the sentence stands modified. We also feel that the life of deceased cannot be compensated in money but at the same time the accused persons should also realize that they have been sufficiently atoned for their misadventure.
56. In view of the above analysis, discussion, in substance Criminal Appeals No.519, 552, 553 of 2010 and Criminal Appeal No.17 of 2011, are dismissed and also Criminal Appeals No.48 and 80 of 2011, preferred by the State under Section 377 and 378 respectively of the Code of Criminal Procedure are also dismissed.
इस फैसले के अनुसार यह दोषी पाये गये और इन्होंने सजा भोगी है। कानून के जानकारों के मुताबिक जब कोई सजा भोग लेता है तब सरकारी नौकरी आदि पाने के उसके सारे अधिकार समाप्त हो जाते हैं। यह लोग भी सजा भोगने के बाद उसी श्रेणी में आ जाते हैं। सरकारी नौकरी पाने का इनका अधिकार प्रश्नित हो जाता है। स्मरणीय है कि जब यह मामला बना था तब इनकी पढ़ाई जारी रखने पर भी सवालिया निशान लग गया था। तब यह राय बनी थी कि अदालत ने इन्हें सजा दी है लेकिन इनके पढ़ाई करने का अवसर दिया गया था। अब यह पढ़ाई पूरी करने के बाद डॉक्टर बन गये हैं। डॉक्टर होने के कारण ही बतौर डॉक्टर नौकरी दी गयी है। लेकिन इनकी सजा के कारण इनके नौकरी पाने के अधिकार पर सवाल उठने शुरू हो गये हैं।
ऐसे में यह सवाल उठना शुरू हो गया है कि इनके सजाभोगी होने के बावजूद इन्हें सरकार ने नौकरी कैसे दे दी? क्या नौकरी देने के समय इनके रिकॉर्ड को नहीं देखा गया? क्या सरकार ने इसमें नियमों में कोई विशेष छूट दी है या नौकरी देने के समय इनका यह रिकॉर्ड प्रशासन के सामने आ ही नहीं पाया है। लेकिन यह नौकरी मिलने के बाद एक नयी बहस अवश्य शुरू हो गयी है।
चुनाव समीक्षा के बाद शीर्ष नेताओं के दावों में भिन्नता क्यों
समीक्षा में बीस प्रत्याशी ही जीत के प्रति आश्वस्त हो पाये
शिमला/शैल।मतदान के बाद राजनितिक दल चुनावी समीक्षाओं में व्यस्त हो गये हैं और ऐसा होना स्वभाविक भी है। हिमाचल का हर चुनाव भाजपा कांग्रेस और आप सभी के लिए अलग-अलग महत्व रखता है। इस चुनाव में यदि आप को कुछ मिल जाता है तो इससे उसकी राष्ट्रीय पार्टी बनने का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। लेकिन इसके लिए आप अभी इंतजार कर सकती है और इसीलिए शायद उसने चुनाव के अन्त तक अपनी रणनीति ही बदल ली। भाजपा और कांग्रेस के लिये सीधी लड़ाई का रास्ता साफ कर दिया। भाजपा यदि यह चुनाव हार जाती है तो इसका सीधा प्रभाव हरियाणा पर पड़ेगा। क्योंकि दिल्ली और पंजाब पहले ही उसके हाथ से निकले हुए हैं। उत्तराखंड में हारे हुए आदमी को उपचुनाव लड़ा कर मुख्यमंत्री बनाना पड़ा है। कांग्रेस की स्थिति भी ऐसी ही है। हिमाचल हारने पर उसके पास पूरे क्षेत्र में पांव रखने के लिए जगह नहीं रहती। कांग्रेस और भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व इस स्थिति को समझता है। इसलिये भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व प्रदेश में लंगर डालकर बैठ गया। प्रधानमंत्री को एक दर्जन रैलियां सम्बोधित करनी पड़ी तथा राष्ट्रीय अध्यक्ष को परिवार सहित बिलासपुर में डेरा डालना पड़ा। जबकि कांग्रेस ने इस चुनाव में भी स्व. वीरभद्र सिंह के प्रति पनपी सहानुभूति को पूरी तरह भुनाने में कोई कसर नहीं रखी।
