Saturday, 20 December 2025
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डॉक्टरों की कॉलोनी पर लगा 3.2 करोड़ का जुर्माना प्रशासन की कार्यप्रणाली पर एक और सवाल

शिमला/शैल। एनजीटी ने पंथाघाटी में बन रही डाक्टरों की कॉलोनी के निर्माण पर तत्काल प्रभाव से पाबंदी लगाते हुए डाक्टरों की हाउसिंग सोसायटी को विभिन्न नियमों की उल्लंघना करने के लिए तीन करोड़ 24 लाख रुपए का जुर्माना लगा दिया है।
इस रकम में से सोसायटी को 75 फीसद राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और बाकी 25 फीसद रकम केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के पास जमा करानी होगी। पंचाट के अध्यक्ष न्यायमूर्ति आदर्श कुमार गोयल, न्यायिक सदस्यों जावेद रहीम व एसपी वांगड़ी और विशेषज्ञ सदस्य नगीन नंदा की पीठ ने स्थानीय नागरिक विद्या शांडिल की याचिका पर यह आदेश दिए हैं। याद रहे नगीन नंदा प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के पूर्व सदस्य सचिव रह चुके हैं।
पंचाट की चार सदस्यीय इस पीठ ने साथ ही यह भी आदेश दिए है कि इस मामले की पड़ताल पंचाट के आदेशों पर शिमला में किसी भी तरह के निर्माण की मंजूरी के लिए गठित सुपरवाइजरी कमेटी करे और यह समीति एक महीने के भीतर अपनी रिपोर्ट पंचाट को पेश करे।
पीठ ने कहा कि अगर वह सोसायटी के पर्यावरण की सुरक्षा के लिए उठाए गए कदमों से संतुष्ट होगी तो आगामी निर्माण के बारे में विचार करेगी। पीठ ने अपने आदेश में कहा है कि आईजीएमसी डाक्टर्स कोऑपरेटिव हाउसिंग सोसायटी को पंथाघाटी में कॉलोनी बनाने के लिए नगर निगम ने छह फरवरी 2010 को मंजूरी दे दी थी। लेकिन सोसायटी ने इस बावत पर्यावरण के विभिन्न प्रावधानों के तहत टीसीपी से कोई मंजूरी नहीं ली। जबकि यह मंजूरी लेना जरूरी था। इसके अलावा पर्यावरण मंजूरी भी नहीं ली। इसके तहत सीवरेज, यातायात, सड़क निर्माण, ठोस कचरे के निपटान, ढलान की मजबूती व इनके पर्यावरण पर पड़ने वालों प्रभावों का आकलन किया जाना था।
सोसायटी का 32 करोड़ 48 लाख रुपए के यह प्रोजेक्ट 21057.931 वर्ग मीटर पर बनाना था व पर्यावरण नियमों के मुताबिक सासोयटी को 20 हजार वर्ग मीटर से ऊपर के प्रोजेक्ट के लिए पर्यावरण प्रभाव आकलन करवाना होता हैं। लेकिन सोसायटी ने कुछ नही किया। जब प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने सोसायटी को नोटिस भेजे तो भारी निर्माण होने के बाद पर्यावरण प्रभाव आकलन करवाया गया। जो कि हो ही नही सकता था। यह आकलन निर्माण करने से पहले होता है।
इस बीच 16 दिसंबर 2015 को सोसायटी ने राज्य पर्यावरण प्रभाव आकलन प्राधिकरण में मंजूरी के लिए आवेदन किया। प्राधिकरण ने 15 अक्तूबर 2016 को पर्यावरण मंजूरी दे दी। लेकिन साथ ही शर्त लगा दी कि सोसायटी को यहां पर सीवरेज ट्रीटमेंट प्लांट लगाना होगा या नगर निगम की सीवरेज लाइन से कनेक्शन लेना होगा।
