शिमला/शैल। राज्य सरकार इस समय आर्थिक संकट से गुजर रही है। हर माह कर्ज उठाना पड़ रहा है। अगला वर्ष चुनावी वर्ष है और इसमें सामान्यतः खर्च बढ़ता ही है। सरकार जीडीपी के 3% से अधिक कर्ज नहीं ले सकती है। वर्ष 2016-17 में सरकार अधिकतम कर्ज 3540 करोड़ ही उठा सकती है। कर्ज की यह सीमा भारत सरकार के वित्त मंत्रालय के निदेशिक व्यय द्वारा प्रदेश के वित्त सचिव को 29-3-2016 को भेजे पत्र के माध्यम से सूचित की गई है। कर्ज की इस तय सीमा के भीतर काम चलाना कभी भी कठिन हो सकता है। सरकार ने पिछले कुछ अरसे से मन्त्री मण्डल की हर बैठक में नये पद सृजित करने और भरने की नीति अपना रखी है। स्मरणीय है कि एक समय हिमाचल सरकारी नौकरी देने वाला सिक्कम के बाद देश का दूसरा राज्य बन गया था और इस कारण से पूरा आर्थिक सन्तुलन बिगड़ गया था। योजना आयोग ने इसका कड़ा संज्ञान लिया था। सरकार को आयोग के साथ एम ओ यू साईन करना पड़ा था। इसके तहत दो वर्ष से खाली चले आ रहे पदों को समाप्त करने की शर्त पर अमल करना पडा था। लेकिन चुनावी गणित को सामने रखकर कर्मचारियों की भर्ती रेगुलर आधार पर करने की बजाये कान्ट्रैक्ट का रास्ता अपनाया गया। क्योंकि इस आधार पर भर्ती किये कर्मचारी को रेगुलर के मुकाबले लगभग आधा वेतन देने का प्रावधान किया गया। कान्ट्रैक्टपर लगे कर्मचारी को पांच /सात साल बाद नियमित हो जाने का वायदा मिलने के कारण वह इस शोषण के खिलाफ आवाज नंही उठा सका।
अब तो कांन्ट्रैक्ट से भी आगे बढ़कर आऊट सोर्सिंग का माध्यम अपना लिया गया है। शिक्षा विभाग में कम्प्यूटर का सारा शिक्षण आऊट सोर्सिंग से चलाया जा रहा है। इसमें आऊट सोर्सिंग दे रही कंपनी /ठेकेदार को बैठे बिठाये प्रति कर्मचारी मोटा कमीशन मिल रहा है। इस समय प्रदेश में हजारों की संख्या में गैर रेगुलर कर्मचारी जिन्हें लगभग आधा ही वेतन मिलता है। प्रदेश के कम्यूटर शिक्षक तो हड़ताल पर आ चुके हैं। ऐेसे में अब सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से ऐसे शोषण से कर्मचारियों को राहत मिलेगी। सर्वोच्च न्यायालय की जस्टिस जे एस केहर की खण्डपीठ ने 26 अक्तूबर को ऐतिहासिक फैसला देते हुए समान कार्य के लिये समान वेतन के सिद्धान्त को लागू करने के निर्देश दिये हैं।
सर्वोच्च न्यायालय का फैसला पूरे देश के लिये कानून बन जाता है और देश की सारी अदालतें संविधान की धारा 141 से इस फैसले से बंध जाती है। सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला सरकार को मानना ही पडे़गा। यदि कोई कर्मचारी फैसला लागू न होने की शिकायत सर्वोच्च न्यायालय से करेगा तो सरकार के लिये और फजीहत की स्थिति हो जायगी।
इस फैसले के बाद सरकार को अपनी नीतियों की निष्पक्ष समीक्षा करने की आवश्कयता है क्यांकि राजनीतिक हितों के लिये सरकारें मन्त्रीयों की सीमा तय होने के बावजूद उतनी ही संख्या में संसदीय सचिवों की नियुक्तियां कर रही हैं। राजनेताओं के लिये दर्जनों के हिसाब से निगम बोर्डो में अध्यक्षों/उपाध्यक्षों और निदेशकों के पद सृजित कर लेती है। चुनावी लाभ के लिये हर कहीं संस्थान खोल दिये जाते हैं। इस परिदृश्य में सरकार को सर्वोच्च न्यायालय के फैसले पर तुरन्त प्रभाव से अमल करना बाध्यता हो जायेगा। इसी के साथ नये पदों का सृजन करते हुए सरकार को सावधानी बतरनी पडे़गी। क्यांंकि हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने 2012 में दिये एक फैसले में बहुत सारी कान्ट्रैक्ट आदि की नियुक्तियों को लेकर सरकार द्वारा बनायी गयी पॉलिसी को गैर कानूनी करार दे रखा है। जस्टिस आर बी मिश्रा ने ऐसी नियुक्तियों को पिछले दरवाजे से की जा रही भर्तीयां करार दिया है। लेकिन सरकार ने इस फैसले पर पूरा अमल न करके इस चलन को जारी रखा। अब सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद ऐसे सारे नियुक्त हुए कर्मचारियों को रैगुलर के बराबर ही वेतन देना पडे़गा। फैसले के महत्वपूर्ण अंश :
There is no room for any doubt, that the principle of ‘equal pay for equal work’ has emerged from an interpretation of different provisions of the Constitution. The principle has been expounded through a large number of judgments rendered by this Court, and constitutes law declared by this Court. The same is binding on all the courts in India, under Article 141 of the Constitution of India.