इस पृष्ठभूमि में संपन्न हुए प्रदेश के चुनाव में भाजपा चारों उपचुनावों में शून्य होने के तमगे से बाहर ही नहीं निकल पायी। मुख्यमंत्री लाभार्थियों की रैलियों के गणित में ऐसे उलझे की यह भूल ही गये कि हर चीज की एक सीमा होती है। यह सीमाएं लांघने का ही परिणाम था कि प्रधानमंत्री की धर्मशाला की अंतिम रैली बुरी तरह असफल रही। कांग्रेस को जिस स्तर तक तोड़ने की योजना बना रखी थी वह पूरी तरह फेल हो गयी। बल्कि टिकट आवंटन के बाद जिस तरह की बागियों की समस्या से भाजपा को जूझना पड़ा उससे उनके प्रबंधकीय कौशल का भी जनाजा निकल गया। मुख्यमंत्री को यह मानना पड़ा कि एक दर्जन बागी भाजपा को नुकसान पहुंचा सकते हैं। मतदान के बाद बागियों से संपर्क बनाने के प्रयासों के बयान इसी हताशा का परिणाम है। इसलिये बागियों को लेकर पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के ब्यान अन्त विरोधी होकर सामने आ रहे हैं। मुख्यमंत्री बागियों से संपर्क में होने की बात कर रहे हैं तो प्रदेश प्रभारी बागियों के बिना ही अपने दम पर सरकार बनाने की बातें कर रहे हैं। शीर्ष नेताओं के परस्पर भिन्न ब्यानों से ही स्पष्ट हो जाता है कि परिणामों को लेकर सबकी एक राय नहीं है।
यह चुनाव पार्टी की नीतियों पर न होकर सरकार की पांच वर्ष की कारगुजारी पर हुए हैं। सरकार को पांच वर्षों में सात मुख्य सचिव क्यों बनाने पड़े इस सवाल का जवाब अन्त तक नहीं आया है। इस सवाल पर सरकार और संगठन में पांच वर्षों में कोई जुबान नहीं खोल पाया है कि लोकसेवा आयोग में जनवरी 2018 में की गयी नियुक्ति कार्यकाल के अन्त तक गले की हड्डी क्यों बनी रही? सरकार के इन कदमों का प्रशासनिक कुशलता पर ऐसा कुप्रभाव पड़ा जो अन्त तक सूलझ ही नहीं पाया। इस परिदृश्य में हुई चुनावी समीक्षा में कोई कितनी सपष्टता से अपनी बात रख पाया होगा इसका अन्दाजा लगाया जा सकता है। वैसे सूत्रों के मुताबिक इस समीक्षा में भी बीस से अधिक प्रत्याशी अपनी जीत का भरोसा नहीं दिला पाये हैं। इससे अन्दाजा लगाया जा सकता है कि अन्त में व्यवहारिक स्थिति क्या रहने वाली है। वैसे तो अभी गुजरात और दिल्ली एम सी डी के चुनावों के परिपेक्ष में यह दावा करना राजनीतिक आवश्यकता बन जाता है कि हिमाचल में भाजपा सत्ता में वापसी कर रही है। क्योंकि हिमाचल के अधिकांश नेताओं की दिल्ली में चुनाव प्रचार में जिम्मेदारियां लगी हुई हैं। इन प्रचार में जिम्मेदारियों के कारण हिमाचल में जीत का दावा करना राजनीतिक आवश्यकता बन जाता है।