पीठ ने कहा कि राज्य विशेषज्ञ अप्रेजल कमेटी पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों पर विचार किए बिना पर्यावरण की मंजूरी नही दे सकती थी और अगर अध्ययन में उल्लंघन पाया जाता तो मंजूरी केंद्र से मिलनी थी। लेकिन ऐसा नही हुआ।
पीठ ने कहा कि नियमों के मुताबिक पंचाट के पास दो ही विकल्प हैं या तो बने सभी फलैटों को ढहा दिया जाए या सुरक्षा प्रावधानों का पालन करवाकर निर्माण को जारी रखने की इजाजत दी जाए।
पीठ ने कहा कि जहां पर निर्माण पहले हो गया है और पर्यावरण की मंजूरी नही ली गई है ऐसे मामलों के लिए केंद्र सरकार ने 14 मार्च 2017 को एक अधिसूचना जारी की थी व इसके प्रावधानों के तहत सोसायटी को कदम उठाने थे। पीठ ने कहा कि सोसायटी को तीन महीने का समय दिया गया लेकिन कहीं कुछ नहीं हुआ।
पीठ ने कहा कि सोसायटी ने परियोजना शुरू करने से पहले न पर्यावरण मंजूरी मांगी और न ही केंद्र मंत्रालय की 14 मार्च 2017 की अधिसूचना के तहत अपनाई जाने वाली प्रक्रियाओं पर अमल किया। इसके अलावा सोसायटी ने राजधानी में निर्माण के लिए पंचाट की ओर से गठित सुपरवाइजरी कमेटी जिसके अध्यक्ष अतिरिक्त मुख्य सचिव शहरी विकास हैं, से अपने मामले की पड़ताल करवाई। जबकि सोसायटी ऐसा कर सकती थी।
पीठ ने कहा कि ऐसे में सोसायटी को या तो सारे फलैट ढहाने होंगे या पर्यावरण की सुरक्षा को लेकर जरूरी कदम उठाने होंगे। उसके बाद अगर पंचाट संतुष्ट हुआ तो निर्माण की इजाजत दी जाएगी। सोसायटी में डेढ सौ के करीब सदस्य हैं जिनमें से पचास से ज्यादा आइजीएमसी के डाक्टर हैं। पिछली सरकार में इस परियोजना को लेकर बहुत कुछ रसूख के दम पर हुआ था। लेकिन अब इस आदेश के आने के बाद डाक्टरों के हाथपांव फूल गए हैं। लेकिन बड़ा सवाल है कि नियमों को ताक पर रखकर मंजूरियां दी क्यों गई।
प्रदूषण कंट्रोल बोर्ड के दफतर से कुल एक किलोमीटर की दूरी पर बन रही इस कॉलोनी के कर्ताधर्ताओं को बोर्ड के अधिकारी ने 23 जून 2014, 18 जुलाई 2014, 4 अगस्त 2014, 7 अप्रैल 2015, 18 जून 2015 और 20 अक्तूबर 2015 को चिठियां लिखकर सोसायटी को निर्माण न करने के निर्देश देते रहे। लेकिन ये काम नहीं रुका। कायदे से बोर्ड को तीन नोटिस देने के बाद सोसायटी के खिलाफ मुकद्दमा दायर कर देना चाहिए था। लेकिन बोर्ड ने ऐसा नहीं किया और काम चलता रहा। बोर्ड ने इस बारे में नगर निगम को भी अवगत कराया कि वो इस कॉलोनी का निर्माण कार्य रुकवाए। लेकिन धूमल सरकार व वीरभद्र सिंह सरकार में रसूखदारों ने ऐसा हाहाकार मचाया कि न तो काम निगम ने रुकवाया और न ही प्रदूषण नियंत्राण बोर्ड ने मुकद्दमा दायर किया।
सोसायटी ने पंथाघाटी में प्रदूषण कंट्रोल बोर्ड से बिना अनुमति लिए 20 हजार वर्ग से ज्यादा इलाके में निर्माण कर दिया।;जबकि सोसायटी ने नगर निगम से 14000 वर्ग मीटर में इस सोसायटी का निर्माण करने का नक्शा पास करवा लिया था। सारा घपला यहीं हुआ है। बताते है कि ये सारा मामला धूमल सरकार के दौरान 2008 से लेकर 2012 के बीच हो गया। अब सोसायटी के आका भांडा निगम पर फोड़ने पर आ गए है।