In our considered view, it is fallacious to determine artificial parameters to deny fruits of labour. An employee engaged for the same work, cannot be paid less than another, who performs the same duties and responsibilities. Certainly not, in a welfare state. Such an action besides being demeaning, strikes at the very foundation of human dignity. Any one, who is compelled to work at a lesser wage, does not do so voluntarily. He does so, to provide food and shelter to his family, at the cost of his self respect and dignity, at the cost of his self worth, and at the cost of his integrity. For he knows, that his dependents would suffer immensely, if he does not accept the lesser wage. Any act, of paying less wages, as compared to others similarly situate, constitutes an act of exploitative enslavement, emerging out of a domineering position. Undoubtedly, the action is oppressive, suppressive and coercive, as it compels involuntary subjugation.
56. We would also like to extract herein Article 7, of the International Covenant on Economic, Social and Cultural Rights, 1966. The same is reproduced below:-
“Article 7
The States Parties to the present Covenant recognize the right of everyone to the enjoyment of just and favourable conditions of work which ensure, in particular:
(a) Remuneration which provides all workers, as a minimum, with:
(i) Fair wages and equal remuneration for work of equal value without distinction of any kind, in particular women being guaranteed conditions of work not inferior to those enjoyed by men, with equal pay for equal work;
(ii) A decent living for themselves and their families in accordance with the provisions of the present Covenant;
(b) Safe and healthy working conditions;
(c) Equal opportunity for everyone to be promoted in his employment to an appropriate higher level, subject to no considerations other than those of seniority and competence;
(d) Rest, leisure and reasonable limitation of working hours and periodic holidays with pay, as well as remuneration for public holidays.”
India is a signatory to the above covenant, having ratified the same on 10.4.1979. There is no escape from the above obligation, in view of different provisions of the Constitution referred to above, and in view of the law declared by this Court under Article 141 of the Constitution of India, the principle of ‘equal pay for equal work’ constitutes a clear and unambiguous right and is vested in every employee– whether engaged on regular or temporary basis.
शिमला/शैल। वीरभद्र सरकार ने अवैध निर्माण को नियमित करने के लिये विधानसभा के मानसून सत्रा में नगर एवम ग्राम नियोजन अधिनियम 1977 में संसोधन पारित कर अवैध निमार्णो को नियमित करने का मार्ग प्रशस्त किया है। इससे पहले भी अवैध निर्माणों को नियमित करने के लिये सात बार रिटैन्शन पालिसियां आ चुकी हैं। हर पालिसी को अन्तिम कहा जाता था लेकिन हर बार नये अवैध निर्माण खड़े होते रहे हैं। ऐसे अवैध निर्माणों का संख्या हजारों में है। लेकिन इस बार जब सदन में संशोधन पारित हुआ उसी दौरान प्रदेश उच्च
न्यायालय ने इन अवैध निर्माणों को लेकर कड़ी टिप्पणियां करते हुए इस पर गहरी चिन्ता व्यक्त की। सदन द्वारा संशोधन पारित हो जाने के बाद सरकार ने इसे राज्यपाल की स्वीकृति के लिये भेजा। लेकिन उच्च न्यायालय की तलख टिप्पणियों के बाद राज्यपाल ने इस संशोधन पर अपनी स्वीकृति की माहर लगाने की बजाये इसे अपने पास लंबित रख लिया है।