नड्डा जयराम का सिहासन संकट में
कांग्रेस अप्रत्याशित जीत की ओर अग्रसर
पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं का प्रतिशत रहा अधिक
रामपुर में अनाधिकृत वाहन में मिली ईवीएम मशीनें
शिमला/शैल। मतदान का अन्तिम आंकड़ा 77.6% पर पहुंच गया है। इस मतदान में भी पुरुषों की अपेक्षा करीब 4.5% प्रतिशत महिलाओं ने अधिक मतदान किया है। यह अब तक का सबसे अधिक प्रतिशत रहा है और इस तरह के मतदान से हमेशा सत्ता परिवर्तन हुआ है। इसलिये इस बार भी सत्ता का भाजपा के हाथ से निकलना तय माना जा रहा है। यह चुनाव भाजपा और कांग्रेस के बीच सीधी लड़ाई माना जा रहा है। हालांकि आप ने भी 67 सीटों पर चुनाव लड़ा और माकपा के भी 11 उम्मीदवार चुनाव में थे और पिछली बार 1 सीट पर जीत भी हासिल की थी। इनके अतिरिक्त निर्दलीय और अन्य छोटे दलों के भी कुछ उम्मीदवार मैदान में थे। लेकिन राजनीति में राष्ट्रीय परिदृश्य जिस मोड़ पर आ खड़ा हुआ है उसको सामने रखते हुए यही लगता है कि भाजपा और कांग्रेस को छोड़कर अन्य की भूमिका इस चुनाव में ज्यादा प्रभावी नहीं रहेगी।
इस चुनाव में भाजपा ने रिवाज बदलने का नारा दिया था। क्योंकि हिमाचल में अब तक कोई भी मुख्यमंत्री सत्ता में वापसी नहीं कर पाया है। यहां हर पांच वर्ष बाद सत्ता बदलती आयी है। जयराम इस परम्परा को तोड़ने के दावे के साथ चुनाव मैदान में उतरे हैं और विधानसभा के मानसून सत्र के तुरन्त बाद उन्होंने हर चुनाव क्षेत्र का दौरा करके करोड़ों की घोषणाएं और शिलान्यास किये। सरकार की योजनाओं के लाभार्थियों के दर्जनों सम्मेलन आयोजित किये। एक एक कार्यक्रम का मीडिया में इस तरह से प्रचार किया गया कि प्रदेश में जयराम सरकार से पहले शायद कोई विकास हुआ ही नहीं था। बल्कि इन कार्यक्रमों में भाजपा के ही पूर्व मुख्यमन्त्रियों शांता कुमार और प्रेम कुमार धूमल की भागीदारी नहीं के बराबर रही। मुख्यमंत्री के इतने प्रचार प्रयासों के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी एक दर्जन चुनाव रैलियां प्रदेश में संबोधित की हैं। गृह मन्त्री अमित शाह और पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा का योगदान अतिरिक्त रहा है। बल्कि नड्डा तो मतदान के बाद प्रदेश से दिल्ली गये हैं। क्योंकि हिमाचल उनका गृह राज्य है। केन्द्रीय नेतृत्व का जितना घेरा इस चुनाव प्रचार में प्रदेश में रहा है उसके बावजूद यदि प्रदेश भाजपा के हाथ से निकल जाता है जो कि तय माना जा रहा है तो उसके मायने क्या होंगे यह विश्लेषकों के लिए रोचक विषय बना हुआ है।