सोसायटी के कर्ताधर्ताओं का कहना है कि जब उन्होंने नक्शा पास करवाया तो निगम ने उन्हें ऐसा कुछ नहीं बताया कि प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से भी मंजूरी लेनी लाजिमी है। इसके अलावा पर्यावरण मंजूरी का भी कोई झमेला नहीं था। हालांकि ये कर्ताधर्ता सही कह रहे हैं। पर्यावरण मंजूरी लेने की जरूरत तब पड़ती है अगर बिल्ट अप एरिया 20 हजार वर्ग मीटर से ज्यादा हो। सूत्रों के मुताबिक जब नक्शा पास कराया गया था तो ये 20 हजार वर्ग मीटर से कम ही था। लेकिन जब सोसायटी ने पर्यावरण विभाग से पर्यावरण मंजूरी मांगी तो सोसायटी के दस्तावेजों में ये बिल्ट अप एरिया 21 हजार से ज्यादा सामने आ गया। मामला एनजीटी पहुंचा व अब ये आदेश आ गया है। अब देखना ये है कि इंप्लीमेंटेंशन कमेटी व सुपरवाइजरी कमेटी क्या करती है।

सरकार की सेहत पर भारी पड़ेगा प्रस्तावित राष्ट्रीय राज मार्गो का विकास

शिमला/शैल। केन्द्र सरकार ने हिमाचल को 70 राष्ट्रीय उच्च मार्ग दिये है। इन राजमार्गोे के दिये जाने को प्रदेश भाजपा और सरकार ने एक बड़ी उपलब्धि के रूप में प्रचारित एवम् प्रसारित किया है। कांग्रेस ने बतौर विपक्ष सरकार पर यह आरोप लगाया है कि इन राष्ट्रीय उच्च मार्गो की स्वीकृति अभी केवल सैद्धान्तिक स्तर पर ही है और इन्हें अमली शक्ल में अभी वक्त लगेगा। यह सही भी है कि अभी तक इनकी डीपीआर तक तैयार नही हो पायी है। यह सब होने में समय लगेगा लेकिन इतना तय है कि यह राज मार्ग देर सवेर शक्ल लेंगे ही। इस समय चार फोरलेन परियोजनाओं पर काम चल रहा है। इसी के साथ अब राज्य सरकार ने टीसीपी का दायरा भी पूरे प्रदेश में बढ़ा दिया है। 150 से ज्यादा नये इलाकों को टीसीपी में शामिल कर दिया है। चार फोरलेन 70 राष्ट्रीय उच्च मार्ग और पूरे प्रदेश को टीसीपी के दायरे ला देना विकास की दृष्टि से एक बड़ा कदम है। यह सारा विकास जब ज़मीन पर उतर कर हकीकत की शक्ल लेगा तब इसका सही आकलन हो पायेगा कि इससे प्रदेश के किसान बागवान और इन पर आश्रित खेती हर मज़दूर को कितना लाभ मिला है। क्योंकि इस विकास को ज़मीन पर उतारने के लिये किसान बागवान की ज़मीन अधिगृहित की जायेगी। क्योंकि विकास के लिये ज़मीन चाहिये और वह केवल किसान-बागवान के ही पास है। किसान/बागवान से क्या उसकी ज़मीन सही मुआवजा देकर ली जा रही है? भू-अधिग्रहण 2013 की सारी शर्तों की अनुपालना हो पा रही है? इसको लेकर सरकार की कथनी और करनी में आये अन्तर को लेकर इस अधिगृहण से प्रभावित लोग पिछले तीन वर्षो से संघर्षरत है। इसके लिये उन्हें प्रदेश स्तर पर संयुक्त संघर्ष समिति का गठन करना पड़ा है क्योंकि सरकार उन्हंे उचित मुआवजा नही दे रही है। इस अधिगृहण से हजारों किसान /बागवान प्रभावित हुए हैं। भाजपा जब विपक्ष में थी तब विधानसभा में भी यह मुआवजे का मुद्दा आया था और तब भाजपा ने किसानों की मांगों का समर्थन करते हुए यह मांग की थी उन्हें बाज़ार भाव का चार गुणा मुआवजा दिया जाना चाहिये। लेकिन अब सत्ता में आने पर उसी वायदे को पूरा नही कर पा रही है। संयुक्त संघर्ष समिति ने सरकार को एक माह का समय दिया है यदि इस समय सीमा में इनकी मांगे न मानी गयी तो यह लोग सड़क पर उतर आयेंगे।