इस संशोधन के बाद फिर अवैध निर्माणों का सिलसिला बढ़ गया है। अगले वर्ष चुनाव होने हैं और यह धारणा बन गयी है कि चुनावों से पहले जितना अवैध निर्माण कर सकते हो कर लो नियमित हो जायेगा। यह संशोधन भी केवल एक वर्ष के लिये ही है इससे यह धारणा और भी स्पष्ट हो जाती है। राज्यपाल के पास यह संशोधन लंबित है और उच्च न्यायालय की चिन्ता और निर्देश भी स्पष्ट हैं। लेकिन इस चिन्ता को नजर अन्दाज करते हुए भाजपा और सरकार दोनों ने अलग-अलग जाकर राज्यपाल से इस संशोधन को अपनी स्वीकृति प्रदान करने की गुहार लगाई है। इस अवैधता को नियमित करने के लिये कांग्रेस और भाजपा दोनों का एक साथ वकालत करना यह इंगित करता है कि क्या इन दोनों पर बिल्डर लॉबी का दबाव है। जबकि भाजपा के ही वरिष्ठ नेता पूर्व मुख्यमन्त्री ने इस संशोधन पर कड़ी आपति की है। शान्ता कुमार के विरोध और उच्च न्यायालय के निर्देशों के बाद राज्यपाल का इस पर क्या रूख रहता है इस पर सबकी निगाहें लगी हैं। उच्च न्यायालय की टिप्पणी इस प्रकार है:Thousands of unauthorized constructions have not been raised overnight. The Government machinery was mute spectator by letting the people to raise unauthorized constructions and also encroach upon the government land. Permitting the unauthorized construction under the very nose of the authorities and later on regularizing them amounts to failure of constitutional mechanism/machinery. The State functionary/machinery has adopted ostrich like attitude. The honest persons are at the receiving end and the persons who have raised unauthorized construction are being encouraged to break the law. This attitude also violates the human rights of the honest citizens, who have raised their construction in accordance with law. There are thousands of buildings being regularized, which are not even structurally safe.
The regularization of unauthorized constructions/encroachments on public land will render a number of enactments, like Indian Forest Act 1927, Himachal Pradesh Land Revenue Act, 1953 and Town and Country Planning Act, 1977 nugatory and otiose. The letter and spirit of these enactments cannot be obliterated all together by showing undue indulgence and favouritism to dishonest persons. The over-indulgence by the State to dishonest persons may ultimately lead to anarchy and would also destroy the democratic polity.
शिमला/शैल। प्रदेश पर्यटन निगम के पूर्व कर्मचारी नेता ओम प्रकाश गोयल एक लम्बे अरसे से निगम में करोडों के केन्द्रिय धन के दुरूपयोग और उसमें घपला होने के आरोप लगाते आ रहे हैं। यह आरोप लगाने की उन्होने बड़ी कीमत भी चुकायी है लेकिन निगम में फैले भ्रष्टाचार को बेनकाव करने के मुद्दे से पीछे नही हटे हैं। गोयल ने जो भी आरोप लगाये हैं उनके साथ आरटीआई के माध्यम से जुटाये दस्तवेजी प्रमाण भी साथ लगाये हैं। इन आरोपों को लेकर 2002 में प्रदेश उच्च न्यायालय का दरवाजा भी खटखटा चुके हैं। इस याचिका पर 13.3.2003 को फैसला आया था जिसमें निगम को कुछ निर्देश भी जारी हुए थे। गोयल का आरोप है कि उच्च न्यायालय के निर्देशों की भी अनुपालना नही की गयी है। गोयल के आरोपों पर निगम के निदेशक मण्डल और मुख्यमंत्री द्वारा भी कोई कारवाई न किये जाने के बाद ही उसने 20 मई 2016 को राष्ट्रपति प्रधानमंत्री, राज्यपाल, शांता कुमार, आप के राष्ट्रीय प्रवक्ता संजय सिंह और राजन सुशांत के नाम शिकायत भेजी। इस शिकायत पर क्या कारवाई हुई है इसकी जानकारी भी आरटीआई के माध्यम से मांगी गयी है। 20 मई को भेजी शिकायत के बाद गोयल ने सितम्बर में कुछ और तथ्यों के साथ एक और शिकायत राष्ट्रपति , प्रधानमंत्री, सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायधीश, प्रदेश उच्च न्यायालय के मुख्यन्यायधीश केन्द्रिय वित्त मंत्री, केन्द्र के केबिनेट सैक्रेटरी, सीएजी निदेशक सीबीआई और केन्द्रिय वित्त मंत्री केन्द्रिय पर्यटन सचिव को भेजी है। अब यह शिकायत सीबीआई ने प्रदेश विजिलैन्स को भेज दी है। सूत्रों के मुताबिक केन्द्रिय पर्यटन मन्त्रालय में भी इन आरापों को लेकर एक तीन सदस्यीय जांच कमेटी गठित की गयी है।