2017 का चुनाव भाजपा ने प्रेम कुमार धूमल को मुख्यमन्त्री घोषित करके लड़ा था। भाजपा तो यह चुनाव जीत कर सता में आ गई लेकिन धूमल और उनके कुछ विश्वस्त स्वयं चुनाव हार गये। बड़े बाद में कुछ मन्त्रियों के ब्यानों से ही यह सामने आया कि धूमल की हार प्रायोजित थी। धूमल ने इसकी जांच करवाने की गुहार लगाई जिसे राष्ट्रीय अध्यक्ष नड्डा ने अस्वीकार कर दिया। बल्कि इसी दौरान धूमल को मानव भारती विश्वविद्यालय प्रकरण में घेरने का प्रयास किया गया। भाजपा के अन्दर का यह विरोधाभास यहीं नहीं रुका बल्कि निर्दलीय विधायक होशियार सिंह और प्रकाश राणा को पार्टी में शामिल करके धूमल के विश्वसतों रविन्द्र रवि और गुलाब सिंह को हाशिये पर धकेलने का सफल प्रयास हुआ। इस पर संगठन के भीतर किस तरह की तनातनी के हालत बने यह पूरा प्रदेश जानता है। हिमाचल में गुजरात और उत्तराखंड की तर्ज पर नेतृत्व परिवर्तन की चर्चायें चली मन्त्रीयों को हटाने और उनके विभाग बदलने की चर्चायें चली। लेकिन यह सब कुछ नड्डा के संरक्षण के चलते चर्चाओं से आगे नहीं बढ़ा। 2017 में जब जयराम मुख्यमंत्री बने थे तब विधायकों का एक बड़ा वर्ग धूमल को मुख्यमंत्री बनाने के पक्ष में आ गया था। लेकिन तभी नड्डा भी मुख्यमंत्री बनने के प्रयासों में आ गये थे। 2017 की यह एक महत्वपूर्ण राजनीतिक गतिविधि रही है और इस ने भाजपा की प्रदेश राजनीति को लगातार प्रभावित किया है।
इस परिदृश्य में जब भाजपा में चुनावी टिकटों के आवंटन का अवसर आया तो मन्त्री महेंद्र सिंह का टिकट काटकर उनके बेटे को टिकट दे दिया। पूर्व मंत्री स्व. बरागटा के बेटे को उपचुनाव में परिवारवाद के नाम पर टिकट नहीं दिया गया था लेकिन इस बार दे दिया गया। दो मन्त्रीयों सुरेश भारद्वाज और राकेश पठानिया के चुनाव क्षेत्र बदल दिये गये। इस टिकट बांट में भाजपा के अन्दर रोष उभरा और करीब दो दर्जन बागियों ने चुनाव लड़ लिया। प्रधानमंत्री को कृपाल परमार को फोन करके चुनाव से हटने का आग्रह करना पड़ा और परमार ने यह आग्रह अस्वीकार कर दिया। जगत प्रकाश नड्डा के बिलासपुर सदर में बागी सुभाष शर्मा ने नड्डा से मिलने से ही इन्कार कर दिया। नड्डा बिलासपुर में ही किसी बागी को मना नहीं पाये। अनुराग ठाकुर और महेश्वर सिंह के सार्वजनिक मंच पर आंसू निकल आये। प्रेम कुमार धूमल को एक टीवी साक्षात्कार में स्वीकार करना पड़ा कि बागियों के कारण चुनाव में नुकसान होगा। सरकार की अपनी प्रशासनिक छवि कैसी रही है इसका अन्दाजा इसी से लग जाता है कि पांच वर्षों में मुख्यमंत्री को सात मुख्यसचिव बदलने पड़े। मुख्यमन्त्री के नाम तय तमगा लगा कि वह सबसे अधिक कर्ज लेने वाले मुख्यमंत्री जाने जायेंगे।
प्रदेश में दो नगर निगम चुनाव हारने के बाद जब तीन विधानसभा और एक लोकसभा चुनाव जयराम सरकार हार गयी थी तब इस हार के लिये महंगाई और बेरोजगारी को जिम्मेदार ठहराया था। लेकिन तब से लेकर अब तक महंगाई और बेरोजगारी पर नियंत्रण पाने के उपाय करने के बजाय कांग्रेस को तोड़ने की रणनीति पर लग गये। यहां तक ब्यान आ गये कि कांग्रेस चुनाव लड़ने लायक ही नहीं रहेगी। कांग्रेस के आरोपपत्र को रोकने के लिये अपने आरोप पत्र को सीबीआई को सौंपने के ब्यान आ गये। लेकिन अन्त में कांग्रेस अपना आरोप ले आयी। सरकार पर नौकरियां बेचने और खुली लूट के आरोप जनता की अदालत में पहुंचा दिये गये। पुलिस भर्ती में हुआ पेपर लीक एक ऐसा प्रकरण है जो लम्बे समय तक भाजपा का पीछा नहीं छोड़ेगा। ऐसी पृष्ठभूमि के साथ जो भी सरकार चुनाव में उतरेगी वह कैसे सत्ता में वापसी के दावे कर पायेगी यह कोई भी अनुमान लगा सकता है।