भू-अधिग्रहण अधिनियम में चार गुणा मुआवजे का प्रावधान है और इसके आकलन के लिये फैक्टर दो परिभाषित है लेकिन सरकार ने एक अप्रैल 2015 को फैक्टर एक अधिसूचना जारी करके मामले को उलझा दिया। अब फैक्टर एक की अधिसूचना को रद्द करने की मांग पहला मुद्दा बन गया है। 2013 के अधिनियम के शैडयूल दो में भूमिहीन को भूमि,बेघरों को घर, बेरोजगारों को रोजगार अथवा पांच लाख की राशी देने का प्रावधान है। इसी भूमि पर आश्रित खेती हर मजदूरों के भी पुर्नवास और पुन स्र्थापना का प्रावधान है। अनुसूचितजाति और जनजाति के लोगों के लिये विशेष आर्थिक पैकेज दिये जाने की व्यवस्था है। लेकिन इस दिशा में अभी तक सरकार ऐसे लागों को चिन्हित तक नही कर पायी है जिन्हे यह सब मिलना है। मकानों का मुआवजा वर्तमान दरों की बजाये 2014 की दरों पर दिया जा रहा है। इसमें 12ः की दर से ब्याज दिये जाने का भी प्रावधान है और कुछ को यह ब्याज दे भी दिया गया है। पेड़, पौधों व अन्य फसलों का मूल्याकांन 1979 में बने ‘‘हरवंस सिंह फाॅर्मूले’’के आधार पर दिया जा रहा है जबकि यह आकलन 2018 के आधार पर किये जाने की मांग है। इस तरह अधिग्रहण से जुड़े इतने मुद्देे हो गये हैं जिनको हल करने के लिये सरकार पर भारी वित्तिय बोझ पड़ेगा। अभी तो मुआवजे की यह मांगे फोरलेन के लिये ली गयी ज़मीन तक ही सीमित है। जब 70 राष्ट्रीय उच्च मार्गों का काम शुरू होगा तब प्रदेश का हर हिस्सा इससे प्रभावित होगा और यह मांग रखेगा।
इस भू-अधिग्रहण के साथ ही अब लोगों की दिक्कत टीसीपी का दायरा पूरे प्रदेश में बढ़ाने से और बढ़ेगी। क्योंकि यह सारे क्षेत्र अब प्लानिंग एरिया में आ जायेंगे। यहां पर होने वाले निर्माणों पर प्लानिंग के नियम/कानून लागू होंगे। एनजीटी के आदेश के बाद अब यहां भी अढ़ाई मंजिल से ज्यादा के निर्माण नही हो पायेंगे। अभी लोगों को इसके बारे में पूरी विस्तृत जानकारी नही है। जब यह जानकारी हो जायेगी तब आम आदमी सरकार के इस फैसले पर कैस प्रतिक्रिया देता है वह रोचक होगा।

मोदी-शाह के खास अदानी प्रकरण की जांच छेड़कर जयराम की नीयत और नीति सवालों में