गोयल के आरोपों के मुताबिक 2001 से 2002 के बीच प्रबन्धन निदेशक ने होटल पीटरहाॅफ में अपने मेहमानों को ठहराया जिनका खर्च निगम ने उठाया। इसी दौरान पर्यटन निगम ने कर्मचारियों का सी पी एफ जमा नही करवाया और उसके लिये निगम को 72 लाख का जुर्माना भरना पडा है। केन्द्र की सहयता से खड़ा पत्थर के होटल गिरी गंगा प्रौजैक्ट को 31 .12.2001 को 39.30 लाख में पूरा होकर इस्तेमाल में भी आ चुका होना दिखा दिया गया। जबकि जब 24.10.2005 को निगम के निदेशक मण्डल की वीरभद्र सिंह की अध्यक्षता में हुई बैठक में इस प्रौजैक्ट को पूरा करने के निर्देश दिये जाते हैं। अन्त में 25.6.2006 को इसी प्रौजैक्ट को 1,38,84,076 रूपये में पूरा हुआ दिखाया जाता है। इन आंकडों से प्रबन्धन की नीयत और नीति का खुलासा हो जाता है। जो प्रौजैक्ट 31.12.2001 को 39.30 में पूरा हुआ दिखाया जाता है वह 2006 में एक करोड़ से भी अधिक को पहुंच जाता है जिस पर क्यांे और कैसे के सवाल उठना स्वाभाविक है। गोयल ने मार्च 2003 के उच्च न्यायालय के फैसले के निर्देशों पर अमल न होने पर अवमानना याचिका दायर की थी। इस पर तत्कालीन सचिव पर्यटन अशोक ठाकुर ने अदालत में दायर जवाब में छः करोड तय कार्यो से अनयत्र खर्च होना स्वीकार किया है। सुंगरी प्रौजेक्ट को लेकर भी गंभीर आरोप लगाये गये हैं। इस प्रौजैक्ट के लिये 26396 को भारत सरकार से 46,11,600 रूपये स्वीकृति होने हैं तीन लाख प्रदेश सरकार देती है 31.12.2009 को भारत सरकार को भेजे प्रमाण पत्रों में यह प्रौजेक्ट पूरा हो जाता है। लेकिन 2006 में जब मुख्यमंत्री यहां आते हैं तो इसे अधूरा पाते हैं। इसे पूरा करने के लिये इसको लोक निमार्ण को देने की बात करते हैं। इन निेर्देशों पर लोक निमार्ण विभाग पर्यटन से मिल कर इसकी प्रक्रिया पूरी करते हैं और लोक निमार्ण विभाग इसको पूरा करने के लिये 76 लाख का अनुमान देते है।
इस तरह पर्यटन में जितने भी प्रौजेक्टों के लिये केन्द्र से पैसा आता है उसे प्राप्त करने के लिये उपयोगिता प्रमाण पत्र और कमीशनिंग तक के सर्टीफिकेट भेज दिये जाते हैं और इनके आधार पर केन्द्र से सहायता की अन्तिम किश्त भी प्राप्त कर ली जाती है। लेकिन बाद में यह सारे प्रौजेक्ट अधूरे पाये जाते हैं। और इनकी लागत कई गुणा बढ़ जाती है। इससे केन्द्र को भेजे गयेे सारे प्रमाण पत्रों की प्रमाणिकता पर ही प्रश्न चिन्ह लग जाता है। यह प्रश्न चिन्ह लगाना केन्द्र के धन का सीधा दुरूपयोग बन जाता है। गोयल के मुताबिक पर्यटन में केन्द्र के करीब दस करोड़ के दुरूपयोग के दस्तावेजी प्रमाण उन्होने शिकायतों के साथ भेजे हैं। केन्द्र के धन के इस तरह के दुरूपयोग का कड़ा संज्ञान लेते हुए सीबीआई ने इसकी जांच विजिलैन्स को भेजी है। अब वीरभद्र की विजिलैन्स गोयल की इन शिकायतों पर कितनी और क्या कारवाई करती है। इस पर सबकी निगाहें लगी हुई है क्योंकि पर्यटन मन्त्री मुख्यमन्त्री स्वयं है और मुख्यसचिव ही पर्यटन सविच भी हैं। गोयल ने दावा किया है कि इन शिकायतों को ठीक अंजाम तक पहुंचाने के लिये वह हर लड़ाई लड़ने के लिय तैयार हैं। इस संद्धर्भ में उसने सभी संवंद्ध अदारों से आरटीआई के तहत उसकी शिकायतों पर हुई कारवाई की जानकारी भी मांग रखी है। जिन अधिकारियों के खिलाफ गोयल की शिकायतें है वह सब मुख्यमंत्री के अतिविश्वस्तों में गिने जाते हैं। मामला केन्द्र के धन का है। जिसके लिये अधिकारियों पर झूठे उपयोगिता प्रमाण पत्र सौपने का आरोप है।
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