दूसरी ओर कांग्रेस नेे कर्मचारियों के लिये ओ.पी.एस. बहाली का वायदा करके भाजपा को ऐसे संकट पर लाकर खड़ा कर दिया जहां वह उसकी दस गारन्टियों की कोई काट नहीं कर पायी है। ओ.पी.एस. के समझौता ज्ञापन का दस्तावेज जारी करके भाजपा के उन आरोपों को वही दफन कर दिया जहां वह इसके लिये कांग्रेस पर जिम्मेदारी डाल रही थी। महिलाओं को प्रतिमाह पंद्रह सौ देने की गारन्टी का परिणाम है की 4.5% महिलाएं पुरुषों से ज्यादा वोट डालने पहुंची है। जिन युवाओं ने प्रधानमंत्री के धर्मशाला आगमन पर अग्निवीर योजना का भाजपा के बैनर पोस्टर फाड़ कर विरोध प्रदर्शन किया था उन्हें आज कांग्रेस के पांच लाख नौकरियां देने के वायदे पर प्रधानमन्त्री के दो करोड नौकरियां और पन्द्रह लाख देने के वायदे पर ज्यादा विश्वास है। कांग्रेस की दस गारन्टीयों से जो हताशा भाजपा को मिली है उसी का परिणाम है कि पार्टी के आईटी सेल को कांग्रेस के प्रभारी राजीव शुक्ला के नाम से एक फर्जी चुनाव सर्वेक्षण जारी करना पड़ा। जिसकी कांग्रेस ने विधिवत शिकायत दर्ज करवाई है। यही नहीं इसी हताशा का परिणाम है कि मतदान के बाद रामपुर में एक अनाधिकृत वाहन में ईवीएम मशीनें पकड़ी गयी। कांग्रेस की शिकायत पर ड्राइवर को गिरफ्तार करके चुनाव कर्मियों को सस्पेंड कर दिया गया है। लेकिन ऐसा हुआ क्यों यह खुलासा होना अभी बाकी है। इस सब से यह अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है कि चुनाव परिणाम क्या रहने वाले है।
2018 में सौ योजनाओं पर सरकार एक पैसा भी खर्च क्यों नहीं कर पायी
2019 में स्कूलों में वर्दियां क्यों नहीं मिल पायी
तीन वर्ष कुछ योजनाओं में केन्द्र से कोई भी सहायता अनुदान क्यों नहीं मिल पाया?
जीएसटी में 544.82 करोड़ की क्षतिपूर्ति क्यों नहीं मिल पायी?
तीन वर्षों में बजट अनुमानों से वास्तविक खर्च 72826 करोड़ कैसे बढ़ गया?
क्या बढे़ हुये खर्च के लिये धन कर्ज लेकर जुटाया गया
शिमला/शैल। प्रदेश विधानसभा चुनावों के लिए भाजपा, कांग्रेस और आप तथा निर्दलीयों तक के घोषणा पत्र आ चुके हैं। सभी ने मतदाताओं से लम्बे चौड़े वादे कर रखे हैं। लेकिन किसी ने भी प्रदेश की वित्तीय स्थिति पर कुछ नहीं कहा है। वादे पूरे करने के लिये धन कहां से आयेगा उस पर सब खमोश हैं। 