शिमला/शैल। जयराम सरकार ने धर्मशाला में अपनी पहली मन्त्रीपरिषद् की बैठक में बीवरेज कॉरपोरेशन के खिलाफ जांच करवाने का फैसला लिया था। लेकिन अब तक दस माह में जयराम की विजिलैन्स इस मामले पर कोई एफआईआर दर्ज नही कर पायी है। इस फैसले के बाद भाजपा द्वारा एक समय महामहिम राष्ट्रपति को वीरभद्र के खिलाफ सौंपे आरोप पत्र की बारी आयी। इस आरोप पत्रा को भी सीधे विजिलैन्स को भेजने की बजाये इस पर पहले संबंधित विभागों से रिपोर्ट मांगी गयी। इस आरोप पत्र के एक भी आरोप पर अब तक कोई मामला दर्ज नही हो पाया है। इसके बाद 2010-11 में भू-खरीद के लिये भू-सुधार अधिनियम की धारा 118 के तहत दी गयी अनुमतियों में हुए घोटाले की जांच करवाने की बात आयी। इसमें विजिलैन्स ने उस मामले को पुनः से शुरू कर दिया जिसमें पहले खुद ही क्लोज़र रिपोर्ट डाल रखी थी। इस क्लोज़र रिपोर्ट को वापिस लेकर जांच शुरू की गयी। लेकिन जब यह सामने आया कि धारा 118के तहत अनुमति की स्वीकृति या अस्वीकृति केवल मुख्यमन्त्री ही दे सकता है और इस जांच को पूरा करने के लिये तत्कालीन मुख्यमन्त्रा के ब्यान लेना अनिवार्य होगा तब यह जांच भी अब एक मोड़ पर आकर रूक गयी है। अब अदानी के 280 करोड़ वापिस देने के एक समय लिये गये फैसले की जांच किये जाने की चर्चा उठ पड़ी है। यह जांच की चर्चा कहां तक पहुंचती है इसका खुलासा तो आने वाले दिनों में ही होगा। लेकिन इन दस माह में भ्र्रष्टाचार के खिलाफ उठाये गये यह कदम चर्चा का विषय बने हुए हैं और यह आकलन किया जा रहा है कि जयराम की नीयत क्या है? क्या वह सही में ही इन मामलों की जांच करना चाहती है या फिर वरिष्ठ अफसरशाही ने उसे अपने चक्रव्यूह में उलझा लिया है।
क्योंकि बीवरेज कॉरपोरेशन का मामला वीरभद्र सरकार के दौर का एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। इसमें करीब पचास करोड़ का घपला होने का आरोप भाजपा अपने ही आरोप पत्र मे लगा चुकी है। स्मरणीय है कि बीवरेज कॉरपोरेशन में किसी भी राजनीतिक व्यक्ति का सिवाय मन्त्री के सीधा दखल नही रहा है। इसमें यदि कोई घपला हुआ है तो वह इससे जुड़े अधिकारियों के स्तर पर ही हो सकता है। लेकिन इस कॉरपोरेशन मे जो अधिकारी उस समय जुड़े रहे हैं वह आज जयराम सरकार में भी महत्वपूर्ण भूमिकाओं में बैठे हुए हैं। ऐसे में स्पष्ट है कि यह लोग अपने ही खिलाफ कोई जांच कैसे होने देंगे।
इसी तरह भाजपा के आरोप पत्र पर जब संबंधित विभागों से पहले रिपोर्ट लेने का फैसला लिया गया और रिपोर्ट ली गयी तब यह स्पष्ट हो गया था कि इस आरोप पत्र का अंजाम भी पहले के आरोप पत्रों की तरह होगा। यह तय है कि जयराम की विजिलैन्स इसमें कोई मामला दर्ज नही कर पायेगी। जब यह आरोप पत्रा सौंपा गया था तब भाजपा ने विधानसभा पर इसकी सीबीआई से जांच करवाने की मांग की थी। ऐसे ही जब धारा 118 के तहत दी गयी अनुमतियों की जांच पर कदम उठाया तब जब यह सामने आया कि इसके लिये तो गुलाब सिंह और धूमल तक पहुंचना पड़ेगा तब इसे ठण्डे बस्ते में डाल दिया गया है। इसी तर्ज पर अब अदानी के 280 करोड़ लौटाने के फैसले की जांच का मुद्दा है। सब जानते हैं कि अदानी के प्रधानमन्त्री मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमिताशाह के साथ घनिष्ठ संबंध है। इन्ही संबंधों के परिदृश्य में वीरभद्र शासन में यह पैसा लौटाने का