2014 में जब केन्द्र में भाजपा की सरकार बनी तब से लेकर आज तक यह स्पष्ट हो चुका है कि यह सरकार सरकारी क्षेत्र की जगह प्राइवेट क्षेत्र को ज्यादा अधिमान दे रही है। इसी के चलते सारे सार्वजनिक उपक्रम योजनाबद्ध तरीके से प्राइवेट सैक्टर के हवाले किये जा रहे हैं। यहां तक कि इन्हें कारोबार के लिये पूंजी भी सरकारी क्षेत्र से ही उपलब्ध करवाई जा रही है। प्राइवेट क्षेत्र को इस तरह से अधिमान दिये जाने का अर्थ है कि सरकारी क्षेत्र को योजनाबद्ध तरीके से कमजोर करना। इस कमजोर करने के प्रयास का परिणाम होता है महंगाई और बेरोजगारी। लेकिन इस तथ्य से लोग सीधे अवगत ही नहीं हो पाये हैं। इसलिए उनका ध्यान बांटने के लिये सभी भावनात्मक मुद्दे उनके सामने परोसे जाते हैं। आज हिमाचल के चुनाव में भी डबल इंजन की सरकार का तर्क दिया जा रहा है। केन्द्र में 2014 से प्रदेश में 2017 से भाजपा की सरकारें हैं। केन्द्र और राज्य दोनों जगह एक ही पार्टी की सरकारें होना प्रदेश के विकास के लिये अच्छा होता है। लेकिन क्या हिमाचल के संद्धर्भ में ऐसा हो पाया है? क्या हिमाचल को कोई अतिरिक्त सहायता मिल पायी है? या हिमाचल को उसका अपना जायज हिस्सा भी नहीं मिल पाया है और प्रदेश का नेतृत्व डबल इंजन के कारण आवाज भी नहीं उठा पाया है? इन सवालों की पड़ताल करने के लिये सीएजी रिपोर्ट से ज्यादा प्रमाणिक दस्तावेज और कोई नहीं हो सकता। जयराम सरकार ने दिसम्बर 2017 को पदभार संभाला था। इस सरकार के आने के बाद 31 मार्च 2019 को कैग की पहली रिपोर्ट आयी और इसके मुताबिक यह सरकार 100 योजनाओं पर एक नया पैसा भी खर्च नहीं कर पायी है। रिपोर्ट आने पर यह प्रमुखता से छपा था लेकिन इसका जवाब आज तक नहीं आ पाया है। इस रिपोर्ट में जीएसटी को लेकर यह दर्ज है कि प्रदेश को जो क्षतिपूर्ति केन्द्र द्वारा की जानी थी उसमें 544.82 करोड रुपए केन्द्र से नहीं मिल पाया है। जुलाई 2017 में प्रदेश में जीएसटी लागू हो गया था और एक्ट के मुताबिक राज्य को होने वाले घाटे की भरपाई केन्द्र को करनी थी जो नहीं हो पायी। इसके बाद 31 मार्च 2020 को अगली के रिपोर्ट आयी है। 2019 में सरकार स्कूलों में बच्चों को वर्दियां नहीं दे पायी है। ऐसा क्यों हुआ है इसके कारणों का खुलासा आज तक नहीं हो पाया है। 31 मार्च 2020 को आयी इस रिपोर्ट के दूसरे पन्ने पर भारत सरकार से प्राप्त सहायता अनुदान की तालिका छपी है। इसके मुताबिक 2017-18 और 19-20 के 3 वर्षों में कुछ योजनाओं में केन्द्र कोई अनुदान नहीं मिला है। इसी रिपोर्ट के पहले पन्ने पर सरकार के बजट और व्यय के आंकड़े छपे हैं। इन आंकड़ों के मुताबिक इन्हीं तीन वर्षों में सरकार के बजट अनुमानों से उसका खर्च 72,826 करोड बढ़ गया है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक हो जाता है कि इस बढ़े हुये खर्च के लिये धन का प्रावधान कैसे किया गया क्या सरकार के पास कर्ज लेने के अतिरिक्त और कोई विकल्प उपलब्ध था इन सवालों का जवाब सत्ता पक्ष की ओर से आज तक नहीं आया है। इसलिए यह दस्तावेजी साक्ष्य पाठकों के सामने रखे जा रहे हैं। इन साक्ष्यों से यह आशंका बनी हुई है कि प्रदेश का कर्ज भार कहीं एक लाख करोड से तो नहीं बढ़ गया है। फिर अब तो प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना भी बन्द हो चुकी है और इसमें भी 203 सड़कें अधूरी हैं। क्या यही डबल इंजन सरकार के लाभ हैं।