फैसला लिया गया था जो किसी कारण से पूरा नही हो पाया। परन्तु अब जब जयराम सरकार यह पैसा लौटाने के फैसले की जांच करने की बात कर रही है तो उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि यह सरकार भी इस पैसे को आने वाले दिनों में चाहकर भी वापिस नही कर पायेगी। जबकि पिछले दिनों यह चर्चा चल पड़ी थी कि इस पैसे को यह सरकार वापिस कर देगी। अब यह जांच किये जाने का असर अदानी पर क्या पड़ता है। इसका पता आने वाले दिनों में ही चलेगा। लेकिन इन सारे फैसलों से यह स्पष्ट हो जाता है कि इन फैसलों पर कोई अमल नही हो पायेगा।
ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि जयराम सरकार आखिर भ्रष्टाचार के फ्रन्ट पर कर क्या रही है। क्योंकि जंहा इन मसलों पर जांच की बात की जा रही है वहीं पर स्वयं ऐसे फैसले कर रही है जिनसे सीधे राजस्व का सरकार को नुकसान हो रहा है और दूसरों को नाजायज़ लाभ पंहुचाया जा रहा है। दीपक सानन को दिया गया स्टडीलीव लाभ सीधे भ्रष्टाचार में आता है। फिर धारा 118 के तहत अनुमति लेकर ज़मीन खरीद कर लिया गया टीडी लाभ भी भ्रष्टाचार में ही आता है। यही नही विनित चौधरी से भी बांड की रिकवरी नकारना भी भ्रष्टचार है। सहकारी बैंको में हुई भर्तियों के मामले में सरकार की ओर से पूरे दस्तावेजों के साथ विजिलैन्स को मामला दर्ज करने की शिकायत गयी थी लेकिन इस पर भी विजिलैन्स ने अब तक मामला दर्ज नही किया है। जबकि सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के अनुसार शिकायत मिलने के एक सप्ताह के भीतर मामला दर्ज हो जाना चाहिये।

अब सर्वोच्च न्यायालय ने राजेन्द्र सिंह बनाम सतलुज जलविद्युत निगम में 24.9.18 को दिये फैसले में राजेन्द्र सिंह और उनके वारिसों के आचरण को फ्राड करार दिया है। स्पष्ट है कि जब अदालत ने इस आचरण को फ्राड कहा है तब यह सरकार की जिम्मेदारी हो जाती है कि वह इस पर मामला दर्ज करके फ्राड में शामिल सबको चिन्हित करके उनके खिलाफ कारवाई करे। इस फैसले में तो तीन माह के भीतर 12ः ब्याज सहित सारे पैसे की रिकवरी करने के भी आदेश अदालत ने कर रखें हैं और इसकी रिपोर्ट तलब की है। लेकिन जयराम की टीम के लोगों को इस फैसले की जानकरी तक नही है। इस परिदृश्य में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि भ्रष्टाचार को लेकर जयराम की नीयत और नीति क्या है। क्योंकि जिन मुद्दों पर जयराम हाथ डाल चुके हैं उनकी जांच वीरभद्र, प्रेम कुमार धमूल और मोदी-शाह के खास अदानी तक पहुंचना अनिवार्य है। ऐसे में क्या जयराम ने इन सबको साधने के लिये इस तरह रणनीति अपनाई है या फिर अफसरशाही ने अपनी चाल चलकर जयराम को इन सबके साथ इक्टठे भिड़ा दिया है। इस वस्तुस्थिति में इन मुद्दों का किसी निर्णायक अंजाम तक पहुंच पाना संभव नही लग रहा है और यही जयराम की परीक्षा भी सिद्ध होने जा रही है।

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